February 11, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-गणपतिखण्ड-अध्याय 07 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ सातवाँ अध्याय पार्वती द्वारा व्रतारम्भ, व्रत-समाप्ति में पुरोहित द्वारा शिव को दक्षिणारूप में माँगे जाने पर पार्वती का मूर्च्छित होना, शिवजी तथा देवताओं और मुनियों का उन्हें समझाना, पार्वती का विषाद, नारायण का आगमन और उनके द्वारा पति के बदले गोमूल्य देकर पार्वती को व्रत समाप्त करने का आदेश, पुरोहित द्वारा उसका अस्वीकार, एक अद्भुत तेज का आविर्भाव और देवताओं, मुनियों तथा पार्वती द्वारा उसका स्तवन श्रीनारायणजी कहते हैं — नारद! तदनन्तर हर्ष से गद्गद हुए मन वाले शिवजी ने श्रीहरि की आज्ञा स्वीकार करके श्रीहरि के साथ किये गये माङ्गलिक वार्तालाप को प्रेमपूर्वक पार्वती से कह सुनाया। तब पार्वती का मन प्रसन्न हो गया । फिर तो उन्होंने शिवजी की आज्ञा मानकर उस मङ्गलव्रत के अवसर पर माङ्गलिक बाजा बजाया । फिर सुन्दर दाँतों वाली पार्वती ने भली-भाँति स्नान करके शरीर को शुद्ध किया और स्वच्छ साड़ी तथा चद्दर धारण किया। तत्पश्चात् जो चन्दन, अगुरु, कस्तूरी और कुंकुम से विभूषित, फल और अक्षत से सुशोभित तथा आम के पल्लव से संयुक्त था, ऐसे रत्नकलश को चावल की राशि पर स्थापित किया । ॐ नमो भगवते वासुदेवाय फिर रत्नों के उद्भव-स्थान हिमालय की कन्या सती पार्वती ने, जो रत्नों से विभूषित तथा रत्नजटित आसन पर विराजमान थी, रत्न-सिंहासनों पर समासीन मुनिश्रेष्ठों की पूजा करके चन्दन, अगुरु, कस्तूरी और रत्नाभरणों से भूषित तथा रत्नसिंहासन पर विराजमान पुरोहित की समर्चना की। इसके बाद विधि-विधान के अनुसार रत्नभूषित दिक्पालों, देवताओं, मनुष्यों और नागों को आगे स्थापित करके भक्तिपूर्वक उनका भली-भाँति पूजन किया । फिर पुण्यक-व्रत में, जिनकी अग्नि में तपाकर शुद्ध किये गये बहुमूल्य रत्नों के भूषणों, उत्तम उत्तम वस्त्रों तथा पूजनोपयोगी नाना प्रकार की सामग्रियों से पूजा की गयी थी और जो चन्दन, अगुरु, कस्तूरी और कुंकुम से सुशोभित थे, उन ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर की परम भक्तिपूर्वक समर्चना की । मुने ! तत्पश्चात् पार्वतीदेवी ने स्वस्ति-वाचन-पूर्वक व्रत आरम्भ किया । तदनन्तर उत्तम व्रत का आचरण करने वाली सती ने उस मङ्गल-कलश पर अपने अभीष्ट देवता श्रीकृष्ण का आवाहन करके उन्हें भक्तिपूर्वक क्रमशः षोडशोपचार समर्पित किया । फिर व्रत में जिन अनेक प्रकार के द्रव्यों के देने का विधान है, एक-एक करके उन सभी फलदायी पदार्थों को प्रदान किया । पुनः व्रत के लिये कहा गया उपहार, जो त्रिलोकी में दुर्लभ है, वह सब भी भक्ति सहित अर्पण किया। इस प्रकार उस सती ने वेदमन्त्रोच्चारणपूर्वक सभी पदार्थों को अर्पित करके तिल और घी से तीन लाख आहुतियों का हवन कराया और ब्राह्मणों, देवताओं तथा पूजित अतिथियों को भोजन से तृप्त किया। इस प्रकार उत्तम व्रतवाली सती ने उस पालनीय पुण्यक-व्रत में सारे कर्तव्य को वर्ष-पर्यन्त प्रतिदिन विधान के साथ पूर्ण किया। समाप्ति के दिन विप्रवर पुरोहित ने उनसे कहा — ‘ सुव्रते ! इस उत्तम व्रत में तुम मुझे अपने पति को दक्षिणा रूप में दे दो।’ पुरोहित के इस कथन को सुनकर महामाया पार्वती उस देव-सभा के मध्य विलाप करके मूर्च्छित हो गयी; क्योंकि उस समय माया ने उनके चित्त को मोह लिया था । नारद! उन्हें मूर्च्छित देखकर उन मुनिवरों को तथा ब्रह्मा और विष्णु को हँसी आ गयी । तब उन्होंने शंकरजी को पार्वती के पास भेजा। उस समय पार्वती को होश में लाने के लिये सभासदों द्वारा प्रेरित किये जाने पर वक्ताओं में श्रेष्ठ शिवजी कहने लगे। श्रीमहादेवजी ने कहा — भद्रे ! उठो, निस्संदेह तुम्हारा कल्याण होगा। तुम होश में आकर मेरी बात सुनो। फिर जिनके कण्ठ, ओठ और तालु सूख गये थे, उन पार्वती से यों कहकर शिवजी ने उन्हें हृदय से लगा लिया और चेतना-युक्त कर दिया। तत्पश्चात् शिवजी ने हितकर, सत्य, परिमित, परिणाम में सुखप्रद, यशस्कर और फलदायक वचन कहना आरम्भ किया — देवि! जिसका वेद ने निरूपण किया है, जो सर्वसम्मत और इष्ट है, उस धर्मार्थ का इस धर्मसभा में मैं वर्णन करता हूँ, सुनो। देवि ! दक्षिणा समस्त कर्मों की सारभूता है । धर्मिष्ठे ! वह धर्म-कर्म में नित्य ही यश और फल प्रदान करने वाली है। प्रिये ! देवकार्य, पितृकार्य अथवा नित्य नैमित्तिक जो भी कर्म दक्षिणा से रहित होता है, वह सब निष्फल हो जाता है और उस कर्म से निश्चय ही दाता कालसूत्र नामक नरक में जाता है। तत्पश्चात् वह शत्रुओं से पीड़ित होकर दीनता को प्राप्त होता है । ब्राह्मण के उद्देश्य से संकल्प की हुई दक्षिणा यदि उसी समय नहीं दे दी जाती है तो वह बढ़ते-बढ़ते अनेक गुनी हो जाती है । श्रीविष्णु ने कहा —धर्मिष्ठे ! धर्म-कर्म के विषय में तुम अपने धर्म की रक्षा करो; क्योंकि धर्मज्ञे ! अपने धर्म का पूर्णतया पालन करने पर सबकी रक्षा हो जाती है । ब्रह्मा ने कहा — धर्मज्ञे ! जो किसी कारणवश धर्म की रक्षा नहीं करता है तो धर्म के नष्ट हो जाने पर उसके कर्त्ता का विनाश हो जाता है । धर्म ने कहा — साध्वि ! पति को दक्षिणारूप में देकर यत्नपूर्वक मेरी रक्षा करो। महासाध्वि ! मेरे सुरक्षित रहने पर सब कुछ कल्याण ही होगा । देवताओं ने कहा — महासाध्वि ! तुम धर्म की रक्षा करके अपने व्रत को पूर्ण करो। सती ! तुम्हारे व्रत के पूरा हो जाने पर हम लोग तुम्हारे मनोरथ को पूर्ण कर देंगे । मुनियों ने कहा — पतिव्रते ! हवन को पूरा करके ब्राह्मणों को दक्षिणा प्रदान करो । धर्मज्ञे ! हम लोगों के उपस्थित रहते अमङ्गल कैसे होगा ? सनत्कुमार ने कहा — शिवे ! या तो तुम मुझे शिव को दक्षिणारूप में दे दो, अन्यथा इस व्रत के फल को तथा चिरकाल से संचित अपनी तपस्या के फल को भी छोड़ दो। साध्वि ! इस प्रकार कर्म के दक्षिणा-रहित हो जाने पर मैं इस व्रत के फल को तथा यजमान के सारे कर्मों के फल को पा जाऊँगा । तब पार्वतीजी बोलीं — देवेश्वरो ! जिस कर्म में पति की ही दक्षिणा दी जाती है, उस कर्म से मुझे क्या लाभ? मुने! दक्षिणा देने से तथा धर्म और पुत्र की प्राप्ति से भी मेरा कौन-सा प्रयोजन सिद्ध होगा ? भला, यदि भूमि की पूजा न की जाय तो वृक्ष के पूजन से क्या फल मिलेगा ? क्योंकि कारण के नष्ट हो जाने पर कार्य की स्थिति कहाँ और फिर अन्न तथा फल कहाँ से प्राप्त हो सकते हैं ? यदि स्वेच्छानुसार प्राणों का ही त्याग कर दिया जाय तो फिर शरीर से क्या प्रयोजन है ? जिसकी दृष्टि-शक्ति ही नष्ट हो गयी है, उस आँख से क्या लाभ? सुरेश्वरो ! पतिव्रताओं के लिये पति सौ पुत्रों के समान होता है। ऐसी दशा में यदि व्रत में पति को ही दे देना है तो उस व्रत से अथवा ( व्रत के फलस्वरूप ) पुत्र से क्या सिद्ध होगा ? माना कि पुत्र पति का वंश होता है, किंतु उसका एकमात्र मूल तो पति ही है । भला, जहाँ मूलधन ही नष्ट हो जाय वहाँ उसका सारा व्यापार तो निष्फल हो ही जायगा । इस प्रकार वाद-विवाद चल ही रहा था, इसी बीच उस सभा में स्थित देवताओं और मुनियों ने आकाश में बहुमूल्य रत्नों के बने हुए एक रथ को देखा, जो पार्षदों द्वारा घिरा हुआ था । वे सभी पार्षद श्याम रंगवाले तथा चार भुजाधारी थे। उनके गले में वनमाला शोभा पा रही थी और वे रत्नाभरणों से विभूषित थे। तत्पश्चात् वैकुण्ठवासी भगवान् उस विमान से उतरकर हर्षपूर्वक उस सभा में आये। फिर तो सुरेश्वरों ने उनकी स्तुति करना आरम्भ किया । तदनन्तर जिनके चार भुजाएँ थीं; जो शङ्ख, चक्र, गदा और पद्म धारण किये हुए थे; जो लक्ष्मी और सरस्वती के स्वामी, शान्तस्वरूप, परम मनोहर और सुखपूर्वक दर्शन करने योग्य थे, परंतु भक्तिहीनों के लिये जिनका दर्शन करोड़ों जन्मों में भी नहीं हो सकता; जिनके नील रंग की आभा करोड़ों कामदेवों को मात कर रही थी; जिनका प्रकाश करोड़ों चन्द्रमाओं के समान था; जो अमूल्य रत्नों द्वारा निर्मित सुन्दर भूषणों से विभूषित थे, जो ब्रह्मा आदि देवताओं द्वारा सेवनीय हैं, भक्तगण सदा जिनका स्तवन करते हैं; जो अपने प्रकाश से आच्छादित देवर्षियों द्वारा घिरे हुए थे — उन परमेश्वर को ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि देवताओं ने एक श्रेष्ठ रत्नसिंहासन पर बैठाया और सिर झुकाकर उन्हें प्रणाम किया। उस समय उन सबकी अञ्जलियाँ बँधी हुई थीं, शरीर रोमाञ्चित थे और आँखों में आँसू छलक आये थे। तब परम बुद्धिमान् भगवान् ने मुस्कराते हुए मधुर वाणी द्वारा उनसे सारा वृत्तान्त पूछा और उनके द्वारा सब जान लेने पर कहना आरम्भ किया । श्रीनारायण बोले — सुरगणो! मेरे सिवा ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त यह सारा जगत् प्रकृति से उत्पन्न हुआ है — यह सर्वथा सत्य है । विश्व में सारे प्राणी जिस शक्ति से शक्तिमान् हुए हैं, उस शक्ति को मैंने ही प्रकाशित किया है। सृष्टि के आदि में मेरी इच्छा से वह प्रकृति-देवी मुझसे ही प्रकट हुई हैं और मेरे सृष्टि का संहार कर लेने पर वह अन्तर्हित होकर शयन करती हैं । प्रकृति ही सृष्टि की विधायिका और समस्त प्राणियों की परा जननी है । वह मेरी माया मेरे समान है, इसी कारण नारायणी कहलाती है। शम्भु ने चिरकाल तक मेरा ध्यान करते हुए तपस्या की है, इसलिये तप की फलस्वरूपा माया को मैंने उन्हें प्रदान किया है। मायारूपा पार्वती का यह व्रत लोक-शिक्षा के लिये ही है, अपने लिये नहीं है; क्योंकि त्रिलोकी में व्रतों और तपस्याओं का फल देने वाली तो ये स्वयं ही हैं। इनकी माया से सभी प्राणी मोहित हैं । फिर प्रत्येक कल्प में पुनः-पुनः इनके स्तवन, व्रत और व्रत फल की साधना से क्या लाभ ? देवताओं में श्रेष्ठ जो ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर हैं, वे मेरे ही अंश हैं तथा जीवधारी प्राणी और देवता आदि मेरी ही कलाएँ तथा कलांशरूप हैं। जैसे कुम्हार मिट्टी के बिना घट का निर्माण नहीं कर सकता तथा सोनार स्वर्ण के बिना कुण्डल बनाने में असमर्थ है, उसी तरह मैं भी शक्ति के बिना अपनी सृष्टि की रचना करने में असमर्थ हूँ। अतः सृष्टि के सृजन में शक्ति की ही प्रधानता है — यह सभी दर्शन-शास्त्रों को मान्य है। मैं समस्त देहधारियों का आत्मा, निर्लेप, अदृश्य और साक्षी हूँ। प्रकृति से उत्पन्न सभी पाञ्चभौतिक शरीर नश्वर हैं, परंतु सूर्य के समान प्रकाशमान शरीर वाला मैं नित्य हूँ । जगत् में प्रकृति सबकी आधारस्वरूपा है और मैं सबका आत्मा हूँ । वेद में ऐसा निरूपण किया गया है कि मैं आत्मा हूँ, ब्रह्मा मन हैं, महेश्वर ज्ञानरूप हैं, स्वयं विष्णु पञ्चप्राण हैं, ऐश्वर्यशालिनी प्रकृति बुद्धि है, मेधा, निद्रा आदि ये सभी प्रकृति की कलाएँ हैं और वह प्रकृति ही ये शैलराज-कन्या पार्वती हैं। मैं सनातनदेव ही वैकुण्ठ का अधिपति हूँ और मैं ही गोलोक का भी स्वामी हूँ। वहाँ गोलोक में मैं दो भुजाधारी होकर गोप और गोपियों से घिरा रहता हूँ तथा यहाँ वैकुण्ठ में मैं देवेश्वर और लक्ष्मीपति के रूप में चार भुजाएँ धारण करता हूँ और मेरे पार्षद मुझे घेरे रहते हैं । वैकुण्ठ से ऊपर पचास करोड़ योजन की दूरी पर स्थित गोलोक में मेरा निवास स्थान है, वहाँ मैं ‘गोपीनाथ’ रूप से रहता हूँ। उन्हीं द्विभुजधारी गोपीनाथ की व्रत द्वारा आराधना की जाती है और वे ही उसका फल प्रदान करते हैं। जो जिस रूप से उनका ध्यान करता है, उसे उसी रूप से उसका फल देते हैं । अतः शिवे ! तुम शिव को दक्षिणारूप में देकर अपना व्रत पूर्ण करो। फिर समुचित मूल्य देकर अपने स्वामी को वापस कर लेना । शुभे ! जैसे गौएँ विष्णु की देहस्वरूपा हैं, उसी प्रकार शिव भी विष्णु के शरीर हैं; अतः तुम ब्राह्मण को गोमूल्य प्रदान करके अपने स्वामी को लौटा लेना । यह बात श्रुतिसम्मत है; क्योंकि जैसे स्वामी यज्ञपत्नी का दान करने के लिये सदैव समर्थ है, उसी तरह यज्ञपत्नी भी स्वामी को दे डालने की अधिकारिणी है । सभा के बीच यों कहकर नारायण वहीं अन्तर्धान हो गये। इसे सुनकर सभी सभासद् हर्ष-विभोर हो गये तथा हर्ष-गद्गद हुई पार्वती दक्षिणा देने को उद्यत हुईं। तदनन्तर शिवा ने हवन की पूर्णाहुति करके शिव को दक्षिणारूप में दे दिया और उधर सनत्कुमारजी ने उस देवसभा में ‘स्वस्ति‘ ऐसा कहकर दक्षिणा ग्रहण कर ली । उस समय भयभीत होने के कारण दुर्गा का कण्ठ, ओठ और तालु सूख गया था, वे हाथ जोड़कर दुःखी हृदय से ब्राह्मण से बोलीं । पार्वतीजी ने कहा — विप्रवर! ‘गौ का मूल्य मेरे पति के बराबर है’ — ऐसा वेद में कहा गया है, अतः मैं आपको एक लाख गौएँ प्रदान करूँगी। आप मेरे स्वामी को लौटा दीजिये । पति के मिल जाने पर मैं ब्राह्मणों को अनेक प्रकार की दक्षिणाएँ बाँटूँगी । (अभी तो मैं आत्महीन हूँ, ऐसी दशा में) भला, आत्मा से रहित शरीर कौन-सा कर्म करने में समर्थ हो सकता है ? सनत्कुमारजी बोले — देवि ! मैं ब्राह्मण हूँ। मुझे एक लाख गौओं से क्या प्रयोजन है और इस अमूल्य रत्न को गौओं के बदले देने से भी क्या लाभ होगा ? त्रिलोकी में सभी लोग स्वयं अपने-अपने कर्म कर्ता हैं। क्या कर्ता का अभीष्ट कर्म कहीं दूसरे की इच्छा से होता है ? मैं इन दिगम्बर को आगे करके तीनों लोकों में भ्रमण करूँगा । उस समय ये बालक-बालिकाओं के समुदाय के लिये हँसी के कारण होंगे । मुने! उस देवसभा में यों कहकर ब्रह्मा के पुत्र तेजस्वी सनत्कुमार ने शंकरजी को अपने संनिकट बैठा लिया। इस प्रकार कुमार द्वारा शंकरजी को ग्रहण किये जाते देखकर पार्वती के कण्ठ, ओठ और तालु सूख गये । वे शरीर छोड़ देने के लिये उद्यत हो गयीं। उस समय वे मन-ही-मन सोचने लगीं कि यह कैसी कठिन बात हुई कि न तो अभीष्टदेव का दर्शन मिला और न व्रत का फल ही प्राप्त हुआ। इसी बीच पार्वती सहित देवताओं ने आकाश में एक परमोत्कृष्ट तेज-समूह देखा । उसकी प्रभा करोड़ों सूर्यो की प्रभा से उत्कृष्ट थी, वह दसों दिशाओं को प्रज्वलित कर रहा था और सम्पूर्ण देवताओं से युक्त कैलास पर्वत को तथा सबको आच्छादित कर रहा था । उसकी मण्डलाकृति बड़ी विस्तृत थी । भगवान् के उस तेज को देखकर देवता लोग क्रमशः उनकी स्तुति करने लगे । विष्णु ने कहा — भगवन् ! यह जो महाविराट् है, जिसके रोमछिद्रों में सभी ब्रह्माण्ड वर्तमान हैं, वह जब आपका सोलहवाँ अंश है, तब हम लोगों की क्या गणना है ? ब्रह्मा ने कहा — परमेश्वर ! जो वेदों के उपयुक्त दृश्य है, उसका प्रत्यक्ष दर्शन करने, स्तवन करने तथा वर्णन करने में मैं समर्थ हूँ; परंतु जो वेदों से परे है, उसकी मैं क्या स्तुति करूँ ? श्रीमहादेवजी ने कहा — भगवन्! जो सबके लिये अनिर्वचनीय, स्वेच्छामय, व्यापक और ज्ञान से परे हैं, उन आपका मैं ज्ञान का अधिष्ठातृदेवता होकर किस प्रकार स्तवन करूँ ? धर्म ने कहा — जो अदृश्य होते हुए भी अवतार के समय सभी प्राणियों के लिये दृश्य हो जाते हैं, उन भक्तों के मूर्तिमान् अनुग्रहस्वरूप तेजोरूप की मैं कैसे स्तुति करूँ ? देवताओं ने कहा — देवेश्वर ! भला जिनका गुणगान करने में वेद समर्थ नहीं हैं तथा सरस्वती की शक्ति कुण्ठित हो जाती है, उन आपका स्तवन करने के लिये हमलोग कैसे समर्थ हो सकते हैं; क्योंकि हम तो आपके कलांश हैं। मुनियों ने कहा — देव! वेदों को पढ़कर विद्वान् कहलाने वाले हम लोग वेदों के कारणस्वरूप आपकी स्तुति कैसे कर सकते हैं? आप मन-वाणी के परे हैं; आपका स्तवन सरस्वती भी नहीं कर सकतीं। सरस्वती ने कहा — अहो ! यद्यपि वेदवादी लोग मुझे वाणी की अधिष्ठातृदेवी कहते हैं, तथापि आपकी स्तुति करने के लिये मुझमें कुछ भी शक्ति नहीं है; क्योंकि आप वाणी और मन के अगोचर हैं । सावित्री ने कहा — नाथ ! प्राचीनकाल में मेरी उत्पत्ति आपकी कला से हुई थी। मैं वेदों की जननी हूँ। अतः स्त्रीस्वभाववश मैं सम्पूर्ण कारणों के भी कारणस्वरूप आपकी किस प्रकार स्तुति करूँ ? लक्ष्मी ने कहा — भगवन् ! मैं आपके अंशभूत विष्णु की पत्नी हूँ, जगत् का पालन-पोषण करने वाली हूँ और आपकी कला से उत्पन्न हुई हूँ। ऐसी दशा में जगत् की उत्पत्ति के कारणस्वरूप आपका स्तवन कैसे कर सकती हूँ ? हिमालय ने कहा — नाथ! मैं कर्म से स्थावर हूँ, अतः मुझे स्तुति करने के लिये उद्यत देखकर सत्पुरुष मेरा उपहास कर रहे हैं। मैं क्षुद्र हूँ और स्तवन करने के लिये सर्वथा अयोग्य हूँ; फिर किस प्रकार आपकी स्तुति करूँ ? मुने ! इस प्रकार जब सभी देवता, देवियाँ और मुनिगण क्रमशः उन नारायण की स्तुति करके चुप हो गये, तब जो उत्तमव्रतपरायणा, तपस्याओं और सम्पूर्ण कर्मों का फल प्रदान करने वाली और जगन्माता हैं, वे पार्वतीदेवी शिवजी की प्रेरणा से व्रत के आराध्यदेव परमात्मा की स्तुति करने को उद्यत हुईं। उस व्रतकाल में उन सती का शरीर धौतवस्त्र से आच्छादित था । वे सिर पर जटा का भार धारण किये हुए थीं। उनका रूप धधकती हुई अग्नि की लपट के समान प्रकाशमान था और वे तेज की मूर्तिमान् विग्रह जान पड़ती थीं । ॥ पार्वतीकृत कृष्ण स्तवन ॥ ॥ पार्वत्युवाच ॥ कृष्ण जानासि मां भद्रं नाहं त्वां ज्ञातुमीश्वरी । के वा जानन्ति वेदज्ञा वेदा वा वेदकारकाः ॥ १०९ ॥ त्वदंशास्त्वां न जानन्ति कथं ज्ञास्यन्ति ते कलाः । त्वं चापि तत्त्वं जानासि किमन्ये ज्ञातुमीश्वराः ॥ ११० ॥ सूक्ष्मात्सूक्ष्मतमोऽव्यक्तः स्थूलात्स्थूलतमो महान् । विश्वस्त्वं विश्वरूपश्च विश्वबीजं सनातनः ॥ १११ ॥ कार्य्यं त्वं कारणं त्वं च कारणानां च कारणम् । तेजस्स्वरूपो भगवान्निराकारो निराश्रयः ॥ ११२ ॥ निर्लिप्तो निर्गुणः साक्षी स्वात्मारामः परात्परः । प्रकृतीशो विराड्बीजं विराड्रूपस्त्वमेव च । सगुणस्त्वं प्राकृतिकः कलया सृष्टिहेतवे ॥ ११३ ॥ प्रकृतिस्त्वं पुमांस्त्वं च वेदाऽन्यो न क्वचिद्भवेत् । जीवस्त्वं साक्षिणो भोगी स्वात्मनः प्रतिबिम्बकम् ॥ ११४ ॥ कर्म त्वं कर्मबीजं त्वं कर्मणां फलदायकः । ध्यायन्ति योगिनस्तेजस्त्वदीयमशरीरि यत् । केचिच्चतुर्भुजं शान्तं लक्ष्मीकान्तं मनोहरम् ॥ ११५ ॥ वैष्णवाश्चैव साकारं कमनीयं मनोहरम् । शङ्खचक्रगदापद्मधरं पीताम्बरं परम् ॥ ११६ ॥ द्विभुजं कमनीयं च किशोरं श्यामसुन्दरम् । शान्तं गोपाङ्गनाकान्तं रत्नभूषणभूषितम् ॥ ११७ ॥ एवं तेजस्विनं भक्ताः सेवन्ते सन्ततं मुदा । ध्यायन्ति योगिनो यत्तत्कुतस्तेजस्विनं विना ॥ १३. ॥ तत्तेजो बिभ्रतां देव देवानां तेजसा पुरा । आविर्भूता सुराणां च वधाय ब्रह्मणा स्तुता ॥ ११९ ॥ नित्या तेजस्त्वरूपाऽहं धृत्वा वै विग्रहं विभो । स्त्रीरूपं कमनीयं च विधाय समुपस्थिता ॥ १२० ॥ मायया तव मायाऽहं मोहयित्वाऽसुरान्पुरा । निहत्य सर्वाञ्छैलेन्द्रमगमं तं हिमालयम् ॥ १२१ ॥ ततोऽहं संस्तुता देवैस्तारकाक्षेण पीडितैः । अभवं दक्षजायायां शिवस्त्री भवजन्मनि ॥ १२२ ॥ त्यक्त्वा देहं दक्षयज्ञे शिवाऽहं शिवनिन्दया । अभवं शैलजायायां शैलाधीशस्य कर्मणा ॥ १२३ ॥ अनेकतपसा प्राप्तः शिवश्चात्रापि जन्मनि । पाणिं जग्राह मे योगी प्रार्थितो ब्रह्मणा विभुः ॥ १२४ ॥ शृङ्गारजं च तत्तेजो नालभं देवमायया । स्तौमि त्वामेव तेनेश पुत्रदुःखेन दुःखिता ॥ १२५ ॥ व्रते भवद्विधं पुत्रं लब्धुमिच्छामि साम्प्रतम् । देवेन विहिता वेदे सांगे स्वस्वामिदक्षिणा ॥ १२६ ॥ श्रुत्वा सर्वं कृपासिन्धो कृपां मे कर्तुमर्हसि । इत्युक्त्वा पार्वती तत्र विरराम च नारद ॥ १२७ ॥ भारते पार्वतीस्तोत्रं यः शृणोति सुसंयतः । सत्पुत्रं लभते नूनं विष्णुतुल्यपराक्रमम् ॥ १२८ ॥ संवत्सरं हविष्याशी हरिमभ्यर्च्य भक्तितः । सुपुण्यकव्रतफलं लभते नात्र संशयः ॥ १२९ ॥ विष्णुस्तोत्रमिदं ब्रह्मन्सर्वसम्पत्तिवद्धर्नम् । सुखदं मोक्षदं सारं स्वामिसौभाग्यवर्द्धनम् ॥ १३० ॥ सर्वसौन्दर्य्यबीजं च यशोराशिविवर्द्धनम् । हरिभक्तिप्रदं तत्त्वज्ञानबुद्धिसुखप्रदम् ॥ १३१ ॥ पार्वतीजी बोलीं — श्रीकृष्ण ! आप तो मुझे जानते हैं; परंतु मैं आपको जानने में असमर्थ हूँ । भद्र! आपको वेदज्ञ, वेद अथवा वेदकर्ता — इनमें से कौन जानते हैं ? अर्थात् कोई नहीं । भला, जब आपके अंश आपको नहीं जानते, तब आपकी कलाएँ आपको कैसे जान सकती हैं ? इस तत्त्व को आप ही जानते हैं। आपके अतिरिक्त दूसरे लोग कौन इसे जानने में समर्थ हैं ? आप सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतम अव्यक्त, स्थूल से भी महान् स्थूलतम हैं । आप सनातन, विश्व के कारण, विश्वरूप और विश्व हैं । आप ही कार्य, कारण, कारणों के भी कारण, तेजः स्वरूप, षडैश्वर्यों से युक्त, निराकार, निराश्रय, निर्लिप्त, निर्गुण, साक्षी, स्वात्माराम, परात्पर, प्रकृति के अधीश्वर और विराट् के बीज हैं। आप ही विराट्रूप भी हैं। आप सगुण हैं और सृष्टि रचना के लिये अपनी कला से प्राकृतिक रूप धारण कर लेते हैं। आप ही प्रकृति हैं, आप ही पुरुष हैं और आप ही वेदस्वरूप हैं । आपके अतिरिक्त अन्य कहीं कुछ भी नहीं है। आप जीव, साक्षी के भोक्ता और अपने आत्मा प्रतिबिम्ब हैं । आप ही कर्म और कर्मबीज हैं तथा कर्मों के फलदाता भी आप ही हैं। योगी लोग आपके निराकार तेज का ध्यान करते हैं तथा कोई-कोई आपके चतुर्भुज, शान्त, लक्ष्मीकान्त मनोहर रूप में ध्यान लगाते हैं । नाथ ! जो वैष्णव भक्त हैं, वे आपके उस तेजस्वी, साकार, कमनीय, मनोहर, शङ्ख-चक्र-गदा-पद्मधारी, पीताम्बर से सुशोभित, रूप का ध्यान करते हैं और आपके भक्तगण परमोत्कृष्ट, कमनीय, दो भुजा वाले, सुन्दर, किशोर अवस्था वाले, श्यामसुन्दर, शान्त, गोपीनाथ तथा रत्नाभरणों से विभूषित रूप का निरन्तर हर्षपूर्वक सेवन करते हैं। योगी लोग भी जिस रूप का ध्यान करते हैं, वह भी उस तेजस्वी रूप के अतिरिक्त और क्या है ? देव! प्राचीनकाल में जब असुरों का वध करने के लिये ब्रह्माजी ने मेरा स्तवन किया, तब मैं आपके उस तेज को धारण करने वाले देवताओं के तेज से प्रकट हुई । विभो ! मैं अविनाशिनी तथा तेजः स्वरूपा हूँ । उस समय मैं शरीर धारण करके रमणीय रमणीरूप बनाकर वहाँ उपस्थित हुई। तत्पश्चात् आपकी मायास्वरूपा मैंने उन असुरों को माया द्वारा मोहित कर लिया और फिर उन सबको मारकर मैं शैलराज हिमालय पर चली गयी । तदनन्तर तारकाक्ष द्वारा पीड़ित हुए देवताओं ने जब मेरी सम्यक् प्रकार से स्तुति की, तब मैं उस जन्म में दक्ष पत्नी के गर्भ से उत्पन्न होकर शिवजी की भार्या हुई और दक्ष के यज्ञ में शिवजी की निन्दा होने के कारण मैंने उस शरीर का परित्याग कर दिया। फिर मैंने ही शैलराज के कर्मों के परिणामस्वरूप हिमालय की पत्नी के गर्भ से जन्म धारण किया । इस जन्म में भी अनेक प्रकार की तपस्या के फलस्वरूप शिवजी मुझे प्राप्त हुए और ब्रह्माजी की प्रार्थना से उन सर्वव्यापी योगी ने मेरा पाणिग्रहण किया; परंतु देवमायावश मुझे उनके शृङ्गार-जन्य तेज की प्राप्ति नहीं हुई। परमेश्वर ! इसी कारण पुत्र-दुःख से दुःखी होकर मैं आपका स्तवन कर रही हूँ और इस समय आपके सदृश पुत्र प्राप्त करना चाहती हूँ; परंतु अङ्गोंसहित वेद में आपने ऐसा विधान बना रखा है कि इस व्रत में अपने स्वामी की दक्षिणा दी जाती है (जो बड़ा दुष्कर कार्य है ) । कृपासिन्धो! यह सब सुनकर आपको मुझ पर कृपा करनी चाहिये । नारद! वहाँ ऐसा कहकर पार्वती चुप हो गयीं। जो मनुष्य मन को पूर्णतया एकाग्र करके भारतवर्ष में इस पार्वतीकृत स्तोत्र को सुनता है, उसे निश्चय ही विष्णु के समान पराक्रमी उत्तम की प्राप्ति होती है । जो वर्षभर तक हविष्यान्न का भोजन करके भक्तिभाव से श्रीहरि की अर्चना करता है, वह इस उत्तम पुण्यक व्रत के फल को पाता है, इसमें तनिक भी संशय नहीं है । ब्रह्मन् ! यह विष्णु का स्तवन सम्पूर्ण सम्पत्तियों की वृद्धि करनेवाला, सुखदायक, मोक्षप्रद, साररूप, स्वामी के सौभाग्य का वर्धक, सम्पूर्ण सौन्दर्य का बीज, यश की राशि को बढ़ानेवाला, हरि-भक्ति का दाता और तत्त्वज्ञान तथा बुद्धि की विशेषरूप से उन्नति करने वाला है । (अध्याय ७) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे तृतीये गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे पुण्यकव्रते पतिदाने पार्वतीकृतं श्रीकृष्णस्तोत्रकथनं नाम सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. 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