February 1, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण – प्रकृतिखण्ड – अध्याय 25 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ पच्चीसवाँ अध्याय सावित्री और यमराज का संवाद भगवान् नारायण कहते हैं — मुने! पतिव्रता सावित्री ने यमराज की बात सुनकर परम भक्ति के साथ उनका स्तवन किया; फिर वह उनसे पूछने लगी । सावित्री ने पूछा — भगवन्! कौन कार्य है, किस कर्म के प्रभाव से क्या होता है, कैसे फल में कौन कर्म हेतु है, कौन देह है और कौन देही है अथवा संसार में प्राणी किसकी प्रेरणा से कर्म करता है ? ज्ञान, बुद्धि, शरीरधारियों के प्राण, इन्द्रियाँ तथा उनके लक्षण एवं देवता, भोक्ता, भोजयिता, भोज, निष्कृति तथा जीव और परमात्मा — ये सब कौन और क्या हैं ? इन सबका परिचय देने की कृपा कीजिये । धर्मराज बोले — साध्वी सावित्री ! कर्म दो प्रकार के हैं — शुभ और अशुभ । वेदोक्त कर्म शुभ हैं । इनके प्रभाव से प्राणी कल्याण के भागी होते हैं । वेद में जिसका स्थान नहीं है, वह अशुभ कर्म नरकप्रद है । भगवान् विष्णु की जो संकल्परहित अहैतुकी सेवा की जाती है, उसे ‘कर्म-निर्मूलरूपा’ कहते हैं। ऐसी ही सेवा ‘हरि-भक्ति’ प्रदान करती है। कौन कर्म के फल का भोक्ता है और कौन निर्लिप्त – इसका उत्तर यह है। श्रुति का वचन है कि श्रीहरि का जो भक्त है, वह मनुष्य मुक्त हो जाता है। जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि, शोक और भय – ये उसपर अपना प्रभाव नहीं डाल सकते । ॐ नमो भगवते वासुदेवाय साध्वि ! श्रुति में मुक्ति भी दो प्रकार की बतायी गयी है, जो सर्वसम्मत है। एक को ‘निर्वाणप्रदा’ कहते हैं और दूसरी को ‘हरिभक्तिप्रदा’ । मनुष्य इन दोनों के अधिकारी हैं । वैष्णव पुरुष हरिभक्ति-स्वरूपा मुक्ति चाहते हैं और अन्य साधु-जन निर्वाणप्रदा मुक्ति की इच्छा करते हैं । कर्म का जो बीजरूप है, वही सदा फल प्रदान करनेवाला है। कर्म कोई दूसरी वस्तु नहीं, भगवान् श्रीकृष्ण का ही रूप है। वे भगवान् प्रकृति से परे हैं । कर्म भी इन्हीं से होता है; क्योंकि वे उसके हेतुरूप हैं । जीव कर्म का फल भोगता है; आत्मा तो सदा निर्लिप्त ही है । देही आत्मा का प्रतिबिम्ब है, वही जीव है । देह तो सदा से नश्वर है । पृथ्वी, तेज, जल, वायु और आकाश — पाँच भूत उसके उपादान हैं । परमात्मा के सृष्टि- कार्य में ये सूत्ररूप हैं । कर्म करने वाला जीव देही है । वही भोक्ता और अन्तर्यामीरूप से भोजयिता भी है। सुख एवं दुःख के साक्षात् स्वरूप वैभव का ही दूसरा नाम भोग है । निष्कृति मुक्ति को ही कहते हैं। सदसत्सम्बन्धी विवेक के आदिकारण का नाम ज्ञान है । इस ज्ञान के अनेक भेद हैं। घट-पटादि विषय तथा उनका भेद ज्ञान के भेद में कारण कहा जाता है। विवेचनमयी शक्ति को ‘बुद्धि’ कहते हैं। श्रुति में ज्ञानबीज नाम से इसकी प्रसिद्धि है । वायु के ही विभिन्न रूप प्राण हैं । इन्हीं के प्रभाव से प्राणियों के शरीर में शक्ति का संचार होता है । जो इन्द्रियों में प्रमुख, परमात्मा का अंश, संशयात्मक, कर्मों का प्रेरक, प्राणियों के लिये दुर्निवार्य, अनिरूप्य, अदृश्य तथा बुद्धि का एक भेद है, उसे ‘मन’ कहा गया है। यह शरीरधारियों का अङ्ग तथा सम्पूर्ण कर्मों का प्रेरक है । यही इन्द्रियों को विषयों में लगाकर दुःखी बनाने के कारण शत्रुरूप हो जाता है और सत्कार्य में लगाकर सुखी बनाने के कारण मित्ररूप है । आँख, कान, नाक, त्वचा और जिह्वा आदि इन्द्रियाँ हैं । सूर्य, वायु, पृथ्वी और वाणी आदि इन्द्रियों के देवता कहे गये हैं। जो प्राण एवं देहादि को धारण करता है, उसी की ‘जीव’ संज्ञा है। प्रकृति से परे जो सर्वव्यापी निर्गुण ब्रह्म हैं, उन्हीं को ‘परमात्मा’ कहते हैं। ये कारणों के भी कारण हैं। ये स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण हैं । वत्से ! तुमने जो कुछ पूछा था, वह सब मैंने शास्त्रानुसार बतला दिया । यह विषय ज्ञानियों के लिये परम ज्ञानमय है। अब तुम सुखपूर्वक लौट जाओ । सावित्री ने कहा — प्रभो ! आप ज्ञान के अथाह समुद्र हैं । अब मैं इन अपने प्राणनाथ और आपको छोड़कर कैसे कहाँ जाऊँ? मैं जो-जो बातें पूछती हूँ, उसे आप मुझे बताने की कृपा करें। जीव किस कर्म के प्रभाव से किन-किन योनियों में जाता है ? पिताजी! कौन कर्म स्वर्गप्रद है और कौन नरकप्रद ? किस कर्म के प्रभाव से प्राणी मुक्त हो जाता है तथा श्रीहरि में भक्ति उत्पन्न करने के लिये कौन-सा कर्म कारण होता है ? किस कर्म के फलस्वरूप प्राणी रोगी होता है और किस कर्मफल से नीरोग ? दीर्घजीवी और अल्पजीवी होने में कौन-कौनसे कर्म प्रेरक हैं? किस कर्म के प्रभाव से प्राणी सुखी होता है और किस कर्म के प्रभाव से दुःखी ? किस कर्म से मनुष्य अङ्गहीन, एकाक्ष, बधिर, अन्धा, पङ्गु, उन्मादी, पागल तथा अत्यन्त लोभी और नरघाती होता है एवं सिद्धि और सालोक्यादि मुक्ति प्राप्त होने में कौन कर्म सहायक है ? किस कर्म के प्रभाव से प्राणी ब्राह्मण होता है और किस कर्म के प्रभाव से तपस्वी ? स्वर्गादि भोग प्राप्त होने में कौन कर्म साधन है ? किस कर्म से प्राणी वैकुण्ठ में जाता है ? ब्रह्मन् ! गोलोक निरामय और सम्पूर्ण स्थानों से उत्तम धाम है। किस कर्म के प्रभाव से उसकी प्राप्ति हो सकती है? कितने प्रका रके नरक हैं और उनकी कितनी संख्या और उनके क्या-क्या नाम हैं ? कौन किस नरक में जाता है और कितने समय तक वहाँ यातना भोगता है ? किस कर्म के फल से पापियों के शरीर में कौन-सी व्याधि उत्पन्न होती है ? भगवन् ! मैंने ये जो-जो प्रश्न किये हैं, इन सबके उत्तर देने की आप कृपा करें। (अध्याय २५ ) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे कर्म्मविपाके यमोक्त्यनन्तरं सावित्रीप्रश्नो नाम पञ्चविंशोऽध्यायः ॥ २५ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Related