January 31, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण – प्रकृतिखण्ड – अध्याय 23 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ तेईसवाँ अध्याय सावित्री देवी की पूजा-स्तुति का विधान नारदजी ने कहा — भगवन् ! अमृत की तुलना करने वाली तुलसी की कथा मैं सुन चुका। अब आप सावित्री का उपाख्यान कहने की कृपा करें । देवी सावित्री वेदों की जननी हैं; ऐसा सुना गया है। ये देवी सर्वप्रथम किससे प्रकट हुईं? सबसे पहले इनकी किसने पूजा की और बाद में किन लोगों ने ? भगवान् नारायण कहते हैं — मुने! सर्वप्रथम ब्रह्माजी ने वेदजननी सावित्री की पूजा की। तत्पश्चात् ये देवताओं से सुपूजित हुईं। तदनन्तर विद्वानों ने इनका पूजन किया। इसके बाद भारतवर्ष में राजा अश्वपति ने पहले इनकी उपासना की । तदनन्तर चारों वर्णों के लोग इनकी आराधना में संलग्न हो गये । ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नारदजी ने पूछा — ब्रह्मन्! राजा अश्वपति कौन थे ? किस कामना से उन्होंने सावित्री की पूजा की थी ? भगवान् नारायण बोले — मुने! महाराज अश्वपति मद्रदेश के नरेश थे। शत्रुओं की शक्ति नष्ट करना और मित्रों के कष्ट का निवारण करना उनका स्वभाव था । उनकी रानी का नाम मालती था । धर्मों का पालन करने वाली वह महाराज्ञी राजा के साथ इस प्रकार शोभा पाती थी, जैसे लक्ष्मीजी भगवान् विष्णु के साथ । नारद! उस महासाध्वी रानी ने वसिष्ठजी के उपदेश से भक्तिपूर्वक भगवती सावित्री की आराधना की; परंतु उसे देवी की ओर से न तो कोई प्रत्यादेश मिला और न देवीजी ने साक्षात् दर्शन ही दिये । अतः मन में कष्ट का अनुभव करती हुई दुःख से घबराकर वह घर चली गयी। राजा अश्वपति ने उसे दुःखी देखकर नीति-पूर्ण वचनों द्वारा समझाया और स्वयं भक्तिपूर्वक वे सावित्री की प्रसन्नता के निमित्त तपस्या करने के लिये पुष्करक्षेत्र में चले गये। वहाँ रहकर इन्द्रियों को वश में करके उन्होंने बड़ी तपस्या की । तब भगवती सावित्री के दर्शन तो नहीं हुए, किंतु उनका प्रत्यादेश (उत्तर) प्राप्त हुआ। महाराज अश्वपति को यह आकाशवाणी सुनायी दी – ‘ राजन् ! तुम दस लाख गायत्री का जप करो।’ इतने में ही वहाँ मुनिवर पराशरजी पधार गये । राजा ने मुनि को प्रणाम किया। मुनि राजा से कहने लगे । पराशर ने कहा — राजन् ! गायत्री का एक बार का जप दिन के पाप को नष्ट कर देता है। दस बार जप करने से दिन और रात के सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं। सौ बार जप करने से महीनों का उपार्जित पाप नहीं ठहर सकता। एक हजार के जप से वर्षों के पाप भस्म हो जाते हैं। गायत्री के एक लाख जप में एक जन्म के तथा दस लाख जप में तीन जन्मों के भी पापों को नष्ट करने की अमोघ शक्ति है । एक करोड़ जप करने पर सम्पूर्ण जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं। दस करोड़ गायत्री-जप ब्राह्मणों को मुक्त कर देता है । द्विज को चाहिये कि वह पूर्वाभिमुख होकर बैठे। हाथ को सर्प की फण के समान कर ले। वह हाथ ऊर्ध्वमुख हो और ऊपर की ओर से कुछ-कुछ मुद्रित (मुँदा-सा) रहे । उसे किञ्चित् झुकाये हुए स्थिर रखे। अनामिका के बिचले पर्व से आरम्भ करके नीचे और बायें होते हुए तर्जनी के मूलभाग तक अँगूठे से स्पर्शपूर्वक जप करे। हाथ में जप करने का यही क्रम है। करं सर्पफणाकारं कृत्वा तु ऊर्ध्वमुद्रितम् ॥ १७ ॥ आनम्रमूर्द्धमचलं प्रजपेत्प्राङ्मुखो द्विजः । अनामिकामध्यदेशादथो वामक्रमेण च ॥ १८ ॥ तर्जनीमूलपर्य्यन्तं जपस्यैष क्रमः करे । राजन् ! श्वेत कमल के बीजों की अथवा स्फटिक मणि की माला बनाकर उसका संस्कार कर लेना चाहिये । इन्हीं वस्तुओं की माला बनाकर तीर्थ में अथवा किसी देवता मन्दिर में जप करे। पीपल के सात पत्तों पर संयमपूर्वक माला को रखकर गोरोचन से अनुलिप्त करे। फिर गायत्री-जपपूर्वक विद्वान् पुरुष उस माला को स्नान करावे । तत्पश्चात् उसी माला पर विधिपूर्वक गायत्री के सौ मन्त्रों का जप करना चाहिये। अथवा पञ्चगव्य या गङ्गाजल से स्नान करा देने पर भी माला का संस्कार हो जाता है। इस तरह शुद्ध की हुई माला से जप करना चाहिये । राजर्षे! तुम इस क्रम से दस लाख गायत्री का जप करो। इससे तुम्हारे तीन जन्मों के पाप क्षीण हो जायँगे। तत्पश्चात् तुम भगवती सावित्री का साक्षात् दर्शन कर सकोगे। राजन् ! तुम प्रतिदिन मध्याह्न, सायं एवं प्रातःकाल की संध्या पवित्र होकर करना; क्योंकि संध्या न करने वाला अपवित्र व्यक्ति सम्पूर्ण कर्मों के लिये सदा अनधिकारी हो जाता है । वह दिन में जो कुछ सत्कर्म करता है, उसके फल से वञ्चित रहता है । जो प्रातः एवं सायंकाल की संध्या नहीं करता है, वह ब्राह्मण सम्पूर्ण ब्राह्मणोचित कर्मों से बहिष्कृत माना जाता है। जो प्रातः और सायंकाल की संध्योपासना नहीं करता है, वह शूद्र की भाँति समस्त द्विजोचित कर्मों से बहिष्कृत कर देने योग्य हो जाता है। जीवनपर्यन्त त्रिकाल-संध्या करने वाले ब्राह्मण में तेज अथवा तप के प्रभाव से सूर्य के समान तेजस्विता आ जाती है । ऐसे ब्राह्मण की चरणरज से पृथ्वी पवित्र हो जाती है । जिस ब्राह्मण के हृदय में संध्या के प्रभाव से पाप स्थान नहीं पा सके हों, वह तेजस्वी द्विज जीवन्मुक्त ही है। उसके स्पर्शमात्र से सम्पूर्ण तीर्थ पवित्र हो जाते हैं। पाप उसे छोड़कर वैसे ही भाग जाते हैं; जैसे गरुड़ को देखकर सर्पों में भगदड़ मच जाती । त्रिकाल संध्या न करनेवाले द्विज के दिये हुए पिण्ड और तर्पण को उसके पितर इच्छापूर्वक ग्रहण नहीं करते तथा देवगण भी स्वतन्त्रता से उसे लेना नहीं चाहते । मुने ! इस प्रकार कहकर मुनिवर पराशर ने राजा अश्वपति को सावित्री की पूजा के सम्पूर्ण विधान तथा ध्यान आदि अभिलषित प्रयोग बतला दिये। उन महाराज को उपदेश देकर मुनिवर अपने स्थान को चले गये; फिर राजा ने सावित्री की उपासना की। उन्हें उनके दर्शन प्राप्त हुए और अभीष्ट वर भी प्राप्त हो गया । नारद ने पूछा — भगवन् ! मुनिवर पराशर ने सावित्री के किस ध्यान, किस पूजा-विधान, किस स्तोत्र और किस मन्त्र का उपदेश दिया था तथा राजा ने किस विधि से श्रुति-जननी सावित्री की पूजा करके किस वर को प्राप्त किया ? किस विधान से भगवती उनसे सुपूजित हुईं? मैं ये सभी प्रसङ्ग सुनना चाहता हूँ । सावित्री की श्रेष्ठ महिमा अत्यन्त रहस्यमयी है। कृपया मुझे सुनाइये । भगवान् नारायण कहते हैं — नारद! ज्येष्ठ कृष्ण त्रयोदशी के दिन संयमपूर्वक रहकर चतुर्दशी के दिन व्रत करके शुद्ध समय में भक्ति के साथ भगवती सावित्री की पूजा करनी चाहिये। यह चौदह वर्ष का व्रत है। इसमें चौदह फल और चौदह नैवेद्य अर्पण किये जाते हैं। पुष्प एवं धूप, वस्त्र तथा यज्ञोपवीत आदि से विधिपूर्वक पूजन करके नैवेद्य अर्पण करने का विधान है। एक मङ्गल-कलश स्थापित करके उस पर फल और पल्लव रख दे। द्विज को चाहिये कि गणेश, सूर्य, अग्नि, विष्णु, शिव और पार्वती की पूजा करके आवाहित कलश पर अपनी इष्टदेवी सावित्री का पूजन करे। देवी सावित्री का ध्यान सुनो। यजुर्वेद की माध्यन्दिनी शाखा में इसका प्रतिपादन हुआ है । स्तोत्र, पूजा-विधान तथा समस्त कामप्रद मन्त्र भी बतलाता हूँ। ध्यान यह है- तप्तकाञ्चनवर्णाभां ज्वलन्तीं ब्रह्मतेजसा । ग्रीष्ममध्याह्नमार्त्तण्डसहस्रसमसुप्रभाम् ॥ ४७ ॥ ईषद्धास्यप्रसन्नास्यां रत्नभूषणभूषिताम् । वह्निशुद्धांशुकाधानां भक्तानुग्रहकातराम् ॥ ४८ ॥ सुखदां मुक्तिदां शान्तां कान्तां च जगतां विधेः । सर्वसम्पत्स्वरूपां च प्रदात्रीं सर्वसम्पदाम् ॥ ४९ ॥ वेदाधिष्ठातृदेवीं च वेदशास्त्रस्वरूपिणीम् । वेदे बीजस्वरूपां च भजे त्वां वेदमातरम् ॥ ५० ॥ ‘भगवती सावित्री का वर्ण तपाये हुए सुवर्ण के समान है। ये सदा ब्रह्मतेज से देदीप्यमान रहती हैं। इनकी प्रभा ऐसी है, मानो ग्रीष्म ऋतु के मध्याह्नकालिक सहस्रों सूर्य हों । इनके प्रसन्न मुख पर मुस्कान छायी रहती है । रत्नमय भूषण इन्हें अलंकृत किये हुए हैं। दो अग्निशुद्ध वस्त्रों को इन्होंने धारण कर रखा है। भक्तों पर कृपा करने के लिये ही ये साकाररूप से प्रकट हुई हैं। जगद्धाता प्रभु की इन प्राणप्रिया को ‘सुखदा’, ‘मुक्तिदा’, ‘शान्ता’, ‘सर्वसम्पत्स्वरूपा’ तथा ‘सर्वसम्पत्प्रदात्री ‘ कहते हैं । ये वेदों की अधिष्ठात्री देवी हैं (वेद- शास्त्र इनके स्वरूप हैं। मैं ऐसी वेदबीजस्वरूपा वेदमाता आप भगवती सावित्री की उपासना करता हूँ।’ इस प्रकार ध्यान करके अपने मस्तक पर पुष्प रखे। फिर श्रद्धा के साथ ध्यानपूर्वक कलश के ऊपर भगवती सावित्री का आवाहन करे । वेदोक्त मन्त्रों का उच्चारण करते हुए सोलह प्रकार के उपचारों से व्रती पुरुष भगवती की पूजा करे। विधिपूर्वक पूजा और स्तुति सम्पन्न हो जाने पर देवेश्वरी सावित्री को प्रणाम करे। आसन, पाद्य, अर्घ्य, स्नान, अनुलेपन, धूप, दीप, नैवेद्य, ताम्बूल, शीतल जल, वस्त्र, भूषण, माला, गन्ध, आचमन और मनोहर शय्या — ये देने योग्य षोडश उपचार हैं । [ आसन – समर्पण – मन्त्र ] दारुसारविकारं च हेमादिनिर्मितं च वा । देवाधारं पुण्यदं च मया नित्यं निवेदितम् ॥ ५५ ॥ देवि ! यह आसन उत्तम काष्ठ के सारतत्त्व से बना हुआ है। साथ ही सुवर्ण आदि का बना हुआ आसन भी प्रस्तुत है । देवताओं के बैठने योग्य यह पुण्यप्रद आसन मैंने सदा के लिये आपकी सेवा में समर्पित कर दिया है ॥ ५५ ॥ [पाद्य-मन्त्र ] तीर्थोदकं च पाद्यं च पुण्यदं प्रीतिदं महत् । पूजाङ्गभूतं शुद्धं च मया भक्त्या निवेदितम् ॥ ५६ ॥ देवेश्वरि ! यह तीर्थ का पवित्र जल आपके लिये पाद्य के रूप में प्रस्तुत है, जो अत्यन्त प्रीतिदायक तथा पुण्यप्रद है । पूजा का अङ्गभूत यह शुद्ध पाद्य मैंने भक्तिभाव से आपके चरणों में अर्पित किया है ॥ ५६ ॥ [ अर्घ्य मन्त्र ] पवित्ररूपमर्घ्यं च दूर्वापुष्पाक्षतान्वितम् । पुण्यदं शंखतोयाक्तं मया तुभ्यं निवेदितम् ॥ ५७ ॥ देवि ! यह शङ्ख के जल से युक्त तथा दूर्वा, पुष्प और अक्षत से सम्पन्न परम पवित्र पुण्यदायक अर्घ्य मेरे द्वारा आपकी सेवा में निवेदन किया गया है ॥ ५७ ॥ [स्नानीय मन्त्र ] सुगन्धि धात्रीतैलं च देहसौन्दर्य्यकारणम् । मया निवेदितं भक्त्या स्नानीयं प्रतिगृह्यताम् ॥ ५८ ॥ देवि ! जो शरीर के सौन्दर्य को बढ़ाने में कारण है, वह सुगन्धित आँवले का तैल और स्नान के लिये जल मैंने भक्तिभाव से सेवामें निवेदित किया है । आप यह सब स्वीकार करें ॥ ५८ ॥ [अनुलेपन-मन्त्र ] मलयाचलसम्भूतं देहशोभाविवर्द्धनम् । सुगन्धियुक्तं सुखदं मया तुभ्यं निवेदितम् ॥ ५९ ॥ देवेश्वरि ! यह मलयपर्वत से उत्पन्न, सुगन्धयुक्त सुखद चन्दन, जो देह की शोभा को बढ़ानेवाला है, मैंने अनुलेपन के रूप में आपको अर्पित किया है ॥ ५९ ॥ [ धूप- समर्पण-मन्त्र ] गन्धद्रव्योद्भवः पुण्यः प्रीतिदो दिव्यगन्धदः । मया निवेदितो भक्त्या धूपोऽयं प्रतिगृह्यताम् ॥ ६० ॥ देवि ! जो सुगन्धित द्रव्यों से बना हुआ, पवित्र, प्रीतिदायक तथा दिव्य सुगन्ध प्रकट करनेवाला है, ऐसा यह धूप मैंने भक्तिभाव से आपको अर्पित किया है। आप इसे ग्रहण करें ॥ ६० ॥ [ दीप- समर्पण – मन्त्र ] जगतां दर्शनीयं च दर्शनं दीप्तिकारणम् । अन्धकारध्वंसबीजं मया तुभ्यं निवेदितम् ॥ ६१ ॥ देवेश्वरि! जो जगत् के लिये दर्शनीय, दृष्टि का सहायक तथा दीप्ति (प्रकाश) का कारण है, जिसे अन्धकार के विनाश का बीज कहा गया है, वह दिव्य दीप मेरे द्वारा आपकी सेवामें निवेदन किया गया है ॥ ६१ ॥ [ नैवेद्य समर्पण – मन्त्र ] तुष्टिदं पुष्टिदं चैव प्रीतिदं क्षुद्विनाशनम् । पुण्यदं स्वादुरूपं च नैवेद्यं प्रतिगृह्यताम् ॥ ६२ ॥ देवि ! जो तुष्टि, पुष्टि, प्रीति तथा पुण्य प्रदान करनेवाला तथा भूख मिटाने में समर्थ है, ऐसा सुस्वादु नैवेद्य आपके समक्ष प्रस्तुत है, आप इसे स्वीकार करें ॥ ६२ ॥ [ ताम्बूल-समर्पण-मन्त्र ] ताम्बूलं च वरं रम्यं कर्पूरादिसुवासितम्। तुष्टिदं पुष्टिदं चैव मया भक्त्या निवेदितम् ॥ ६३ ॥ देवेश्वरि ! यह सुन्दर, रमणीय, संतोषप्रद, पुष्टिकारक एवं कर्पूर आदि से सुवासित ताम्बूल मैंने भक्तिभाव से अर्पित किया है। कृपया ग्रहण करें ॥ ६३ ॥ [ शीतल जल-समर्पण-मन्त्र ] सुशीतलं वासितं च पिपासानाशकारणम् । जगतां जीवरूपं च जीवनं प्रतिगृह्यताम् ॥ ६४ ॥ हे देवि ! यह प्यास मिटाने में समर्थ तथा सम्पूर्ण जगत् का जीवनरूप सुवासित एवं सुशीतल जल अर्पित है, इसे स्वीकार करें ॥ ६४ ॥ [ वस्त्र – समर्पण-मन्त्र ] देहशोभास्वरूपं च सभाशोभाविवर्द्धनम् । कार्पासजं च कृमिजं वसनं प्रतिगृह्यताम् ॥ ६५ ॥ देवेश्वरि ! यह सूती और रेशमी वस्त्र देहकी शोभाका तो स्वरूप ही है, सभामें शरीरकी विशेष शोभाकी वृद्धि करनेवाला है । अतः इसे ग्रहण करें ॥ ६५ ॥ [ भूषण – समर्पण-मन्त्र ] काञ्चनादिविनिर्माणं श्रीयुक्तं श्रीकरं सदा । सुखदं पुण्यदं चैव भूषणं प्रतिगृह्यताम् ॥ ६६ ॥ देवि ! सुवर्ण आदि का बना हुआ यह आभूषण सेवामें अर्पित है। यह स्वयं तो सुन्दर है ही; जो इसे धारण करता है, उसकी शोभा को भी यह सदा बढ़ाता रहता है। इससे सुख और पुण्य की प्राप्ति होती है, अतः आप कृपापूर्वक इसे स्वीकार करें ॥ ६६ ॥ [ माल्य – समर्पण – मन्त्र ] नानापुष्पविनिर्माणं बहुभाससमन्वितम् । प्रीतिदं पुण्यदं चैव माल्यं च प्रतिगृह्यताम् ॥ ६७ ॥ देवेश्वरि! नाना प्रकार के फूलों का बना हुआ यह सुन्दर हार अत्यन्त प्रकाशमान है। इससे आपको प्रसन्नता प्राप्त होगी । अतः कृपया इस पुण्यदायक हार को आप ग्रहण करें ॥ ६७ ॥ [ गन्ध-समर्पण – मन्त्र ] सर्वमङ्गलरूपश्च सर्वमङ्गलदो वरः । पुण्यप्रदश्च गन्धाढ्यो गन्धश्च प्रतिगृह्यताम् ॥ ६८ ॥ देवि! यह सर्वमङ्गलरूप एवं सर्वमङ्गलदायक, श्रेष्ठ पुण्यप्रद तथा सुगन्धित गन्ध आपकी सेवामें समर्पित है, इसे स्वीकार कीजिये ॥ ६८ ॥ [आचमनीय- समर्पण – मन्त्र ] शुद्धं शुद्धिप्रदं चैव शुद्धानां प्रीतिदं महत् । रम्यमाचमनीयं च मया दत्तं प्रगृह्यताम् ॥ ६९ ॥ देवेश्वरि ! मेरा दिया हुआ यह रमणीय आचमनीय शुद्ध होने के साथ ही शुद्धिदायक भी है। इससे शुद्ध पुरुषों को बड़ी प्रसन्नता प्राप्त होती है । आप कृपापूर्वक इसे स्वीकार करें ॥ ६९॥ [ शय्या-समर्पण-मन्त्र ] रत्नसारादिनिर्माणं पुष्पचन्दनसंयुतम् । सुखदं पुण्यदं चैव सुतल्पं प्रतिगृह्यताम् ॥ ७० ॥ देवि ! यह सुन्दर शय्या रत्नसार आदि की बनी हुई है। इस पर फूल बिछे हैं और चन्दन का छिड़काव हुआ है। अतएव यह सुखदायिनी और पुण्यदायिनी भी है। आप इसे ग्रहण करें ॥ ७० ॥ [ फल-समर्पण-मन्त्र ] नानावृक्षसमुद्भूतं नानारूपसमन्वितम् । फलस्वरूपं फलदं फलं च प्रतिगृह्यताम् ॥ ७१ ॥ देवेश्वरि ! अनेक वृक्षों से उत्पन्न तथा नाना रूपों में उपलब्ध अभीष्ट फलस्वरूप एवं अभिलषित फलदायक यह फल सेवामें प्रस्तुत है । इसे स्वीकार करें ॥ ७१ ॥ [सिन्दूर – समर्पण-मन्त्र ] सिन्दूरं च वरं रम्यं भालशोभाविवर्द्धनम् । पूरणं भूषणानां च सिन्दूरं प्रतिगृह्यताम् ॥ ७२ ॥ देवि! यह सुन्दर एवं सुरम्य सिन्दूर भाल की शोभा को बढ़ानेवाला है। इसे आभूषणों का पूरक माना गया है। आप इसे ग्रहण करें ॥ ७२॥ [ यज्ञोपवीत समर्पण – मन्त्र ] विशुद्धग्रन्थिसंयुक्तं पुण्यसूत्रविनिर्मितम् । पवित्रं वेदमन्त्रेण यज्ञसूत्रं च गृह्यताम् ॥ ७३ ॥ देवेश्वरि ! पवित्र सूत का बना हुआ यह यज्ञोपवीत विशुद्ध ग्रन्थियों से युक्त है। इसे वेदमन्त्र से पवित्र किया गया है। कृपया स्वीकार करें ॥ ७३ ॥ विद्वान् पुरुष इन द्रव्यों को मूलमन्त्र से भगवती सावित्री के लिये अर्पण करके स्तोत्र पढ़े । तदनन्तर भक्तिपूर्वक ब्राह्मण को दक्षिणा दे। ‘सावित्री’ इस शब्द में चतुर्थी विभक्ति लगाकर अन्त में ‘स्वाहा’ शब्द का प्रयोग होना चाहिये । इसके पूर्व लक्ष्मी, माया और कामबीजका उच्चारण हो । ‘श्रीं ह्रीं क्लीं सावित्र्यै स्वाहा’ यह अष्टाक्षर मन्त्र ही मूलमन्त्र कहा गया है। भगवती सावित्री का सम्पूर्ण कामनाओं को प्रदान करनेवाला स्तोत्र माध्यन्दिनी शाखा में वर्णित है । ब्राह्मणों के लिये जीवनस्वरूप इस स्तोत्र को तुम्हारे सामने मैं व्यक्त करता हूँ, सुनो। पूर्वकाल में गोलोकधाम में विराजमान भगवान् श्रीकृष्ण ने सावित्री को ब्रह्मा के साथ जाने की आज्ञा दी; परंतु सावित्री उनके साथ ब्रह्मलोक जाने को प्रस्तुत नहीं हुईं। तब भगवान् श्रीकृष्ण के कथनानुसार ब्रह्माजी भक्तिपूर्वक वेदमाता सावित्री की स्तुति करने लगे । तदनन्तर सावित्री ने संतुष्ट होकर ब्रह्मा को पति बनाना स्वीकार कर लिया । ब्रह्माजी ने सावित्री की इस प्रकार स्तुति की। ॥ ब्रह्मोवाच ॥ नारायणस्वरूपे च नारायणि सनातनि । नारायणात्समुद्भूते प्रसन्ना भव सुन्दरि ॥ ७९ ॥॥ तेजस्स्वरूपे परमे परमानन्दरूपिणि । द्विजातीनां जातिरूपे प्रसन्ना भव सुन्दरि ॥ ८० ॥ नित्ये नित्यप्रिये देवि नित्यानन्दस्वरूपिणि । सर्वमंगलरूपेण प्रसन्ना भव सुन्दरि ॥ ८१ ॥ सर्वस्वरूपे विप्राणां मन्त्रसारे परात्परे । सुखदे मोक्षदे देवि प्रसन्ना भव सुन्दरि॥ ८२ ॥ विप्रपापेन्धदाहाय ज्वलदग्निशिखोपमे । ब्रह्मतेजःप्रदे देवि प्रसन्ना भव सुन्दरि ॥ ८३ ॥ कायेन मनसा वाचा यत्पापं कुरुते द्विजः । तत्ते स्मरणमात्रेण भस्मीभूतं भविष्यति॥ ८४ ॥ ब्रह्माजी ने कहा — सुन्दरि ! तुम नारायणस्वरूपा एवं नारायणी हो। सनातनी देवि ! भगवान् नारायण से ही तुम्हारा प्रादुर्भाव हुआ है। तुम मुझ पर प्रसन्न होने की कृपा करो। देवि! तुम परम तेजः स्वरूपा हो। तुम्हारे प्रत्येक अङ्ग में परम आनन्द व्याप्त है । द्विजातियों के लिये जातिस्वरूपा सुन्दरि ! तुम मुझ पर प्रसन्न हो जाओ । सुन्दरि ! तुम नित्या, नित्यप्रिया तथा नित्यानन्दस्वरूपा हो। तुम अपने सर्वमङ्गलमय रूप से मुझ पर प्रसन्न हो जाओ । शोभने ! तुम ब्राह्मणों के लिये सर्वस्व हो । तुम सर्वोत्तम एवं मन्त्रों की सार-तत्त्व हो । तुम्हारी उपासना से सुख और मोक्ष सुलभ हो जाते हैं। मुझ पर प्रसन्न हो जाओ । सुन्दरि ! तुम ब्राह्मणों के पापरूपी ईंधन को जलाने के लिये प्रज्वलित अग्नि हो । ब्रह्मतेज प्रदान करना तुम्हारा सहज गुण है ! तुम मुझ पर प्रसन्न हो जाओ । मनुष्य मन, वाणी अथवा शरीर से जो भी पाप करता है, वे सभी पाप तुम्हारे नाम का स्मरण करते ही भस्म हो जायँगे । इस प्रकार स्तुति करके जगद्धाता ब्रह्माजी वहीं गोलोक की सभा में विराजमान हो गये। तब सावित्री उनके साथ ब्रह्मलोक में जाने के लिये प्रस्तुत हो गयीं । मुने! इसी स्तोत्रराज से राजा अश्वपति ने भगवती सावित्री की स्तुति की थी, तब उन देवी ने प्रसन्न होकर उन्हें दर्शन दिये । राजा ने उनसे मनोऽभिलषित वर प्राप्त किया । यह स्तवराज परम पवित्र है । स्तवराजमिदं पुण्यं त्रिसन्ध्यायां च यः पठेत् । पाठे चतुर्णां वेदानां यत्फलं तल्लभेद् ध्रुवम् ॥ ८७ ॥ पुरुष यदि संध्या के पश्चात् इस स्तव का पाठ करता है तो चारों वेदों के पाठ करने से जो फल मिलता है, उसी फल का वह अधिकारी हो जाता है । (अध्याय २३) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे सावित्र्युपाख्याने सावित्रीस्तोत्रकथनं नाम त्रयोविंशतितमोध्यायः ॥ २३ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. 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