ब्रह्मवैवर्तपुराण – प्रकृतिखण्ड – अध्याय 33
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
तैंतीसवाँ अध्याय
छियासी प्रकार के नरक-कुण्डों का विशद परिचय

धर्मराज बोले — सतीशिरोमणे! सभी नरककुण्ड पूर्ण चन्द्रमण्डल की भाँति गोलाकार हैं । वे गहरे भी बहुत हैं । उनमें अनेक प्रकार के पत्थर जड़े गये हैं । प्रलयकाल तक उनका नाश नहीं होता । भगवान् श्रीहरि की इच्छा से पापियों को क्लेश देने के लिये नानारूपों में उनका निर्माण हुआ I जो प्रज्वलित अंगारस्वरूप है, जिसका विस्तार सब ओर से एक-एक कोस है तथा जिसमें सौ हाथ ऊपर तक आग की लपटें उठा करती हैं, उसे ‘अग्निकुण्ड’ कहा गया है। भयानक चीत्कार करने वाले पापियों से वह सदा भरा रहता है । मेरे दूत उन पर प्रहार करते रहते हैं । वे निरन्तर उस नरक की रक्षा भी करते हैं । जो हिंसक जन्तुओं से भरा-पूरा अत्यन्त घोर अन्धकार से पूर्ण तथा आधे कोस तक विस्तृत है और जिसमें बहुत गरम जल भरा रहता है उसे ‘प्रतप्तोदककुण्ड’ कहते हैं ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

मेरे सेवकों द्वारा कठिन प्रहार पड़ने पर नारकी जीव चिल्लाते रहते हैं। इसके बाद ‘तप्तक्षारोदकुण्ड’ है । वह खौलते हुए खारे जल से भरा रहता है । एक कोस विस्तार वाला वह भयानक नरक पापियों तथा नाकों से भरपूर है । एक कोस के विस्तार में ‘विण्मूत्रकुण्ड’ नामक नरक है । निराहार रहने के कारण सूखे हुए कण्ठ, ओठ और तालु वाले पापी उसमें इधर-उधर भागते हैं । वह दारुण नरक विष्ठा से ही बना हुआ है । उसमें अत्यन्त दुर्गन्ध फैली रहती है । वहाँ कीड़ों से उनका सारा अङ्ग छिद जाता है । ‘मूत्रकुण्ड’ नामक नरक खौलते हुए मूत्र तथा मूत्र के कीड़ों से भली-भाँति भरा हुआ है ।

अत्यन्त पातकी जीवों से भरा हुआ वह नरक दो कोस के परिमाण में है । वहाँ के कीड़े जीवों को खाते रहते हैं । उसमें पड़े पापियों के कण्ठ, ओठ और तालु सूखे रहते हैं । श्लेष्म आदि अपवित्र वस्तुओं और उसके कीड़ों तथा श्लेष्मभोजी पापीजनों से भरा नरक ‘श्लेष्मकुण्ड’ कहा गया है। आधे कोस के परिमाण में विषभक्षी पापियों तथा कीड़ों से भरा हुआ नरक ‘गरकुण्ड’ के नाम से कहा जाता है । सर्प के समान आकार वाले वज्रमय दाँतों से युक्त तथा क्षुधातुर सूखे कण्ठ वाले अत्यन्त भयंकर जन्तुओं द्वारा वह नरक भरा रहता है। आँखों के मलों से युक्त आधे कोस के विस्तार वाला ‘नेत्रमलकुण्ड’ है । कीड़ों से क्षत-विक्षत हुए पापी प्राणी निरन्तर उसमें चक्कर लगाते रहते हैं। वसा से पूर्ण चार कोस का लम्बा- चौड़ा ‘वसाकुण्ड’ है। वसाभोजी पातकी जीव उसमें व्याप्त रहते हैं । एक कोस की लम्बाई- ‘चौड़ाईवाला ‘शुक्रकुण्ड’ है । वीर्य के कीड़ों से वह व्याप्त रहता है । उसमें रहनेवाले पापियों को जब कीड़े काटते हैं, तब वे इधर-उधर भागते रहते हैं। बावड़ी के समान परिमाण वाला दुर्गन्धित वस्तुओं से भरा हुआ ‘रक्तकुण्ड’ है। उस गहरे कुण्ड में रक्त पीने वाले प्राणी तथा काटने वाले कीड़े भरे रहते हैं ।

‘ अश्रुकुण्ड’ नेत्रोंके आँसुओंसे पूर्ण रहता है । अनेक पापीजन उसमें भरे रहते हैं । चार बावड़ी – जितना उसका विस्तार है। कीड़ों के काटने पर जीव उसमें रुदन करते रहते हैं । मनुष्यों के शारीरिक मलों तथा मलभक्षी पापी जीवों से युक्त ‘गात्रमलकुण्ड’ है । कीड़ों के काटने तथा मेरे दूतों के मारने के कारण घबराये हुए जीव उसमें किसी प्रकार समय बिताते हैं । कानों की मैल खाने वाले पापियों से आच्छादित ‘कर्णविट्कुण्ड’ है । चार बावड़ी – जितने प्रमाणवाला वह कुण्ड कीटों द्वारा काटे जानेवाले पापियों के चीत्कार से पूरित रहता है। मनुष्यों की मज्जा तथा अत्यन्त दुर्गन्ध से युक्त ‘मज्जाकुण्ड’ है, जो महापापियों से युक्त एवं चार वापी के विस्तार वाला है। मेरे दूतों से प्रताड़ित प्राणियों से युक्त स्निग्ध मांसवाला ‘मांसकुण्ड’ है। एक वापी – जितने प्रमाण वाले इस कुण्ड में भयानक प्राणी भरे रहते हैं । कन्या का विक्रय करने वाले पापी वहाँ रहकर कन्या का मांस भक्षण करते हैं। कीड़ों के काटने पर वे अत्यन्त भयभीत हो ‘बचाओ-बचाओ’ की पुकार करते रहते हैं । चार बावड़ी – जितने लंबे-चौड़े ‘नखादि’ चार कुण्ड हैं । ताम्रमय उल्का से युक्त तथा जलते हुए ताँबे के सदृश ‘प्रतप्तताम्रकुण्ड’ है । ताँबे की असंख्य प्रतप्त प्रतिमाएँ उसमें भरी रहती हैं। प्रत्येक प्रतिमा से पापियों को सटाया जाता है । तब वे चिल्ला उठते हैं। नारकी जीवों से भरा वह नरक दो कोस लंबा-चौड़ा है।

प्रज्वलित लोहे तथा चमकते हुए अङ्गारों से युक्त ‘प्रतप्तलौहकुण्ड’ है । वह जलते हुए लौह की लाखों प्रतिमाओं से पूर्ण है। प्रत्येक प्रतिमा से पापियों को सटाया जाता है, तब वे चीत्कार कर उठते हैं। वहाँ निरन्तर जलते हुए वे पापी भयभीत होकर ‘रक्षा करो, रक्षा करो’ पुकारते रहते हैं। वह कुण्ड दो कोस में विस्तृत तथा अत्यन्त भयानक है और वहाँ चारों ओर भयानक अन्धकार छाया रहता है । ‘चर्मकुण्ड’ और ‘तप्तसुराकुण्ड’ आधी बावड़ी के प्रमाण के ही हैं । चर्मभक्षण तथा सुरापान करनेवाले पापी जीव उसमें भरे रहते हैं । शाल्मलिवृक्ष के नीचे तीखे काँटों से भरा एक कुण्ड है। वह दुःखप्रद नरक एक कोस की दूरी में है। लाखों मनुष्य उसमें अँट सकते हैं । वहाँ चार- चार हाथ के अत्यन्त तीखे काँटे शाल्मली वृक्ष से गिरकर बिछे रहते हैं। एक-एक करके सभी काँटों से घोर पापियों के अङ्ग छिद उठते हैं। उन अत्यन्त व्यग्र पापियों के तालू सूख जाते हैं, तब महान् भयभीत होकर ‘मुझे जल दो’ —यों चिल्लाने लगते हैं। तक्षक आदि के विषसमूहों से परिपूर्ण एक कोस लंबा-चौड़ा नरक है, जिसमें पापी मेरे दूतों की मार खाकर गिरते हैं और वह विष ही खाने को पाते हैं । ‘प्रतप्ततैलकुण्ड’ में सदा खौलता हुआ तेल भरा रहता है। जलन के कारण कीड़े तक उसमें नहीं रहते; किंतु मेरे दूतों की चोट खाकर पापियों को वहाँ रहना पड़ता है । जलता हुआ तैल ही उन्हें खाना पड़ता है ।

जिनके आकार त्रिशूल – जैसे हैं तथा जिनकी धार अत्यन्त तीक्ष्ण है, उन लौहमय शस्त्रों से सम्पन्न ‘शस्त्रकुण्ड’ है। चार कोस में विस्तृत वह नरक ऐसा जान पड़ता है, मानो शस्त्रों की शय्या हो । भालों से छिद जाने के कारण जिनके कण्ठ, ओठ और तालू सूख गये हैं, ऐसे पापी जीवों से उस नरक का कोना-कोना भरा रहता है। साध्वि ! जिसमें सर्प – जैसे बड़े-बड़े असंख्य भयंकर कीड़े रहते हैं, उसे ‘कृमिकुण्ड’ कहा जाता है। विकृत वदनवाले उन कीड़ों के दाँत बड़े तेज होते हैं । वहाँ सर्वत्र अन्धकार फैला है। ‘पूयकुण्ड’ को चार कोस लंबा-चौड़ा बताया जाता है । पूयभक्षी प्राणी उसमें निवास करते हैं। ताल के वृक्ष- जितना गहरा तथा असंख्य सर्पों से युक्त ‘सर्पकुण्ड’ है । वह दो कोस लंबा और बर्फीले जल से पूर्ण होता है । साँप पापियों के शरीर से लिपटकर उन्हें काटते रहते हैं। मशक आदि क्रूर जन्तुओं से पूर्ण ‘मशकुण्ड’, ‘दंशकुण्ड’ और ‘गोलकुण्ड’– ये तीन नरक हैं । महान् पापियों से युक्त उन नरकों की सीमा आधे-आधे कोस की है। जिनके हाथ बँधे रहते हैं, रुधिर से सर्वाङ्ग लाल रहता है तथा जो मेरे दूतों से घायल रहते हैं, उन प्राणियों द्वारा वहाँ हाहाकार मचा रहता है।

वज्र और बिच्छुओं से ओत-प्रोत ‘वज्रदंष्ट्रकुण्ड’ और ‘वृश्चिककुण्ड’ हैं। आधी बावड़ी प्रमाणवाले उन नरकों में वज्र एवं बिच्छुओं से विद्ध प्राणी भरे रहते हैं । ‘शरकुण्ड’, ‘शूलकुण्ड’ और ‘खड्गकुण्ड’ – ये तीनों आयुधों से व्याप्त हैं। उन नरकों में पड़े प्राणियों का शरीर शस्त्रास्त्रों से छिदता रहता है। रक्त की धारा बहने लगती है, जिससे वे लाल प्रतीत होते हैं। उन नरकों का प्रमाण आधी बावड़ी है। संतप्त कीचड़ से पूर्ण तथा अन्धकारमय ‘गोलकुण्ड’ है। टेढ़े-मेढ़े काँटोंकी-सी आकृति वाले कीड़े यहाँ के पापियों को काटते हैं। उस नरक का विस्तार आधी बावड़ी है । कीड़ों के काटने तथा मेरे दूतों के मारने पर भय से घबराये हुए प्राणी रोते रहते हैं । पापियों का झुंड कोसों तक फैला रहता है । अत्यन्त दुर्गन्ध से युक्त तथा पापियों को निरन्तर दुःख देने वाला ‘नक्रकुण्ड’ है । वहाँ विकृत आकारवाले भयंकर नक्र आदि जन्तु उन्हें काटते रहते हैं । उस नरक की लंबाई-चौड़ाई आधी बावड़ी के परिमाण में है । विष्ठा, मूत्र और श्लेष्मभक्षी असंख्य पापियों एवं कौओं से भरा हुआ एक कुण्ड है । उसमें विशाल तथा विकृत आकारवाले भयंकर असंख्य कौए पापियों को नोचते रहते हैं । ‘सञ्चानकुण्ड’ और ‘बाजकुण्ड’ इन्हीं दोनों वस्तुओं (पक्षियों)- से ओत-प्रोत हैं । इन कुण्डों का परिमाण सौ धनुष है। उन भयानक पक्षियों से काटे हुए प्राणी सदा चीत्कार मचाया करते हैं। पापी जीवों से व्याप्त तथा सौ धनुष विस्तृत ‘वज्रकुण्ड’ है। वज्र के समान दाँतवाले भयंकर जन्तु उसमें रहते हैं । वहाँ सर्वत्र घोर अन्धकार छाया रहता है। दो वापी- जितना लंबा-चौड़ा ‘तप्तपाषाणकुण्ड’ है। उसका आकार ऐसा है मानो आग धधक रही हो । पापी प्राणी संतप्त होकर इधर-उधर भागते रहते हैं ।

छुरे की धार के समान तीखे पाषाणोंसे बना हुआ ‘तीक्ष्ण पाषाणकुण्ड’ है । महान् पापी उसमें वास करते हैं। रक्त से लथपथ हुए प्राणियों से भरा हुआ ‘लालाकुण्ड ‘ है । वह कुण्ड एक कोस नीचे तक गहरा है। मेरे दूतों से संतप्त प्राणी उसमें खचाखच भरे रहते हैं । कज्जल वर्ण वाले संतप्त पत्थरों से निर्मित तथा सौ धनुष परिमाण वाला ‘मसीकुण्ड’ है । पापियों से वह कुण्ड पूरित रहता है । तपे हुए बालू भरपूर एक कोस विस्तार वाला ‘चूर्णकुण्ड’ है । उसमें प्रतप्त बालुका से दग्ध प्राणी निवास करते हैं। कुम्हार के चक्र की भाँति निरन्तर घूमता हुआ ‘चक्रकुण्ड’ है । उसमें अत्यन्त तीक्ष्ण धारवाले सोलह अरे लगे हुए हैं, जिनसे वहाँ के पापियों के अङ्ग सदा क्षत-विक्षत होते रहते हैं । उस कुण्ड का आकार अत्यन्त टेढ़ी-मेढ़ी कन्दरा के समान है तथा वह पर्याप्त गहरा है। उसकी लंबाई-चौड़ाई चार कोस है । उसमें खौलता हुआ जल भरा रहता है। वहाँ के घोर पापियों को जलचर-जन्तु काटते-खाते हैं । उस अन्धकारमय भयानक कुण्ड में संतप्त प्राणियों द्वारा करुण – क्रन्दन होता रहता है। विकृत आकारवाले अत्यन्त भयंकर असंख्य कछुओंसे भरा हुआ ‘कूर्मकुण्ड’ है । जल में रहनेवाले कछुए नारकी जीवों को नोचते-खाते रहते हैं । प्रज्वलित ज्वालाओं से व्याप्त ‘ज्वालाकुण्ड’ है, जिसकी लंबाई-चौड़ाई एक कोस है। उस कष्टदायी कुण्डमें पातकी प्राणी निरन्तर चिल्लाते रहते हैं ।

एक कोस गहराईवाला ‘भस्मकुण्ड ‘ है जिसमें सर्वत्र प्रतप्त भस्म ही भरा रहता है। जलते हुए भस्मको खानेके कारण वहाँके पातकी जीवोंके अङ्गोंमें दाह-सा होता रहता है। जो तपे हुए लौह से परिपूर्ण तथा जले हुए गात्रवाले पापियों से युक्त नरक है, उसे ‘दग्धकुण्ड’ कहा गया है। वह अत्यन्त भयंकर गहरा कुण्ड एक कोस के परिमाण में है । वहाँ सर्वत्र अन्धकार छाया रहता है। ज्वाला के कारण पापियों के तालु सूखे रहते हैं । ‘तप्तसूर्मिकुण्ड’ नरक अत्यन्त भयानक है, जो बहुसंख्यक ऊर्मियों, संतप्त क्षार- जलों, नाना प्रकारके शब्द करनेवाले जल- तुओं से युक्त है । जिसकी चौड़ाई चार कोस है; ऐसे गहरे और अन्धकारयुक्त नरक को ‘प्रतप्तसूचीकुण्ड’ कहते हैं । उस भयानक कुण्ड में दग्ध होने के कारण आर्तनाद करते हुए प्राणी एक-दूसरे को नहीं देख पाते। जिसमें तलवार की धार के समान तीखे पत्ते वाले बहुत-से ऊँचे-ऊँचे ताड़ के वृक्ष हैं, उस नरक को ‘असिपत्रकुण्ड’ कहा गया है। उस नरक के ये ताड़वृक्ष आधे कोस की लंबाई तक ऊपर को फैले हुए हैं और उन्हीं वृक्षों पर से वहाँ पापियों को गिराया जाता है। उन वृक्षों के सिर से गिराये गये पापियों के रक्तों से वह कुण्ड भरा रहता है। उन पापियों के मुख से ‘रक्षा करो’ की चीख निकलती रहती है। वह भयानक कुण्ड अत्यन्त गहरा, अन्धकार से आच्छन्न तथा रक्त के कीड़ों से परिपूरित है।

जो सौ धनुष – जितना लंबा-चौड़ा तथा छुरे की धार के समान अस्त्रों से युक्त है, उस भयानक नरकको ‘क्षुरधारकुण्ड’ कहते हैं। पापियों के रक्त से वह कभी खाली नहीं हो पाता। जिसमें सूई के समान नोक वाले अस्त्र भरे रहते हैं तथा जो पापियों के रक्त से सदा परिपूर्ण रहता है, पचास धनुष – जितना लंबा-चौड़ा वह नरक ‘शूचीमुख’ कहलाता है । वहाँ नारकी प्राणी अत्यन्त कष्ट भोगते हैं। किसी एक जन्तु विशेष का नाम गोधा है; उसके मुख के समान जिसकी आकृति है, उसका नाम ‘गोधामुखकुण्ड’ है । उसकी गहराई कुएँ के समान है और उसका प्रमाण बीस धनुष है । वह नरक घोर पापियों के लिये अत्यन्त कष्टप्रद है । उन गोधासंज्ञक कीड़ों के काटने से नारकी जीवों का मुख सदा नीचे को लटकता रहता है। नाक ( जलजन्तुविशेष) के मुख के समान जिसकी आकृति है, उसे ‘नक्रकुण्ड’ कहते हैं। वह सोलह धनुष के विस्तार में स्थित है । उसकी गहराई कुएँ – जितनी है। उस कुण्ड में सदा पापी भरे रहते हैं। ‘गजदंशकुण्ड’ को सौ धनुष लंबा-चौड़ा बतलाया गया है। तीस धनुष- जितना विस्तृत तथा गौ के मुख की आकृतिवाला एवं पापियों के लिये अत्यन्त दुःखद जो नरक है, उसे ‘गोमुखकुण्ड’ कहा गया है। कालचक्र से युक्त सदा चक्कर काटनेवाला भयानक नरक, जिसकी आकृति घड़े के समान है, ‘कुम्भीपाक’ कहलाता है। चार कोस के परिमाणवाला वह नरक महान् अन्धकारमय है। साध्वि ! उसकी गहराई एक लाख पोरसा (पुरुष की लंबाई को ‘पोरसा’ कहते हैं।) है । उस कुण्ड के अन्तर्गत तप्ततैल एवं ताम्रकुण्ड आदि बहुसंख्यक कुण्ड हैं। उस नरक में बड़े-बड़े पापी अचेत होकर पड़े रहते | भयंकर कीड़ोंके काटनेपर चिल्लाते हुए नारकी जीव परस्पर एक-दूसरे को देखने में असमर्थ रहते हैं। उन्हें क्षण-क्षण में मूर्च्छा आती है और वे पृथ्वी पर लोट-पोट हो जाते हैं।

पतिव्रते ! उन सभी कुण्डोंमें जितने पापी पड़े हुए हैं, उन सबकी ऐसी ही दुर्दशा है। मेरे दूतों की मार पड़ने पर वे क्षण में गिरते और क्षणभर में चिल्लाहट मचाने लगते हैं । कुम्भीपाक के अन्तर्गत जो नरककुण्ड हैं, वे उससे कहीं चौगुने कष्टप्रद हैं । सुदीर्घ काल तक मार पड़ने पर भी यातना भोगने वाले उन शरीरों का अन्त नहीं होता । कुम्भीपाक को सम्पूर्ण नरक- कुण्डों में प्रधान बताया गया है। कालनिर्मित सुदृढ़ सूत्र से बँधे हुए पापी जीव जहाँ निवास करते हैं, उसे ‘कालसूत्र’ नामक नरककुण्ड कहा गया है । मेरे दूतों के प्रयास से प्राणी कभी ऊपर उठते हैं और कभी डूब जाते हैं। बहुत देर तक उनकी साँस बंद हो जाती है । वे अचेत से हो जाते हैं। साध्वि! उसका जल सदा खौलता रहता है। नरकभोगी प्राणियों के लिये वह बड़ा ही कष्टप्रद है । ‘अवटकुण्ड’ और ‘मत्स्योदकुण्ड’ एक ही है। ‘अवट’ संज्ञक एक कूप है। अतः कोई उसे अवकुण्ड कहा करते हैं। संतप्त जल से वह परिपूर्ण रहता है। चौबीस धनुष – जितना वह लंबा-चौड़ा है। जलते हुए शरीरवाले घोर पापी जीव उसमें निरन्तर व्याप्त रहते हैं । मेरे दूतों की कठिन मार उन्हें सहनी पड़ती है। उस कुण्ड की ‘अवटोद’ संज्ञा है । उसके जल का स्पर्श होते ही सम्पूर्ण व्याधियाँ पापियों को अनायास घेर लेती हैं । उसकी गहराई सौ धनुष है। जिसमें पड़े हुए प्राणियों को अरुन्तुद नामक कीड़े काटते रहते हैं, उसे ‘अरुन्तुदकुण्ड’ कहा जाता है। दुःखी जीव सदा हाहाकार मचाया करते हैं। अत्यन्त तपी हुई धूलों से व्याप्त नरक को ‘पांशुकुण्ड’ कहते हैं । वह सौ धनुष – जितना विस्तृत है। उसमें पड़े नारकी जीवों के चमड़े जलते रहते हैं । खाने के लिये उसे जलती हुई धूल ही उपलब्ध होती है । जिसमें गिरते ही पापी पाशों से आवेष्टित हो जाता है, उसे विज्ञ पुरुषों ने ‘पाशवेष्टनकुण्ड’ कहा है। उसकी लंबाई-चौड़ाई एक कोस है । जहाँ पापी ज्यों ही गिरते हैं, त्यों ही शूल से जकड़ उठते हैं, उसे ‘शूलप्रोतकुण्ड’ कहा जाता है । उसका परिमाण बीस धनुष है ।

‘प्रकम्पनकुण्ड’ आधे कोस के विस्तार में है । उसका जल बरफ के समान गलता रहता है । उसमें पड़ते ही प्राणियों के शरीर में कँपकँपी मच जाती है। जिसमें पापियों के मुखों में जलती हुई लुआठी घुसा दी जाती है, उसे ‘उल्कामुखकुण्ड’ कहा गया है। वह भी बीस धनुष – जितना लम्बा- – चौड़ा है। जिसकी गहराई लाख पोरसा है तथा सौ धनुष – जितना जो विस्तृत है, उस भयानक कुण्ड को ‘अन्धकूप नरक’ कहते हैं । उसमें नाना प्रकार की आकृतिवाले कीड़े रहते हैं । वह सदा अन्धकार से व्याप्त रहता है। कूपके समान उसकी गोलाई है। कीड़ोंके काटनेपर प्राणी आतुर होकर परस्पर एक-दूसरेको चबाने लगते हैं। उन्हें खौलता हुआ जल ही पीनेको मिलता है । एक तो वे खौलते हुए जलसे जलते हैं, दूसरे कीड़े भी काटते रहते हैं। वहाँ इतना अन्धकार रहता है कि वे आँखोंसे कुछ भी देख नहीं सकते । जहाँ जानेपर पापी अनेक प्रकारसे शस्त्रोंसे बिंध जाते हैं, वह ‘वेधनकुण्ड’ कहलाता है । उसकी लंबाई-चौड़ाई बीस धनुष है । जहाँ डंडोंसे मारा जाता है, उस सोलह धनुषके प्रमाणवाले नरकको ‘दण्डताडनकुण्ड’ कहते हैं । जहाँ जाते ही पापी जीव मछलियोंकी भाँति महाजाल में फँस जाते हैं तथा जो बीस धनुष – जितना विस्तृत है, वह ‘जालरन्ध्रकुण्ड’ कहलाता है । जहाँ हुए पापियोंके शरीर चूर्ण- चूर्ण हो जाते हैं, वह नरक ‘देहचूर्णकुण्ड’ नामसे प्रसिद्ध है । वहाँ गये हुए पापियों के पैरमें लोहेकी बेड़ी पड़ी रहती है । असंख्य पोरसा वह गहरा है। लंबाई और चौड़ाई बीस धनुष है। प्रकाश का तो वहाँ कहीं नाम ही नहीं रहता । उसमें प्राणी मूर्च्छित होकर जड़ की भाँति पड़े रहते हैं । जहाँ गये पापी मेरे दूतोंद्वारा दलित और ताड़ित होते रहते हैं, उसको ‘दलनकुण्ड’ कहा गया है। वह सोलह धनुष विस्तार में है । तपी हुई बालूसे व्याप्त होनेके कारण जहाँ गिरते ही पापीके कण्ठ, ओठ और तालू सूख जाते हैं तथा जो तीस धनुष – जितना परिमाणमें है और जिसकी गहराई सौ पोरसा है एवं जो सदा अन्धकारसे आच्छन्न रहता है, उन पापियों के लिये अतिशय दुःखप्रद नरकको ‘शोषणकुण्ड’ कहते हैं ।

विविध धर्मसम्बन्धी कषाय जलसे जो लबालब भरा रहता है, जिसकी लंबाई-चौड़ाई सौ धनुष है और जहाँ सदा दुर्गन्ध फैली रहती है तथा जहाँ उस अमेध्य वस्तुके आहारपर ही रहकर पापी जीव यातना भोगते हैं, वह नरक ‘कषकुण्ड’ कहलाता है । साध्वि ! जिस कुण्ड का आकार शूर्प सदृश है तथा जो बारह धनुषके बराबर लंबा-चौड़ा है एवं जहाँ सर्वत्र संतप्त बालुका बिछी रहती है और पातकियोंसे कोई स्थल खाली नहीं रहता, उस नरकको ‘शूर्पकुण्ड’ कहते हैं । वहाँ सदा दुर्गन्ध भरी रहती है । वही खाकर पापी जीव वहाँ यातना भोगते हैं । पतिव्रते ! जहाँकी रेणुका अत्यन्त संतप्त रहती है तथा जो घोर पापी जीवोंसे युक्त रहता है एवं जिसके भीतर आगकी लपटें उठा करती हैं, ऐसी ज्वालासे भरे हुए मुखवाले नरकको ‘ज्वालामुखकुण्ड’ कहा जाता है । वह बीस धनुषमें विस्तृत है । ज्वालासे दग्ध पापी उसके कोने-कोनेमें भरे रहते हैं । उस कुण्डमें प्राणियोंको असीम कष्ट भोगना पड़ता है जहाँ गिरते ही मानव मूर्च्छित हो जाता है तथा जिसके भीतरकी ईंटें अत्यन्त संतप्त रहती हैं एवं जो आधी बावड़ी – जितना परिमाणवाला है, वह ‘जिम्भकुण्ड’ कहलाता है। जो धूममय अन्धकारसे संयुक्त रहता है तथा जहाँ गये हुए पापी धूमोंके कारण नेत्रहीन हो जाते हैं और जिसमें साँस लेनेके लिये बहुत से छिद्र बने हैं, उस नरकको ‘धूम्रान्धकुण्ड’ कहा गया है। वह सौ धनुष बराबर परिमाणमें है। जहाँ जानेपर पापीको तुरंत नाग बाँध लेते हैं तथा जो सौ धनुष – जितना लंबा-चौड़ा है और जिसमें सदा नाग भरे रहते हैं, उसे ‘नागवेष्टनकुण्ड’ कहा गया है।

इन सभी कुण्डोंमें मेरे दूत प्राणियोंको मारते, जलाते तथा भाँति-भाँति से भयानक कष्ट देते रहते हैं । सावित्री! सुनो, मैंने ये छियासी नरककुण्ड और इनके लक्षण भी बतला दिये । अब फिर तुम
क्या सुनना चाहती हो ? (अध्याय ३३)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे सावित्र्युपाख्याने यमलोकस्थनरककुण्डलक्षणप्रकथनं नाम त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३३ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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