ब्रह्मवैवर्तपुराण-गणपतिखण्ड-अध्याय 43
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
तैंतालीसवाँ अध्याय
परशुराम के न मानने पर गणेश द्वारा उन्हें स्तम्भित करके अपनी सूँड़ में लपेटकर सभी लोकों में घुमाते हुए गोलोक में श्रीकृष्ण का दर्शन कराकर भूतल पर छोड़ देना, होश में आने पर परशुराम का कुपित होकर गणेश पर फरसे का प्रहार करना, गणेश का एक दाँत टूट जाना, देवलोक में हाहाकार, पार्वती का रुदन और शिव से प्रार्थना

नारायण बोले गणेशजी विनयपूर्वक ही परशुराम को रोकते रहे, पर जब परशुराम ने बलपूर्वक जाना चाहा तो गणेशजी ने रोक दिया। तब परस्पर में वाग्युद्ध और कर-ताड़न होने लगा । अन्त में परशुराम ने गणेशजी पर अपना फरसा उठा लिया। तब कार्तिकेय ने बीच में आकर उन्हें समझाया। परशुराम ने गणेशजी को धक्का दे दिया, वे गिर पड़े। फिर उठकर उन्होंने परशुराम को फटकारा। इस पर परशुराम ने पुनः कुठार उठा लिया। तब गणेशजी ने अपनी सूँड़ को बहुत लंबा कर लिया और उसमें परशुराम को लपेटकर वे घुमाने लगे। जैसे छोटे से साँप को गरुड़ ऊपर उठा लेता है, वैसे ही अपने योगबल से शिवपुत्र गणेश ने उनको उठाकर स्तम्भित कर दिया और सप्तद्वीप, सप्तपर्वत, सप्तसागर, भूर्लोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक, जनलोक, तपोलोक, ध्रुवलोक, गौरीलोक, शम्भुलोक उनको दिखा दिये । तदनन्तर उन्हें गम्भीर समुद्र में फेंक दिया। जब वे तैरने लगे तो पुनः पकड़कर उठा लिया और घुमाते हुए वैकुण्ठ दिखलाकर फिर गोलोकधाम में भगवान् श्रीकृष्ण के दर्शन कराये ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

उस समय भगवान् रत्नाभरणों से विभूषित हो रत्ननिर्मित सिंहासन पर आसीन थे । राधाजी उनके वक्षःस्थल से सटी हुई थीं। तेज में वे करोड़ों सूर्यों के समान प्रभाशाली थे। उनके दो भुजाएँ थीं, हाथ में मुरली शोभा पा रही थी, परम मनोहर रूप था और वे मन्द मन्द मुस्करा रहे थे । इस प्रकार श्रीकृष्ण के दर्शन कराकर उनसे बारंबार प्रणाम कराया। यों सम्पूर्ण पापों का पूर्णतया नाश कर देने वाले इष्टदेव श्रीकृष्ण के दर्शन कराकर गणेशजी ने परशुराम के भ्रूण-हत्या-जनित पाप को दूर कर दिया। यों तो पापजनित यातना भोगे बिना नष्ट नहीं होती, किंतु परशुराम को थोड़ी ही भोगनी पड़ी और सब श्रीकृष्ण के दर्शन से नष्ट हो गयी । क्षणभर के बाद परशुराम की चेतना लौट आयी और वे वेगपूर्वक भूतल पर गिर पड़े। उस समय उनका गणेश द्वारा किया गया स्तम्भन भी दूर हो गया।

तब उन्होंने अपने अभीष्टदेव श्रीकृष्ण, अपने गुरु जगद्गुरु शम्भु तथा गुरु द्वारा दिये गये परम दुर्लभ स्तोत्र और कवच का स्मरण किया । मुने! तदनन्तर परशुराम ने अपने अमोघ फरसे को, जिसकी प्रभा ग्रीष्म ऋतु के मध्याह्नकालिक सूर्य की प्रभा से सौगुनी थी और जो तेज में शिव-तुल्य था, गणेश पर चला दिया । पिता के उस अमोघ अस्त्र को आते देखकर स्वयं गणपति ने उसे अपने बायें दाँत से पकड़ लिया; उस अस्त्र को व्यर्थ नहीं होने दिया। तब महादेवजी के बल से वह फरसा वेगपूर्वक गिरकर मूल सहित गणेश के दाँत को काटकर पुनः परशुराम के हाथ में लौट आया ।

यह देखकर वीरभद्र, कार्तिकेय और क्षेत्रपाल आदि पार्षद तथा आकाश में देवगण महान् भय से भीत होकर हाहाकार करने लगे । इधर वह दाँत खून से सनकर शब्द करता हुआ भूमि पर गिर पड़ा, मानो गेरु से युक्त स्फटिक का पर्वत धराशायी हो गया हो। विप्रवर ! उस महान् शब्द से भयभीत होकर पृथ्वी काँप उठी। सभी कैलासवासी प्राणी उसी क्षण डर के मारे मूर्च्छित हो गये। उस समय निद्रा के स्वामी जगदीश्वर शिव की निद्रा भंग हो गयी। वे घबराये हुए पार्वती के साथ अन्तःपुर से बाहर आये । मुने ! उस समय गणेश घायल हो गये थे, उनका दाँत टूट गया था और मुख रक्त से सराबोर था । उनका क्रोध शान्त हो गया था और वे लज्जित होकर मुस्कराते हुए सिर झुकाये हुए थे ।

उन्हें इस दशा में सामने देखकर पार्वती ने शीघ्र ही स्कन्द से पूछा — ‘बेटा! यह क्या बात है ?’ तब स्कन्द ने भयपूर्वक पूर्वापर का सारा वृत्तान्त उनसे कह सुनाया। उसे सुनकर दुर्गा को क्रोध आ गया। वे कृपापरवश हो रोने लगीं और शम्भु के सामने अपने पुत्र गणेश को छाती से लगाकर सती-साध्वी पार्वती ने शोक के कारण डरकर विनयपूर्वक शम्भु को समझाया और फिर प्रणत होकर प्रणत की पीड़ा हरने वाले पतिदेव से कहने लगीं।   (अध्याय ४३ )

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराणे गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे गणेशदन्तभङ्‌गकारणवर्णनं नाम त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४३ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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