January 24, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण – प्रकृतिखण्ड – अध्याय 03 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ तीसरा अध्याय परिपूर्णतम श्रीकृष्ण और चिन्मयी श्रीराधा से प्रकट विराट्स्वरूप बालक का वर्णन भगवान् नारायण कहते हैं — नारद ! तदनन्तर वह बालक जो केवल अण्डाकार था, ब्रह्माकी आयुपर्यन्त ब्रह्माण्ड-गोलक के जल में रहा। फिर समय पूरा हो जाने पर वह सहसा दो रूपों में प्रकट हो गया। एक अण्डाकार ही रहा और एक शिशु के रूप में परिणत हो गया। उस शिशु की ऐसी कान्ति थी, मानो सौ करोड़ सूर्य एक साथ प्रकाशित हो रहे हों। माता का दूध न मिलने के कारण भूख से पीड़ित होकर वह कुछ समय तक रोता रहा। माता-पिता उसे त्याग चुके थे । वह निराश्रय होकर जल के अंदर समय व्यतीत कर रहा था। जो असंख्य ब्रह्माण्ड का स्वामी है, उसी ने अनाथ की भाँति, आश्रय पाने की इच्छा से ऊपर की ओर दृष्टि दौड़ायी । उसकी आकृति स्थूल से भी स्थूल थी । अतएव उसका नाम ‘महाविराट्’ पड़ा। जैसे परमाणु अत्यन्त सूक्ष्मतम होता है, वैसे ही वह अत्यन्त स्थूलतम था । वह बालक तेज में परमात्मा श्रीकृष्ण के सोलहवें अंश की बराबरी कर रहा था। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय परमात्मस्वरूपा प्रकृति-संज्ञक राधा से उत्पन्न यह महान् विराट् बालक सम्पूर्ण विश्व का आधार है। यही ‘महाविष्णु’ कहलाता है। इसके प्रत्येक रोमकूप में जितने विश्व हैं, उन सबकी संख्या का पता लगाना श्रीकृष्ण के लिये भी असम्भव है । वे भी उन्हें स्पष्ट बता नहीं सकते । जैसे जगत् के रजःकण को कभी नहीं गिना जा सकता, उसी प्रकार इस शिशु के शरीर में कितने ब्रह्मा और विष्णु आदि हैं — यह नहीं बताया जा सकता। प्रत्येक ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा, विष्णु और शिव विद्यमान हैं । पाताल से लेकर ब्रह्मलोक तक अनगिनत ब्रह्माण्ड बताये गये हैं । अतः उनकी संख्या कैसे निश्चित की जा सकती है ? ऊपर वैकुण्ठलोक है । यह ब्रह्माण्ड से बाहर है। इसके ऊपर पचास करोड़ योजन के विस्तार में गोलोकधाम है। श्रीकृष्ण के समान ही यह लोक भी नित्य और चिन्मय सत्यस्वरूप है। पृथ्वी सात द्वीपों से सुशोभित है। सात समुद्र इसकी शोभा बढ़ा रहे हैं। उनचास छोटे-छोटे द्वीप हैं। पर्वतों और वनों की तो कोई संख्या ही नहीं है। सबसे ऊपर सात स्वर्गलोक हैं । ब्रह्मलोक भी इन्हीं में सम्मिलित है। नीचे सात पाताल हैं । यही ब्रह्माण्ड का परिचय है। पृथ्वी से ऊपर भूर्लोक, उससे परे भुवर्लोक, भुवर्लोक से परे स्वर्लोक, उससे परे जनलोक, जनलोक से परे तपोलोक, तपोलोक से परे सत्यलोक और सत्यलोक से परे ब्रह्मलोक है। ब्रह्मलोक ऐसा प्रकाशमान है, मानो तपाया हुआ सोना चमक रहा हो । ये सभी कृत्रिम हैं। कुछ तो ब्रह्माण्ड के भीतर हैं और कुछ बाहर । नारद! ब्रह्माण्ड के नष्ट होने पर ये सभी नष्ट हो जाते हैं; क्योंकि पानी के बुलबुले की भाँति यह सारा जगत् अनित्य है । गोलोक और वैकुण्ठलोक को नित्य, अविनाशी एवं अकृत्रिम कहा गया है। उस विराट्मय बालक के प्रत्येक रोमकूप में असंख्य ब्रह्माण्ड निश्चितरूप से विराजमान हैं। एक-एक ब्रह्माण्ड में अलग-अलग ब्रह्मा, विष्णु और शिव हैं। बेटा नारद! देवताओं की संख्या तीन करोड़ है। ये सर्वत्र व्याप्त हैं। दिशाओं के स्वामी, दिशाओं की रक्षा करने वाले तथा ग्रह एवं नक्षत्र – सभी इसमें सम्मिलित हैं। भूमण्डल पर चार प्रकार के वर्ण हैं । नीचे नागलोक है । चर और अचर सभी प्रकार के प्राणी उस पर निवास करते हैं । नारद! तदनन्तर वह विराट्स्वरूप बालक बार-बार ऊपर दृष्टि दौड़ाने लगा । वह गोलाकार पिण्ड बिलकुल खाली था। दूसरी कोई भी वस्तु वहाँ नहीं थी। उसके मन में चिन्ता उत्पन्न हो गयी। भूख से आतुर होकर वह बालक बार-बार रुदन करने लगा। फिर जब उसे ज्ञान हुआ, तब उसने परम पुरुष श्रीकृष्ण का ध्यान किया। तब वहीं उसे सनातन ब्रह्मज्योति के दर्शन प्राप्त हुए । नवीननीरदश्यामं द्विभुजं पीतवाससम् ॥ २२ ॥ सस्मितं मुरलीहस्तं भक्तानुग्रहकारकम् । वे ज्योतिर्मय श्रीकृष्ण नवीन मेघ के समान श्याम थे। उनके दो भुजाएँ थीं। उन्होंने पीताम्बर पहन रखा था। उनके हाथ में मुरली शोभा पा रही थी । मुखमण्डल मुस्कान से भरा था। भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये वे कुछ व्यस्त – से जान पड़ते थे । पिता परमेश्वर को देखकर वह बालक संतुष्ट होकर हँस पड़ा। फिर तो वर के अधिदेवता श्रीकृष्ण ने समयानुसार उसे वर दिया। श्रीकृष्ण ने कहा — ‘बेटा! तुम मेरे समान ज्ञानी बन जाओ। भूख और प्यास तुम्हारे पास न आ सके। प्रलयपर्यन्त यह असंख्य ब्रह्माण्ड तुम पर अवलम्बित रहे । तुम निष्कामी, निर्भय और सबके लिये वरदाता बन जाओ । जरा, मृत्यु, रोग और शोक आदि तुम्हें कष्ट न पहुँचा सकें।’ यों कहकर भगवान् श्रीकृष्णने उस बालकके कान में तीन बार षडक्षर महामन्त्र का उच्चारण किया। यह उत्तम मन्त्र वेद का प्रधान अङ्ग है। आदि में ‘ॐ’ का स्थान है । बीच में चतुर्थी विभक्ति के साथ ‘कृष्ण’ ये दो अक्षर हैं । अन्त में अग्नि की पत्नी ‘स्वाहा’ सम्मिलित हो जाती है। इस प्रकार ‘ॐ कृष्णाय स्वाहा’ यह मन्त्र का स्वरूप है । इस मन्त्र का जप करने से सम्पूर्ण विघ्न टल जाते हैं । ब्रह्मपुत्र नारद! मन्त्रोपदेश के पश्चात् परम प्रभु श्रीकृष्ण ने उस बालक के भोजन की जो व्यवस्था की, वह तुम्हें बताता हूँ, सुनो ! प्रत्येक विश्व में वैष्णवजन जो कुछ भी नैवेद्य भगवान् को अर्पण करते हैं, उसमें से सोलहवाँ भाग विष्णु को मिलता है और पंद्रह भाग इस बालक के लिये निश्चित है; क्योंकि यह बालक स्वयं परिपूर्णतम श्रीकृष्ण का विराट्-रूप है। विप्रवर! सर्वव्यापी श्रीकृष्ण ने उस उत्तम मन्त्र का ज्ञान प्राप्त कराने के पश्चात् पुनः उस विराट्मय बालक से कहा- ‘ – ‘पुत्र ! तुम्हें इसके सिवा दूसरा कौनसा वर अभीष्ट है, वह भी मुझे बताओ। मैं देने के लिये सहर्ष तैयार हूँ ।’ उस समय विराट् व्यापक प्रभु ही बालकरूप से विराजमान था। भगवान् श्रीकृष्ण की बात सुनकर उसने उनसे समयोचित बात कही । बालक ने कहा — आपके चरणकमलों में मेरी अविचल भक्ति हो — मैं यही वर चाहता हूँ। मेरी आयु चाहे एक क्षण की हो अथवा दीर्घकाल की; परंतु मैं जब तक जीऊँ, तब तक आपमें मेरी अटल श्रद्धा बनी रहे। इस लोक में जो पुरुष आपका भक्त है, उसे सदा जीवन्मुक्त समझना चाहिये । जो आपकी भक्ति से विमुख है, वह मूर्ख जीते हुए भी मरे के समान है। जिस अज्ञानी-जन के हृदय में आपकी भक्ति नहीं है, उसे जप, तप, यज्ञ, पूजन, व्रत, उपवास, पुण्य अथवा तीर्थ सेवन से क्या लाभ? उसका जीवन ही निष्फल है । प्रभो ! जब तक शरीर में आत्मा रहता है, तब तक शक्तियाँ साथ रहती हैं। आत्मा के चले जाने के पश्चात् सम्पूर्ण स्वतन्त्र शक्तियों की भी सत्ता वहाँ नहीं रह जाती । महाभाग ! प्रकृति से परे वे सर्वात्मा आप ही हैं। आप स्वेच्छामय सनातन ब्रह्मज्योति: स्वरूप परमात्मा सबके आदिपुरुष हैं । नारद! इस प्रकार अपने हृदय का उद्गार प्रकट करके वह बालक चुप हो गया। तब भगवान् श्रीकृष्ण कानों को सुहावनी लगने वाली मधुर वाणी में उसका उत्तर देने लगे। भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा — वत्स ! मेरी ही भाँति तुम भी बहुत समय तक अत्यन्त स्थिर होकर विराजमान रहो । असंख्य ब्रह्माओं के जीवन समाप्त हो जाने पर भी तुम्हारा नाश नहीं होगा । प्रत्येक ब्रह्माण्ड में अपने क्षुद्र अंश से तुम विराजमान रहोगे। तुम्हारे नाभिकमल से विश्वस्रष्टा ब्रह्मा प्रकट होंगे। ब्रह्मा के ललाट से ग्यारह रुद्रों का आविर्भाव होगा । शिव के अंश से वे रुद्र सृष्टि के संहार की व्यवस्था करेंगे। उन ग्यारह रुद्रों में ‘कालाग्नि’ नाम से जो प्रसिद्ध हैं, वे ही रुद्र विश्व के संहारक होंगे। विष्णु विश्व की रक्षा करने के लिये तुम्हारे क्षुद्र अंश से प्रकट होंगे। मेरे वर के प्रभाव से तुम्हारे हृदय में सदा मेरी भक्ति बनी रहेगी। तुम मेरे परम सुन्दर स्वरूप को ध्यान के द्वारा निरन्तर देख सकोगे, यह निश्चित है। तुम्हारी कमनीया माता मेरे वक्षःस्थल पर विराजमान रहेगी। उसकी भी झाँकी तुम प्राप्त कर सकोगे । वत्स ! अब मैं अपने गोलोक जाता हूँ । तुम यहीं ठहरो । इस प्रकार उस बालक से कहकर भगवान् श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये और तत्काल वहाँ पहुँचकर उन्होंने सृष्टि की व्यवस्था करने वाले ब्रह्मा को तथा संहार-कार्य में कुशल रुद्र को आज्ञा दी। भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा — वत्स ! सृष्टि रचने के लिये जाओ। विधे ! मेरी बात सुनो, महाविराट् के एक रोमकूप में स्थित क्षुद्र विराट् पुरुष के नाभिकमल से प्रकट होओ। फिर रुद्र को संकेत करके कहा — ‘ वत्स महादेव ! जाओ । महाभाग ! अपने अंश से ब्रह्मा के ललाट से प्रकट हो जाओ और स्वयं भी दीर्घकाल तक तपस्या करो।’ नारद! जगत्पति भगवान् श्रीकृष्ण यों कहकर चुप हो गये। तब ब्रह्मा और कल्याणकारी शिव — दोनों महानुभाव उन्हें प्रणाम करके विदा हो गये। महाविराट् पुरुष के रोमकूप में जो ब्रह्माण्ड-गोलक का जल है, उसमें वे महाविराट् पुरुष अपने अंश से क्षुद्र विराट् पुरुष हो गये, जो इस समय भी विद्यमान हैं। इनकी सदा युवा अवस्था रहती है । इनका श्याम रंग का विग्रह है ये पीताम्बर पहनते हैं । जलरूपी शय्या पर सोये रहते हैं । इनका मुखमण्डल मुस्कान से सुशोभित है । इन प्रसन्नमुख विश्वव्यापी प्रभु को ‘जनार्दन’ कहा जाता है। इन्हीं के नाभिकमल से ब्रह्मा प्रकट हुए और उसके अन्तिम छोर का पता लगाने के लिये वे उस कमलदण्ड में एक लाख युगों तक चक्कर लगाते रहे । नारद! इतना प्रयास करने पर भी वे पद्मजन्मा ब्रह्मा पद्मनाभ की नाभि से उत्पन्न हुए कमलदण्ड के अन्त तक जाने में सफल न हो सके। तब उनके मन में चिन्ता घिर आयी । वे पुनः अपने स्थान पर आकर भगवान् श्रीकृष्ण के चरण-कमल का ध्यान करने लगे। उस स्थिति में उन्हें दिव्य दृष्टि के द्वारा क्षुद्र विराट् पुरुष के दर्शन प्राप्त हुए। ब्रह्माण्ड-गोलक के भीतर जलमय शय्या पर वे पुरुष शयन कर रहे थे। फिर जिनके रोमकूप में वह ब्रह्माण्ड था, उन महाविराट् पुरुष के तथा उनके भी परम प्रभु भगवान् श्रीकृष्ण के भी दर्शन हुए। साथ ही गोपों और गोपियों से सुशोभित गोलोकधाम का भी दर्शन हुआ। फिर तो उन्होंने श्रीकृष्ण की स्तुति की और उनसे वरदान पाकर सृष्टि का कार्य आरम्भ कर दिया । सर्वप्रथम ब्रह्मा से सनकादि चार मानसपुत्र हुए। फिर उनके ललाट से शिव के अंशभूत ग्यारह रुद्र प्रकट हुए। फिर क्षुद्र विराट् पुरुष के वामभाग से जगत् की रक्षा के व्यवस्थापक चार भुजाधारी भगवान् श्रीविष्णु प्रकट हुए। वे श्वेतद्वीप में निवास करने लगे। क्षुद्र विराट् पुरुष के नाभिकमल में प्रकट हुए ब्रह्मा ने विश्व की रचना की । स्वर्ग, मर्त्य और पाताल — त्रिलोकी के सम्पूर्ण चराचर प्राणियों का उन्होंने सृजन किया। नारद! इस प्रकार महाविराट् पुरुष के सम्पूर्ण रोमकूपों में एक-एक करके अनेक ब्रह्माण्ड हुए। प्रत्येक ब्रह्माण्ड में एक क्षुद्र विराट् पुरुष, ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव आदि भी हैं । ब्रह्मन् ! इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण के मङ्गलमय चरित्र का वर्णन कर दिया। यह सारभूत प्रसंग सुख एवं मोक्ष प्रदान करने वाला है। ब्रह्मन्! अब तुम और क्या सुनना चाहते हो ? (अध्याय ३) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे विश्वब्रह्माण्डवर्णनं नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Related