ब्रह्मवैवर्तपुराण-गणपतिखण्ड-अध्याय 46
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
छियालीसवाँ अध्याय
सबका स्तवन-पूजन और नमस्कार करके परशुराम का जाने के लिये उद्यत होना, गणेश-पूजा में तुलसी – निषेध के प्रसङ्ग में गणेश -तुलसी के संवाद का वर्णन तथा गणपति-खण्ड का श्रवण – माहात्म्य

श्रीनारायण कहते हैं — नारद! इस प्रकार परशुराम ने हर्षमनचित्त से दुर्गा की स्तुति करके पुनः श्रीहरि द्वारा बतलाये गये स्तोत्र से गणेश का स्तवन किया। तत्पश्चात् नाना प्रकार के नैवेद्यों, धूपों, दीपों, गन्धों और तुलसी के अतिरिक्त अन्य पुष्पों से भक्तिपूर्वक उनकी पूजा की। इस प्रकार परशुराम ने भक्तिभावसहित भाई गणेश का भलीभाँति पूजन करके गुरुपत्नी पार्वती और गुरुदेव शिव को नमस्कार किया तथा शंकर की आज्ञा ले वे वहाँ से जाने को उद्यत हुए ।

नारदजी ने पूछा — प्रभो ! परशुराम ने जब विविध नैवेद्यों तथा पुष्पों द्वारा भगवान् गणेश की पूजा की थी, उस समय उन्होंने तुलसी को छोड़ क्यों दिया ? मनोहारिणी तुलसी तो समस्त पुष्पों में मान्य एवं धन्यवाद की पात्र हैं; फिर गणेश उस सारभूत पूजा को क्यों नहीं ग्रहण करते ?

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

श्रीनारायण बोले — नारद ! ब्रह्मकल्पमें एक ऐसी घटना घटित हुई थी, जो परम गुह्य एवं मनोहारिणी है । उस प्राचीन इतिहास को मैं कहता हूँ, सुनो।

एक समय की बात है। नवयौवन-सम्पन्ना तुलसीदेवी नारायण-परायण हो तपस्या के निमित्त से तीर्थों में भ्रमण करती हुई गङ्गा-तट पर जा पहुँचीं। वहाँ उन्होंने गणेश को देखा, जिनकी नयी जवानी थी; जो अत्यन्त सुन्दर, शुद्ध और पीताम्बर धारण किये हुए थे; जिनके सारे शरीर में चन्दन की खौर लगी थी; जो रत्नों के आभूषणों से विभूषित थे; सुन्दरता जिनके मन का अपहरण नहीं कर सकती; जो कामनारहित, जितेन्द्रियों में सर्वश्रेष्ठ और योगीन्द्रों के गुरु-के-गुरु हैं तथा मन्द मन्द मुस्कराते हुए जन्म, मृत्यु और बुढ़ापा का नाश करने वाले श्रीकृष्ण के चरणकमलों का ध्यान कर रहे थे; उन्हें देखते ही तुलसी का मन गणेश की ओर आकर्षित हो गया।

तब तुलसी उनसे लम्बोदर तथा गजमुख होने का कारण पूछकर उनका उपहास करने लगी ।

ध्यान-भङ्ग होने पर गणेशजी ने पूछा — ‘वत्से ! तुम कौन हो ? किसकी कन्या हो ? यहाँ तुम्हारे आनेका क्या कारण है ? माता ! यह मुझे बतलाओ; क्योंकि शुभे! तपस्वियों का ध्यान भङ्ग करना सदा पापजनक तथा अमङ्गलकारी होता है । शुभे ! श्रीकृष्ण कल्याण करें, कृपानिधि विघ्न का विनाश करें और मेरे ध्यान-भङ्ग से उत्पन्न हुआ दोष तुम्हारे लिये अमङ्गलकारक न हो ।’

इस पर तुलसी ने कहा — प्रभो ! मैं धर्मात्मज की नवयुवती कन्या हूँ और तपस्या में संलग्न हूँ। मेरी यह तपस्या पति-प्राप्ति के लिये है; अतः आप मेरे स्वामी हो जाइये ।

तुलसी की बात सुनकर अगाध बुद्धिसम्पन्न गणेश श्रीहरि का स्मरण करते हुए विदुषी तुलसी से मधुरवाणी में बोले ।

गणेश ने कहा — हे माता ! विवाह करना बड़ा भयंकर होता है; अतः इस विषय में मेरी बिलकुल इच्छा नहीं है; क्योंकि विवाह दुःख का कारण होता है, उससे सुख कभी नहीं मिलता । यह हरि-भक्ति का व्यवधान, तपस्या के नाश का कारण, मोक्षद्वार का किवाड़, भव-बन्धन की रस्सी, गर्भवासकारक, सदा तत्त्वज्ञान का छेदक और संशयों का उद्गमस्थान है । इसलिये महाभागे ! मेरी ओर से मन लौटा लो और किसी अन्य पति की तलाश करो ।

गणेश के ऐसे वचन सुनकर तुलसी को क्रोध आ गया। तब वह साध्वी गणेश को शाप देते हुए बोली ‘तुम्हारा विवाह होगा ।’ यह सुनकर शिव-तनय सुरश्रेष्ठ गणेश ने भी तुलसी को शाप दिया ‘ देवि! तुम निस्संदेह असुर द्वारा ग्रस्त होओगी। तत्पश्चात् महापुरुषों के शाप से तुम वृक्ष हो जाओगी।’

नारद! महातपस्वी गणेश इतना कहकर चुप हो गये । उस शाप को सुनकर तुलसी ने फिर उस सुरश्रेष्ठ गणेश की स्तुति की। तब प्रसन्न होकर गणेश ने तुलसी से कहा ।

गणेश बोले — मनोरमे ! तुम पुष्पों की सारभूता होओगी और कलांश से स्वयं नारायण की प्रिया बनोगी। महाभागे! यों तो सभी देवता तुमसे प्रेम करेंगे, परंतु श्रीकृष्ण के लिये तुम विशेष प्रिय होओगी । तुम्हारे द्वारा की गयी पूजा मनुष्यों के लिये मुक्तिदायिनी होगी और मेरे लिये तुम सर्वदा त्याज्य रहोगी ।

तुलसी से यों कहकर सुरश्रेष्ठ गणेश पुनः तप करने चले गये । वे श्रीहरि की आराधना में व्यग्र होकर बदरीनाथ के संनिकट गये। इधर तुलसीदेवी दुःखित हृदय से पुष्कर में जा पहुँची और निराहार रहकर वहाँ दीर्घकालिक तपस्या में संलग्न हो गयी । नारद! तत्पश्चात् मुनिवर के तथा गणेश के शाप से वह चिरकाल तक शङ्खचूड की प्रिय पत्नी बनी रही। मुने! तदनन्तर असुरराज शङ्खचूड शंकरजी के त्रिशूल से मृत्यु को प्राप्त हो गया, तब नारायणप्रिया तुलसी कलांश से वृक्षभाव को प्राप्त हो गयी ।

यह इतिहास, जिसका मैंने तुमसे वर्णन किया है, पूर्वकाल में धर्म के मुख से सुना था। इसका वर्णन अन्य पुराणों में नहीं मिलता । यह तत्त्वरूप तथा मोक्ष प्रदान करनेवाला है। तदनन्तर महाभाग परशुराम गणेश का पूजन करके तथा शंकर और पार्वती को नमस्कार कर तपस्या के लिये वन को चले गये। इधर गणेश समस्त सुरश्रेष्ठों तथा मुनिवरों से वन्दित एवं पूजित होकर शिव-पार्वती के निकट स्थित हुए ।

जो मनुष्य इस गणपतिखण्ड को दत्तचित्त होकर सुनता है, उसे निश्चय ही राजसूय यज्ञ के फल की प्राप्ति होती है । पुत्रहीन मनुष्य श्रीगणेश की कृपा से धीर, वीर, धनी, गुणी, चिरजीवी, यशस्वी, पुत्रवान्, विद्वान्, श्रेष्ठ कवि, जितेन्द्रियों में श्रेष्ठ, समस्त सम्पदाओं का दाता, परम पवित्र, सदाचारी, प्रशंसनीय, विष्णुभक्त, अहिंसक, दयालु और तत्त्वज्ञानविशारद पुत्र पाता है। महावन्ध्या स्त्री वस्त्र, अलंकार और चन्दन द्वारा भक्तिपूर्वक गणेश की पूजा करके और इस गणपतिखण्ड को सुनकर पुत्र को जन्म देती है। जो मनुष्य नियमपरायण हो मन में किसी कामना को लेकर इसे सुनता है, सुरश्रेष्ठ गणेश उसकी सभी कामनाएँ पूर्ण कर देते हैं। विघ्ननाश के लिये यत्नपूर्वक इस गणपतिखण्ड को सुनकर वाचक को सोने का यज्ञोपवीत, श्वेत छत्र, श्वेत अश्व, श्वेतपुष्पों की माला, स्वस्तिक मिष्टान्न, तिल के लड्डू और देशकालोद्भव पके हुए फल प्रदान करना चाहिये । (अध्याय ४६)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे परशुरामागमगनै-तत्खण्डश्रवणफलवर्णनं नामषट्चत्वारिशोऽध्यायः ॥ ४६ ॥
॥ गणपतिखण्ड सम्पूर्ण ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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