January 28, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण – प्रकृतिखण्ड – अध्याय 13 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ तेरहवाँ अध्याय तुलसी के कथा-प्रसङ्ग में राजा वृषध्वज का चरित्र – वर्णन नारदजी ने पूछा — प्रभो ! साध्वी तुलसी भगवान् श्रीहरि की पत्नी कैसे बनी ? इसका जन्म कहाँ हुआ था और पूर्वजन्म में यह कौन थी ? इस साध्वी देवी ने किसके कुल को पवित्र किया था तथा इसके माता-पिता कौन थे ? किस तपस्या के प्रभाव से प्रकृति के अधिष्ठाता भगवान् श्रीहरि इसे पतिरूप से प्राप्त हुए? क्योंकि ये परम प्रभु तो बिलकुल निःस्पृह हैं । दूसरा प्रश्न यह है कि ऐसी सुयोग्या देवी को वृक्ष क्यों होना पड़ा और यह परम तपस्विनी देवी कैसे असुर के चंगुल में फँस गयी ? सम्पूर्ण संदेहों को दूर करनेवाले प्रभो ! आप मेरे इस संशय को मिटाने की कृपा करें। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भगवान् नारायण कहते हैं — नारद ! दक्षसावर्णि नाम से प्रसिद्ध एक पुण्यात्मा मनु हो गये हैं । भगवान् विष्णु के अंश से प्रकट ये मनु परम पवित्र, यशस्वी, विशद कीर्ति से सम्पन्न तथा श्रीहरि के प्रति अटूट श्रद्धा रखनेवाले थे। इनके पुत्र का नाम था ब्रह्मसावर्णि । उनका भी अन्तः-करण स्वच्छ था । उनके मन में धार्मिक भावना थी और भगवान् श्रीहरि पर वे श्रद्धा रखते थे । ब्रह्मसावर्णि के पुत्र धर्मसावर्णि नाम से प्रसिद्ध हुए, जिनकी इन्द्रियाँ सदा वश में रहती थीं और मन श्रीहरि की उपासना में निरत रहता था । धर्मसावर्णि से इन्द्रियनिग्रही एवं परम भक्त रुद्रसावर्णि पुत्र रूप में प्रकट हुए। इन रुद्रसावर्णि के पुत्र का नाम देवसावर्णि हुआ। ये भी परम वैष्णव थे। देवसावर्णि के पुत्र का नाम इन्द्रसावर्णि था। फिर भगवान् विष्णु के अनन्य उपासक इन इन्द्रसावर्णि से वृषध्वज का जन्म हुआ। भगवान् शङ्कर में इस वृषध्वज की असीम श्रद्धा थी। स्वयं भगवान् शङ्कर इसके यहाँ बहुत काल तक ठहरे थे । इसके प्रति भगवान् शङ्कर का स्नेह पुत्र से भी बढ़कर था । राजा वृषध्वज की भगवान् नारायण, लक्ष्मी और सरस्वती — इनमें किसी के प्रति श्रद्धा नहीं थी । उसने सम्पूर्ण देवताओं का पूजन त्याग दिया था। अभिमान में चूर होकर वह भाद्रपद मास में महालक्ष्मी की पूजा में विघ्न उपस्थित किया करता था। माघ की शुक्ल पञ्चमी के दिन समस्त देवता सरस्वती की विस्तृत रूप से पूजा करते थे; परंतु वह नरेश उसमें सम्मिलित नहीं होता था । यज्ञ और विष्णु-पूजा की निन्दा करना उसका मानो स्वभाव ही बन गया था। वह केवल भगवान् शिव में ही श्रद्धा रखता था । ऐसे स्वभाव वाले राजा वृषध्वज को देखकर सूर्य ने उसे शाप दे दिया — ‘राजन् ! तेरी श्री नष्ट हो जाय!’ भक्त पर संकट देख आशुतोष भोलेनाथ भगवान् शङ्कर हाथ में त्रिशूल उठाकर सूर्य पर टूट पड़े। तब सूर्य अपने पिता कश्यपजी के साथ ब्रह्माजी की शरण में गये । शङ्कर त्रिशूल लिये ब्रह्मलोक को चल दिये। ब्रह्मा को भी शङ्करजी का भय था, अतएव उन्होंने सूर्य को आगे करके वैकुण्ठ की यात्रा की। उस समय ब्रह्मा, कश्यप और सूर्य तीनों भयभीत थे । उन तीनों महानुभावों ने सर्वेश भगवान् नारायण की शरण ग्रहण की। तीनों ने मस्तक झुकाकर भगवान् श्रीहरि को प्रणाम किया, बारंबार प्रार्थना की और उनके सामने अपने भय का सम्पूर्ण कारण कह सुनाया। तब भगवान् नारायण ने कृपापूर्वक उन सबको अभय प्रदान किया और कहा — ‘ भयभीत देवताओ ! स्थिर हो जाओ । मेरे रहते तुम्हें कोई भय नहीं । स्मरन्ति ये यत्र तत्र मां विपत्तौ भयान्विताः । तांस्तत्र गत्वा रक्षामि चक्र हस्तस्त्वरान्वितः ॥ २१ ॥ विपत्ति के अवसर पर डरे हुए जो भी व्यक्ति जहाँ-कहीं भी मुझे याद करते हैं, मैं हाथ में चक्र लिये तुरंत वहीं पहुँचकर उनकी रक्षा करता हूँ । देवो! मैं अखिल जगत् का कर्ता-भर्ता हूँ। मैं ही ब्रह्मारूप से सदा संसार की सृष्टि करता हूँ और शङ्कर रूप से संहार। मैं ही शिव हूँ। तुम भी मेरे ही रूप हो और ये शङ्कर भी मुझसे भिन्न नहीं हैं। मैं ही नाना रूप धारण करके सृष्टि और पालन की व्यवस्था किया करता हूँ। देवताओ ! तुम्हारा कल्याण हो; जाओ, अब तुम्हें भय नहीं होगा । मैं वचन देता हूँ, आज से शङ्कर का भय तुम्हारे पास नहीं आ सकेगा। वे सर्वेश भगवान् शङ्कर सत्पुरुषों के स्वामी हैं । उन्हें भक्तात्मा और भक्तवत्सल कहा जाता है और वे सदा भक्तों के अधीन रहते हैं। ब्रह्मन् ! सुदर्शनचक्र और भगवान् शङ्कर — ये दोनों मुझे प्राणों से भी बढ़कर प्रिय हैं। ब्रह्माण्ड में इनसे अधिक दूसरा कोई तेजस्वी नहीं है। ये शङ्कर चाहें तो लीला-पूर्वक करोड़ों सूर्यो को प्रकट कर सकते हैं। करोड़ों ब्रह्माओं के निर्माण की भी इनमें पूर्ण सामर्थ्य है। इन त्रिशूलधारी भगवान् शङ्कर के लिये कोई भी कार्य असाध्य नहीं; तथापि कुछ भी बाहरी ज्ञान न रखकर ये दिन-रात मेरे ही ध्यान में लगे रहते हैं। अपने पाँच मुखों से मेरे मन्त्रों का जप करना और भक्तिपूर्वक मेरे गुण गाते रहना इनका स्वभाव – सा बन गया है। अहमेव चिन्तयामि तत्कल्याणं दिवानिशम् । ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ॥ २९ ॥ मैं भी रात-दिन इनके कल्याण की चिन्ता में ही लगा रहता हूँ; क्योंकि जो जिस प्रकार मेरी उपासना करते हैं, मैं भी उसी प्रकार उनकी सेवामें तत्पर रहता हूँ – यह मेरा नियम है।’ इतने में भगवान् शङ्कर भी वहाँ पहुँच गये । उनके हाथ में त्रिशूल था। वे वृषभ पर आरूढ़ थे और आँखें रक्तकमल के समान लाल थीं। वहाँ पहुँचते ही वे वृषभ से उतर पड़े और भक्ति-विनम्र होकर उन्होंने शान्तस्वरूप परात्पर प्रभु लक्ष्मीकान्त भगवान् नारायण को श्रद्धापूर्वक प्रणाम किया । उस समय भगवान् श्रीहरि रत्नमय सिंहासन पर विराजमान थे। रत्ननिर्मित अलङ्कारों से उनका श्रीविग्रह सुशोभित था । किरीट, कुण्डल, चक्र और वनमाला से वे अनुपम शोभा पा रहे थे । नूतन मेघ के समान उनकी श्याम कान्ति थी । उनका परम सुन्दर विग्रह चार भुजाओं से सुशोभित था और चार भुजावाले अनेक पार्षद स्वच्छ चंवर डुलाकर उनकी सेवा कर रहे थे। नारद ! उनका सम्पूर्ण अङ्ग दिव्य चन्दनों से अनुलिप्त था। वे अनेक प्रकार के भूषण और पीताम्बर धारण किये हुए थे। लक्ष्मी का दिया हुआ ताम्बूल उनके मुख में शोभा पा रहा था। ऐसे प्रभु को देखकर भगवान् शङ्कर का मस्तक उनके चरणों में झुक गया। ब्रह्मा ने शङ्करको प्रणाम किया तथा अत्यन्त डरते हुए सूर्य भी शङ्कर को प्रणाम करने लगे । कश्यप ने अतिशय भक्ति के साथ स्तुति और प्रणाम किया । तदनन्तर भगवान् शिव सर्वेश्वर श्रीहरि की स्तुति करके एक सुखमय आसन पर विराज गये। विष्णु पार्षदों ने श्वेत चँवर डुलाकर उनकी सेवा की। जब उनके मार्ग का श्रम दूर हो गया, तब भगवान् श्रीहरि ने अमृत के समान अत्यन्त मनोहर एवं मधुर वचन कहा । भगवान् विष्णु बोले — महादेव ! यहाँ कैसे पधारना हुआ ? अपने क्रोध का कारण बताइये ? महादेव ने कहा — भगवन्! राजा वृषध्वज मेरा परम भक्त है। मैं उसे प्राणों से भी बढ़कर प्रिय मानता हूँ । सूर्य ने उसे शाप दे दिया है — यही मेरे क्रोध का कारण है। जब मैं अपने कृपापात्र पुत्र के शोक से प्रभावित होकर सूर्य को मारने के लिये तैयार हुआ, तब वह ब्रह्मा की शरण में चला गया और इस समय ब्रह्मासहित उसने आपकी शरण ग्रहण कर ली है। जो व्यक्ति ध्यान अथवा वचन से भी आपके शरणापन्न हो जाते हैं, उन पर विपत्ति और संकट अपना कुछ भी प्रभाव नहीं डाल सकते। वे जरा और मृत्यु से सर्वथा रहित हो जाते हैं । भगवन्! शरणागति का फल तो प्रत्यक्ष ही है, फिर मैं क्या कहूँ ? आपका स्मरण करते ही मनुष्य सदा के लिये अभय एवं मङ्गलमय बन जाते हैं। परंतु जगत्प्रभो ! अब मेरे उस भक्त की जीवनचर्या कैसे चलेगी – यह बताने की कृपा कीजिये; क्योंकि सूर्य के शाप से उसकी श्री नष्ट हो चुकी है । उसमें सोचने-समझने की शक्ति भी तनिक सी नहीं रह गयी है । भगवान् विष्णु बोले — शम्भो ! दैव की प्रेरणा से बहुत समय बीत गया। इक्कीस युग समाप्त हो गये । यद्यपि वैकुण्ठ में अभी आधी घड़ी का समय बीता है। अतः अब आप शीघ्र अपने स्थान पर पधारिये । किसी से भी न रुकने वाले अत्यन्त भयंकर काल ने इस समय वृषध्वज को अपना ग्रास बना लिया है। यही नहीं, किंतु उसका पुत्र रथध्वज भी अब जगत् में नहीं है । इस समय रथध्वज के दो पुत्र हैं, उन महाभाग पुत्रों के नाम हैं – धर्मध्वज और कुशध्वज । वे परम वैष्णव पुरुष सूर्य के शाप से श्रीहीन होकर जीवन व्यतीत कर रहे हैं — ऐसा कहा जाता है। राज्य भी उनके हाथ में नहीं है। एकमात्र लक्ष्मी की उपासना ही उनके जीवन का उद्देश्य बन गया है। अतः उनकी भार्याओं के उदर से भगवती लक्ष्मी अपनी एक कला से प्रकट होंगी। तब वे दोनों नरेश लक्ष्मी से सम्पन्न हो जायँगे । शम्भो ! अब आपके सेवक वृषध्वज का शरीर नहीं रहा । अतः आप यहाँ से पधार सकते हैं। देवताओ ! अब आप लोग भी जाने का कष्ट करें। नारद ! इस प्रकार कहकर भगवान् श्रीहरि लक्ष्मी सहित सभा से उठे और अन्तः पुर में चले गये । देवताओं ने भी बड़ी प्रसन्नता के साथ अपने आश्रम की यात्रा की। परिपूर्णतम शङ्कर उसी क्षण तपस्या करने के विचार से चल पड़े। (अध्याय १३ ) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे तुलस्युपाख्याने त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. 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