January 24, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण – प्रकृतिखण्ड – अध्याय 02 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ दूसरा अध्याय परब्रह्म श्रीकृष्ण और श्रीराधा से प्रकट चिन्मय देवी और देवताओं के चरित्र नारदजी ने कहा — प्रभो ! देवियों के सम्पूर्ण चरित्र को मैंने संक्षेप से सुन लिया। अब सम्यक् प्रकार से बोध होने के लिये आप पुनः विस्तारपूर्वक उसका वर्णन कीजिये । सृष्टि के अवसर पर भगवती आद्यादेवी कैसे प्रकट हुईं? वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ भगवन्! देवी के पञ्च-विध होने में क्या कारण है ? यह रहस्य बताने की कृपा करें। देवी की त्रिगुणमयी कला से संसार में जो-जो देवियाँ प्रकट हुईं, उनका चरित्र मैं विस्तार के साथ सुनना चाहता हूँ । सर्वज्ञ प्रभो! उन देवियों के प्राकट्य का प्रसङ्ग, पूजा एवं ध्यान की विधि, स्तोत्र, कवच, ऐश्वर्य तथा मङ्गलमय शौर्य — इन सबका वर्णन कीजिये । भगवान् नारायण बोले — नारद! आत्मा, आकाश, काल, दिशा, गोकुल तथा गोलोकधाम — ये सभी नित्य हैं। कभी इनका अन्त नहीं होता । गोलोक धाम का एक भाग जो उससे नीचे है, वैकुण्ठ धाम है। वह भी नित्य है । ऐसे ही प्रकृति को भी नित्य माना जाता है । यह परब्रह्म में लीन रहने वाली उनकी सनातनी शक्ति है । जिस प्रकार अग्नि में दाहिका शक्ति, चन्द्रमा एवं कमल में शोभा तथा सूर्य में प्रभा सदा वर्तमान रहती है, वैसे ही यह प्रकृति परमात्मा में नित्य विराजमान है। जैसे स्वर्णकार सुवर्ण के अभाव में कुण्डल नहीं तैयार कर सकता तथा कुम्हार मिट्टी के बिना घड़ा बनाने में असमर्थ है, ठीक उसी प्रकार परमात्मा को यदि प्रकृति का सहयोग न मिले तो वे सृष्टि नहीं कर सकते। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय जिसके सहारे श्रीहरि सदा शक्तिमान् बने रहते हैं, वह प्रकृतिदेवी ही शक्तिस्वरूपा हैं। ‘शक्’ का अर्थ है ‘ऐश्वर्य’ तथा ‘ति’ का अर्थ है ‘पराक्रम’; ये दोनों जिसके स्वरूप हैं तथा जो इन दोनों गुणों को देने वाली है, वह देवी ‘शक्ति’ कही गयी है । ‘भग’ शब्द समृद्धि, बुद्धि, सम्पत्ति तथा यश का वाचक है, उससे सम्पन्न होने के कारण शक्ति को ‘भगवती‘ कहते हैं; क्योंकि वह सदा भग-स्वरूपा हैं । परमात्मा सदा इस भगवती प्रकृति के साथ विराजमान रहते हैं, अतएव ‘भगवान्’ कहलाते हैं। वे स्वतन्त्र प्रभु साकार और निराकार भी हैं। उनका निराकार रूप तेजःपुञ्जमय है। योगीजन सदा उसी का ध्यान करते और उसे परब्रह्म परमात्मा एवं ईश्वर की संज्ञा देते हैं। उनका कहना है कि परमात्मा अदृश्य होकर भी सबका द्रष्टा है । वह सर्वज्ञ, सबका कारण, सब कुछ देने वाला, समस्त रूपों का अन्त करने वाला, रूपरहित तथा सबका पोषक है। परंतु जो भगवान् के सूक्ष्मदर्शी भक्त वैष्णवजन हैं, वे ऐसा नहीं मानते हैं । वे पूछते हैं — यदि कोई तेजस्वी पुरुष – साकार पुरुषोत्तम नहीं है तो वह तेज किसका है ? योगी जिस तेजोमण्डल का ध्यान करते हैं, उसके भीतर अन्तर्यामी तेजस्वी परमात्मा परमपुरुष विद्यमान हैं । वे स्वेच्छामयरूपधारी, सर्वस्वरूप तथा समस्त कारणों के भी कारण हैं । वे प्रभु जिस रूप को धारण करते हैं, वह अत्यन्त सुन्दर, रमणीय तथा परम मनोहर है। इन भगवान् की किशोर अवस्था है, ये शान्त-स्वभाव हैं । इनके सभी अङ्ग परम सुन्दर हैं। इनसे बढ़कर जगत् में दूसरा कोई नहीं है । नवीननीरदाभासं रासैकश्यामसुन्दरम् । शरन्मध्याह्नपद्मौघशोभामोचकलोचनम् ॥ १८ ॥ मुक्तासारमहास्वच्छदन्तपङ्क्तिमनोहरम् । मयूरपुच्छचूडं च मालतीमाल्यमण्डितम् ॥ १९ ॥ सुनासं सस्मितं शश्वद्भक्तानुग्रहकारकम् । ज्वलदग्निविशुद्धैकपीतांशुकसुशोभितम् ॥ २०॥ द्विभुजं मुरलीहस्तं रत्नभूषणभूषितम् । सर्वाधारं च सर्वेशं सर्वशक्तियुतं विभुम् ॥ २१ ॥ सर्वैश्वर्य्यप्रदं सर्वं स्वतन्त्रं सर्वमङ्गलम् । परिपूर्णतमं सिद्धं सिद्धि दं सिद्धिकारणम् ॥ २२ ॥ ध्यायन्ते वैष्णवाः शश्वदेवंरूपं सनातनम् । इनका श्याम विग्रह नवीन मेघ की कान्ति का परम धाम है । इनके विशाल नेत्र शरत्काल के मध्याह्न में खिले हुए कमलों की शोभा को छीन रहे हैं। मोतियों की शोभा को तुच्छ करने वाली इनकी सुन्दर दन्त-पंक्ति है। मुकुट में मोर की पाँख सुशोभित है। मालती की माला से ये अनुपम शोभा पा रहे हैं। इनकी सुन्दर नासिका है। मुख पर मुस्कान छायी है। ये परम मनोहर प्रभु भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये व्याकुल रहते हैं । प्रज्वलित अग्नि के समान विशुद्ध पीताम्बर से इनका विग्रह परम मनोहर हो गया है। इनकी दो भुजाएँ हैं । हाथ में बाँसुरी सुशोभित है । ये रत्नमय भूषणों से भूषित, सबके आश्रय, सबके स्वामी, सम्पूर्ण शक्तियों से युक्त एवं सर्वव्यापी पूर्ण पुरुष हैं । समस्त ऐश्वर्य प्रदान करना इनका स्वभाव ही है । ये परम स्वतन्त्र एवं सम्पूर्ण मङ्गल के भण्डार हैं । इन्हें ‘सिद्ध’, ‘सिद्धेश’, ‘सिद्धिकारक’ तथा ‘परिपूर्णतम ब्रह्म’ कहा जाता है । इन देवाधिदेव सनातन प्रभु का वैष्णव पुरुष निरन्तर ध्यान करते हैं। इनकी कृपा से जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि, शोक और भय सब नष्ट हो जाते हैं। ब्रह्मा की आयु इनके एक निमेष की तुलना में है। वे ही ये आत्मा परब्रह्म श्रीकृष्ण कहलाते हैं । ‘कृष्’ का अर्थ है भगवान् की भक्ति और ‘न’ का अर्थ है, उनका ‘दास्य’ । अतः जो अपनी भक्ति और दास्यभाव देने वाले हैं, वे ‘कृष्ण’ कहलाते हैं।‘कृष्’ सर्वार्थ-वाचक है, ‘न’ से बीज अर्थ की उपलब्धि होती है । अतः सर्वबीज-स्वरूप परब्रह्म परमात्मा ‘कृष्ण’ कहे गये हैं । नारद! अतीत काल की बात है, असंख्य ब्रह्माओं का पतन होने के पश्चात् भी जिनके गुणों का नाश नहीं होता है तथा गुणों में जिनकी समानता करने वाला दूसरा नहीं है; वे भगवान् श्रीकृष्ण सृष्टि के आदि में अकेले ही थे । उस समय उनके मन में सृष्टि विषयक संकल्प का उदय हुआ। अपने अंशभूत काल से प्रेरित होकर ही वे प्रभु सृष्टि कर्म के लिये उन्मुख हुए थे । उनका स्वरूप स्वेच्छामय है । वे अपनी इच्छा से ही दो रूपों में प्रकट हो गये। उनका वामांश स्त्रीरूप में आविर्भूत हुआ और दाहिना भाग पुरुषरूप में। वे सनातन पुरुष उस दिव्यस्वरूपिणी स्त्री को देखने लगे। अतीव कमनीयां च चारुचम्पकसन्निभाम् ॥ ३० ॥ पूर्णेन्दुबिम्बसदृशनितम्बयुगलां पराम् । सुचारुकदलीस्तम्भसदृशश्रोणिसुन्दरीम् ॥ ३१ ॥ श्रीयुक्तश्रीफलाकारस्तनयुग्ममनोरमाम् । पुष्ट्या युक्तां सुललितां मध्यक्षीणां मनोहराम् ॥ ३२ ॥ अतीव सुन्दरीं शान्तां सस्मितां वक्रलोचनाम् । वह्निशुद्धांशुकाधानां रत्नभूषणभूषिताम् ॥ ३३ ॥ शश्वच्चक्षुश्चकोराभ्यां पिबन्तीं सन्ततं मुदा । कृष्णस्य सुन्दरमुखं चन्द्रकोटिविनिन्दकम् ॥ ३४ ॥ कस्तूरीबिन्दुभिः सार्द्धमधश्चन्दनबिन्दुना । समं सिन्दूरबिन्दुं च भालमध्ये च बिभ्रतीम् ॥ ३५ ॥ सुवक्रकबरीभारं मालतीमाल्यभूषितम् । रत्नेन्द्रसारहारं च दधतीं कान्तकामुकीम् ॥ ३६ ॥ कोटिचन्द्रप्रभाजुष्टपुष्टशोभासमन्विताम् । गमने राजहंसीं तां दृष्ट्या खञ्जनगञ्जनीम् ॥ ३७ ॥ उसके समस्त अङ्ग बड़े ही सुन्दर थे । मनोहर चम्पा के समान उसकी कान्ति थी । उस असीम सुन्दरी देवी ने दिव्य स्वरूप धारण कर रखा था । मुसकराती हुई वह बंकिम भङ्गिमाओं से प्रभु की ओर ताक रही थी। उसने विशुद्ध वस्त्र पहन रखे थे। रत्नमय दिव्य आभूषण उसके शरीर की शोभा बढ़ा रहे थे। वह अपने चकोर-चक्षुओं के द्वारा श्रीकृष्ण के श्रीमुखचन्द्र का निरन्तर हर्षपूर्वक पान कर रही थी। श्रीकृष्ण का मुखमण्डल इतना सुन्दर था कि उसके सामने करोड़ों चन्द्रमा भी नगण्य थे। उस देवी के ललाट के ऊपरी भाग में कस्तूरी की बिंदी थी। नीचे चन्दन की छोटी-छोटी बिंदियाँ थीं। साथ ही मध्य ललाट में सिन्दूर की बिन्दी भी शोभा पा रही थी । प्रियतम के प्रति अनुरक्त चित्त वाली उस देवी के केश घुँघराले थे। मालती के पुष्पों का सुन्दर हार उसे सुशोभित कर रहा था। करोड़ों चन्द्रमाओं की प्रभा से सुप्रकाशित परिपूर्ण शोभा से इस देवी का श्रीविग्रह सम्पन्न था। यह अपनी चाल से राजहंस एवं गजराज के गर्व को नष्ट कर रही थी । श्रीकृष्ण परम रसिक एवं रास के स्वामी हैं । उस देवी को देखकर रास के उल्लास में उल्लसित हो वे उसके साथ रासमण्डल में पधारे । रास आरम्भ हो गया । मानो स्वयं शृङ्गार ही मूर्तिमान् होकर नाना प्रकार की शृङ्गारोचित चेष्टाओं के साथ रसमयी क्रीड़ा कर रहा हो। एक ब्रह्मा की सम्पूर्ण आयु-पर्यन्त यह रास चलता रहा। तत्पश्चात् जगत्पिता श्रीकृष्ण को कुछ श्रम आ गया। उन नित्यानन्दमय ने शुभ वेला में देवी के भीतर अपने तेज का आधान किया । उत्तम व्रत का पालन करने वाले नारद ! रासक्रीड़ा के अन्त में श्रीकृष्ण के असह्य तेज से श्रान्त हो जाने के कारण उस देवी के शरीर से दिव्य प्रस्वेद बह चला और जोर-जोर से साँस चलने लगी। उस समय जो श्रमजल था, वह समस्त विश्वगोलक बन गया तथा वह निःश्वास वायुरूप में परिणत हो गया, जिसके आश्रय से सारा जगत् वर्तमान है। संसार में जितने सजीव प्राणी हैं, उन सबके भीतर इस वायु का निवास है । फिर वायु मूर्तिमान् हो गया। उसके वामाङ्ग से प्राणों के समान प्यारी स्त्री प्रकट हो गयी। उससे पाँच पुत्र हुए, जो प्राणियों के शरीर में रहकर पञ्च-प्राण कहलाते हैं। उनके नाम हैं — प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान । यों पाँच वायु और उनके पुत्र पाँच प्राण हुए। पसीने के रूप में जो जल बहा था, वही जल का अधिष्ठाता देवता वरुण हो गया। वरुण के बायें अङ्ग से उनकी पत्नी ‘वरुणानी’ प्रकट हुईं। उस समय श्रीकृष्ण की वह चिन्मयी शक्ति उनकी कृपा से गर्भ-स्थिति का अनुभव करने लगी । सौ मन्वन्तर तक ब्रह्मतेज से उसका शरीर देदीप्यमान बना रहा। श्रीकृष्ण के प्राणों पर उस देवी का अधिकार था । श्रीकृष्ण प्राणों से भी बढ़कर उससे प्यार करते थे। वह सदा उनके साथ रहती थी। श्रीकृष्ण का वक्षःस्थल ही उसका स्थान था । सौ मन्वन्तर का समय व्यतीत हो जाने पर उसने एक सुवर्ण के समान प्रकाशमान बालक उत्पन्न किया। उसमें विश्व को धारण करने की समुचित योग्यता थी, किंतु उसे देखकर उस देवी का हृदय दुःख से संतप्त हो उठा। उसने उस बालक को ब्रह्माण्ड-गोलक के अथाह जल में छोड़ दिया। इसने बच्चे को त्याग दिया — यह देखकर देवेश्वर श्रीकृष्ण ने तुरंत उस देवी से कहा — ‘अरी कोपशीले ! तूने यह जो बच्चे का त्याग कर दिया है, यह बड़ा घृणित कर्म है । इसके फलस्वरूप तू आज से संतानहीना हो जा। यह बिलकुल निश्चित है। यही नहीं, किंतु तेरे अंश से जो-जो दिव्य स्त्रियाँ उत्पन्न होंगी, वे सभी तेरे समान ही नूतन तारुण्य से सम्पन्न रहने पर भी संतान का मुख नहीं देख सकेंगी।’ इतने में उस देवी की जीभ के अग्रभाग से सहसा एक परम मनोहर कन्या प्रकट हो गयी। उसके शरीर का वर्ण शुक्ल था । वह श्वेतवर्ण का ही वस्त्र धारण किये हुए थी । उसके दोनों हाथ वीणा और पुस्तक से सुशोभित थे। सम्पूर्ण शास्त्रों की वह अधिष्ठात्री देवी रत्नमय आभूषणों से विभूषित थी । तदनन्तर कुछ समय व्यतीत हो जाने के पश्चात् वह मूल प्रकृतिदेवी दो रूपों में प्रकट हुई । आधे वाम-अङ्ग से ‘कमला’ का प्रादुर्भाव हुआ और दाहिने से ‘राधिका’ का । उसी समय श्रीकृष्ण भी दो रूप हो गये। आधे दाहिने अङ्ग से स्वयं ‘द्विभुज’ विराजमान रहे और बायें अङ्ग से ‘चार भुजा वाले विष्णु’ का आविर्भाव हो गया। तब श्रीकृष्ण ने सरस्वती से कहा — ‘देवी! तुम इन विष्णु की प्रिया बन जाओ। मानिनी राधा यहाँ रहेंगी। तुम्हारा परम कल्याण होगा। इसी प्रकार संतुष्ट होकर श्रीकृष्ण ने लक्ष्मी को नारायण की सेवा में उपस्थित होने की आज्ञा प्रदान की। फिर तो जगत् की व्यवस्था में तत्पर रहने वाले श्रीविष्णु उन सरस्वती और लक्ष्मी देवियों के साथ वैकुण्ठ पधारे। मूल प्रकृतिरूपा राधा के अंश से प्रकट होने के कारण वे देवियाँ भी संतान प्रसव करने में असमर्थ रहीं। फिर नारायण के अङ्ग से चार भुजा वाले अनेक पार्षद उत्पन्न हुए। सभी पार्षद गुण, तेज, रूप और अवस्था में श्रीहरि के समान थे। लक्ष्मी के अङ्ग से उन्हीं – जैसे लक्षणों से सम्पन्न करोड़ों दासियाँ उत्पन्न हो गयीं । मुनिवर नारद! इसके बाद गोलोकेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण के रोमकूप से असंख्य गोप प्रकट हो गये । अवस्था, तेज, रूप, गुण, बल और पराक्रम में वे सभी श्रीकृष्ण के समान ही प्रतीत होते थे । प्राण के समान प्रेमभाजन उन गोपों को परम प्रभु श्रीकृष्ण ने अपना पार्षद बना लिया। ऐसे ही श्रीराधा के रोमकूपों से बहुत-सी गोपकन्याएँ प्रकट हुईं। वे सभी राधा के समान ही जान पड़ती थीं । उन मधुरभाषिणी कन्याओं को राधा ने अपनी दासी बना लिया। वे रत्नमय भूषणों से विभूषित थीं । उनका नया तारुण्य सदा बना रहता था । परम पुरुष के शाप से वे भी सदा के लिये सन्तानहीना हो गयी थीं । विप्र ! इतने में श्रीकृष्ण के शरीर से देवी दुर्गा का सहसा आविर्भाव हुआ। ये दुर्गा सनातनी एवं भगवान् विष्णु की माया हैं । देवीनां बीजरूपा च मूलप्रकृतिरीश्वरी । परिपूर्णतमा तेजःस्वरूपा त्रिगुणात्मिका ॥ ६८ ॥ तप्तकाञ्चनवर्णाभा सूर्य्यकोटिसमप्रभा । ईषद्धासप्रसन्नास्या सहस्रभुजसंयुता ॥ ६९ ॥ नानाशस्त्रास्त्रनिकरं बिभ्रती सा त्रिलोचना । वह्निशुद्धांशुकाधाना रत्नभूषणभूषिता ॥ ७० ॥ यस्याश्चांशांशकलया बभूवुः सर्वयोषितः । सर्वविश्वस्थिता लोका मोहिता मायया यया ॥ ७१ ॥ सर्वैश्वर्य्यप्रदात्री च कामिनां गृहमेधिनाम् । कृष्णभक्ति प्रदात्री च वैष्णवानां च वैष्णवी ॥ ७२ ॥ मुमुक्षूणां मोक्षदात्री सुखिनां सुखदायिनी । स्वर्गेषु स्वर्गलक्ष्मीः सा गृहलक्ष्मीर्गृहेष्वसौ ॥ ७३ ॥ तपस्विषु तपस्या च श्रीरूपा सा नृपेषु च । या चाग्नौ दाहिकारूपा प्रभारूपा च भास्करे ॥ ७४ ॥ शोभास्वरूपा चन्द्रे च पद्मेषु च सुशोभना । सर्वशक्तिस्वरूपा या श्रीकृष्णे परमात्मनि ॥ ७५ ॥ यया च शक्तिमानात्मा यया वै शक्तिमज्जगत् । यया विना जगत्सर्वं जीवन्मृतमिव स्थितम् ॥ ७६ ॥ या च संसारवृक्षस्य बीजरूपा सनातनी । स्थितिरूपा बुद्धिरूपा फलरूपा च नारद ॥ ७७ ॥ क्षुत्पिपासा दया श्रद्धा निद्रा तन्द्रा क्षमा धृतिः । शान्तिर्लज्जातुष्टिपुष्टिभ्रान्तिकान्त्यादिरूपिणी ॥ ७८ ॥ इन्हें नारायणी, ईशानी और सर्वशक्तिस्वरूपिणी कहा जाता है। ये परमात्मा श्रीकृष्ण की बुद्धि की अधिष्ठात्री देवी हैं। सम्पूर्ण देवियाँ इन्हीं से प्रकट होती हैं । अतएव इन्हें देवियों की बीजस्वरूपा मूलप्रकृति एवं ईश्वरी कहते हैं । ये परिपूर्णतमा देवी तेजः-स्वरूपा तथा त्रिगुणात्मिका हैं। तपाये हुए सुवर्ण के समान इनका वर्ण है । प्रभा ऐसी है, मानो करोड़ों सूर्य चमक रहे हों । इनके मुख पर मन्द मन्द मुस्कराहट छायी रहती है। ये हजारों भुजाओं से सुशोभित हैं । अनेक प्रकार के अस्त्र और शस्त्रों को हाथ में लिये रहती हैं । इनके तीन नेत्र हैं। ये विशुद्ध वस्त्र धारण किये हुई हैं । रत्ननिर्मित भूषण इनकी शोभा बढ़ा रहे हैं। सम्पूर्ण स्त्रियाँ इनके अंश की कला से उत्पन्न हैं। इनकी माया जगत् के समस्त प्राणियों को मोहित करने में समर्थ है। सकामभाव से उपासना करने वाले गृहस्थों को ये सम्पूर्ण ऐश्वर्य प्रदान करती हैं। इनकी कृपा से भगवान् श्रीकृष्ण में भक्ति उत्पन्न होती है। विष्णु उपासकों के लिये ये भगवती वैष्णवी (लक्ष्मी) हैं। मुमुक्षुजनों को मुक्ति प्रदान करना और सुख चाहने वालों को सुखी बनाना इनका स्वभाव है। स्वर्ग में ‘स्वर्गलक्ष्मी’ और गृहस्थों के घर ‘गृहलक्ष्मी’ के रूप में ये विराजती हैं । तपस्वियों के पास तपस्यारूप से, राजाओं के यहाँ श्रीरूप से, अग्नि में दाहिकारूप से, सूर्य में प्रभारूप से तथा चन्द्रमा एवं कमल में शोभारूप से इन्हीं की शक्ति शोभा पा रही है। सर्वशक्तिस्वरूपा ये देवी परमात्मा श्रीकृष्ण में विराजमान रहती हैं। इनका सहयोग पाकर आत्मा में कुछ करने की योग्यता प्राप्त होती है। इन्हीं से जगत् शक्तिमान् माना जाता है । इनके बिना प्राणी जीते हुए भी मृतक के समान हैं । नारद! ये सनातनी देवी संसाररूपी वृक्ष के लिये बीजस्वरूपा हैं। स्थिति, बुद्धि, फल, क्षुधा, पिपासा, दया, श्रद्धा, निद्रा, तन्द्रा, क्षमा, मति, शान्ति, लज्जा, तुष्टि, पुष्टि, भ्रान्ति और कान्ति आदि सभी इन दुर्गा के ही रूप हैं । ये देवी सर्वेश श्रीकृष्ण की स्तुति करके उनके सामने विराजमान हुईं। राधिकेश्वर श्रीकृष्ण ने इन्हें एक रत्नमय सिंहासन प्रदान किया। महामुने ! इतने में चतुर्मुख ब्रह्मा अपनी शक्ति के साथ वहाँ पधारे। विष्णु के नाभिकमल से निकलकर उनका पधारना हुआ था । ज्ञानियों में श्रेष्ठ परम तपस्वी श्रीमान् ब्रह्मा अपने हाथ में कमण्डलु लिये हुए थे । ब्रह्मतेज से उनका शरीर देदीप्यमान हो रहा था। अपने चारों मुखों से वे भगवान् श्रीकृष्ण की स्तुति करने लगे। उस समय सैकड़ों चन्द्रमाओं के समान प्रभावशाली उनकी परम सुन्दरी शक्ति अग्निशुद्ध वस्त्र एवं रत्ननिर्मित भूषणों से अलंकृत होकर सर्वकारण श्रीकृष्ण की स्तुति करके पतिदेव के साथ श्रीकृष्ण के सामने रत्नमय सिंहासनपर प्रसन्नतापूर्वक बैठ गयीं । इसी समय भगवान् श्रीकृष्ण के दो रूप हो गये । उनका आधा बाँया अङ्ग महादेव के रूप में परिणत हो गया । दक्षिण अङ्ग से गोपीपति श्रीकृष्ण रह गये। शुद्धस्फटिकसङ्काशः शतकोटिरविप्रभः । त्रिशूलपट्टिशधरो व्याघ्रचर्मधरो हरः ॥ ८५ ॥ तप्तकाञ्चनवर्णाभ जटाभारधरः परः । भस्मभूषणगात्रश्च सस्मितश्चन्द्रशेखरः ॥ ८६ ॥ दिगम्बरो नीलकण्ठः सर्प भूषणभूषितः । बिभ्रद्दक्षिणहस्तेन रत्नमालां सुसंस्कृताम् ॥ ८७ ॥ महादेव की कान्ति ऐसी थी, मानो शुद्ध स्फटिकमणि हो । एक अरब सूर्य के समान वे चमक रहे थे। भुजाएँ पट्टिश और त्रिशूल से सुशोभित थीं। वे बाघम्बर पहने हुए थे । तपाये हुए सुवर्ण के सदृश उनके वर्ण की आभा थी । सिर पर जटाओं का भार छबि बढ़ा रहा था । वे शरीर में भस्म लगाये हुए थे । मस्तक पर चन्द्रमा की शोभा हो रही थी । मुखमण्डल मुसकान से भरा था। नीले कण्ठ से शोभा पाने वाले वे शंकर दिगम्बर वेष में थे। सर्पों ने भूषण बनकर उन्हें भूषित कर रखा था। उनके दाहिने हाथ में रत्नों की बनी हुई सुसंस्कृत माला सुशोभित थी । वे अपने पाँच मुखों से ब्रह्मज्योतिःस्वरूप सनातन श्रीकृष्ण के नाम का जप कर रहे थे । श्रीकृष्ण सत्यस्वरूप, परमात्मा एवं ईश्वर हैं। ये कारणों के कारण, सम्पूर्ण मङ्गलों के मङ्गल, जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि, शोक और भय को हरनेवाले और मृत्यु के भी मृत्यु हैं । मृत्यु की मृत्यु श्रीकृष्ण की स्तुति करके वे ‘मृत्युञ्जय’ नाम से विख्यात हो गये । फिर महाभाग शंकर सामने रखे हुए रत्नमय सुरम्य सिंहासन पर विराज गये। ( अध्याय २) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे नारायणनारदसंवादे देवदेव्युत्पत्तिर्नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Related