ब्रह्मवैवर्तपुराण – प्रकृतिखण्ड – अध्याय 14
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
चौदहवाँ अध्याय
वेदवती की कथा, इसी प्रसङ्ग में भगवान् राम के चरित्र का एक अंश-कथन, भगवती सीता तथा द्रौपदी के पूर्वजन्म का वृत्तान्त

भगवान् नारायण कहते हैं — मुने ! धर्मध्वज और कुशध्वज इन दोनों नरेशों ने कठिन तपस्या द्वारा भगवती लक्ष्मी की उपासना करके अपने प्रत्येक अभीष्ट मनोरथ को प्राप्त कर लिया । महालक्ष्मी के वर-प्रसाद से उन्हें पुनः पृथ्वीपति होने का सौभाग्य प्राप्त हो गया। वे दोनों धनवान् और पुत्रवान् हो गये । कुशध्वज की परम साध्वी भार्या का नाम मालावती था । समयानुसार उसके एक कन्या उत्पन्न हुई, जो लक्ष्मी का अंश थी। वह भूमि पर पैर रखते ही ज्ञान से सम्पन्न हो गयी। उस कन्या ने जन्म लेते ही सूतिकागृह में स्पष्ट स्वर से वेद के मन्त्रों का उच्चारण किया और उठकर खड़ी हो गयी। इसलिये विद्वान् पुरुष उसे ‘वेदवती’ कहने लगे ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय


उत्पन्न होते ही उस कन्या ने स्नान किया और तपस्या करने के विचार से वह वन की ओर चल दी। भगवान् नारायण के चिन्तन में तत्पर रहने वाली उस देवी को प्रायः सभी ने रोका; परंतु उसने किसी की भी नहीं सुनी। वह तपस्विनी कन्या एक मन्वन्तर तक पुष्कर-क्षेत्र में तपस्या करती रही । उसका तप अत्यन्त कठिन था तो भी लीलापूर्वक चलता रहा । अत्यन्त तपोनिष्ठ रहने पर भी उसका शरीर हृष्ट-पुष्ट बना रहा। उसमें दुर्बलता नहीं आ सकी। वह नवयौवन से सम्पन्न बनी रही।

एक दिन सहसा उसे स्पष्ट आकाशवाणी सुनायी पड़ी ‘सुन्दरि ! दूसरे जन्म में भगवान् श्रीहरि तुम्हारे पति होंगे। ब्रह्मा प्रभृति देवता भी बड़ी कठिनता से जिनकी उपासना कर पाते हैं, उन्हीं परम प्रभु को स्वामी बनाने का सौभाग्य तुम्हें प्राप्त होगा ।’

मुने ! यह आकाशवाणी सुनने के पश्चात् रुष्ट हो वह कन्या गन्धमादन पर्वत पर चली गयी और वहाँ पहले से भी अधिक कठोर तप करने लगी । वहाँ चिरकाल तक तप करके विश्वस्त हो वहीं रहने लगी। एक दिन वहाँ उसे अपने सामने दुर्निवार रावण दिखायी पड़ा। वेदवती ने अतिथि-धर्म के अनुसार पाद्य, परम स्वादिष्ट फल और शीतल जल देकर उसका सत्कार किया। रावण बड़ा पापिष्ठ था। फल खाने के पश्चात् वह वेदवती के समीप जा बैठा और पूछने लगा – ‘कल्याणी ! तुम कौन हो और क्यों यहाँ ठहरी हुई हो ?’ वह देवी परम सुन्दरी थी । उस साध्वी कन्या के मुख पर मन्द मुस्कान की छटा छायी रहती थी।

उसे देखकर दुराचारी रावण का हृदय विकार से संतप्त हो गया। वह वेदवती को हाथ से खींचकर उसका शृंगार करने को उद्यत हुआ । रावण की इस कुचेष्टा को देखकर उस साध्वी का मन क्रोध से भर गया । उसने रावण को अपने तपोबल से इस प्रकार स्तम्भित कर दिया कि वह जडवत् होकर हाथों एवं पैरों से निश्चेष्ट हो गया । कुछ भी कहने-करने की उसमें क्षमता नहीं रह गयी । ऐसी स्थिति में उसने मन-ही-मन उस कमललोचना देवी के पास जाकर उसका मानस स्तवन किया।

शक्ति की उपासना विफल नहीं होती, इसे सिद्ध करने के विचार से देवी वेदवती रावण पर संतुष्ट हो गयी और परलोक में उसकी स्तुति का फल देना उन्होंने स्वीकार कर लिया। साथ ही उसे यह शाप दे दिया ‘दुरात्मन् ! तू मेरे लिये ही अपने बन्धु बान्धवों के साथ काल का ग्रास बनेगा; क्योंकि तूने कामभाव से मुझे स्पर्श कर लिया है; अतः अब मैं इस शरीर को त्याग देती हूँ; देख ले । ‘

देवी वेदवती ने इस प्रकार कहकर वहीं योग द्वारा अपने शरीर का त्याग कर दिया। तब रावण ने उसका मृत शरीर गङ्गा में डाल दिया और मन में इस प्रकार चिन्ता करते हुए घर की ओर प्रयाण किया – ‘अहो ! मैंने यह कैसी अद्भुत घटना देखी ? यह मैंने क्या कर डाला ? ‘ – इस प्रकार विचार कर अपने कुकृत्य और उस देवी के देहत्याग को याद करके रावण बहुत विषाद करने लगा। मुने! वह देवी साध्वी वेदवती दूसरे जन्म में जनक की कन्या हुई और उस देवी का नाम सीता पड़ा; जिसके कारण रावण को मृत्यु का मुख देखना पड़ा था ।

वेदवती बड़ी तपस्विनी थी । पूर्वजन्म की तपस्या के प्रभाव से स्वयं भगवान् श्रीराम उसके पति हुए। ये राम साक्षात् परिपूर्णतम श्रीहरि हैं। देवी वेदवती ने घोर तपस्या के द्वारा आराधना करके इन जगदीश्वर को पतिरूप में प्राप्त किया था। वह साक्षात् रमा थी। सीतारूप से विराजमान उस सुन्दरी देवी ने बहुत दिनों तक भगवान् श्रीराम के साथ सुख भोगा। उसे पूर्वजन्म की बातें स्मरण थीं, फिर भी पूर्व समय में तपस्या से जो कष्ट हुआ था, उस पर उसने ध्यान नहीं दिया। वर्तमान सुख के सामने उसने सम्पूर्ण पूर्व क्लेशों की स्मृति का त्याग कर दिया था। श्रीराम परम गुणी, समस्त सुलक्षणों से सम्पन्न, रसिक, शान्त स्वभाव, अत्यन्त कमनीय तथा स्त्रियों के लिये साक्षात् कामदेव के समान सुन्दर एवं श्रेष्ठतम देवता थे । वेदवती ने ऐसे मनोऽभिलषित स्वामी को प्राप्त किया।

कुछ काल के पश्चात् रघुकुलभूषण, सत्यसंध भगवान् श्रीराम पिता के सत्य की रक्षा करने के लिये वन में पधारे। वे सीता और लक्ष्मण के साथ समुद्र के समीप ठहरे थे । वहाँ ब्राह्मणरूपधारी अग्नि से उनकी भेंट हुई। भगवान् राम को दुःखी देखकर विप्ररूपधारी अग्नि का मन संतप्त हो उठा। तब सर्वथा सत्यवादी उन अग्निदेव ने सत्यप्रेमी भगवान् राम से ये सत्यमय वचन कहे ।

ब्राह्मणवेषधारी अग्नि ने कहा — भगवन्! मेरी कुछ प्रार्थना सुनिये। श्रीराम ! यह सीता के हरण का समय उपस्थित है। ये मेरी माँ हैं; इन्हें मेरे संरक्षण में रखकर आप छायामयी सीता को अपने साथ रखिये; फिर अग्नि-परीक्षा के समय इन्हें मैं आपको लौटा दूँगा । परीक्षा-लीला भी हो जायगी । इसी कार्य के लिये मुझे देवताओं ने यहाँ भेजा है । मैं ब्राह्मण नहीं, साक्षात् अग्नि हूँ।

भगवान् श्रीराम ने अग्नि की बात सुनकर लक्ष्मण को बताये बिना ही व्यथित-हृदय से अग्नि के प्रस्ताव को मान लिया। नारद! उन्होंने सीता को अग्नि के हाथों सौंप दिया। तब अग्नि ने योगबल से मायामयी सीता प्रकट की। उसके रूप और गुण साक्षात् सीता के समान ही थे। अग्निदेव ने उसे राम को दे दिया । माया-सीता को साथ ले वे आगे बढ़े। इस गुप्त रहस्य को प्रकट करने के लिये भगवान् राम ने उसे मना कर दिया । यहाँ तक कि लक्ष्मण भी इस रहस्य को नहीं जान सके; फिर दूसरे की तो बात ही क्या है ?

इसी बीच भगवान् राम ने एक सुवर्णमय मृग देखा। सीता ने उस मृग को लाने के लिये भगवान् राम से अनुरोध किया। भगवान् राम उस वन में जानकी की रक्षा के लिये लक्ष्मण को नियुक्त करके स्वयं मृग को मारने के लिये चले। उन्होंने बाण से उसे मार गिराया। मरते समय उस माया-मृग के मुख से ‘हा लक्ष्मण !’ – यह शब्द निकला। फिर सामने श्रीराम को देख उनका स्मरण करते हुए उसने सहसा प्राण त्याग दिये। मृग का शरीर त्यागकर वह दिव्य देह से सम्पन्न हो गया और रत्ननिर्मित दिव्य विमान पर सवार होकर वैकुण्ठधाम को चला गया।

यह मारीच पूर्वजन्म में वैकुण्ठधाम के द्वार पर वहाँ के द्वारपाल जय और विजय का किंकर था तथा वहीं रहता था। वह बड़ा बलवान् था । उसका नाम था ‘जित’ । सनकादिकों के शाप से जय-विजय के साथ वह भी राक्षस-योनि में आ गया था। उस दिन उसका उद्धार हो गया और वह उन द्वारपालों के पहले ही वैकुण्ठ के द्वार पर पहुँच गया।

तदनन्तर ‘हा लक्ष्मण’ इस कष्ट भरे शब्द को सुनकर सीता ने लक्ष्मण को राम के पास जाने के लिये प्रेरित किया । लक्ष्मण के चले जाने पर रावण सीता का अपहरण कर खेल-ही-खेल में लङ्का की ओर चल दिया। उधर लक्ष्मण को वन में देखकर राम विषाद में डूब गये। वे उसी क्षण अपने आश्रम पर गये और सीता को वहाँ न देख विलाप करने लगे । फिर, सीता को खोजते हुए वे बारंबार वन में चक्कर लगाने लगे। कुछ समय बाद गोदावरी नदी के तट पर उन्हें जटायु द्वारा सीता का समाचार मिला। तब वानरों को अपना सहायक बनाकर उन्होंने समुद्र में पुल बाँधा । उसके द्वारा लङ्का में पहुँचकर उन रघुश्रेष्ठ ने अपने बाण से बन्धु-बान्धवों सहित रावण का वध कर डाला । तत्पश्चात् उन्होंने सीता की अग्नि-परीक्षा करायी । अग्निदेव ने उसी क्षण वास्तविक सीता को भगवान् राम के सामने उपस्थित कर दिया। तब छाया-सीता ने अत्यन्त नम्र होकर अग्निदेव और भगवान् श्रीराम – दोनों से कहा – ‘महानुभावो ! अब मैं क्या करूँगी, सो बताने की कृपा कीजिये ।’

तब भगवान् श्रीराम और अग्निदेव बोले देवी! तुम तप करने के लिये अत्यन्त पुण्यप्रद पुष्करक्षेत्र में चली जाओ। वहीं रहकर तपस्या करना। इसके फलस्वरूप तुम्हें स्वर्गलक्ष्मी बनने का सुअवसर प्राप्त होगा ।

भगवान् श्रीराम और अग्निदेवके वचन सुनकर छाया सीता ने पुष्करक्षेत्र में जाकर तप आरम्भ कर दिया। उसकी कठिन तपस्या बहुत लम्बे काल तक चलती रही। इसके बाद उसे स्वर्गलक्ष्मी होने का सौभाग्य प्राप्त हो गया । समयानुसार वही छायासीता राजा द्रुपद के यहाँ यज्ञ की वेदी से प्रकट हुई। उसका नाम ‘द्रौपदी’ पड़ा और पाँचों पाण्डव उसके पतिदेव हुए। इस प्रकार सत्ययुग में वही कल्याणी वेदवती कुशध्वज की कन्या, त्रेतायुग में छायारूप से सीता बनकर भगवान् श्रीराम की सहचरी तथा द्वापर में द्रुपदकुमारी द्रौपदी हुई । अतएव इसे ‘त्रिहायणी’ कहा गया है। तीनों युगों में यह विद्यमान रही है।

नारदजी ने पूछा — संदेहों के निराकरण करने में परम कुशल मुनिवर ! द्रौपदी के पाँच पति कैसे हुए? मेरे मन की यह शङ्का मिटाने की कृपा करें।

भगवान् नारायण कहते हैं — नारद! जब लङ्का में वास्तविक सीता भगवान् श्रीराम के पास विराजमान हो गयी, तब रूप और यौवन से शोभा पाने वाली छायासीता की चिन्ता का पार न रहा । वह भगवान् श्रीराम और अग्निदेव के आज्ञानुसार भगवान् शंकर की उपासना में तत्पर हो गयी । पति प्राप्त करने के लिये व्यग्र होकर वह बार-बार यही प्रार्थना कर रही थी कि ‘भगवान् त्रिलोचन ! मुझे पति प्रदान कीजिये ।’ यही शब्द उसके मुँह से पाँच बार निकले। भगवान् शंकर परम रसिक हैं। छायासीता की यह प्रार्थना सुनकर वे मुस्कराते हुए बोले ‘तुम्हें पाँच पति मिलेंगे।’

नारद! इस प्रकार त्रेता की जो छायासीता थी, वही द्वापर में द्रौपदी बनी और पाँचों पाण्डव उसके पति हुए । यह सब जो बीच की बातें थीं, सुना चुका । अब जो प्रधान विषय चल रहा था, वह सुनो।

भगवान् राम ने लङ्का में मनोहारिणी सीता को पा जाने के पश्चात् वहाँ का राज्य विभीषण को सौंप दिया और वे स्वयं अयोध्या पधार गये । अयोध्या भारतवर्ष में है । ग्यारह हजार वर्षों तक भगवान् श्रीराम ने वहाँ राज्य किया । तत्पश्चात् वे समस्त पुरवासियों सहित वैकुण्ठधाम को पधारे। लक्ष्मी के अंश से प्रादुर्भूत जो वेदवती थी, वह लक्ष्मी के विग्रह में विलीन हो गयी। इस प्रकार का पवित्र आख्यान मैंने कह सुनाया। इस पुण्यदायी उपाख्यान के प्रभाव से सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं। अब धर्मध्वज की कन्या का प्रसङ्ग कहता हूँ, सुनो।   (अध्याय १४)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे तुलस्युपाख्याने वेदवतीप्रस्तावे चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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