January 29, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण – प्रकृतिखण्ड – अध्याय 17 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ सत्रहवाँ अध्याय पुष्पदन्त का दूत बनकर शङ्खचूड़ के पास जाना और शङ्खचूड़ के द्वारा तुलसी के प्रति ज्ञानोपदेश भगवान् नारायण कहते हैं — नारद! तदनन्तर ब्रह्मा दानव के संहार कार्य में शंकर को नियुक्त करके स्वयं उसी क्षण अपने स्थान पर चले गये । देवता भी अपने-अपने स्थानों को चले गये। तब चन्द्रभागा नदी के तट पर एक मनोहर वट-वृक्ष के नीचे जाकर देवताओं का अभ्युदय करने के विचार से महादेवजी ने आसन जमा लिया। गन्धर्वराज पुष्पदन्त शंकर का बड़ा प्रेमी था । उन्होंने उसे दूत बनाकर तुरंत हर्षपूर्वक शङ्खचूड़ के पास भेजा। उनकी आज्ञा पाकर पुष्पदन्त उसी क्षण शङ्खचूड़ के नगर की ओर चल दिया। दानवराज की पुरी अमरावती से भी श्रेष्ठ थी । कुबेर का भवन उसके सामने तुच्छ था । उस नगर की लम्बाई दस योजन थी और चौड़ाई पाँच योजन । स्फटिक मणि के समान रत्नों से बने हुए परकोटों द्वारा वह घिरा था । सात दुर्गम खाइयों से वह सुरक्षित था । ॐ नमो भगवते वासुदेवाय प्रज्वलित अग्नि के समान निरन्तर चमकने वाले करोड़ों रत्नों द्वारा उसका निर्माण किया गया था। उसमें सैकड़ों सुन्दर सड़कें और मणिमय विचित्र वेदियाँ थीं । व्यापार-कुशल पुरुषों के द्वारा बनवाये हुए भवन और ऊँचे-ऊँचे महल चारों ओर सुशोभित थे, जिनमें नाना प्रकार की बहुमूल्य वस्तुएँ भरी थीं । सिन्दूर के समान लाल मणियों द्वारा बने हुए असंख्य, विचित्र, दिव्य एवं सुन्दर आश्रम उस नगर की शोभा बढ़ाते थे । मुने! इस प्रकार के सुन्दर नगर में जाकर पुष्पदन्त ने शङ्खचूड़ का भवन देखा। वह नगर के बिलकुल मध्यभाग में था । नगर की आकृति वलय के समान गोल थी । वह ऐसा जान पड़ता था, मानो पूर्ण चन्द्रमण्डल हो । प्रज्वलित अग्नि की लपटों के समान चार परिखाएँ उसे सुरक्षित किये हुए थीं । शत्रुओं के लिये उस भवन में प्रवेश करना अत्यन्त कठिन था, परंतु हितैषी व्यक्ति बड़ी सुगमता से उसमें जा सकते थे । अत्यन्त उच्च, गगनस्पर्शी मणिमय प्राचीरों से वह भवन घिरा हुआ था । बारह द्वारों से भवन की बड़ी शोभा हो रही थी । प्रत्येक द्वार पर द्वारपाल थे । सर्वोत्तम मणियों द्वारा निर्मित लाखों मन्दिर, बहुत-से सोपान तथा रत्नमय खंभे थे। एक द्वार को देखने के बाद पुष्पदन्त ने दूसरे प्रधान द्वार को भी देखा। उस द्वार पर हाथ में त्रिशूल लिये एक पुरुष विराजमान था। उसके मुख पर हँसी छायी थी। उसकी पीली आँखें थीं। उसके शरीर का रंग ताँबे के सदृश लाल था। भय उत्पन्न करने वाले उस द्वारपाल से आज्ञा पाकर पुष्पदन्त आगे बढ़ा और दूसरे द्वार को लाँघकर भीतर चला गया। यह दूत युद्ध की सूचना पहुँचाने वाला है — यह सुनकर कोई भी उसे रोकता नहीं था । इस तरह नौ द्वारों को लाँघकर पुष्पदन्त सबसे भीतर के द्वार पर पहुँच गया। वहाँ द्वारपाल से अनुमति लेकर वह भीतर गया। वहाँ जाकर देखा, परम मनोहर शङ्खचूड़ राजाओं के मध्य में सुवर्ण के सिंहासन पर बैठा था । उसके मस्तक पर सोने का सुन्दर छत्र तना था, जिसे एक भृत्य ने ले रखा था । उस छत्र में मणियाँ जड़ी गयी थीं। वह विचित्र छत्र रत्नमय दण्ड से सुशोभित था । रत्ननिर्मित कृत्रिम पुष्प उसकी शोभा को और भी प्रशस्त कर रहे थे। सफेद एवं चमकीले चँवर हाथ में लेकर अनेक पार्षद शङ्खचूड़ की सेवामें संलग्न थे। उत्तम वेष एवं रत्नमय भूषणों से विभूषित होने के कारण वह बड़ा सुन्दर जान पड़ता था । मुने! उसके गले में माला थी । शरीर पर चन्दन का अनुलेपन था । वह दो महीन उत्तम वस्त्र पहिने हुए था । वह दानव उस समय सुन्दर वेष वाले असंख्य प्रसिद्ध दानवों से घिरा था और असंख्य दूसरे दानव हाथों में अस्त्र लिये इधर- उधर घूम रहे थे। ऐसे वैभव-सम्पन्न शङ्खचूड़ को देखकर पुष्पदन्त आश्चर्य में पड़ गया । तदनन्तर उसने शंकर के कथनानुसार युद्ध-विषयक संदेश सुनाना आरम्भ किया । पुष्पदन्त ने कहा — राजेन्द्र ! प्रभो ! मैं भगवान् शंकर का दूत हूँ। मेरा नाम पुष्पदन्त है। शंकरजी की कही हुई बातें ही मैं यहाँ आपसे कह रहा हूँ, सुनने की कृपा करें। अब आप देवताओं का राज्य तथा उनका अधिकार उन्हें लौटा दें; क्योंकि वे देवेश्वर श्रीहरि की शरण में गये थे । उन प्रभु ने अपना त्रिशूल देकर आपके विनाश के लिये शंकर को भेजा है । त्रिनेत्रधारी भगवान् शिव इस समय चन्द्रभागा नदी के तट पर वटवृक्ष के नीचे विराजमान हैं। आप या तो देवताओं का राज्य लौटा दें या निश्चित रूप से युद्ध करें। मुझे यह भी बता दें कि मैं भगवान् शंकर के पास जाकर उनको क्या उत्तर दूँ? नारद! दूत के रूप में गये हुए पुष्पदन्त की बात सुनकर शङ्खचूड़ ठठाकर हँस पड़ा और बोला — ‘दूत ! मैं कल प्रातः काल चलूँगा, तुम जाओ ।’ तब पुष्पदन्त तुरंत वट के नीचे विराजमान भगवान् शंकर के पास लौट गया और उनसे शङ्खचूड़ की बात, जो स्वयं उसने अपने मुख से कही थी, कह सुनायी। साथ ही, उसके पास जो सेना आदि युद्धोपकरण थे, उनका भी परिचय दिया। इतने में योजनानुसार कार्तिकेय शंकर के समीप आ पहुँचे। वीरभद्र, नन्दीश्वर, महाकाल, सुभद्रक, विशालाक्ष, बाणासुर, पिङ्गलाक्ष, विकम्पन, विरूप, विकृति, मणिभद्र, बास्कल, कपिलाक्ष, दीर्घदंष्ट्र, विकट, ताम्रलोचन, कालंकट, बलीभद्र, कालजिह्व, कुटीचर, बलोन्मत्त, रणश्लाघी, दुर्जय, दुर्गम, आठों भैरव, ग्यारहों रुद्र, आठों वसु, इन्द्र आदि देवता, बारहों सूर्य, अग्नि, चन्द्रमा, विश्वकर्मा, दोनों अश्विनीकुमार, कुबेर, यमराज, जयन्त, नलकूबर, वायु, वरुण, बुध, मङ्गल, धर्म, शनि, ईशान और प्रतापी कामदेव आदि भी आ गये । साथ ही, उग्रदंष्ट्रा, उग्रचण्डा, कोटरा, कैटभी तथा स्वयं सौ भुजा वाली भयंकर भगवती भद्रकाली देवी भी वहाँ आ गयीं। वे देवी अतिशय श्रेष्ठ रत्न द्वारा निर्मित विमानपर बैठी थीं। उनका विग्रह लाल रंग के वस्त्र से सुशोभित था । उनके गले में लाल पुष्पों की माला थी । सभी अङ्ग लाल चन्दन से अनुलिप्त थे । नाचना, हँसना, हर्ष के उल्लास में भरकर मीठे स्वरों में गाना, भक्तों को अभय प्रदान करना तथा शत्रुओं को डराना उन अभयस्वरूपिणी भगवती भद्रकाली का सहज गुण बन गया था। उनके मुख में बड़ी विकराल लंबी जीभ लपलपा रही थी। शङ्ख, चक्र, गदा, पद्म, ढाल, तलवार, धनुष, बाण, एक योजन विस्तृत वर्तुलाकार गम्भीर खप्पर, गगनचुम्बी त्रिशूल, एक योजन में फैली हुई शक्ति, मुद्गर, मुसल, वज्र, पाश, खेटक, प्रकाशमान फलक, वैष्णवास्त्र, वारुणास्त्र, आग्नेयास्त्र, नागपाश, नारायणास्त्र, ब्रह्मास्त्र, गन्धर्व, गरुड़, पार्जन्य एवं पाशुपतास्त्र, जृम्भणास्त्र, पार्वतास्त्र, माहेश्वरास्त्र, वायव्यास्त्र, सम्मोहन दण्ड, शतशः अमोघास्त्र तथा सैकड़ों दिव्यास्त्रको धारण करके भगवती भद्रकाली अनन्त योगिनियों के साथ वहाँ आकर विराज गयीं। उनके साथ में अत्यन्त भयंकर असंख्य डाकिनियों का यूथ भी सुशोभित था । भूत, प्रेत, पिशाच, कूष्माण्ड, ब्रह्मराक्षस, वेताल, राक्षस, यक्ष और किन्नर भी सहयोग देने के लिये आ पहुँचे। इन सबको साथ लेकर स्वामी कार्तिकेय ने अपने पिता चन्द्रशेखर शिव को प्रणाम किया और सहायता करने के विचार से उनकी आज्ञा लेकर पास बैठ गये । इधर दूत के चले जाने पर प्रतापी शङ्खचूड़ अन्तः पुर में गया और उसने अपनी पत्नी तुलसी से युद्धसम्बन्धी बातें बतायीं । सुनते ही तुलसी के होठ और तालु सूख गये । उसका हृदय संतप्त हो उठा। फिर परम साध्वी तुलसी मधुर वाणी में कहने लगी । तुलसी ने कहा — प्राणबन्धो ! नाथ! आप मेरे प्राणों के अधिष्ठाता देव हैं। आप विराजिये । क्षणभर मेरे जीवन की रक्षा कीजिये। मैं अपने नेत्रों से कुछ समय तक तो आदरपूर्वक आपके दर्शन कर लूँ । मेरे प्राण फड़फड़ा रहे हैं। आज मैंने रात के अन्तिम क्षण में एक बुरा स्वप्न देखा है । महाराज शङ्खचूड़ ज्ञानी पुरुष था । तुलसी की बात सुनकर उसने भोजन किया। जल पिया । फिर अवसर पाकर उसने सत्य, हितकर एवं यथार्थ वचन तुलसी से कहे । शङ्खचूड़ बोला — प्रिये ! कर्म-भोग का सारा निबन्ध काल के सूत्र में बँधा है। शुभ, हर्ष, सुख, दुःख, भय, शोक और मङ्गल — सभी काल के अधीन हैं । समयानुसार वृक्ष उगते, उन पर शाखाएँ फैलतीं, पुष्प लगते और क्रमशः वे फल से लद जाते हैं । फिर काल ही उन फलों को पकाता भी है। बाद में काल के प्रभाव से फूल-फलकर वे सम्पूर्ण वृक्ष नष्ट भी हो जाते हैं । सुन्दरि ! समय पर विश्व उत्पन्न होता है और समयानुसार उसकी अन्तिम घड़ी आ जाती है। काल की महिमा स्वीकार करके ब्रह्मा सृष्टि करते हैं और विष्णु पालन में तत्पर रहते हैं । रुद्र का संहार-कार्य भी काल के संकेत पर ही निर्भर है। सभी क्रमशः कालानुसार अपने व्यापार में नियुक्त होते हैं। ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि प्रधान देवताओं के भी अधीश्वर हैं – परमात्मा श्रीकृष्ण । जो प्रकृति से परे हैं, उन्हीं को स्रष्टा, पाता और संहर्ता कहते हैं। वे सदा अपने सम्पूर्ण अंश से विराजमान रहते हैं। वे ही समय पर स्वेच्छापूर्वक प्रकृति को उत्पन्न करके विश्व में रहनेवाले सम्पूर्ण चराचर पदार्थों को रचते हैं। उन्हें सर्वेश, सर्वरूप, सर्वात्मा और परमेश्वर कहते हैं । वे जन से जन की सृष्टि करते, जन से जन की रक्षा करते तथा जन से जन का संहार करते हैं, उन्हीं त्रिगुणातीत परम प्रभु राधावल्लभ की तुम उपासना करो। उन्हीं की आज्ञा से सदा शीघ्रगामी पवन प्रवाहित होते हैं, सूर्य आकाश में तपते हैं, इन्द्र समयानुसार वर्षा करते हैं, मृत्यु प्राणियों में विचरती है, अग्नि यथावसर दाह उत्पन्न करते हैं तथा शीतल चन्द्रमा भयभीत की भाँति आकाश-मण्डल में चक्कर लगाते हैं। प्रिये ! जो मृत्यु की मृत्यु, काल के काल, यमराज श्रेष्ठ शासक, ब्रह्मा के स्वामी, माता-की-माता, जगत् की जननी तथा संहार करने वाले के भी संहारकर्ता हैं, उन परम प्रभु भगवान् श्रीकृष्ण की शरण में तुम जाओ। प्रिये ! यहाँ कौन किनका बन्धु है ! जो सबके बन्धु हैं, उन्हीं की तुम उपासना करो। ब्रह्मा ने हम दोनों को एक रस्सी में बाँध दिया। इससे तुम्हारे साथ जगत् के व्यवहार में मैं फँस गया। पुनः विलग हो जाना विधि की इच्छा पर ही निर्भर है। शोक एवं विपत्ति सामने आने पर अज्ञानी व्यक्ति घबराता है न कि पण्डित पुरुष । कालचक्र के क्रम से सुख और दुःख एक के बाद एक आते-जाते ही रहते हैं । अब तुम्हें निश्चय ही वे सर्वेश भगवान् नारायण साक्षात् पतिरूप में प्राप्त होंगे, जिनके लिये बदरिकाश्रम में रहकर तुम तपस्या कर चुकी हो । तपस्या तथा ब्रह्मा के वर-प्रदान से तुम्हें पाने का सुअवसर मुझे प्राप्त हुआ था । कामिनि ! उस समय तुम भगवान् श्रीहरि के लिये तप कर रही थी । अतः अब उन्हीं को प्राप्त करोगी। गोलोक वृन्दावन है। वहीं तुम भगवान् गोविन्द को पाओगी। मैं भी इस दानवी शरीर का परित्याग करके उसी दिव्यलोक में चलूँगा। वहीं तुम मुझे देख सकोगी और मैं तुम्हें। इस समय जो मैं परम दुर्लभ भारतवर्ष में आया हूँ, इसमें कारण केवल श्रीराधाजी का शाप है। प्रिये ! सुनो! मेरा गोलोक में पुनः जाना सर्वथा निश्चित है । अतः शोक करने की क्या आवश्यकता है ? कान्ते ! तुम भी अब शीघ्र ही इस शरीर का परित्याग करके दिव्य रूप धारणकर श्रीहरि को पतिरूप से प्राप्त कर लोगी । अतः तनिक भी घबराने की आवश्यकता नहीं है । इस प्रकार शङ्खचूड़ तुलसी के साथ सुन्दर बातचीत कर रहा था, इतने में सायंकाल का समय हो गया । रत्नमय भवन में पुष्प और चन्दन से चर्चित श्रेष्ठ शय्या बिछी थी । वह उसपर सो गया और भाँति-भाँति के वैभवों की बात उसके मन में स्फुरित होने लगी। उसके भवन में रत्न का दीपक जल रहा था । परम सुन्दरी स्त्रियों में रत्न तुलसी सेवामें उपस्थित थी । ज्ञानी शङ्खचूड़ ने पुनः तुलसी को दिव्य ज्ञान प्रदर्शित करते हुए समझाया। साथ ही शङ्खचूड़ ने तुलसी को सम्पूर्ण शोकों को दूर करने वाले उस उत्तम ज्ञान को बतलाया जो दिव्य भाण्डीरवन में भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा से उसे प्राप्त हुआ था । ऐसे श्रेष्ठ ज्ञान को पाकर उस देवी का मुख प्रसन्नता से भर गया। समस्त जगत् नश्वर है – यह मानकर वह हर्षपूर्वक हास-विलास करने लगी । फिर दोनों सुखपूर्वक सो गये। (अध्याय १७) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे तुलसीशंखचूडसम्भोगो नाम सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. 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