ब्रह्मवैवर्तपुराण – प्रकृतिखण्ड – अध्याय 22
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
बाईसवाँ अध्याय
तुलसी पूजन, ध्यान, नामाष्टक तथा तुलसी-स्तवन का वर्णन

नारदजी ने पूछा — प्रभो! तुलसी भगवान् नारायण की प्रिया हैं, इसलिये परम पवित्र हैं । अतएव वे सम्पूर्ण जगत् के लिये पूजनीया हैं; परंतु इनकी पूजा का क्या विधान है और इनकी स्तुति के लिये कौन-सा स्तोत्र है ? यह मैंने अभी तक नहीं सुना है। मुने! किस मन्त्र से उनकी पूजा होनी चाहिये ? सबसे पहले किसने तुलसी की स्तुति की है ? किस कारण से वह आपके लिये भी पूजनीया हो गयीं? अहो ! ये सब बातें आप मुझे बताइये ।

सूतजी कहते हैं — शौनक ! नारद की बात सुनकर भगवान् नारायण का मुखमण्डल प्रसन्नता से खिल उठा। उन्होंने पापों का ध्वंस करने वाली परम पुण्यमयी प्राचीन कथा कहनी आरम्भ कर दी ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय


भगवान् नारायण ऋषि बोले — मुने! भगवान् श्रीहरि तुलसी को पाकर उसके और लक्ष्मी के साथ आनन्द करने लगे। उन्होंने तुलसी को भी गौरव तथा सौभाग्य में लक्ष्मी के समान बना दिया । लक्ष्मी और गङ्गा ने तो तुलसी के नवसङ्गम, सौभाग्य और गौरव को सह लिया, किंतु सरस्वती क्रोध के कारण यह सब सहन न कर सकीं। सरस्वती के द्वारा अपना अपमान होने से तुलसी अन्तर्धान हो गयीं । ज्ञानसम्पन्ना देवी तुलसी सिद्धयोगिनी एवं सर्वसिद्धेश्वरी थीं । अतः उन्होंने श्रीहरि की आँखों से अपने को सर्वत्र ओझल कर लिया। भगवान् ने उसे न देखकर सरस्वती को समझाया और उससे आज्ञा लेकर वे तुलसीवन में गये।

लक्ष्मीबीज (श्रीं), मायाबीज (ह्रीं), कामबीज (क्लीं) और वाणीबीज (ऐं) – इन बीजों का पूर्व में उच्चारण करके ‘वृन्दावनी’ इस शब्द के अन्त में (ङे) विभक्ति लगायी और अन्त में वह्निजाया (स्वाहा ) – का प्रयोग करके ‘श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं वृन्दावन्यै स्वाहा’ इस दशाक्षर मन्त्र का उच्चारण किया। नारद ! यह मन्त्रराज कल्पतरु है । जो इस मन्त्र का उच्चारण करके विधिपूर्वक तुलसी की पूजा करता है, उसे निश्चय ही सम्पूर्ण सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं।

घृत का दीपक, धूप, सिन्दूर, चन्दन, नैवेद्य और पुष्प आदि उपचारों से तथा स्तोत्र द्वारा भगवान् से सुपूजित होने पर तुलसी को बड़ी प्रसन्नता हुई। अतः वह वृक्ष से तुरंत बाहर निकल आयी और परम प्रसन्न होकर भगवान् श्रीहरि के चरणकमलों की शरण में चली गयी। तब भगवान् ने उसे वर दिया — ‘देवी! तुम सर्वपूज्या हो जाओ। मैं स्वयं तुम्हें अपने मस्तक तथा वक्ष:स्थल पर धारण करूँगा । इतना ही नहीं, सम्पूर्ण देवता तुम्हें अपने मस्तक पर धारण करेंगे।’ यों कहकर उसे साथ ले भगवान् श्रीहरि अपने स्थान पर लौट गये ।

भगवान् नारायण कहते हैं — मुने! तुलसी के अन्तर्धान हो जाने पर भगवान् श्रीहरि विरह से आतुर होकर वृन्दावन चले गये थे और वहाँ जाकर उन्होंने तुलसी की पूजा करके इस प्रकार स्तुति की थी ।

श्रीभगवान् बोले — जब वृन्दा (तुलसी) – रूप वृक्ष तथा दूसरे वृक्ष एकत्र होते हैं, तब वृक्ष-समुदाय अथवा वन को बुधजन ‘वृन्दा’ कहते हैं। ऐसी वृन्दा नाम से प्रसिद्ध अपनी प्रिया तुलसी की मैं उपासना करता हूँ। जो देवी प्राचीनकाल में वृन्दावन में प्रकट हुई थी, अतएव जिसे ‘वृन्दावनी’ कहते हैं, उस सौभाग्यवती देवी की मैं उपासना करता हूँ। जो असंख्य वृक्षों में निरन्तर पूजा प्राप्त करती है, अतः जिसका नाम ‘विश्वपूजिता’ पड़ा है, उस जगत्पूज्या देवी की मैं उपासना करता हूँ । देवि ! जिसने सदा अनन्त विश्व को पवित्र किया है, उस ‘विश्वपावनी’ देवी का मैं विरह से आतुर होकर स्मरण करता हूँ। जिसके बिना अन्य पुष्प-समूहों के अर्पण करने पर भी देवता प्रसन्न नहीं होते, ऐसी ‘पुष्पसारा’ – पुष्पों में सारभूता शुद्धस्वरूपिणी तुलसी देवी का मैं शोक से व्याकुल होकर दर्शन करना चाहता हूँ । संसार में जिसकी प्राप्तिमात्र से भक्त परम आनन्दित हो जाता है, इसीलिये ‘नन्दिनी’ नाम से जिसकी प्रसिद्धि है, वह भगवती तुलसी अब मुझ पर प्रसन्न हो जाय। जिस देवी की अखिल विश्व में कहीं तुलना नहीं है, अतएव जो ‘तुलसी’ कहलाती है, उस अपनी प्रिया की मैं शरण ग्रहण करता हूँ। वह साध्वी तुलसी वृन्दारूप से भगवान् श्रीकृष्ण की जीवनस्वरूपा है और उनकी सदा प्रियतमा होने से ‘कृष्णजीवनी’ नाम से विख्यात है । वह देवी तुलसी मेरे जीवन की रक्षा करे ।

॥ नारायण उवाच ॥
अन्तर्हितायां तस्यां च गत्वा च तुलसीवनम् ।
हरिः संपूज्य तुष्टाव तुलसीं विरहातुरः ॥ १७ ॥
॥ श्रीभगवानुवाच ॥
वृन्दारूपाश्च वृक्षाश्च यदैकत्र भवन्ति च ।
विदुर्बुधास्तेन वृन्दां मत्प्रियां तां भजाम्यहम् ॥ १८ ॥
पुरा बभूव या देवी ह्यादौ वृन्दावने वने ।
तेन वृन्दावनी ख्याता तां सौभाग्यां भजाम्यहम् ॥ १९ ॥
असंख्येषु च विश्वेषु पूजिता या निरन्तरम् ।
तेन विश्वपूजिताख्यां जगत्पूज्यां भजाम्यहम् ॥ २० ॥
असंख्यानि च विश्वानि पवित्राणि यया सदा ।
तां विश्वपावनीं देवीं विरहेण स्मराम्यहम् ॥ २१ ॥
देवा न तुष्टाः पुष्पाणां समूहेन यया विना ।
तां पुष्पसारां शुद्धां च द्रष्टुमिच्छामि शोकतः ॥ २२ ॥
विश्वे यत्प्राप्तिमात्रेण भक्त्याऽऽनन्दो भवेद्ध्रुवम् ।
नन्दिनी तेन विख्याता सा प्रीता भविता हि मे ॥ २३ ॥
यस्या देव्या स्तुला नास्ति विश्वेषु निखिलेषु च ।
तुलसी तेन विख्याता तां यामि शरणं प्रिये ॥ २४ ॥
कृष्णजीवनरूपा या शश्वत्प्रियतमा सती ।
तेन कृष्णजीवनीति मम रक्षतु जीवनम् ॥ २५ ॥

इस प्रकार स्तुति करके लक्ष्मीकान्त भगवान् श्रीहरि वहीं बैठ गये। इतने में उनके सामने साक्षात् तुलसी प्रकट हो गयी। उस साध्वी ने उनके चरणों तुरंत मस्तक झुका दिया। अपमान के कारण उस मानिनी की आँखों से आँसू बह रहे थे; क्योंकि पहले उसे बड़ा सम्मान मिल चुका था । ऐसी प्रिया तुलसी को देखकर प्रियतम भगवान् श्रीहरि ने तुरंत उसे अपने हृदय में स्थान दिया। साथ ही सरस्वती से आज्ञा लेकर उसे अपने महल में ले गये। उन्होंने शीघ्र ही सरस्वती के साथ तुलसी का प्रेम स्थापित करवाया।

साथ ही भगवान् ने तुलसी को वर दिया — ‘ देवि! तुम सर्वपूज्या और शिरोधार्या होओ। सब लोग तुम्हारा आदर एवं सम्मान करें ।’

भगवान् विष्णु के इस प्रकार कहने पर वह देवी परम संतुष्ट हो गयी। सरस्वती ने उसे हृदय से लगाया और अपने पास बैठा लिया। नारद ! लक्ष्मी और गङ्गा इन दोनों देवियों ने मन्द मुस्कान के साथ विनयपूर्वक साध्वी तुलसी का हाथ पकड़कर उसे भवन में प्रवेश कराया ।

॥ तुलसी नामाष्टक स्तोत्र  ॥

वृन्दां वृन्दावनीं विश्वपावनीं विश्वपूजिताम् ।
पुष्पसारां नन्दिनीं च तुलसीं कृष्णजीवनीम् ॥ ३२ ॥
एतन्नामाष्टकं चैत त्स्तोत्रं नामार्थसंयुतम् ।
यः पठेत्तां च संपूज्य सोऽश्वमेधफलं लभेत् ॥ ३३ ॥

वृन्दा, वृन्दावनी, विश्वपावनी, विश्वपूजिता, पुष्पसारा, नन्दिनी, तुलसी और कृष्णजीवनी — ये देवी तुलसी के आठ नाम हैं। यह सार्थक नामावली स्तोत्र के रूप में परिणत है । जो पुरुष तुलसी की पूजा करके इस ‘नामाष्टक’ का पाठ करता है, उसे अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त हो जाता है।

कार्तिक की पूर्णिमा तिथि को देवी तुलसी का मङ्गलमय प्राकट्य हुआ और सर्वप्रथम भगवान् श्रीहरि ने उसकी पूजा सम्पन्न की। जो इस कार्तिकी पूर्णिमा के अवसर पर विश्वपावनी तुलसी की भक्ति-भाव से पूजा करता है, वह सम्पूर्ण पापों से मुक्त होकर भगवान् विष्णु के लोक में चला जाता है। जो कार्तिक महीने में भगवान् विष्णु को तुलसी-पत्र अर्पण करता है, वह दस हजार गोदान का फल निश्चितरूप से पा जाता है। इस तुलसी-नामाष्टक के स्मरणमात्र से संतानहीन पुरुष पुत्रवान् बन जाता है। जिसे पत्नी न हो, उसे पत्नी मिल जाती है तथा बन्धुहीन व्यक्ति बहुत-से बान्धवों को प्राप्त कर लेता है। इसके स्मरण से रोगी रोगमुक्त हो जाता है, बन्धन में पड़ा हुआ व्यक्ति छुटकारा पा जाता है, भयभीत पुरुष निर्भय हो जाता है और पापी पापों से मुक्त हो जाता है।

नारद ! यह तुलसी-स्तोत्र बतला दिया । अब ध्यान और पूजा-विधि सुनो। तुम तो इस ध्यान को जानते ही हो । वेद की कण्व शाखा में इसका प्रतिपादन हुआ है। ध्यान में सम्पूर्ण पापों को नष्ट करने की अबाध शक्ति है। ध्यान करने के पश्चात् बिना आवाहन किये भक्तिपूर्वक तुलसी के वृक्ष में षोडशोपचार से इस देवी की पूजा करनी चाहिये ।

परम साध्वी तुलसी पुष्पों में सार हैं। ये पूजनीया तथा मनोहारिणी हैं। सम्पूर्ण पापरूपी ईंधन को भस्म करने के लिये ये प्रज्वलित अग्नि की लपट के समान हैं। पुष्पों में अथवा देवियों में किसी से भी इनकी तुलना नहीं हो सकी। इसीलिये उन सबमें पवित्ररूपा इन देवी को तुलसी कहा गया। ये सबके द्वारा अपने मस्तक पर धारण करने योग्य हैं। सभी को इन्हें पाने की इच्छा रहती है विश्व को पवित्र करने वाली ये देवी जीवन्मुक्त हैं । मुक्ति और भगवान् श्रीहरि की भक्ति प्रदान करना इनका स्वभाव है। ऐसी भगवती तुलसी की मैं उपासना करता हूँ।

तुलसीं पुष्पसारां च सतीं पूज्यां मनोहराम् ।
कृत्स्नपापेध्मदाहाय ज्वलदग्निशिखोपमाम् ॥ ४१ ॥
पुष्पेषु तुलनाप्यस्या नासीद्देवीषु वा मुने ।
पवित्ररूपा सर्वासु तुलसी सा च कीर्त्तिता ॥ ४२ ॥
शिरोधार्य्या च सर्वेषामीप्सितां विश्वपावनीम् ।
जीवन्मुक्तां मुक्तिदां च भज तां हरिभक्तिदाम् ॥ ४३ ॥

विद्वान् पुरुष इस प्रकार ध्यान, पूजन और स्तवन करके देवी तुलसीको प्रणाम करे। नारद! तुलसीका उपाख्यान कह चुका । पुनः क्या सुनना चाहते हो । (अध्याय २२)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे तुलस्युपाख्यानं नाम द्वाविंशतितमोऽध्यायः ॥ २२ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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