February 11, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-गणपतिखण्ड-अध्याय 08 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ आठवाँ अध्याय पार्वती की स्तुति से प्रसन्न हुए श्रीकृष्ण का पार्वती को अपने रूप के दर्शन कराना, वर प्रदान करना और बालकरूप से उनकी शय्या पर खेलना श्रीनारायण कहते हैं — नारद! पार्वती द्वारा किये गये उस स्तवन को सुनकर करुणानिधि श्रीकृष्ण ने पार्वती को अपने उस स्वरूप के, जो सबके लिये अदृश्य और परम दुर्लभ है, दर्शन कराये । उस समय पार्वतीदेवी स्तुति करके अपने मन को एकमात्र श्रीकृष्ण में लगाकर ध्यान में संलग्न थीं। उन्होंने उस तेजोराशि के मध्य सबको मोहित करने वाले श्रीकृष्ण के स्वरूप का दर्शन किया। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ददर्श तेजसां मध्ये स्वरूपं सर्वमोहनम् ॥ २ ॥ सद्रत्नसाररचिते हीरकेण परिष्कृते । युक्ते माणिक्यमालाभी रत्नपूर्णे मनोरमे ॥ ३ ॥ पीतांशुकं वह्निशुद्धं वरं वंशकरं परम् । वनमालागलं श्यामं रत्नभूषणभूषितम् ॥ ४ ॥ किशोरवयसं चित्रवेषं वै चन्दनांकितम् । चारुस्मितास्यमीड्यं तच्छारदेन्दुविनिन्दकम् ॥ ९ ॥ मालतीमाल्यसंयुक्तं केकिपिच्छावचूडकम् । गोपांगनापरिवृतं राधावक्षस्थलोज्ज्वलम् ॥ ६ ॥ कोटिकन्दर्पलावण्यलीलाधाम मनोहरम् । अतीव हृष्टं सर्वेष्टं भक्तानुग्रहकारकम् ॥ ७ ॥ वह एक रत्नपूर्ण मनोरम आसन पर जो बहुमूल्य रत्नों का बना हुआ था, जिसमें हीरे जड़े हुए थे और जो मणियों की मालाओं से शोभित था, विराजमान था। उसके शरीर पर पीताम्बर सुशोभित था, हाथ में वंशी शोभा दे रही थी । गले में वनमाला की निराली छटा थी । शरीर का रंग श्याम था। रत्नों के आभूषण उसकी शोभा बढ़ा रहे थे । उसकी किशोर अवस्था तथा वेश-भूषा विचित्र थी। उसके ललाट पर चन्दन की खौर लगी थी । मुख पर मनोहर मुस्कान खेल रही थी। वह वन्दनीय स्वरूप शरद्-ऋतु के चन्द्रमा का उपहासक तथा मालती की मालाओं से युक्त था। उसके मस्तक पर मयूरपिच्छ की अनोखी छवि थी । गोपाङ्गनाएँ उसे घेरे हुए थीं। वह राधा के वक्षःस्थल को उद्भासित कर रहा था, उसकी लावण्यता करोड़ों कामदेवों को मात कर रही थी, वही लीला का धाम, मनोहर, अत्यन्त प्रसन्न, सबका प्रेमपात्र और भक्तों पर अनुग्रह करने वाला था। ऐसे उस रूप को देखकर सुन्दरी पार्वती ने मन-ही-मन उसीके अनुरूप पुत्र की कामना की और उसी क्षण उन्हें वह वर प्राप्त भी हो गया । इस प्रकार वरदानी परमात्मा ने पार्वती के मन में जिस-जिस वस्तु की कामना थी, उसे पूर्ण करके देवताओं का भी अभीष्ट सिद्ध किया। तत्पश्चात् यह तेज अन्तर्धान हो गया। तब देवताओं ने कृपापरवश हो सनत्कुमार को समझाया और उन्होंने उन उमा रहित दिगम्बर शिव को प्रसन्नचित्त वाली पार्वती को लौटा दिया। फिर तो विश्व को आनन्दित करने वाली दुर्गा ने ब्राह्मणों को अनेक प्रकार के रत्न तथा भिक्षुओं और वन्दियों को सुवर्ण दान किये। ब्राह्मणों, देवताओं तथा पर्वतों को भोजन कराया। सर्वोत्तम उपहारों द्वारा शंकरजी की पूजा की, बाजा बजवाया, माङ्गलिक कार्य कराये और श्रीहरि से सम्बन्ध रखने वाले सुन्दर गीत गवाये । इस प्रकार दुर्गा ने व्रत को समाप्त करके परम उल्लास के साथ दान देकर सबको भोजन कराया। तत्पश्चात् अपने स्वामी शिवजी के साथ स्वयं भी भोजन किया। इसके बाद उत्तम पान के सुन्दर बीड़े, जो कपूर आदि से सुवासित थे, क्रमशः सबको देकर कौतुकवश शिवजी के साथ स्वयं भी खाया । तदनन्तर पार्वतीदेवी एकान्त में भगवान् शंकर के साथ विहार करने लगीं। इसी बीच में एक ब्राह्मण दरवाजे पर आया । मुने! उस भिक्षुक ब्राह्मण का रूप तैलाभाव के कारण रूखा था, शरीर मैले वस्त्र से आच्छादित था, उसके दाँत अत्यन्त स्वच्छ थे, वह तृष्णा से पूर्णतया पीड़ित था, उसका शरीर कृश था, वह उज्ज्वल वर्ण का तिलक धारण किये हुए था, उसका स्वर बहुत दीन था और दीनता के कारण उसकी मूर्ति कुत्सित थी । इस प्रकार के उस अत्यन्त वृद्ध तथा दुर्बल ब्राह्मण ने अन्न की याचना करने के लिये दरवाजे पर डंडे के सहारे खड़े होकर महादेवजी को पुकारा । ब्राह्मण ने कहा — महादेव ! आप क्या कर रहे हैं ? मैं सात रात तक चलने वाले व्रत के समाप्त होने पर भूख से व्याकुल होकर भोजन की इच्छा से आपकी शरण में आया हूँ, मेरी रक्षा कीजिये । हे तात! आप तो करुणा के सागर हैं, अतः मुझ जराग्रस्त तथा तृष्णा से अत्यन्त पीड़ित वृद्ध की ओर दृष्टि डालिये। अरे ओ महादेव ! आप क्या कर रहे हैं ? माता पार्वती ! उठो और मुझे सुवासित जल तथा अन्न प्रदान करो। गिरिराजकुमारी ! मुझ शरणागत की रक्षा करो। माता ! ओ माता ! तुम तो जगत् की माता हो, फिर मैं जगत् से बाहर थोड़े ही हूँ; अतः शीघ्र आओ । भला, अपनी माता के रहते हुए मैं किस कारण तृष्णा से पीड़ित हो रहा हूँ? ब्राह्मण की दीन वाणी सुनकर शिव-पार्वती उठे। इसी समय शिवजी का शुक्रपात हो गया। वे पार्वती के साथ द्वार पर आये । वहाँ उन्होंने उस वृद्ध तथा दीन ब्राह्मण को देखा जो वृद्ध-अवस्था से अत्यन्त पीड़ित था । उसके शरीर में झुर्रियाँ पड़ गयी थीं। वह डंडा लिये हुए था और उसकी कमर झुक गयी थी । वह तपस्वी होते हुए भी अशान्त था । उसके कण्ठ, ओठ और तालु सूख गये थे और वह बड़ी शक्ति लगाकर उन दोनों को प्रणाम तथा उनका स्तवन कर रहा था। उसके अमृत से भी उत्तम वचन सुनकर नीलकण्ठ महादेवजी प्रसन्न हो गये। तब वे मुस्कराकर परम प्रेम के साथ उससे बोले । शंकरजी ने कहा — वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ विप्रवर ! इस समय मैं यह जानना चाहता हूँ कि आपका घर कहाँ है और आपका नाम क्या है ? इसे शीघ्र बतलाइये । पार्वतीजी बोलीं — विप्रवर! कहाँ से आपका आगमन हुआ है ? मेरा परम सौभाग्य था जो आप यहाँ पधारे। आप ब्राह्मण अतिथि होकर मेरे घर पर आये हैं, अतः आज मेरा जन्म सफल हो गया । द्विजश्रेष्ठ ! अतिथि के शरीर में देवता, ब्राह्मण और गुरु निवास करते हैं; अतः जिसने अतिथि का आदर-सत्कार कर लिया, उसने मानो तीनों लोकों की पूजा कर ली । अतिथि के चरणों में सभी तीर्थ सदा वर्तमान रहते हैं, अतः अतिथि के चरण-प्रक्षालन के जल से निश्चय ही गृहस्थ को तीर्थों का फल प्राप्त हो जाता है। जिसने अपनी शक्ति के अनुसार यथोचितरूप से अतिथि की पूजा कर ली, उसने मानो सभी तीर्थों में स्नान कर लिया तथा सभी यज्ञों में दीक्षा ग्रहण कर ली। जिसने भारतवर्ष में भक्तिपूर्वक अतिथि का पूजन कर लिया, उसके द्वारा मानो भूतल पर सम्पूर्ण महादान कर लिये गये; क्योंकि वेदों में वर्णित जो नाना प्रकार के पुण्य हैं, वे तथा उनके अतिरिक्त अन्य पुण्यकर्म भी अतिथि-सेवा की सोलहवीं कला की समानता नहीं कर सकते । इसलिये जिसके घर से अतिथि अनादृत होकर लौट जाता है, उस गृहस्थ के पितर, देवता, अग्नि और गुरुजन भी तिरस्कृत हो उस अतिथि के पीछे चले जाते हैं । जो अपने अभीष्ट अतिथि की अर्चना नहीं करता, वह बड़े-बड़े पापों को प्राप्त करता है । ब्राह्मण ने कहा — वेदज्ञे ! आप तो वेदों के ज्ञान से सम्पन्न हैं, अतः वेदोक्त विधि से पूजन कीजिये । माता ! मैं भूख-प्यास से पीड़ित हूँ । मैंने श्रुतियों में ऐसा वचन भी सुना है कि जब मनुष्य व्याधियुक्त, आहाररहित अथवा उपवास-व्रती होता है, तब वह स्वेच्छानुसार भोजन करना चाहता है । पार्वतीजी ने पूछा — विप्रवर! आप क्या भोजन करना चाहते हैं ? वह यदि त्रिलोकी में परम दुर्लभ होगा तो भी आज मैं आपको खिलाऊँगी। आप मेरा जन्म सफल कीजिये । ब्राह्मण ने कहा — सुव्रते ! मैंने सुना है कि उत्तम व्रतपरायणा आपने पुण्यक-व्रत में सभी प्रकार का भोजन एकत्रित किया है, अतः उन्हीं अनेक प्रकार के मिष्टान्नों को खाने के लिये मैं आया हूँ। मैं आपका पुत्र हूँ। जो मिष्टान्न तीनों लोकों में दुर्लभ हैं, उन पदार्थों को मुझे देकर आप सबसे पहले मेरी पूजा करें। साध्वि ! वेदवादियों का कथन है कि पिता पाँच प्रकार के होते हैं । माताएँ अनेक तरह की कही जाती हैं और पुत्र के पाँच भेद हैं। विद्यादाताऽन्नदाता च भयत्राता च जन्मदः । कन्यादाता च वेदोक्ता नराणां पितरः स्मृताः ॥ ४७ ॥ गुरुपत्नी गर्भधात्री स्तनदात्री पितुः स्वसा । स्वसा मातुः सपत्नी च पुत्रभार्य्याऽन्नदायिका ॥ ४८ ॥ भृत्यः शिष्यश्च पोष्यश्च वीर्य्यजः शरणागतः । धर्मपुत्राश्च चत्वारो वीर्य्यजो धनभागिति ॥ ४९ ॥ विद्यादाता (गुरु), अन्नदाता, भय से रक्षा करनेवाला, जन्मदाता (पिता) और कन्यादाता ( श्वशुर) — ये मनुष्यों के वेदोक्त पिता कहे गये हैं । गुरुपत्नी, गर्भधात्री (जननी), स्तनदात्री ( धाय), पिता की बहिन (बूआ ), माता की बहिन (मौसी), माता की सपत्नी ( सौतेली माता), अन्न प्रदान करने वाली (पाचिका) और पुत्रवधू – ये माताएँ कहलाती हैं । भृत्य, शिष्य, दत्तक, वीर्य से उत्पन्न (औरस) और शरणागत — ये पाँच प्रकार के पुत्र हैं । इनमें चार धर्मपुत्र कहलाते हैं और पाँचवाँ औरस पुत्र धन का भागी होता है । माता ! मैं आप पुत्रहीना का ही अनाथ पुत्र हूँ, वृद्धावस्था से ग्रस्त हूँ और इस समय भूख-प्यास से पीड़ित होकर आपकी शरण में आया हूँ। गिरिराजकिशोरी ! अन्नों में श्रेष्ठ पूड़ी, उत्तम उत्तम पके फल, आटे के बने हुए नाना प्रकार के पदार्थ, काल- देशानुसार उत्पन्न हुई वस्तुएँ, पक्वान्न, चावल के आटे का बना हुआ तिकोना पदार्थ विशेष, दूध, गन्ना, गुड़ के बने हुए द्रव्य, घी, दही, अगहनी का भात, घृत में पका हुआ व्यञ्जन, गुड़-मिश्रित तिलों के लड्डू, मेरी जानकारी से बाहर सुधा-तुल्य अन्य वस्तुएँ, कर्पूर आदि से सुवासित सुन्दर श्रेष्ठ ताम्बूल, अत्यन्त निर्मल तथा स्वादिष्ट जल – इन सभी सुवासित पदार्थों को, जिन्हें खाकर मेरी सुन्दर तोंद हो जाय, मुझे प्रदान कीजिये । आपके स्वामी सारी सम्पत्तियों के दाता तथा त्रिलोकी के सृष्टिकर्ता हैं और आप सम्पूर्ण ऐश्वर्यों को प्रदान करने वाली महालक्ष्मीस्वरूपा हैं; अतः आप मुझे रमणीय रत्न-सिंहासन, अमूल्य रत्नों के आभूषण, अग्निशुद्ध सुन्दर वस्त्र, अत्यन्त दुर्लभ श्रीहरि का मन्त्र, श्रीहरि में सुदृढ़ भक्ति, मृत्युञ्जय नामक ज्ञान, सुखप्रदायिनी दानशक्ति और सर्वसिद्धि दीजिये । सतीमाता ! आप ही सदा श्रीहरि की प्रिया तथा सर्वस्व प्रदान करनेवाली शक्ति हैं; अत: अपने पुत्र के लिये आपको कौन- सी वस्तु अदेय है ? मैं उत्तम धर्म और तपस्या में लगे हुए मन को अत्यन्त निर्मल करके सारा कार्य करूँगा, परंतु जन्म-हेतुक कामनाओं में नहीं लगूँगा; क्योंकि मनुष्य अपनी इच्छा से कर्म करता है, कर्म से भोग की प्राप्ति होती है । वे भोग शुभ और अशुभ दो प्रकार के होते हैं और वे ही दोनों सुख-दुःख के हेतु हैं । जगदम्बिके! न किसी से दुःख होता है न सुख, सब अपने कर्म का ही भोग है; इसलिये विद्वान् पुरुष कर्म से विरत हो जाते हैं । सत्पुरुष निरन्तर आनन्दपूर्वक बुद्धि द्वारा हरिका स्मरण करने से, तपस्या से तथा भक्तों के सङ्ग से कर्म को ही निर्मूल कर देते हैं; क्योंकि इन्द्रिय और उनके विषयों के संयोग से उत्पन्न हुआ सुख तभी तक रहता है, जब तक उनका नाश नहीं हो जाता, परंतु हरिकीर्तन रूप सुख सब काल में वर्तमान रहता है। सतीदेवि ! हरिध्यानपरायण भक्तों की आयु नष्ट नहीं होती; क्योंकि काल तथा मृत्युञ्जय उनपर अपना प्रभाव नहीं डाल सकते – यह ध्रुव है । वे चिरजीवी भक्त भारतवर्ष में चिरकाल तक जीवित रहते हैं और सम्पूर्ण सिद्धियों का ज्ञान प्राप्त करके स्वच्छन्दतापूर्वक सर्वत्र-गामी होते हैं । हरिभक्तों को पूर्वजन्म का स्मरण बना रहता है । वे अपने करोड़ों जन्मों को जानते हैं और उनकी कथाएँ कहते हैं; फिर आनन्द के साथ स्वेच्छानुसार जन्म धारण करते हैं । वे स्वयं तो पवित्र होते ही हैं, अपनी लीला से दूसरों को तथा तीर्थों को पवित्र कर देते हैं। इस पुण्यक्षेत्र भारत में वे परोपकार और सेवाके लिये भ्रमण करते रहते हैं । वे वैष्णव जिस तीर्थ में गोदोहन – कालमात्र भी ठहर जाते हैं तो उनके चरणस्पर्श से वसुन्धरा तत्काल ही पवित्र हो जाती है । जिन मनुष्यों को भक्तों का दर्शन अथवा आलिङ्गन प्राप्त हो जाता है, वे मानो समस्त तीर्थों में भ्रमण कर चुके और उन्हें सम्पूर्ण यज्ञों की दीक्षा मिल चुकी । जैसे सब कुछ भक्षण करने पर भी अग्नि और समस्त पदार्थों का स्पर्श करने पर भी वायु दूषित नहीं कहे जाते, उसी प्रकार निरन्तर हरि में चित्त लगाने वाले भक्त पापों से लिप्त नहीं होते । करोड़ों जन्मों के अन्त में मनुष्य जन्म मिलता है । फिर मनुष्य – योनि में बहुत-से जन्मों के बाद उसे भक्तों का सङ्ग प्राप्त होता है । सती पार्वति ! भक्तों के सङ्ग से प्राणियों के हृदय में भक्ति का अंकुर उत्पन्न होता है और भक्तिहीनों के दर्शन से वह सूख जाता है । पुनः वैष्णवों के साथ वार्तालाप करने से वह प्रफुल्लित हो उठता है। तत्पश्चात् वह अविनाशी अंकुर प्रत्येक जन्म में बढ़ता रहता है। सती ! वृद्धि को प्राप्त होते हुए उस वृक्ष का फल हरि की दासता है। इस प्रकार भक्ति के परिपक्व हो जाने पर परिणाम में वह श्रीहरि का पार्षद हो जाता है । फिर तो महाप्रलय के अवसर पर ब्रह्मा, ब्रह्मलोक तथा सम्पूर्ण सृष्टि का संहार हो जाने पर भी निश्चय ही उसका नाश नहीं होता। अम्बिके ! इसलिये मुझे सदा नारायण के चरणों में भक्ति प्रदान कीजिये; क्योंकि विष्णुमाये ! आपके बिना विष्णु में भक्ति नहीं प्राप्त होती । आपकी तपस्या और पूजन तो लोकशिक्षा के लिये हैं; क्योंकि आप नित्यस्वरूपा सनातनी देवी हैं और समस्त कर्मों का फल प्रदान करनेवाली हैं । प्रत्येक कल्प में श्रीकृष्ण गणेशरूप से आपके पुत्र बनकर आपकी गोद में आते हैं । इस प्रकार कहकर वे ब्राह्मण तुरंत ही अन्तर्धान हो गये। वे परमेश्वर इस प्रकार अन्तर्हित होकर बालरूप धारण करके महल के भीतर स्थित पार्वती की शय्या पर जा पहुँचे और जन्मे हुए बालक की भाँति घर की छत के भीतरी भाग की ओर देखने लगे। उस बालक के शरीर की आभा शुद्ध चम्पक के समान थी । उसका प्रकाश करोड़ों चन्द्रमाओं की भाँति उद्दीप्त था । सब लोग सुखपूर्वक उसकी ओर देख सकते थे । वह नेत्रों की ज्योति बढ़ानेवाला था । कामदेव को विमोहित करने वाला उसका अत्यन्त सुन्दर शरीर था। उसका अनुपम मुख शारदीय पूर्णिमा का उपहास कर रहा था । सुन्दर कमल को तिरस्कृत करने वाले उसके सुन्दर नेत्र थे । ओष्ठ और अधरपुट ऐसे लाल थे कि उसे देखकर पका हुआ बिम्बाफल भी लज्जित हो जाता था । कपाल और कपोल परम मनोहर थे। गरुड़ के चोंच की भी निन्दा करनेवाली रुचिर नासिका थी । उसके सभी अङ्ग उत्तम थे । त्रिलोकी में कहीं उसकी उपमा नहीं थी । इस प्रकार वह रमणीय शय्या पर सोया हुआ शिशु हाथ-पैर उछाल रहा था । (अध्याय ८) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे तृतीये गणेशखण्डे नारदनारायणसंवादे गणेशोत्पत्तिवर्णनं नामाष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. 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