February 1, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण – प्रकृतिखण्ड – अध्याय 26 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ छब्बीसवाँ अध्याय सावित्री – धर्मराज के प्रश्नोत्तर, सावित्री को वरदान भगवान् नारायण कहते हैं — नारद! सावित्री के वचन सुनकर यमराज के मन में बड़ा आश्चर्य हुआ। वे हँसकर प्राणियों के कर्म विपाक कहने के लिये उद्यत हो गये । धर्मराज ने कहा — प्यारी बेटी ! अभी तुम हो तो अल्पवय की बालिका, किंतु तुम्हें पूर्ण विद्वानों, ज्ञानियों और योगियों से भी बढ़कर ज्ञान प्राप्त है । पुत्री ! भगवती सावित्री के वरदान से तुम्हारा जन्म हुआ है। तुम उन देवी की कला हो । राजा ने तपस्या के प्रभाव से सावित्री – जैसी कन्या-रत्न को प्राप्त किया है। जिस प्रकार लक्ष्मी भगवान् विष्णु के, भवानी शंकर के, राधा श्रीकृष्ण के, सावित्री ब्रह्मा के, मूर्ति धर्म के, शतरूपा मनु के, देवहूति कर्दम के, अरुन्धती वसिष्ठ के, अदिति कश्यप के, अहल्या गौतम के, शची इन्द्र के, रोहिणी चन्द्रमा के, रति कामदेव के, स्वाहा अग्नि के, स्वधा पितरों के, संज्ञा सूर्य के, वरुणानी वरुण के, दक्षिणा यज्ञ के, पृथ्वी वाराह के और देवसेना कार्तिकेय के पास सौभाग्यवती प्रिया बनकर शोभा पाती हैं, तुम भी वैसी ही सत्यवान् की प्रिया बनो। मैंने यह तुम्हें वर दे दिया । महाभागे ! इसके अतिरिक्त भी जो तुम्हें अभीष्ट हो, वह वर माँगो । मैं तुम्हें सभी अभिलषित वर देने को तैयार हूँ । ॐ नमो भगवते वासुदेवाय सावित्री बोली — महाभाग ! सत्यवान् के औरस अंश से मुझे सौ पुत्र प्राप्त हों – यही मेरा अभिलषित वर है। साथ ही, मेरे पिता भी सौ पुत्रों के जनक हों। मेरे श्वशुर को नेत्र-लाभ हों और उन्हें पुनः राज्य-श्री प्राप्त हो जाय, यह भी मैं चाहती हूँ। जगत्प्रभो ! सत्यवान् के साथ मैं बहुत लंबे समय तक रहकर अन्त में भगवान् श्रीहरि के धाम में चली जाऊँ, यह वर भी देने की आप कृपा करें। प्रभो ! मुझे जीव के कर्म का विपाक तथा विश्व से तर जाने का उपाय भी सुनने के लिये मन में महान् कौतूहल हो रहा है; अतः आप यह भी बतावें । धर्मराज ने कहा — महासाध्वि ! तुम्हारे सम्पूर्ण मनोरथ पूर्ण होंगे। अब मैं प्राणियों का कर्म विपाक कहता हूँ, सुनो। भारतवर्ष में ही शुभ-अशुभ कर्मों का जन्म होता है — यहीं के कर्मों को ‘शुभ’ या ‘अशुभ’ की संज्ञा दी गयी है । यहाँ सर्वत्र पुण्यक्षेत्र है, अन्यत्र नहीं; अन्यत्र प्राणी केवल कर्मों का फल भोगते हैं। पतिव्रते! देवता, दैत्य, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस तथा मनुष्य — ये सभी कर्म के फल भोगते हैं। परंतु सबका जीवन समान नहीं है । उनमें से मानव ही कर्म का जनक होता है अर्थात् मनुष्ययोनि में ही शुभाशुभ कर्म किये जाते हैं; जिनका फल सर्वत्र सभी योनियों में भोगना पड़ता है। विशिष्ट जीवधारी – विशेषतः मानव ही सब योनियों में कर्मों का फल भोगते हैं और सभी योनियों में भटकते हैं । वे पूर्व-जन्म का किया हुआ शुभाशुभ कर्म भोगते हैं। शुभ कर्म के प्रभाव से वे स्वर्गलोक में जाते हैं और अशुभ कर्म से उन्हें नरक में भटकना पड़ता है। कर्म का निर्मूलन हो जाने पर मुक्ति होती है । साध्वि ! मुक्ति दो प्रकार की बतलायी गयी है – एक निर्वाणस्वरूपा और दूसरी परमात्मा श्रीकृष्ण की सेवारूपा । बुरे कर्म से प्राणी रोगी होता है और शुभ कर्म आरोग्यवान्। वह अपने शुभाशुभ कर्म के अनुसार दीर्घजीवी, अल्पायु, सुखी एवं दुःखी होता है । कुत्सित कर्म से ही प्राणी अङ्गहीन, अंधे-बहरे आदि होते हैं । उत्तम कर्म के फलस्वरूप सिद्धि आदि की प्राप्ति होती है । देवि ! सामान्य बातें बतायी गयीं; अब विशेष बातें सुनो। सुन्दरि ! यह अतिशय दुर्लभ विषय शास्त्रों और पुराणों में वर्णित है। इसे सबके सामने नहीं कहना चाहिये। सभी जातियों के लिये भारतवर्ष में मनुष्य का जन्म पाना परम दुर्लभ है । साध्वि ! उन सब जातियों में ब्राह्मण श्रेष्ठ माना जाता है । वह समस्त कर्मों में प्रशस्त होता है । भारतवर्ष में विष्णुभक्त ब्राह्मण सबसे श्रेष्ठ है। पतिव्रते ! वैष्णव के भी दो भेद हैं – सकाम और निष्काम । सकाम वैष्णव कर्मप्रधान होता है और निष्काम वैष्णव केवल भक्त । सकाम वैष्णव कर्मों का फल भोगता है और निष्काम वैष्णव शुभाशुभ भोग के उपद्रव से दूर रहता है। साध्वि ! ऐसा निष्काम वैष्णव शरीर त्यागकर भगवान् विष्णु के निरामय पद को प्राप्त कर लेता है। ऐसे निष्काम वैष्णवों का संसार में पुनरागमन नहीं होता । द्विभुज भगवान् श्रीकृष्ण पूर्णब्रह्म परमेश्वर हैं। उनकी उपासना करने वाले भक्तपुरुष अन्त में दिव्य शरीर धारण करके गोलोक में जाते हैं। सकाम वैष्णव पुरुष उच्च वैष्णव लोकों में जाकर समयानुसार पुनः भारतवर्ष में लौट आते हैं । द्विजातियों के कुल में उनका जन्म होता है । वे भी कालक्रम से निष्काम भक्त बन जाते और भगवान् उन्हें निर्मल भक्ति भी अवश्य देते हैं । वैष्णव ब्राह्मण से भिन्न जो सकाम मनुष्य हैं, वे विष्णुभक्ति से रहित होने के कारण किसी भी जन्म में विशुद्ध बुद्धि नहीं पा सकते । साध्वि ! जो तीर्थस्थान में रहकर सदा तपस्या करते हैं, वे द्विज ब्रह्मा के लोक में जाते हैं और पुण्यभोग के पश्चात् पुनः भारतवर्ष में आ जाते हैं । भारत में रहकर अपने कर्तव्य-कर्मों में संलग्न रहने वाले ब्राह्मण तथा सूर्यभक्त शरीर त्यागने पर सूर्यलोक में जाते हैं और पुण्यभोग के पश्चात् पुनः भारतवर्ष में जन्म पाते हैं। अपने धर्म में निरत रहकर शिव, शक्ति तथा गणपति की उपासना करने वाले ब्राह्मण शिवलोक में जाते हैं; फिर उन्हें लौटकर भारतवर्ष में आना पड़ता है । जो धर्मरहित होने पर भी निष्कामभाव से श्रीहरि का भजन करते हैं, वे भी भक्ति के बल से श्रीहरि के धाम में चले जाते हैं । साध्वि ! जो अपने धर्म का पालन नहीं करते, वे आचारहीन, काम-लोलुप लोग अवश्य ही नरक में जाते हैं। चारों ही वर्ण अपने धर्म में कटिबद्ध रहने पर ही शुभकर्म का फल भोगने के अधिकारी होते हैं। जो अपना कर्तव्य-कर्म नहीं करते, वे अवश्य ही नरक में जाते हैं। कर्म का फल भोगने के लिये वे भारतवर्ष में नहीं आ सकते। अतएव चारों वर्णों के लिये अपने धर्म का पालन करना अत्यन्त आवश्यक है । अपने धर्म में संलग्न रहने वाले ब्राह्मण, स्वधर्म-निरत विप्र को अपनी कन्या देने के फलस्वरूप चन्द्रलोक को जाते हैं और वहाँ चौदह मन्वन्तर काल तक रहते हैं। साध्वि ! यदि कन्या को अलंकृत करके दान में दिया जाय तो उससे दुगुना फल प्राप्त होता है। उन साधु पुरुषों में यदि कामना हो तब तो वे चन्द्रमा के लोक में जाते हैं। निष्कामभाव से दान करें तो वे भगवान् विष्णु के परम धाम में पहुँच जाते हैं। गव्य (दूध), चाँदी, सुवर्ण, वस्त्र, घृत, फल और जल ब्राह्मणों को देनेवाले पुण्यात्मा पुरुष चन्द्रलोक में जाते हैं । साध्वि ! एक मन्वन्तर तक वे वहाँ सुविधापूर्वक निवास करते हैं । उस दान के प्रभाव से उन्हें वहाँ सुदीर्घ काल तक निवास प्राप्त होता है । पतिव्रते ! पवित्र ब्राह्मण को सुवर्ण, गौ और ताम्र आदि द्रव्य का दान करने वाले सत्पुरुष सूर्यलोक में जाते हैं । वे भय-बाधा से शून्य हो, उस विस्तृत लोक में सुदीर्घ काल तक वास करते हैं। जो ब्राह्मणों को पृथ्वी अथवा प्रचुर धान्य दान करता है, वह भगवान् विष्णु के परम सुन्दर श्वेतद्वीप में जाता है और दीर्घकाल तक वहाँ वास करता है। भक्तिपूर्वक ब्राह्मण को गृह-दान करने वाले पुरुष स्वर्गलोक में जाते और वहाँ दीर्घकाल तक निवास करते हैं; वे उस लोक में उतने वर्षों तक रहते हैं, जितनी संख्या में उस दान-गृह के रजःकण हैं। मनुष्य जिस-जिस देवता के उद्देश्य से गृह- दान करता है, अन्त में उसी देवता के लोक में जाता है और घर में जितने धूलिकण हैं, उतने वर्षों तक वहाँ रहता है । अपने घर पर दान करने की अपेक्षा देवमन्दिर में दान करने से चौगुना, पूर्तकर्म (वापी, कूप, तड़ाग आदिके निर्माण) – के अवसर पर करने से सौगुना तथा किसी श्रेष्ठ तीर्थस्थान में करने से आठगुना फल होता है — यह ब्रह्माजी का वचन है । समस्त प्राणियों के उपकार के लिये तड़ाग का दान करने वाला दस हजार वर्षों की अवधि लेकर जनलोक में जाता है। बावली का दान करने से मनुष्य को सदा सौगुना फल मिलता है । वह सेतु (पुल) – ) – का दान करने पर तड़ाग के दान का भी पुण्यफल प्राप्त कर लेता है । तड़ाग का प्रमाण चार हजार धनुष चौड़ा और उतना ही लंबा निश्चित किया गया है। इससे जो लघु प्रमाण में है, वह वापी कही जाती है। सत्पात्र को दी हुई कन्या दस वापी के समान पुण्यप्रदा होती है। यदि उस कन्या को अलंकृत करके दान किया जाय तो दुगुना फल मिलता है । तड़ाग के दान से जो पुण्यफल प्राप्त होता है, वही उसके भीतर से कीचड़ और मिट्टी निकालने से सुलभ हो जाता है । वापी के कीचड़ को दूर कराने से उसके निर्माण कराने – जितना फल होता है । पतिव्रते ! जो पुरुष पीपल का वृक्ष लगाकर उसकी प्रतिष्ठा करता है, वह हजारों वर्षों के लिये भगवान् विष्णु के तपोलोक में जाता है। सावित्री ! जो सबकी भलाई लिये पुष्पोद्यान लगाता है, वह दस हजार वर्षों तक ध्रुवलोक में स्थान पाता है । पतिव्रते ! विष्णु के उद्देश्य से विमान का दान करने वाला मानव एक मन्वन्तर तक विष्णुलोक में वास करता है। यदि वह विमान विशाल और चित्रों से सुसज्जित किया गया हो तो उसके दान से चौगुना फल प्राप्त होता है । शिविका (पालकी या डोली जैसी सवारी) – दान में उससे आधा फल होना निश्चित है । जो पुरुष भक्तिपूर्वक भगवान् श्रीहरि के उद्देश्य से मन्दिराकार झूला दान करता है, वह अति दीर्घकाल तक भगवान् विष्णु के लोक में वास करता है । पतिव्रते ! जो सड़क बनवाता और उसके किनारे लोगों के ठहरने के लिये महल (धर्मशाला) बनवा देता है, वह सत्पुरुष हजारों वर्षों तक इन्द्र के लोक में प्रतिष्ठित होता है । ब्राह्मणों अथवा देवताओं को दिया हुआ दान समान फल प्रदान करता है। जो पूर्वजन्म में दिया गया है, वही जन्मान्तर में प्राप्त होता है। जो नहीं दिया गया है, वह कैसे प्राप्त हो सकता है ? पुण्यवान् पुरुष स्वर्गीय सुख भोगकर भारतवर्ष में जन्म पाता है। उसे क्रमशः उत्तम-से-उत्तम ब्राह्मण – कुल में जन्म लेने का सौभाग्य प्राप्त होता है । पुण्यवान् ब्राह्मण स्वर्गसुख भोगने के अनन्तर पुनः ब्राह्मण ही होता है । यही नियम क्षत्रिय आदि के लिये भी है । क्षत्रिय अथवा वैश्य तपस्या के प्रभाव से ब्राह्मणत्व प्राप्त कर लेता है-ऐसी बात श्रुति में सुनी जाती है। धर्मरहित ब्राह्मण नाना योनियों में भटकते हैं और कर्मभोग के पश्चात् फिर ब्राह्मण-कुल में ही जन्म पाते हैं। कितना ही काल क्यों न बीत जाय, बिना भोग किये कर्म क्षीण नहीं हो सकते। अपने किये हुए शुभ और अशुभ कर्मों का फल प्राणियों को अवश्य भोगना पड़ता है। देवता और तीर्थ की सहायता तथा कायव्यूह से प्राणी शुद्ध हो जाता है। साध्वि! ये कुछ बातें तो तुम्हें बतला दीं, अब आगे और क्या सुनना चाहती हो ? (अध्याय २६) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराण द्वितीये प्रकृतिखण्डे सावित्र्युपाख्याने कर्मविपाके कर्मानुरूपस्थानगमनं नाम षड्विंशोऽध्यायः ॥ २६ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Related