January 29, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण – प्रकृतिखण्ड – अध्याय 18 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ अठारहवाँ अध्याय शङ्खचूड़का पुष्पभद्रा नदीके तटपर जाना, वहाँ भगवान् शंकरके दर्शन तथा उनसे विशद वार्तालाप भगवान् नारायण कहते हैं — नारद! राजा शङ्खचूड़ श्रीकृष्ण का भक्त था। वह मन में भगवान् श्रीकृष्ण का ध्यान करके ब्राह्ममुहूर्त में ही अपनी पुष्पमयी शय्या से उठ गया । उसने स्वच्छ जल से स्नान करके रात के वस्त्र त्याग दिये । धुले हुए दो वस्त्रों को पहनकर उज्ज्वल तिलक कर लिया; फिर इष्ट देवता के वन्दन आदि प्रतिदिन के आवश्यक कर्तव्यों को पूरा किया । दही, घृत, मधु और लाजा आदि माङ्गलिक वस्तुएँ देखीं। नारद! प्रतिदिन की भाँति उसने भक्तिपूर्वक ब्राह्मणों को उत्तम रत्न, मणि, स्वर्ण और वस्त्र दान किये। यात्रा मङ्गलमयी होने के लिये उसने अमूल्य रत्न तथा कुछ मोती, मणि एवं हीरे भी अपने गुरुदेव ब्राह्मण की सेवामें समर्पित किये। वह अपने कल्याणार्थ श्रेष्ठ हाथी, घोड़े और सर्वोत्तम सुन्दर धन दरिद्र ब्राह्मणों को खुले हाथों बाँटने लगा। उस समय हजारों वस्तुपूर्ण भवन, लाखों नगर तथा असंख्य गाँव शङ्खचूड़ ने दानरूप में ब्राह्मणों को दिये। इसके बाद उसने अपने पुत्र को सम्पूर्ण दानवों का राजा बनाकर उसे अपनी प्रेयसी पत्नी, राज्य, सम्पूर्ण सम्पत्ति, प्रजा एवं सेवकवर्ग, कोष तथा हाथी- घोड़े आदि वाहन सौंप दिये। उसने स्वयं कवच पहन लिया। हाथ में धनुष और बाण ले लिये। सब सैनिकों को एकत्र किया। तीन लाख घोड़े और पाँच लाख उत्तम श्रेणी के हाथी उपस्थित हुए। दस हजार रथ तथा तीन-तीन करोड़ धनुर्धारी, ढाल-तलवारधारी और त्रिशूलधारी वीर उसकी सेना के अङ्ग बने । ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नारद! इस प्रकार दानवेश्वर शङ्खचूड़ ने अपरिमित सेना सजा ली । युद्ध-शास्त्र के पारगामी एक महारथी वीर को सेनापति के पद पर नियुक्त किया। महारथी उसे समझना चाहिये जो रथियों में श्रेष्ठ हो । राजा शङ्खचूड़ ने उस महारथी को अगणित अक्षौहिणी सेना पर अधिकार प्रदान कर दिया । उस सेनाध्यक्ष में ऐसी योग्यता थी कि स्वयं तीस अक्षौहिणी सेना से अपनी सेना को बचा सकता था। तत्पश्चात् शङ्खचूड़ मन-ही-मन भगवान् श्रीकृष्ण का स्मरण करता हुआ बाहर निकला। उत्तम रत्नों से बने हुए विमान पर सवार हुआ और गुरुवरों को आगे करके भगवान् शंकर की सेवामें चल दिया। नारद! पुष्पभद्रा (या चन्द्रभागा ) नदी के तट पर एक सुन्दर अक्षयवट है। वहीं सिद्धों के बहुत-से आश्रम हैं । उस स्थान को सिद्धक्षेत्र कहा गया है । यह पवित्र स्थान भारतवर्ष में है । इसे कपिलमुनि की तपोभूमि कहते हैं । यह पश्चिमी समुद्र से पूर्व तथा मलयपर्वत से पश्चिम में है, श्रीशैलपर्वत से उत्तर तथा गन्धमादन से दक्षिण भाग में है। इसकी चौड़ाई पाँच योजन है और लम्बाई पाँच सौ योजन । वहाँ भारतवर्ष में एक पुण्यप्रदा नदी बहती है। उसका जल स्वच्छ स्फटिकमणि के समान उद्भासित होता है। वह जल से कभी खाली नहीं होती। उसे पुष्पभद्रा कहते हैं । वह नदी समुद्र की पत्नीरूप से विराजमान होकर सदा सौभाग्यवती बनी रहती है । वह शुद्ध स्फटिक के समान निर्मल जल से पूर्ण है। उसका उद्गम-स्थान हिमालय है। कुछ दूर आगे आने पर शरावती नाम की नदी उसमें मिल गयी है। वह गोमन्त पर्वत को बायें करके बहती हुई पश्चिम समुद्र की ओर प्रस्थान करती है। वहाँ पहुँचकर शङ्खचूड़ ने भगवान् शंकर को देखा। उस समय भगवान् शंकर वटवृक्ष के नीचे विराजमान थे। उनका विग्रह करोड़ों सूर्यों के समान उद्भासित हो रहा था । वे योगासन से बैठे थे, उनके हाथों में वर और अभय की मुद्रा थी । मुखमण्डल मुस्कान से भरा था। वे ब्रह्मतेज से उद्भासित हो रहे थे। उनकी अङ्गकान्ति शुद्ध स्फटिकमणि के समान उज्ज्वल थी । उनके हाथ में त्रिशूल और पट्टिश थे तथा शरीर पर श्रेष्ठ बाघम्बर शोभा पा रहा था । वस्तुतः गौरी के प्रिय पति भगवान् शंकर परम सुन्दर हैं। उनका शान्त विग्रह भक्त के मृत्युभय को दूर करने में पूर्ण समर्थ है। तपस्या का फल देना तथा अखिल सम्पत्तियों को भरपूर रखना उनका स्वाभाविक गुण है । वे बहुत शीघ्र प्रसन्न होते हैं। उनके मुख पर कभी उदासी नहीं आती। वे भक्तों पर अनुग्रह करने वाले हैं। उन्हें विश्वनाथ, विश्वबीज, विश्वरूप, विश्वज, विश्वम्भर, विश्ववर और विश्वसंहारक कहा जाता है । वे कारणों के कारण तथा नरक से उद्धार करने में परम कुशल हैं। वे सनातन प्रभु ज्ञान प्रदान करनेवाले, ज्ञान के बीज तथा ज्ञानानन्द हैं। दानवराज शङ्खचूड़ ने विमान से उतरकर उनके दर्शन किये और सबके साथ सिर झुकाकर उन भगवान् शंकर को भक्तिपूर्वक प्रणाम किया। उस समय शंकर के वाम-भाग में भद्रकाली विराजित थीं और सामने स्वामिकार्तिकेय थे । इन तीनों महानुभावों ने शङ्खचूड़ को आशीर्वाद दिया । उसे आया देखकर नन्दीश्वर प्रभृति सब-के-सब उठकर खड़े हो गये । तदनन्तर सबमें परस्पर सामयिक बातें आरम्भ हो गयीं। उनसे बातचीत करने के पश्चात् राजा शङ्खचूड़ भगवान् शंकर के समीप बैठ गया। तब प्रसन्नात्मा भगवान् महादेव उससे कहने लगे । महादेवजी ने कहा — राजन् ! ब्रह्मा अखिल जगत् के रचयिता हैं । वे धर्मज्ञ एवं धर्म के पिता हैं। उनके पुत्र मरीचि हैं । इनमें श्रीहरि के प्रति अपार श्रद्धा तथा धर्म के प्रति निष्ठा है। मरीचि ने धर्मात्मा कश्यप को पुत्ररूप से प्राप्त किया है। प्रजापति दक्ष ने प्रसन्नतापूर्वक अपनी तेरह कन्याएँ इन्हें सौंपी हैं। उन्हीं कन्याओं में उस वंश की वृद्धि करनेवाली परम साध्वी एक दनु है । दनु के चालीस पुत्र हैं, जिन्हें परम तेजस्वी दानव कहा जाता है। उन पुत्रों में बल एवं पराक्रम से युक्त एक पुत्र का नाम विप्रचित्ति है । विप्रचित्ति के पुत्र दम्भ हैं। ये दम्भ धर्मात्मा, जितेन्द्रिय एवं वैष्णव पुरुष हैं। इन्होंने शुक्राचार्य को गुरु बनाकर भगवान् श्रीकृष्ण के उत्तम मन्त्र का पुष्करक्षेत्र में लाख वर्ष तक जप किया था; तब तुम कृष्णपरायण श्रेष्ठ पुरुष उन्हें पुत्ररूप से प्राप्त हुए हो । पूर्वजन्म में तुम भगवान् श्रीकृष्ण के पार्षद एक महान् धर्मात्मा गोप थे। गोपों में तुम्हारी महती प्रतिष्ठा थी । इस समय तुम श्रीराधिका के शाप से भारतवर्ष में आकर दानवेश्वर बने हो । वैष्णव पुरुष ब्रह्मा से लेकर स्तम्बपर्यन्त सारी वस्तुओं को भ्रममात्र मानते हैं । उन्हें केवल भगवान् श्रीहरि की सेवा ही अभीष्ट है। उसे छोड़कर वे सालोक्य, साष्र्ष्टि, सायुज्य और सामीप्य – इन चार प्रकार की मुक्तियों तक को दिये जाने पर भी स्वीकार नहीं करते। वैष्णवों ने ब्रह्मत्व या अमरत्व को भी तुच्छ माना है। इन्द्रत्व या कुबेरत्व को तो वे कुछ गिनते ही नहीं हैं । तुम वही परम वैष्णव श्रीकृष्ण-भक्त पुरुष हो; तुम्हारे लिये देवताओं का राज्य भ्रममात्र है । उसमें तुम्हारी क्या आस्था हो सकती है ? राजन् ! तुम देवताओं का राज्य उन्हें लौटा दो और मुझे आनन्दित करो । तुम अपने राज्य में सुख से रहो और देवता अपने स्थान पर रहें। भाई-भाई में विरोध से कोई लाभ नहीं है; तुम सब-के-सब एक ही पिता कश्यपजी के वंशज हो । ब्रह्महत्या आदि से उत्पन्न हुए जितने पाप हैं, उनकी यदि जातिद्रोह-सम्बन्धी पापों से तुलना की जाय तो वे इनकी सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं हो सकते। राजेन्द्र ! यदि तुम अपनी सम्पत्ति की हानि समझते हो तो भला, सोचो तो कौन ऐसे पुरुष हैं जिनकी सदा एक-सी स्थिति बनी रह सकी है ? प्राकृतिक प्रलय के समय ब्रह्मा भी अन्तर्धान हो जाते हैं । परमेश्वर की इच्छा से फिर उनका प्राकट्य हो जाता है । फिर तपस्या से निश्चय ही उनमें पूर्ववत् ज्ञान, बुद्धि तथा लोक की स्मृति का उदय होता है । फिर वे स्रष्टा ज्ञानपूर्वक क्रमशः सृष्टि करते हैं। राजन् ! सत्ययुग में धर्म अपने परिपूर्णतम रूप से प्रतिष्ठित रहता है । उस समय सदा सत्य ही उसका आधार होता है। वही धर्म त्रेता में तीन भाग से, द्वापर में दो भाग से तथा कलि में एक भाग से युक्त कहा जाता है । इन तीन युगों में उसका क्रमशः ह्रास होता है। अमावास्या के चन्द्रमा की भाँति कलि के अन्त में धर्म की एक कलामात्र शेष रह जाती है। ग्रीष्म ऋतु में सूर्य का जैसा तेज रहता है, वैसा फिर शिशिर ऋतु में नहीं रह सकता । दिन में भी दोपहर के समय जैसा उनका तेज होता है, वैसा प्रातः काल और सायंकाल में नहीं रहता । सूर्य समय से उदित होते हैं, फिर क्रमशः बाल एवं प्रचण्ड – अवस्था में आकर अन्त में पुनः अस्त हो जाते हैं। कालक्रम से जब दुर्दिन (वर्षा का समय) आता है, तब उन्हें दिन में ही छिप जाना पड़ता है। राहु से ग्रस्त होने पर सूर्य काँपने लगते हैं; पुनः थोड़ी देर के बाद प्रसन्नता आ जाती है। राजन् ! पूर्णिमा की रात में चन्द्रमा जैसे अपनी सभी कलाओं से पूर्ण रहते हैं, वैसे ही सदा नहीं रहते । प्रतिदिन क्षीण होते रहते हैं । फिर अमावास्या के बाद वे प्रतिदिन पुष्ट होने लगते हैं । शुक्लपक्ष में वे शोभा-सम्पत्ति से युक्त रहते और कृष्णपक्ष में क्षय-रोग से पुनः म्लान हो जाते हैं । ग्रहण के अवसर पर उनकी शोभा नष्ट हो जाती है तथा दुर्दिन आने पर अर्थात् मेघाच्छन्न आकाश में वे नहीं चमक पाते। काल-भेद के अनुसार चन्द्रमा किसी समय शुद्ध – श्रीसम्पन्न होते हैं तो किसी समय श्रीहीन हो जाते हैं। बलि भविष्य में इन्द्र होंगे। यद्यपि इस समय श्रीहीन होकर ये सुतल-लोक में स्थित हैं । समय पर विश्व नष्ट होते हैं और काल के प्रभाव से पुनः उनकी उत्पत्ति भी होती है। अखिल चराचर प्राणी काल की प्रेरणा के अनुसार नष्ट और उत्पन्न होते हैं। केवल परमात्मा श्रीकृष्ण ही सम हैं; क्योंकि वे ही सबके ईश्वर हैं। उन्हीं की कृपा से मुझे भी ‘मृत्युञ्जय’ होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। अतएव असंख्य प्राकृत प्रलय को मैंने देखा है और आगे भी मैं बार-बार देखूँगा । वे परमेश्वर ही प्रकृतिरूप हैं और उन्हीं को पुरुष भी कहा जाता है। वे ही आत्मा और वे ही जीव हैं । वे नाना प्रकार के रूप धारण करके सदा कार्य में संलग्न रहते हैं। जो सदा उनके नाम और गुणों का कीर्तन करता है, वह काल, मृत्यु, जन्म, रोग तथा जरा के भय को जीत लेता है। उन्हीं परमेश्वर ने ब्रह्मा को सृष्टिकर्ता, विष्णु को पालनकर्ता तथा मुझको संहारकर्ता बनाया है। उन्हीं की कृपा से हम सब लोग जगत् के शासक बने हैं। राजन् ! इस समय मैं कालाग्निरुद्र को संहार के कार्य में नियुक्त करके स्वयं उन परमेश्वर के नाम और गुण का निरन्तर कीर्तन करता हूँ । इसीसे मृत्यु मुझ पर अपना प्रभाव नहीं डाल सकती। इस ज्ञान की महिमा से मैं सदा निर्भय रहता हूँ । मृत्यु भी मुझसे भय मानकर इस प्रकार भागती है, जैसे गरुड़ के भय से सर्प । नारद! सर्वेश भगवान् शंकर सभा के मध्यभाग में उपर्युक्त बातें कहकर चुप हो गये। तब दानवराज ने उनके वचन सुनकर उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की, साथ ही मधुर वाणी में विनयपूर्वक अपना भाषण आरम्भ किया । शङ्खचूड़ ने कहा — भगवन्! आपने जो कुछ कहा है, वह सब सत्य है। उसे कभी अन्यथा नहीं माना जा सकता; तथापि कुछ मेरी भी प्रार्थना है, उसे यथार्थतः सुनने की कृपा करें। इस समय आपने यहाँ जातिद्रोह को जो महान् पाप बताया है, वह यदि देवताओं को मान्य है तो राजा बलि का सर्वस्व छीनकर उन्हें सुतललोक में क्यों भेज दिया गया? मैंने यह सारा ऐश्वर्य अपने पराक्रम से प्राप्त किया है – दानवों के पूर्व वैभव का उद्धार किया है। भगवान् गदाधर भी सुतललोक से दानवसमाज को हटा देने में समर्थ नहीं हैं; क्योंकि वह उनका पैतृक स्थान है । यदि भाई के साथ द्रोह अनुचित है तो देवताओं ने भाई सहित हिरण्याक्ष की हिंसा क्यों करवायी ? शुम्भ आदि असुरों को देवताओं ने क्यों मार गिराया ? पूर्वकाल में जब समुद्र मथा गया, उस समय अमृत का पान केवल देवताओं ने किया; वे सम्पूर्ण फल के भागी हुए और हमें वहाँ केवल क्लेश का भागीदार बनाया गया । यह सारा विश्व परमात्मा श्रीकृष्ण का क्रीड़ाक्षेत्र है। वे यहाँ जब जिसको देते हैं, उस समय उसी का ऐश्वर्य पर अधिकार होता है । देवताओं और दानवों का ऐश्वर्य निमित्त सदा से विवाद होता आया है। काल के अनुसार बारी-बारी से कभी उनको और कभी हम लोगों को जय अथवा पराजय प्राप्त होती रहती है। हम दोनों के विरोध में आपका आना निष्फल है; क्योंकि आप हम दोनों के साथ समान सम्बन्ध रखने वाले, बन्धु, ईश्वर एवं महात्मा हैं । हम लोगों के साथ इस समय स्पर्धा रखना आपके लिये बड़ी लज्जा की बात है और यदि कहीं युद्ध में आपकी पराजय हुई तो इससे भी अधिक आपकी अपकीर्ति फैलेगी। मुने! शङ्खचूड़ के ये वचन सुनकर भगवान् त्रिलोचन हँसने लगे। तत्पश्चात् उन्होंने उस दानवेश्वर का समुचित उत्तर देना आरम्भ किया । महादेवजी बोले — राजन् ! तुम लोग भी तो ब्रह्मा के ही वंशज हो । फिर तुम्हारे साथ युद्ध करने में तो हमें क्या बड़ी लज्जा होगी और हारने पर हमारी क्या भारी अपकीर्ति होगी ? इसके पहले मधु और कैटभ के साथ श्रीहरि का भी तो युद्ध हो चुका है। राजन् ! एक बार वे हिरण्याक्ष से लड़े थे और पुन: दूसरी बार हिरण्यकशिपु से । स्वयं मैं भी इससे पूर्व त्रिपुर नामक दैत्यों के साथ युद्ध कर चुका हूँ। यही नहीं, किंतु प्राचीन समय में जो सर्वेश्वरी एवं प्रकृति नाम से प्रसिद्ध भगवती जगदम्बा हैं, उनका शुम्भ आदि असुरों के साथ अत्यन्त अद्भुत युद्ध हुआ था। तुम तो स्वयं परमात्मा श्रीकृष्ण के अंश और उनके पार्षद हो जो-जो दैत्य मारे गये हैं, उनमें से कोई भी तुम्हारे-जैसे बलवान् नहीं थे। फिर राजन् ! तुम्हारे साथ युद्ध करने में मुझे क्या लज्जा है ? देवता भगवान् श्रीहरि की शरण में गये हैं। तभी उन्होंने मुझे तुम्हारे पास भेजा है। अतः देवताओं का राज्य तुम लौटा दो। बस, मेरे कहने का इतना ही अभिप्राय है अथवा मेरे साथ प्रसन्नता से लड़ने के लिये तैयार हो जाओ । अब अधिक शब्दों के अपव्यय से क्या प्रयोजन है ? नारद! जब इस प्रकार कहकर भगवान् शंकर चुप हो गये, तब शङ्खचूड़ भी अपने मन्त्रियों के साथ तुरंत उठकर खड़ा हो गया। (अध्याय १८) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे नारदनारायणसंवादे द्वितीये प्रकृतिखण्डे तुलत्युपाख्याने शिव शंखचूडसंवादेऽष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. 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