January 29, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण – प्रकृतिखण्ड – अध्याय 16 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ सोलहवाँ अध्याय तुलसी को स्वप्न में शङ्खचूड़ के दर्शन, शङ्खचूड़ तथा तुलसी के विवाह के लिये ब्रह्माजी का दोनों को आदेश, तुलसी के साथ शङ्खचूड़ का गान्धर्व-विवाह तथा देवताओं के प्रति उसके पूर्वजन्म का स्पष्टीकरण भगवान् नारायण कहते हैं — नारद! एक समय की बात है । वृषध्वज की कन्या तुलसी अत्यन्त प्रसन्न होकर शयन कर रही थी । उसने स्वप्न में एक सुन्दर वेष वाले पुरुष को देखा। वह पुरुष अभी पूर्ण नवयुवक था । उसके मुख पर मुस्कान छायी थी। उसके सम्पूर्ण अङ्गों में चन्दन का अनुलेपन था । रत्नमय आभूषण उसे सुशोभित कर रहे थे । उसके गले में सुन्दर माला थी। उसके नेत्र-भ्रमर तुलसी के मुख कमल का रस-पान कर रहे थे । ॐ नमो भगवते वासुदेवाय मुने! यों स्वप्न देखने के पश्चात् तुलसी जगकर विषाद करने लगी। इस प्रकार तरुण अवस्था से सम्पन्न वह देवी वहीं रहकर समय व्यतीत कर रही थी । नारद! उसी समय महान् योगी शङ्खचूड़ का बदरीवन में आगमन हो गया । जैगीषव्य-मुनि की कृपा से भगवान् श्रीकृष्ण का मनोहर मन्त्र उसे प्राप्त हो चुका था । उसने पुष्करक्षेत्र में रहकर उस मन्त्र को सिद्ध भी कर लिया था । सर्वमङ्गलमय कवच से उसके गले की शोभा हो रही थी । ब्रह्मा उसे अभिलषित वर दे चुके थे और उन्हीं की आज्ञा से वह वहाँ आया भी था । वह आ रहा था, तभी तुलसी की दृष्टि उस पर पड़ गयी। उसकी सुन्दर कमनीय कान्ति थी । उसकी कान्ति श्वेत चम्पा के समान थी । रत्नमय अलंकारों से वह अलंकृत था। उसके मुख की शोभा शरत्पूर्णिमा के चन्द्रमा की तुलना कर रही थी । नेत्र ऐसे जान पड़ते थे, मानो शरत्काल के प्रफुल्ल कमल हों। दो रत्नमय कुण्डल उसके गण्डस्थल की छबि बढ़ा रहे थे। पारिजात के पुष्पों की माला उसके गले को सुशोभित कर रही थी और उसका मुखकमल मुस्कान से भरा था। कस्तूरी और कुङ्कुम से युक्त सुगन्धपूर्ण चन्दन द्वारा उसके अङ्ग अनुलिप्त थे । मन को मुग्ध कर देने वाला वह शङ्खचूड़ अमूल्य रत्नों से बने हुए विमान पर विराजमान था । इस शङ्खचूड़ को देखकर तुलसी ने वस्त्र से अपना मुख ढँक लिया। कारण, लज्जावश उसका मुख नीचे की ओर झुक गया था । शरत्पूर्णिमा के चन्द्रमा उसके निर्मल दिव्य चन्द्र-जैसे मुख के सामने तुच्छ थे । अमूल्य रत्नों से बने हुए नूपुर उसके चरणों की शोभा बढ़ा रहे थे। वह मनोहर त्रिवली से सम्पन्न थी। सर्वोत्तम मणि से निर्मित करधनी सुन्दर शब्द करती हुई उसकी कमर में सुशोभित थी । मालती के पुष्पों की माला से सम्पन्न केश-कलाप उसके मस्तक पर शोभा पा रहे थे। उसके कानों में अमूल्य रत्नों से बने हुए मकराकृत कुण्डल थे । सर्वोत्तम रत्नों से निर्मित हार उसके वक्षःस्थल को समुज्ज्वल बना रहा था । रत्नमय कंकण, केयूर, शङ्ख और अँगूठियाँ उस देवी की शोभा बढ़ा रही थीं। साध्वी तुलसी का आचरण अत्यन्त प्रशंसनीय था । ऐसे भव्य शरीर से शोभा पाने वाली उस सुन्दरी तुलसी को देखकर शङ्खचूड़ उसके पास आकर बैठ गया और मीठे शब्दों में बोला । शङ्खचूड़ ने पूछा — देवि! तुम कौन हो ? तुम्हारे पिता कौन हैं ? तुम अवश्य ही सम्पूर्ण स्त्रियों में धन्यवाद एवं समादर की पात्र हो । समस्त मङ्गल प्रदान करने वाली कल्याणि ! तुम वास्तव में हो कौन ? सदा सम्मान पाने वाली सुन्दरि ! तुम अपना परिचय देने की कृपा करो । नारद! सुन्दर नेत्रों से शोभा पाने वाली तुलसी ने शङ्खचूड़ के ऐसे वचन को सुनकर मुख नीचे की ओर झुकाकर उससे कहना आरम्भ किया । तुलसी ने कहा — भद्रपुरुष ! मैं राजा धर्म-ध्वज की कन्या हूँ। तपस्या करने के विचार से इस तपोवन में ठहरी हुई हूँ । तुम कौन हो ? यहाँ से सुखपूर्वक चले जाओ; क्योंकि उच्च कुल की किसी भी अकेली साध्वी कन्या के साथ एकान्त में कोई भी कुलीन पुरुष बातचीत नहीं करता – ऐसा नियम मैंने श्रुति में सुना है । जो कलुषित कुल में उत्पन्न है तथा जिसे धर्मशास्त्र एवं श्रुति का अर्थ सुनने का कभी सुअवसर नहीं मिला, वह दुराचारी व्यक्ति ही कामी बनकर परस्त्री की कामना करता है । स्त्री की मधुर वाणी में कोई सार नहीं रहता । वह सदा अभिमान में चूर रहती है। वास्तव में वह विष से भरे हुए घड़े के समान है, परंतु उसका मुख ऐसा जान पड़ता है मानो सदा अमृत से भरा हो । संसाररूपी कारागार में जकड़ने के लिये वह साँकल है । स्त्री को इन्द्रजाल-स्वरूपा तथा स्वप्न के समान मिथ्या कहते हैं। बाहर से तो यह अत्यन्त सुन्दरता धारण करती है, परंतु उसके भीतर के अङ्ग कुत्सित भावों से भरे रहते हैं। उसका शरीर विष्ठा, मूत्र, पीब और मल आदि नाना प्रकार की दुर्गन्धपूर्ण वस्तुओं का आधार है। रक्तरञ्जित तथा दोषयुक्त यह शरीर कभी पवित्र नहीं रहता । सृष्टि की रचना के समय ब्रह्मा ने मायावी व्यक्तियों के लिये इस मायास्वरूपिणी स्त्री का सृजन किया है मोक्ष की इच्छा करनेवाले पुरुषों के लिये यह विष का काम करती है । अतः मोक्ष चाहने वाले व्यक्ति उसे देखना भी नहीं चाहते । नारद! शङ्खचूड़ से इस प्रकार कहकर तुलसी चुप हो गयी । तब शङ्खचूड़ हँसकर कहने लगा । शङ्खचूड़ ने कहा — देवी! तुमने जो कुछ कहा है, वह असत्य नहीं है। पर अब मेरी कुछ सत्यासत्य-मिश्रित बातें सुनने की कृपा करो । विधाता दो प्रकार की स्त्रियों का निर्माण किया है- वास्तव-स्वरूपा और दूसरी कृत्या स्वरूपा । दोनों ही एक समान मनोहर होती हैं, पर एक को प्रशस्त कहते हैं और दूसरी को अप्रशस्त । लक्ष्मी, सरस्वती, दुर्गा, सावित्री और राधिका – ये पाँच देवियाँ सृष्टिसूत्र हैं – सृष्टि की मूल कारण हैं। इन आद्या देवियों के प्रादुर्भाव का प्रयोजन केवल सृष्टि करना है । इनके अंश से प्रकट गङ्गा आदि देवियाँ वास्तव-रूपा कहलाती हैं। इनको श्रेष्ठ माना जाता है। ये यशःस्वरूपा और सम्पूर्ण मङ्गलों की जननी हैं। शतरूपा, देवहूति, स्वधा, स्वाहा, दक्षिणा, छायावती, रोहिणी, वरुणानी, शची, कुबेरपत्त्री, अदिति, दिति, लोपामुद्रा, अनसूया, कोटिवी, तुलसी, अहल्या, अरुन्धती, मेना, तारा, मन्दोदरी, दमयन्ती, वेदवती, गङ्गा, मनसा, पुष्टि, तुष्टि, स्मृति, मेधा, कालिका, वसुन्धरा, षष्ठी, मङ्गलचण्डी, धर्म-पत्नी मूर्ति, स्वस्ति, श्रद्धा, शान्ति, कान्ति, क्षमा, निद्रा, तन्द्रा, क्षुधा, पिपासा, सन्ध्या, रात्रि, दिवा, सम्पत्ति, धृति, कीर्ति, क्रिया, शोभा, प्रभा और शिवा – स्त्रीरूप में प्रकट ये देवियाँ प्रत्येक युग में उत्तम मानी जाती हैं। जो स्वर्ग की दिव्य अप्सराएँ हैं, वे कृत्या-स्वरूपा हैं, उन्हें अप्रशस्त कहा गया है। अखिल विश्व में पुंश्चली-रूप से ये विख्यात हैं । स्त्रियों का जो सत्त्व-प्रधान रूप है, वही स्वभावतः शुद्ध है; उसी को उत्तम माना जाता है । विश्व में इन साध्वीरूपा स्त्रियों की प्रशंसा की गयी है । विद्वान् पुरुष कहते हैं, इन्हीं को ‘वास्तव-रूपा’ जानना चाहिये । कृत्या स्त्रियों के दो भेद हैं- रजोमय-रूपा और तमोमय-रूपा । सुन्दरि ! जो रजोमय-रूप वाली स्त्रियाँ हैं, उनमें निम्नाङ्कित कारणों से ही साध्वीपन रहता है – परपुरुष से मिलने के लिये स्थान का न होना, अवसर न मिलना, किसी मध्यवर्ती दूत या दूती का न होना, शरीर में क्लेश का होना, रोग का होना, सत्सङ्ग का लाभ होना, बहुत-से जन-समुदाय द्वारा घिरी रहना तथा शत्रु अथवा राजा से भय का प्राप्त होना । इन्हीं कारणों से वे अपने सतीत्व की रक्षा कर पाती हैं । मनीषी पुरुषों का कथन है कि स्त्रियों का यह रूप मध्यम है। जो तमोमय-रूप वाली स्त्रियाँ हैं, उन्हें कुमार्ग पर जाने से रोक पाना बहुत कठिन होता है । विद्वानों के मत में यह स्त्रियों का अधम रूप है। देवि! तुमने जो कहा है, सत् और असत् का विचार रखने वाले कुलीन पुरुष निर्जन, निर्जल अथवा एकान्त स्थान में किसी परस्त्री से कुछ भी नहीं पूछते, सो ठीक है; मैं भी यही मानता हूँ । परंतु शोभने ! मैं तो इस समय ब्रह्मा की आज्ञा पाकर ही तुम्हारे कार्य-साधन के लिये तुम्हारे पास आया हूँ और गान्धर्व-विवाह की विधि के अनुसार तुम्हें अपनी सहधर्मिणी बनाऊँगा । देवताओं में भगदड़ मचा देने वाला शङ्खचूड़ मैं ही हूँ। दनुवंश में मेरी उत्पत्ति हुई है। विशेष बात तो यह है कि मैं पूर्वजन्म में श्रीहरि के साथ रहने वाला उन्हीं का अंश सुदामा नामक गोप था। जो सुप्रसिद्ध आठ गोप स्वयं भगवान् के पार्षद थे, उनमें एक मैं ही था । देवी राधिका के शाप से इस समय मैं दानवेन्द्र बना हूँ । भगवान् श्रीकृष्ण का मन्त्र मुझे इष्ट है, अतः पूर्वजन्म की बातों को मैं जान जाता हूँ। तुम भी पूर्वजन्म में श्रीकृष्ण के पास रहने वाली तुलसी थी । यह जानने की योग्यता तो तुम्हें भी प्राप्त है। तुम भी जो भारतवर्ष में उत्पन्न हुई हो, इसमें मुख्य कारण श्रीराधिका का रोष ही है । मुनिवर ! जब इस प्रकार कहकर शङ्खचूड़ चुप हो गया, उस समय तुलसी का मन हर्ष से उल्लसित हो उठा, उसके मुख पर मुसकराहट छा गयी। तब उसने यों कहना आरम्भ किया । तुलसी ने कहा — इस प्रकार के सद्विचार से सम्पन्न विज्ञ पुरुष ही विश्व में सदा प्रशंसित होते हैं । स्त्री ऐसे ही सत्पति की निरन्तर अभिलाषा करती है। सचमुच ही इस समय मैं आपके सद्विचार से परास्त हो गयी । निन्दा का पात्र तथा अपवित्र तो वह पुरुष माना जाता है, जिसे स्त्री ने जीत लिया हो । स्त्रीजित मनुष्य की तो पितर, देवता तथा बान्धव – सभी निन्दा करते हैं । यहाँ तक कि माता, पिता तथा भ्राता भी मन-ही-मन तथा वाणी द्वारा भी उसकी निन्दा करने से नहीं चूकते। जिस प्रकार जन्म तथा मृत्यु के अशौच में ब्राह्मण दस दिनों पर शुद्ध हो जाता है, क्षत्रिय बारह दिनों पर और वैश्य पंद्रह दिनों पर शुद्ध होते हैं तथा शूद्रों की शुद्धि एक महीने पर होती है, वैसे ही गान्धर्व विवाह सम्बन्धी पति-पत्नी की संतान भी समयानुसार शुद्ध हो जाती है। उसमें वर्ण-संकर-दोष नहीं आ सकता । यह बात शास्त्रों में प्रसिद्ध है । स्त्रीजित मनुष्य की तो आजीवन शुद्धि नहीं होती । चिता पर जलते समय ही वह इस पाप से मुक्त होता है । स्त्रीजित मनुष्य के पितर उसके दिये हुए पिण्ड और तर्पण को इच्छापूर्वक ग्रहण नहीं करते। देवता भी उसके समर्पण किये हुए पुष्प और जल आदि के लेने में सम्मत नहीं होते। जिसके मन को स्त्री ने हरण कर लिया है, उस व्यक्ति को ज्ञान, तप, जप, होम, पूजन, विद्या अथवा यश से क्या लाभ हुआ ? मैंने विद्या का प्रभाव जानने के लिये ही आपकी परीक्षा की है । कारण, कामिनी स्त्री का प्रधान कर्तव्य है कि कान्त की परीक्षा करके ही उसे पतिरूप में स्वीकार करे । गुणहीन, वृद्ध, अज्ञानी, दरिद्र, मूर्ख, रोगी, कुरूप, परम क्रोधी, अशोभन मुखवाले, पङ्गु, अङ्गहीन, नेत्रहीन, बधिर, जड, मूक तथा नपुंसक के समान पापी वर को जो अपनी कन्या देता है, उसे ब्रह्महत्या का पाप लगता है। शान्त, गुणी, नवयुवक, विद्वान् तथा साधुस्वभाव वाले वर को अपनी कन्या अर्पण करने वाले पुरुष को दस अश्वमेधयज्ञ का फल प्राप्त होता है। जो व्यक्ति कन्या को पाल-पोसकर विपत्तिवश अथवा धन के लोभ से बेच देता है, वह ‘कुम्भीपाक’ नरक में पचता है । उस पापी को नरक में भोजन के स्थान पर कन्या के मल-मूत्र प्राप्त होते हैं। कीड़ों और कौओं द्वारा उसका शरीर नोचा जाता है। बहुत लम्बे समय तक वह कुम्भीपाक नरक में रहता है । फिर जगत् में जन्म पाकर उसका रोगग्रस्त रहना निश्चित है । तप को ही सर्वस्व माननेवाले नारद! इस प्रकार कहकर देवी तुलसी चुप हो गयी । इतने में ब्रह्माजी ने आकर कहा — शङ्खचूड़ ! तुम इस देवी के साथ क्या बातचीत कर रहे हो ? अब गान्धर्व-विवाह के नियमानुसार इसे पत्नीरूप से स्वीकार कर लेना तुम्हारे लिये परम आवश्यक है; क्योंकि तुम पुरुषों में रत्न हो और यह साध्वी देवी भी कन्याओं में रत्न समझी जाती है। इसके बाद ब्रह्माजी ने तुलसी से कहा — ‘पतिव्रते ! तुम ऐसे गुणी पति की क्या परीक्षा करती हो ? देवता, दानव और असुर – सबको कुचल डालने की इसमें शक्ति है । जिस प्रकार भगवान् नारायण के पास लक्ष्मी, श्रीकृष्ण के पास राधिका, मेरे पास सावित्री, भगवान् वाराह के पास पृथ्वी, यज्ञ के पास दक्षिणा, अत्रि के पास अनसूया, नल के पास दमयन्ती, चन्द्रमा के पास रोहिणी, कामदेव के पास रति, कश्यप के पास अदिति, वसिष्ठ के पास अरुन्धती, गौतम के पास अहल्या, कर्दम के पास देवहूति, बृहस्पति के पास तारा, मनु के पास शतरूपा, अग्नि के पास स्वाहा, इन्द्र के पास शची, गणेश के पास पुष्टि, स्कन्द के पास देवसेना तथा धर्म के पास साध्वी मूर्ति पत्नीरूप से शोभा पाती हैं, वैसे ही तुम भी इस शङ्खचूड़ की सौभाग्यवती प्रिया बन जाओ। शङ्खचूड़ की मृत्यु के पश्चात् तुम पुनः गोलोक में भगवान् श्रीकृष्ण के पास चली जाओगी और फिर वैकुण्ठ में चतुर्भुज भगवान् विष्णु को प्राप्त करोगी । ” भगवान् नारायण कहते हैं — नारद! शङ्खचूड़ और तुलसी को इस प्रकार आशीर्वाद रूप में आज्ञा देकर ब्रह्माजी अपने लोक में चले गये। तब शङ्खचूड़ ने गान्धर्व-विवाह के अनुसार तुलसी को अपनी पत्नी बना लिया। उस समय स्वर्ग में दुन्दुभियाँ बजने लगीं। आकाश से पुष्प बरसने लगे । तदनन्तर शङ्खचूड़ अपने भवन में जाकर तुलसी के साथ आनन्दपूर्वक रहने लगा । अपनी चिरसङ्गिनी धर्मपत्नी परम सुन्दरी तुलसी के साथ आनन्दमय जीवन बिताते हुए राजाधिराज प्रतापी शङ्खचूड़ ने दीर्घकाल तक राज्य किया। देवता, दानव, असुर, गन्धर्व, किन्नर और राक्षस – सभी शङ्खचूड़ के शासनकाल में सदा शान्त रहते थे। अधिकार छिन जाने के कारण देवताओं की स्थिति भिक्षुक जैसी हो गयी थी । अतः वे सभी अत्यन्त उदास होकर ब्रह्मा की सभा में गये और अपनी स्थिति बतलाकर बार-बार अत्यन्त विलाप करने लगे। तब विधाता ब्रह्मा देवताओं को साथ लेकर भगवान् शंकर के स्थान पर गये । वहाँ पहुँचकर मस्तक पर चन्द्रमा को धारण करने वाले सर्वेश शिव से सभी बातें कह सुनायीं। फिर ब्रह्मा और शंकर देवताओं को साथ लेकर वैकुण्ठ के लिये प्रस्थित हुए। वैकुण्ठ परम धाम है। यह सबके लिये दुर्लभ है। वहाँ बुढ़ापा और मृत्यु का प्रभाव नहीं है । भगवान् श्रीहरि के भवन का प्रवेशद्वार परम श्रेष्ठ है । वहाँ पहुँच कर रत्नमय सिंहासन पर बैठे हुए द्वारपालों को जब देखा, तब इन ब्रह्मादि देवताओं का मन आश्चर्य से भर गया। वे सभी परम सुन्दर थे। सभी पीताम्बर धारण किये हुए थे । रत्नमय आभूषणों से विभूषित थे। सब गले में दिव्य वनमाला लहरा रही थी; सुन्दर शरीर श्याम रंग के थे। उनके शङ्ख, चक्र, गदा और पद्म से सुशोभित चार भुजाएँ थीं और प्रसन्न वदन मुस्कान से भरे थे । उन मनोहर द्वारपालों के नेत्र कमल के सदृश विशाल थे । उन द्वारपालों से अनुमति पाकर ब्रह्मा क्रमशः सोलह द्वारों को पार करके भगवान् श्रीहरि की सभा में पहुँचे। उस सभा-भवन में चारों ओर देवर्षि तथा पार्षद विराजमान थे। सभी पार्षदों के चार भुजाएँ थीं; सबका रूप भगवान् नारायण के समान था और सभी कौस्तुभमणि से अलंकृत थे । वह सभा बाहर से पूर्ण चन्द्रमण्डल के आकार की गोल और भीतर से चौकोर थी। बड़ी मनोहर दिखायी देती थी। श्रेष्ठ रत्नों के सारभूत सर्वोत्तम दिव्य मणियों से उसका निर्माण हुआ था । हीरों के सारभाग से ही वह सजी हुई थी। श्रीहरि के इच्छानुसार बने हुए उस भवन में अमूल्य दिव्य रत्न जड़े गये थे। माणिक्य – मालाएँ जाली के रूप में शोभा दे रही थीं और दिव्य मोतियों की झालरें उसकी छबि बढ़ा रही थीं । मण्डलाकार करोड़ों रत्नमय दर्पणों से वह सभा सुशोभित थी । उसकी दीवारों में लिखित अनेक प्रकार के विचित्र चित्र उसकी सुन्दरता बढ़ा रहे थे । सर्वोत्कृष्ट पद्मराग-मणि से निर्मित कृत्रिम कमलों से वह परम सुशोभित थी । स्यमन्तक-मणि से बनी हुई सैकड़ों सीढ़ियाँ उस भवन की शोभा बढ़ाती थीं । रेशम की डोरी में गुँथे हुए दिव्य चन्दन – वृक्ष के सुन्दर पल्लव वन्दनवार का काम दे रहे थे । यहाँ के खंभों का निर्माण इन्द्रनील-मणि से हुआ था। उत्तम रत्नों से भरे कलशों से संयुक्त वह सभा अत्यन्त मनोरम जान पड़ती थी । पारिजात – पुष्पों के बहुत-से हार उसे अलंकृत किये हुए थे । कस्तूरी एवं कुङ्कुम से युक्त सुगन्धपूर्ण चन्दन के द्रव से वह भवन सुसज्जित तथा सुसंस्कृत किया गया था । सुगन्धित वायु से वह सभा सब ओर से सुवासित थी । उसका विस्तार एक सहस्र योजन था । सर्वत्र सेवक खड़े थे । वहाँ सभी कुछ दिव्य था। सभी उस सभाभवन को देखकर मुग्ध हो गये । नारद ! भगवान् श्रीहरि उस अनुपम सभा के मध्य भाग में इस प्रकार विराजमान थे मानो नक्षत्रों के बीच चन्द्रमा हो । देवताओं सहित ब्रह्मा और शंकर ने उनके साक्षात् दर्शन किये। उस समय श्रीहरि दिव्य रत्नों से निर्मित अद्भुत सिंहासन पर विराजित थे। दिव्य किरीट, कुण्डल और वनमाला ने उनकी छबि को और भी अधिक बढ़ा दिया था । उनके सम्पूर्ण अङ्ग चन्दन से अनुलिप्त थे । एक हाथ में कमल शोभा पा रहा था । भगवान् का श्रीविग्रह अतिशय शान्त था । लक्ष्मीजी उनके चरणकमलों की सेवा में संलग्न थीं । भक्त के दिये हुए सुवासित ताम्बूल को प्रभु चबा रहे थे I देवी गङ्गा उत्तम भक्ति के साथ सफेद चँवर डुलाकर उनकी सेवा कर रही थीं। उपस्थित समाज अत्यन्त भक्तिविनम्र होकर उनका स्तव-गान कर रहा था । मुने ! ऐसे परम विशिष्ट परिपूर्णतम भगवान् श्रीहरि के दर्शन प्राप्त होने पर ब्रह्मा प्रभृति समस्त भगवद्भक्त देवता भयभीत से होकर भक्तिभाव से गर्दन झुकाये उन्हें प्रणाम करके स्तुति करने लगे । उस समय हर्ष के कारण उनके सर्वाङ्ग में पुलकावली छा गयी थी, आँखों में आँसू भर आये थे और वाणी गद्गद थी । परम श्रद्धा के साथ उपासना करके जगत् के व्यवस्थापक ब्रह्माजी ने हाथ जोड़कर बड़ी विनय के साथ भगवान् श्रीहरि के सामने सारी परिस्थिति निवेदित की। श्रीहरि सर्वत्र एवं सबके अभिप्राय से पूर्ण परिचित हैं । ब्रह्मा की बात सुनकर उनके मुख पर हँसी छा गयी और उन्होंने मन को मुग्ध करने वाला अद्भुत रहस्य कहना आरम्भ किया । भगवान् श्रीहरि बोले — ब्रह्मन् ! यह महान् तेजस्वी शङ्खचूड़ पूर्वजन्म में एक गोप था । यह मेरा ही अंश था। मेरे प्रति इसकी अटूट श्रद्धा थी। इसके सम्पूर्ण वृत्तान्त से मैं पूर्ण परिचित हूँ । यह वृत्तान्त एक पुराना इतिहास है । गोलोक से सम्बन्ध रखने वाले इस समस्त पुण्यप्रद इतिहास को सुनिये। शङ्खचूड़ उस समय सुदामा नाम से प्रसिद्ध गोप था। मेरे पार्षदों में उसकी प्रधानता थी । श्रीराधा के शाप ने उसे दानव -योनि में उत्पन्न होने के लिये विवश कर दिया। राधा अति करुणामयी हैं । सखियों का तिरस्कार करने के कारण राधा ने शाप तो दे दिया, परंतु जब सुदामा मुझे प्रणाम करके रोता हुआ सभाभवन से बाहर जाने लगा, तब दयामयी राधा कृपावश तुरंत संतुष्ट हो गयीं। उनकी आँखों में आँसू भर आये। उन्होंने सुदामा को रोक लिया । कहा – ‘वत्स ! रुके रहो, मत जाओ, कहाँ जाओगे ?’ तब मैंने उन राधा को समझाया और कहा- ‘सभी धैर्य रखें, यह सुदामा आधे क्षण में ही शाप का पालन करके पुनः लौट आयेगा ।’ ‘सुदामन् ! तुम यहाँ अवश्य आ जाना’ – यों कहकर मैंने किसी प्रकार राधा को शान्त किया । अखिल जगत् के रक्षक ब्रह्मन् ! गोलोक के आधे क्षण में ही भूमण्डल पर एक मन्वन्तर का समय हो जाता है । ब्रह्मन् ! इस प्रकार यह सब कुछ पूर्वनिश्चित व्यवस्था के अनुसार ही हो रहा है। अतः सम्पूर्ण मायाओं का पूर्ण ज्ञाता अपार बलशाली योगीश यह शङ्खचूड़ समय पर पुनः उस गोलोक में ही चला जायगा । आप लोग मेरा यह त्रिशूल लेकर शीघ्र भारतवर्ष में चलें । शंकर मेरे त्रिशूल से उस दानव का संहार करें। दानव शङ्खचूड़ मेरे ही सम्पूर्ण मङ्गल प्रदान करने वाले कवचों को कण्ठ में सदा धारण किये रहता है; इसीलिये वह अखिल विश्वविजयी है । ब्रह्मन् ! उसके कण्ठ में कवच रहते हुए कोई भी उसे मारने में सफल नहीं हो सकता । अतः मैं ही ब्राह्मण का वेष धारण करके कवच के लिये उससे याचना करूँगा । साथ ही जिस समय उसकी स्त्री का सतीत्व नष्ट होगा, उसी समय उसकी मृत्यु होगी – यह आपने उसको वर दे रखा है । एतदर्थ उसकी पत्नी के उदर में मैं वीर्य स्थापित करूँगा- मैंने यह निश्चित कर लिया है। (वैसे ‘तुलसी’ मेरी नित्यप्रिया है, इससे वस्तुतः मुझ सर्वात्मा को कोई दोष भी नहीं होगा )। उसी समय शङ्खचूड़ की मृत्यु हो जायगी- इसमें कोई संदेह नहीं है । तदनन्तर उस दानव की वह पत्नी अपने उस शरीर को त्यागकर पुनः मेरी प्रिय पत्नी बन जायगी । नारद! इस प्रकार कहकर जगत्प्रभु भगवान् श्रीहरि ने शंकर को त्रिशूल सौंप दिया। त्रिशूल लेकर रुद्र और ब्रह्मा सब देवताओं के साथ भारतवर्ष को चल दिये। (अध्याय १६) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे तुलस्युपाख्याने षोडशोऽध्यायः ॥ १६ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Related