February 4, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण – प्रकृतिखण्ड – अध्याय 36 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ छत्तीसवाँ अध्याय इन्द्र को दुर्वासा के शाप का वर्णन नारदजी ने पूछा — भगवन् ! श्रीमहालक्ष्मी भगवान् नारायण की प्रिया होकर सदा वैकुण्ठ में विराजती हैं। उन सनातनीदेवी को वैकुण्ठ की अधिष्ठात्री देवी कहा गया है। फिर वे देवी पृथ्वी पर सिन्धुकन्या के रूप में कैसे प्रकट हुईं? उनका ध्यान, कवच और पूजन सम्बन्धी सम्पूर्ण विधान क्या है ? पूर्वकाल में सबसे पहले उन महालक्ष्मी का स्तवन किसने किया था ? इन सब बातों का मेरे लिये विशद विवेचन कीजिये । ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भगवान् नारायण ने कहा — नारद! पूर्व समय की बात है । दुर्वासा के शाप से इन्द्र, देवसमुदाय तथा मर्त्यलोक – सभी श्रीहीन हो गये थे। रूठी हुई लक्ष्मी स्वर्ग आदि का त्याग करके बड़े दुःख के साथ वैकुण्ठ में गयीं और महालक्ष्मी में अपने-आपको विलीन कर दिया। उस समय सम्पूर्ण देवताओं के शोक की सीमा नहीं रही । वे परम दुःखी होकर भगवान् ब्रह्मा की सभा में गये । वहाँ पहुँचकर ब्रह्माजी को आगे करके वे सब वैकुण्ठ गये। वहाँ भगवान् नारायण विराजमान थे । अत्यन्त दैन्यभाव प्रकट करते हुए देवताओं ने उनकी शरण ग्रहण की। वस्तुतः देवता बहुत दुःखी थे । उनके कण्ठ, ओठ और तालु सूख गये थे। तब पुराणपुरुष भगवान् श्रीहरि की आज्ञा मानकर वे इन्द्र-सम्पत्ति-स्वरूपा लक्ष्मी अपनी कला से समुद्र की कन्या हुईं। देवताओं और दैत्यों ने मिलकर क्षीरसागर का मन्थन किया था । उससे महालक्ष्मी का प्रादुर्भाव हुआ। देवताओं ने वहाँ उन्हें देखा और उनसे वर प्राप्त किया। देवता आदि को वर देकर उन प्रसन्न-वदना देवी ने क्षीरसागर में शयन करनेवाले भगवान् विष्णु को वरमाला अर्पित की। नारद! उनकी कृपा से देवताओं को असुरों के हाथ में गया हुआ राज्य पुनः प्राप्त हो गया। देवता उनकी भली-भाँति पूजा और स्तुति करके सर्वत्र निरापद हो गये । नारदजी ने पूछा — ब्रह्मन् ! ब्रह्मनिष्ठ और तत्त्वज्ञ मुनिवर दुर्वासा ने कब, क्यों और किस अपराध के कारण इन्द्र को शाप दे दिया था ? देवता आदि ने किस रूप से समुद्र का मन्थन किया ? किस स्तोत्र से प्रसन्न होकर देवी ने इन्द्र को साक्षात् दर्शन दिये थे ? प्रभो! किस प्रकार उन दोनों का संवाद हुआ था ? यह सब बताने की कृपा करें। भगवान् नारायण कहते हैं — नारद! प्राचीन काल की बात है। मुनिवर दुर्वासाजी वैकुण्ठ से कैलास शिखर पर जा रहे थे । इन्द्र ने उन्हें देखा । मुनिवर का शरीर ब्रह्मतेज से प्रदीप्त हो रहा था। वे ऐसे जान पड़ते थे, मानो ग्रीष्म ऋतु के मध्याह्नकालिक सूर्य की सहस्रों किरणों से सम्पन्न हों । उनकी अत्यन्त स्वच्छ जटाएँ तपाये हुए सुवर्ण के समान चमक रही थीं। वे श्वेतवर्ण का यज्ञोपवीत धारण किये हुए थे तथा उनके हाथों में चीर, दण्ड और कमण्डलु शोभा पा रहे थे। उनके ललाट पर महान् उज्ज्वल तिलक चन्द्रमा के सदृश जान पड़ता था । वेद-वेदाङ्ग के पारगामी असंख्य शिष्य उनके साथ विद्यमान थे । उन्हें देखकर इन्द्र ने मस्तक झुकाकर प्रणाम किया । उनके शिष्यों को भी भक्तिपूर्वक प्रसन्नता के साथ इन्द्र ने संतुष्ट किया। तब शिष्यों सहित मुनिवर दुर्वासा ने इन्द्र को शुभ आशीर्वाद दिया; साथ ही भगवान् विष्णु द्वारा प्राप्त परम मनोहर पारिजात-पुष्प भी उन्हें समर्पित किये। राज्य श्री के गर्व में गर्वित इन्द्र ने जरा, मृत्यु एवं शोक का विनाश करने वाले तथा मोक्षदायी उस पुष्प को लेकर अपने ऐरावत हाथी के मस्तक पर रख दिया। उस पुष्प का स्पर्श होते ही रूप, गुण, तेज और अवस्था-इन सबसे सम्पन्न होकर ऐरावत सहसा भगवान् विष्णु के समान हो गया। फिर तो इन्द्र को छोड़कर वह घोर वन में चला गया। मुने ! उस समय इन्द्र तेज से युक्त उस ऐरावत पर शासन नहीं कर सके । इन्द्र ने इस दिव्य पुष्प का परित्याग कर तिरस्कार किया है — यह जानकर मुनिवर दुर्वासा के रोष की सीमा न रही। उन्होंने क्रोध में भरकर शाप देते हुए कहा । मुनिवर दुर्वासा बोले — अरे ! राज्यश्री के अभिमान में प्रमत्त होकर तुम क्यों मेरा अपमान कर रहे हो ? मैंने तुम्हें यह पारिजात-पुष्प दिया और तुमने गर्व के कारण स्वयं इसका उपयोग न करके हाथी के मस्तक पर रख दिया ! नियम तो यह है कि श्रीविष्णु को समर्पित किये हुए नैवेद्य, फल अथवा जल के प्राप्त होते ही उनका उपभोग करना चाहिये । त्याग करने से ब्रह्महत्या के सदृश दोष लगता है। सौभाग्यवश प्राप्त हुए भगवान् विष्णु के पावन नैवेद्य का जो त्याग करता है, वह पुरुष श्री, बुद्धि और ज्ञान से भ्रष्ट हो जाता है। भगवान् विष्णु के लिये अर्पित की हुई वस्तु को पाते ही उसे पा लेने वाला बड़भागी पुरुष अपनी सौ पीढ़ियों का उद्धार करके स्वयं मुक्त हो जाता है। जो पुरुष नैवेद्य भोजन करके निरन्तर भगवान् श्रीहरि की भक्तिपूर्वक पूजा और स्तुति करता वह भगवान् विष्णु के समान हो जाता है । उसका स्पर्श करके चलने वाली वायु का संयोग पाकर तीर्थों का समूह पवित्र हो जाता है । उसकी चरण-रज लगते ही पृथ्वी पवित्र हो जाती है । श्रीहरि को भोग न लगाया हुआ अन्न मांस के समान अभक्ष्य है। शिवलिङ्ग के लिये अर्पण किया हुआ अन्न तथा शूद्रयाजी, चिकित्सक, देवल, कन्याविक्रयी और योनि जीवी का अन्न, ठंडा, बासी, सबके भोजन करने पर बचा हुआ अन्न, शूद्रापति एवं वृषवाही, अदीक्षित, शवदाही, अगम्यागामी, मित्रद्रोही, विश्वासघाती, कृतघ्न तथा झूठी गवाही देने वाले ब्राह्मणों का अन्न अत्यन्त दूषित समझा जाता है; परंतु ये सब भी भगवान् विष्णु को अर्पण करके भोजन करने से शुद्ध हो जाते हैं। यदि चाण्डाल भी भगवान् विष्णु की उपासना करता है तो वह करोड़ों वंशजों का उद्धार कर सकता है। श्रीहरि की भक्ति से विमुख मानव स्वयं अपनी भी रक्षा नहीं कर सकता । यदि अज्ञान में भी भगवान् विष्णु को समर्पित नैवेद्य ग्रहण कर लिया जाय तो वह पुरुष अपने सात जन्मों के उपार्जित पापों से मुक्त हो जाता है । जान-बूझकर भक्तिपूर्वक जो श्रीहरि का प्रसाद ग्रहण करता है, उसके तो अनेक जन्मों के पाप निश्चितरूप से भस्म हो जाते हैं । इन्द्र ! तुमने जो अभिमान में आकर भगवान् के प्रसादरूप पारिजात के पुष्प को हाथी के मस्तक पर रख दिया, इस अपराध के फलस्वरूप लक्ष्मी तुम्हें छोड़कर भगवान् श्रीहरि के समीप चली जाय। मैं भगवान् नारायण का भक्त हूँ। मुझे शिव तथा ब्रह्मा से भी किंचित् भी भय नहीं है । काल, मृत्यु और जरा से भी मैं नहीं डरता, फिर दूसरों की तो गिनती ही क्या है ? तुम्हारे पिता प्रजापति कश्यप भी मेरा क्या करेंगे ? देवराज! तुम्हारे गुरु बृहस्पति भी मुझ निःशङ्क पुरुष का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते । देखो, यह पुष्प जिसके मस्तक पर है, उसी की पूजा श्रेष्ठ मानी जाती है। शिव के पुत्र का मस्तक कट जाने पर उसके पुनरुज्जीवन के लिये यही मस्तक ( हाथी का सिर) जोड़ा जायगा । मुनिवर दुर्वासा के ये वचन सुनकर देवराज इन्द्र ने उनके चरण पकड़ लिये । भय के कारण उनके मन में घबराहट छा गयी। शोकातुर होकर उच्च स्वर से रोते हुए वे मुनि से कहने लगे । इन्द्र ने कहा — प्रभो ! आपने मुझ मतवाले को यह शाप देकर बहुत ही उचित किया है। यदि आपने मेरी सम्पत्ति हर ली तो अब आप मुझे कुछ ज्ञानोपदेश करने की कृपा कीजिये । ऐश्वर्य्यं विपदां बीजं प्रच्छन्नज्ञानकारणम् । मुक्तिमार्गार्गलं दार्ढ्याद्धरिभक्तिव्यपायकम् ॥ ४८ ॥ जन्ममृत्युजरारोगशोकदुःखांकुरं परम् । सम्पत्तितिमिरान्धश्च मुक्तिमार्गं न पश्यति ॥ ४९ ॥ ऐश्वर्य तो विपत्तियों का बीज है। उससे ज्ञान ढक जाता है। इसी से इसको मुक्तिमार्ग की अर्गला कहा जाता है । इसके कारण हरि-भक्ति में पद-पद पर बाधा उपस्थित हुआ करती है। सम्पत्ति जन्म, मृत्यु, जरा, रोग, शोक और दुःख के बीज का उत्तम अङ्कुर है । धनरूपी रतौंधी से अन्धा हुआ मानव मुक्ति के मार्ग को नहीं देख सकता । जो सम्पत्ति से प्रमत्त हो गया है, उसे मदिरा से मत्त हुआ समझना चाहिये । उसे बान्धवजन घेरे रहते हैं; परंतु वह बन्धुजनों से द्वेष रखता है। वैभवमत्त, विषयान्ध, विह्वल, महाकामी और राजसिक व्यक्ति में सत्त्वमार्ग का अवलोकन करने की योग्यता नहीं रह जाती । विषयान्ध दो प्रकार के बताये गये हैं – राजस और तामस | जिसमें शास्त्र का ज्ञान नहीं है, वह तामस कहलाता है और शास्त्रज्ञ राजस । मुनिश्रेष्ठ ! शास्त्र दो प्रकार के मार्ग दिखलाते हैं – एक प्रवृत्ति-बीज और दूसरा निवृत्ति-बीज । पहला जो प्रवृत्तिमार्ग है, वह दुःख का रास्ता है, परंतु जीव क्लेश में ही सुख मानकर पहले उसी पर चलते हैं । वह मार्ग स्वच्छन्द, प्रसन्नतापूर्ण, विरोधशून्य एवं आपात-मधुर होने पर भी परिणाम में नाश का बीज तथा जन्म-मृत्यु और जरा के चक्कर में डालने वाला है । जीव अनेक जन्मों तक अपने विहित कर्म के परिणाम-स्वरूप नाना प्रकार की योनियों में क्रमशः भ्रमण करने के पश्चात् भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा से मानव होकर सत्सङ्ग का सुअवसर प्राप्त करता है । सैकड़ों और सहस्रों पुरुषों में कोई विरला ही साधुपुरुष भवसागर से पार उतारने में कारण बनता है । साधुपुरुष सत्त्वगुण के प्रकाश से मुक्तिमार्ग का दर्शन कराता है। तब जीव के हृदय में बन्धन को तोड़ने के लिये यत्न करने की भावना उत्पन्न होती है। जब अनेक जन्मों के पुण्य एवं तपस्या और उपवास सहायक होते हैं तब प्राणी को निर्विघ्न और परम सुखद मुक्तिमार्ग की उपलब्धि होती है । यह बात मैंने विभिन्न प्रसङ्गों और अवसरों पर गुरु (बृहस्पति) – जी के मुख से सुनी है । अब विधाता ने इस विपत्ति के समय मुझे ज्ञान का समुद्र प्रदान किया है । मेरा उद्धार करने वाली यह विपत्ति वास्त वमें सम्पत्तिरूपिणी है। ज्ञानसिन्धो ! दीनबन्धो ! दयानिधे ! इस समय मुझ दीन को कुछ ऐसा सारभूत ज्ञान दीजिये, जो मुझे भवसागर से पार कर दे। इन्द्र की यह बात सुनकर ज्ञानियों के गुरु सनातन मुनि दुर्वासा जोर-जोर से हँस पड़े और अत्यन्त संतुष्ट होकर इन्द्र को ज्ञान का उपदेश देने लगे । मुनि बोले — अहो महेन्द्र ! यह बड़े मङ्गल की बात है कि तुम अभीष्ट (मोक्ष) – मार्ग का साक्षात्कार करना चाहते हो। यह पहले तो दुःख का कारण जान पड़ता है; परंतु परिणाम में सुख देने वाला है । जीव को जो गर्भ की यातना तथा मृत्युकष्ट सहन करने पड़ते हैं, उन सबका खण्डन करने वाला यह ज्ञान बताया जा रहा है। जिससे पार पाना कठिन है, उस दुर्वार एवं असार संसार – पारावार से उद्धार करने वाला यह ज्ञान ही है। इससे कर्मरूपी वृक्ष के अङ्कुर का उच्छेद हो जाता है। यह सबका उद्धार करने वाला है । ज्ञान का यह मार्ग सब मार्गों से श्रेष्ठ है । इससे संतोष और संतति की प्राप्ति होती है। दान, तप, व्रत और उपवास आदि कर्म से जीवधारियों को स्वर्गभोग आदि सुख की उपलब्धि होती है। पहले के सकाम कर्मों का यत्नपूर्वक मूलोच्छेद करके यह ज्ञान मोक्ष का बीज वपन करता है। संकल्प का अभाव ही मोक्ष का बीज है। मनुष्य जो भी सात्त्विक कर्म करे, उसे कामना या संकल्प से शून्य ही रखे। समस्त कर्मों को श्रीकृष्ण के चरणों में समर्पित करके ज्ञानी पुरुष परब्रह्म परमात्मा में लीन हो जाता है । संसारी पुरुषों के लिये इस गति को निर्वाण-मोक्ष कहा गया है। परंतु वैष्णव पुरुष भगवत् सेवा से विरह होने के भय से कातर हो इस निर्वाण – मुक्ति की इच्छा नहीं करते हैं । वे उत्तम देह धारण करके गोलोक अथवा वैकुण्ठधाम में उन्हीं परमात्मा की नित्य सेवा करते हैं । इन्द्र ! वैष्णवजन भगवत् सेवारूप मुक्ति की ही अभिलाषा रखते हैं । वे जीवन्मुक्त हैं और अपने समस्त कुल का उद्धार कर देते हैं। भगवान् विष्णु का स्मरण, कीर्तन, अर्चन, पादसेवन, वन्दन, स्तवन, नित्य भक्तिभाव से उनके नैवेद्य का भक्षण, चरणोदक का पान तथा उनके मन्त्र का जप – यही जीव के उद्धार का बीज है, जो सबके लिये अभीष्ट हो सकता है। यह मृत्युञ्जय-ज्ञान है, जिसे भगवान् मृत्युञ्जय ने मुझे दिया था। मैं उनका शिष्य हूँ । इसलिये उन्हीं के कृपा प्रसाद से सर्वत्र निर्भय विचरता हूँ। जो तीनों लोकों में परम दुर्लभ हरिभक्ति प्रदान करता है, वही जन्मदाता पिता है, वही ज्ञानदाता गुरु है, वही बन्धु है और वही सत्पुरुषों में श्रेष्ठ है (स जन्मदाता स गुरुः स च बन्धुः सतां परः । यो ददाति हरेर्भक्तिं त्रैलोक्ये च सुदुर्लभम् ॥ ७६ ॥) । जो श्रीकृष्ण सेवा के सिवा दूसरा कोई मार्ग दिखाता है, वह उस शिष्य का विनाश ही करता है । निश्चय ही उस गुरु को उसके वध के पाप का भागी होना पड़ता है । भगवान् श्रीकृष्ण का नाम ही सदा समस्त लोकों के लिये मङ्गलकारक है। जो कृष्ण-नाम लेता है, उसके मङ्गल की सदा वृद्धि होती है । उसकी आयु का अपव्यय नहीं होता । श्रीकृष्ण-भक्तों से काल, मृत्यु, रोग, संताप और शोक उसी तरह दूर भागते हैं, जैसे गरुड़ से सर्प । श्रीकृष्ण-मन्त्र का उपासक ब्राह्मण हो या चाण्डाल, वह ब्रह्मलोक को लाँघकर उत्तम गोलोक में चला जाता है । ब्रह्माजी मधुपर्क आदि के द्वारा उसकी पूजा करते हैं तथा देवताओं और सिद्धों के मुख से अपनी स्तुति सुनता हुआ वह परमानन्द का अनुभव करता है । भगवान् शिव ने श्रीकृष्ण के चरणारविन्दों की सेवा को ही ज्ञान, तप, वेद तथा योग का सार बताया है। वही परम कल्याणस्वरूप है । ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त सारा जगत् स्वप्न के समान मिथ्या ही है। केवल परब्रह्म परमात्मा राधावल्लभ श्रीकृष्ण ही परम सत्य हैं। वे प्रकृति से भी परे हैं। अतः तुम उन्हीं की आराधना करो । भगवान् श्रीकृष्ण अत्यन्त सुखदायक, सारतत्त्वस्वरूप, भक्तिदाता, मोक्षदाता, सिद्धिदाता, योगप्रदाता तथा सम्पूर्ण सम्पदाओं के दाता हैं। योगी, यती, सिद्ध और तपस्वी सबके लिये कर्मों का भोग अनिवार्य है, परंतु नारायण के भक्तों के लिये कर्मभोग नहीं है। जैसे प्रज्वलित में डाला गया सूखा ईंधन शीघ्र ही जल जाता है, उसी प्रकार भगवद्भक्तों के स्पर्शमात्र से सारा पाप तत्काल भस्म हो जाता है। श्रीकृष्ण-भक्त से रोग, पाप और भय सभी थर-थर काँपते हैं । यमदूत भी उससे डरकर दूर भागते हैं। विधाता के कारागाररूपी इस संसार में मनुष्य तभी तक बँधा रहता है, जब तक कि गुरु के मुख से उसको श्रीकृष्ण-मन्त्र का उपदेश नहीं प्राप्त होता । श्रीकृष्ण का नाम किये हुए कर्मों के भोगरूपी बेड़ी का उच्छेद करने वाला, मायाजाल को छिन्न-भिन्न कर देने वाला तथा मायापाश का विनाशक है । गोलोक के मार्ग का सोपान, उद्धार का बीज तथा भक्ति का नित्य बढ़ने वाला अविनाशी अङ्कुर है । पुरन्दर ! सम्पूर्ण तप, योग, सिद्धि, वेदाध्ययन, व्रत, दान, तीर्थ- स्नान, यज्ञ, पूजन और उपवास — इन सबका वही सार है, ऐसा ब्रह्माजी का कथन है । श्रीकृष्ण के मन्त्र को ग्रहण करने मात्र से मनुष्य जीवन्मुक्त हो जाता है। उसके स्पर्श से तीर्थों के समुदाय तथा सारी पृथ्वी तत्काल पवित्र हो जाती है । अनेक जन्मों तक जिसे कोई दीक्षा नहीं प्राप्त हुई है, वह लेशमात्र पुण्य के प्रभाव से किसी अन्य देवता का मन्त्र पाता है । अनेक जन्मों तक अन्य देवताओं की सेवा के फलस्वरूप उसको समस्त कर्मों के साक्षी सूर्यदेव का मन्त्र प्राप्त होता है। तीन जन्मों तक सूर्य की सेवा से शुद्ध हुआ मनुष्य गणेशजी के सर्वविघ्नहारी मन्त्र का उपदेश पाता है । अनेक जन्मों तक उनकी सेवा से मनुष्य की सारी विघ्न-बाधाएँ दूर हो जाती हैं । फिर वह गणेशजी के कृपा-प्रसाद से दिव्य ज्ञान प्राप्त करता है। उस ज्ञान के प्रकाश में भली-भाँति विचार करके अज्ञानान्धकार का निवारण करने के पश्चात् मनुष्य विष्णुमायास्वरूपिणी प्रकृतिदेवी दुर्गतिनाशिनी दुर्गा का भजन करता है । वे सिद्धिदायिनी, सिद्धिरूपिणी तथा परमा सिद्धियोगिनी हैं। वाणी, लक्ष्मी और श्रीकृष्णप्रिया राधा आदि उनके अनेक रूप हैं। अनेक जन्मों तक उनकी उपासना करने के पश्चात् उनकी कृपा से ज्ञानी होकर मनुष्य ज्ञानानन्दस्वरूप, श्रीकृष्ण ज्ञान के अधिदेवता सनातन महादेव कल्याणस्वरूप शिव का भजन करता है । वे मङ्गलदायक, कल्याणकारक, परमानन्दरूप, परमानन्ददायी, सुखदायक, मोक्षदायक तथा समस्त सम्पत्तियों के दाता हैं। अमरत्व, सुदीर्घ आयु, इन्द्रत्व तथा मनुत्व को भी वे अनायास ही देने में समर्थ हैं। राजेन्द्रपद, ज्ञान तथा हरिभक्ति के भी दाता हैं। तीन जन्मों तक उनकी आराधना करके उन्हीं आशुतोष महात्मा शंकर के कृपा-प्रसाद से मनुष्य निश्चय ही हरिभक्ति प्राप्त कर लेता है । फिर श्रीकृष्ण-भक्तों के संसर्ग से उसको कृष्णमन्त्र की प्राप्ति होती है। तत्त्वज्ञ पुरुष निर्मल ज्ञान-दीप के प्रकाशित होने से ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त सम्पूर्ण जगत् को मिथ्या ही देखता है। वरदाता शंकर के वर से जब निर्मल ज्ञान और भगवद्भक्ति की प्राप्ति हो जाती है, तब मनुष्य परात्पर निवृत्तिभाव को प्राप्त हो जाता है। जिस शरीर में उसे श्रीकृष्ण-मन्त्र की प्राप्ति होती है, वह शरीर जब तक टिका रहता है, तभी तक उसे भारतवर्ष में रहना पड़ता है । उस पाञ्च-भौतिक शरीर को त्याग देने के पश्चात् वह दिव्य रूप धारण कर लेता है और श्रीहरि के गोलोक या वैकुण्ठधाम में उनका पार्षद बनकर उनकी सेवा किया करता है । वह परमानन्द से सम्पन्न तथा मोह आदि से रहित हो जाता है । इस प्राकृत जगत् में पुनः उसका आगमन नहीं होता । उसे पुनः माता का स्तन नहीं पीना पड़ता । जो विष्णुमन्त्र उपासक गङ्गा आदि तीर्थों का सेवन करने वाले तथा स्वधर्मपरायण भिक्षु हैं, उनका फिर जन्म नहीं होता । तीर्थ में पाप का सर्वथा परित्याग करे और पुण्यकर्म का अनुष्ठान करते हुए श्रीहरि का भजन करे। विधाता ने तीर्थ-सेवी पुरुषों का यही धर्म बताया है । भगवान् विष्णु के नाम-मन्त्र का जप करे, उन्हीं की सेवा आदि में तत्पर रहे तथा उन्हीं के व्रत एवं उपवास में संलग्न रहे । यह विष्णु-सेवी पुरुषों का धर्म बताया गया है । जो सदन्न या कदन्न में (उत्तम या निकृष्ट श्रेणीके अन्न में), मिट्टी के ढेले अथवा सुवर्ण में सदा समभाव रखता है, वह संन्यासी कहा गया है। जो दण्ड, कमण्डलु तथा गेरुआ वस्त्र मात्र धारण करे, प्रतिदिन प्रवास में रहे और एक स्थान पर अधिक दिनों तक निवास न करे, उसे संन्यासी कहा गया है। जो लाभ आदि से रहित होकर सदाचारी द्विजों का दिया हुआ अन्न खाता है, किंतु किसी से याचना नहीं करता, वह संन्यासी कहा गया है। जो व्यापार न करे, आश्रम बनाकर न रहे, समस्त वैदिक कर्मों से विलग रहे तथा निरन्तर नारायण का ध्यान करे, उसे सच्चा संन्यासी कहा गया है। जो सदा मौन रहे, ब्रह्मचर्य का पालन करे, दूसरों से बात न करे और सबको ब्रह्ममय देखे, उसे संन्यासी कहा गया है । जिसकी सर्वत्र समबुद्धि हो, जो हिंसा और माया आदि से दूर रहता हो तथा क्रोध और अहंकार से शून्य हो, वही सच्चा संन्यासी कहा गया है। जो बिना माँगे प्रस्तुत हुए मीठे अथवा स्वादरहित अन्न को समभाव से भोजन करता है, किंतु खाने के लिये किसी से याचना नहीं करता, वह संन्यासी कहा गया है। जो स्त्रियों का मुँह न देखे, उनके पास खड़ा न हो और काठ की बनी हुई नारी-मूर्ति का भी स्पर्श न करे, वही सच्चा भिक्षु है । ब्रह्माजी ने संन्यासियों का यही धर्म बताया है । इसके विपरीत चलने पर जन्म, मृत्यु और यमयातना का भय सिर पर सवार रहता है अथवा पशु आदि क्षुद्र जन्तुओं की योनि में जन्म लेना पड़ता है। गर्भवास के समय सभी प्राणी अपने सैकड़ों जन्मों के कर्मों का स्मरण करते हैं; किंतु गर्भ से निकलते ही जीव विष्णु की माया से मोहित हो सब कुछ भूल जाता है । देवता हो या कीट सभी यत्नपूर्वक अपने शरीर की रक्षा करते हैं । स्त्री की योनि के भीतर जब पुरुष का वीर्य पड़ता है तो वह तत्काल उसके रक्त में मिल जाता है । रक्त की मात्रा अधिक होने पर संतान माता के समान होती है और वीर्य की अधिकता होने पर संतान की आकृति पिता से अधिक मिलती-जुलती है। ऋतुकाल के बाद यदि युग्म दिनों में गर्भाधान हो तो पुत्र का जन्म होता है और विषम दिनों में आधान होने पर कन्या की उत्पत्ति होती है। युग्म दिनों में तथा रवि, मङ्गल और गुरु का वार होने पर आधान हो तो पुत्र होता है। अन्य वारों तथा विषम दिनों में आधान से कन्या का जन्म होता है। जिसका जन्म पहले पहर में होता है, वह अल्पायु होता है, दूसरे पहर में जन्म लेने वाले की आयु मध्यम होती है तथा तीसरे पहर में जिसका जन्म होता है, वह दीर्घायु होता है। चतुर्थ पहर में जन्म लेने वाला चिरंजीवी माना जाता है। जिस क्षण या लग्न में बालक का जन्म होता है, उस समय की ग्रह-स्थिति के अनुरूप उसका भावी जीवन हुआ करता है । वह पूर्वकर्मों के अनुसार सुखी या दुःखी होता है। जैसे क्षण में जन्म होता है, वैसे ही संतान होती है । प्रसव के क्षण की चर्चा विद्वान् पुरुष ही करते हैं । रज-वीर्य परस्पर संयुक्त हो एक रात में कलल का आकार धारण करते हैं । फिर वह कलल दिनों- दिन बढ़ने लगता है। सातवें दिन उसकी आकृति बेर के समान होती है और एक मास में वह लट्टू के समान हो जाता है। तीन महीना बीतते-बीतते वह बिना हाथ-पैर के मांस-पिण्ड के रूप में परिणत हो जाता है । पाँचवें मास में देहधारी जीव के सारे अवयव प्रकट हो जाते हैं। छठे महीने में जीव का संचार होता है । फिर वह सब तत्त्वों को समझने लगता है। थोड़ी-सी जगह में उसे रहना और सोना पड़ता है, इस बात को समझकर वह पिंजड़े में बँधे हुए पक्षी के समान दुःखी हो जाता है । अपवित्र स्थान में रहकर वह माता के खाये हुए अन्न-पान का ही आहार करता है और ‘हाय ! हाय!’ करके परमेश्वर का चिन्तन करने लगता है । इस तरह चार मास तक बड़ी भारी यातना भोगकर यथासमय वायु से प्रेरित हो वह गर्भ से बाहर निकलता है । उस समय उसे दिशा, देश और काल का भान नहीं होता । विष्णुमाया से मोहित हो वह सब कुछ भूल जाता है । शैशवकाल की सीमा तक वह शिशु सदा मल- मूत्र से लिपटा रहता है । दूसरे के अधीन होता है । उसमें मच्छर आदि को हटाने की भी शक्ति नहीं रहती। जब उसे कीड़े आदि काट खाते हैं, तब वह दुःखी होकर बारंबार रोता है । स्तन पान करने में भी असमर्थ ही रहता है। अभीष्ट वस्तु की याचना करने के लिये उसकी वाणी नहीं निकलती । पौगण्डावस्था (पाँच वर्ष से दस वर्ष तक की अवस्था )तक वह स्पष्ट बोल नहीं पाता । पौगण्डावस्था में भी अनेक प्रकार की यातना भोगकर जवान होता है। उस समय माया से मोहित देहधारी जीव गर्भादि की यातना को भूल जाता है। आहार और मैथुन की चिन्ता से पीड़ित तथा नाना प्रकार के मोह आदि से वेष्टित होकर वह पुत्र, पत्नी तथा अनुचरों का यत्नपूर्वक पालन करता है। जबतक वह उनके पालन में समर्थ रहता है, तभीतक घर में उसकी पूजा होती है-आदर- सत्कार होता है। असमर्थ हो जाने पर तो भाई- बन्धु उसे बूढ़े बैल की भाँति व्यर्थ का भार समझने लगते हैं। जब अत्यन्त जरा-जर्जर, जड एवं बधिर हो जाता है, खाँसी और दमा आदि रोग सताने लगते हैं तथा वह अत्यन्त मूढवत् हो सर्वथा दूसरों के अधीन हो जाता है, तब सदा बारंबार पश्चात्ताप करने लगता है । वह कहता है- ‘अहो ! मैंने श्रीहरि के तीर्थ का तथा सत्संग का भी स्वेच्छापूर्वक कभी सेवन नहीं किया। यदि पुनः भारतवर्ष में मनुष्य का जन्म पाऊँगा, तब तीर्थों में जाऊँगा और भगवान् श्रीकृष्ण की सेवा करूँगा।’ देवेन्द्र ! इस तरह संकल्प करते हुए उस जड को यथासमय आकर अत्यन्त भयंकर यमदूत पकड़ लेता है। वह उस दूत को देखता है। उसके हाथों में पाश और दण्ड होते हैं । उसकी आँखें अत्यन्त क्रोध से लाल होती हैं, आकृति विकराल एवं भयंकर होती है। उसे किन्हीं भी उपायों द्वारा रोक पाना कठिन होता है । वह बलिष्ठ, भयानक, दुर्दर्श, सम्पूर्ण सिद्धियों का ज्ञाता तथा अन्य सबकी दृष्टि से ओझल होता है । सामने खड़े हुए उस दूत पर दृष्टि पड़ते ही वह अत्यन्त भयभीत हो मल-मूत्र का त्याग करने लग जाता है । फिर तत्काल ही प्राणों तथा पाञ्चभौतिक देह को भी त्याग देता है । यमदूत अंगूठे के बराबर आकार वाले जीव को लेकर भोगदेह ( या यातना-शरीर ) – में स्थापित कर देता है; तब उसे तीव्रगति से अपने स्थान पर ले जाता है। जीव वहाँ पहुँचकर सब धर्मों के ज्ञाता यमराज को देखता है। वे रत्नसिंहासन पर सुस्थिरभाव से बैठकर मन्द मन्द मुस्कराते दिखायी देते हैं । वे सर्वज्ञ हैं, धर्माधर्म के विचार को जानते हैं तथा सब ओर उनका मुख है। विधाता ने पूर्वकाल से ही यम को सम्पूर्ण विश्व के नियमन का एकमात्र अधिकार दे रखा है। वे अग्निशुद्ध दिव्य वस्त्र धारण करते हैं । रत्नमय आभूषणों से भूषित हैं, तीन करोड़ दूत और पार्षदगण उन्हें सदा घेरे रहते हैं। वे शुद्ध स्फटिकमणि की माला लेकर उसके द्वारा श्रीकृष्ण के नामों का जप करते रहते हैं तथा रोमाञ्चित शरीर से मन-ही-मन उनके युगल चरणारविन्दों का ध्यान किया करते हैं । उस समय उनकी वाणी गद्गद होती है, नेत्रों से अश्रुधारा बहती रहती है । भगवान् यम सब पर समान दृष्टि रखते हैं। उनका रूप बहुत ही सुन्दर एवं कमनीय है। उनका शरीर सदा सुस्थिर यौवन से सुशोभित होता है। वे अपने तेज से उद्भासित होते रहते हैं। उनकी कान्ति शरत्पूर्णिमा के चन्द्रमा की शोभा को लज्जित कर देती है। उनकी ओर सुखपूर्वक देखा जा सकता है। वे बड़े बुद्धिमान् हैं और चित्रगुप्त के सामने विराजमान रहते हैं। पुण्यात्माओं के समक्ष उनका रूप उपर्युक्त रूप से शान्त ही रहता है, परंतु पापियों को वे बड़े भयानक दिखायी देते हैं। उन्हें देखकर देहधारी जीव प्रणाम करता है और अत्यन्त भयभीत होकर खड़ा हो जाता है। सूर्यनन्दन यम चित्रगुप्तके साथ विचार करके जिनके लिये जो उचित होता है, वैसा ही शुभ या अशुभ फल प्रदान करते हैं । इस प्रकार उन जीवों को आवागमन के चक्कर से कभी छुटकारा नहीं मिलता। श्रीकृष्ण-चरणारविन्दों का सेवन ही जीव को उससे छुटकारा दिला सकता है। देवराज! ये सब बातें मैंने आनुषङ्गिकरूप से तुम्हें बतायी हैं, अब मनोवाञ्छित वर माँगो । वत्स! मैं तुम्हें सब कुछ दूँगा । मेरे लिये कुछ भी असाध्य नहीं है । महेन्द्र ने कहा — याचकों के लिये कल्प- वृक्षस्वरूप मुनिश्रेष्ठ ! मेरा इन्द्रत्व तो चला ही गया। अब ऐश्वर्य से क्या प्रयोजन है ? आप मुझे परमपद प्रदान कीजिये । महेन्द्र की यह बात सुनकर मुनिवर दुर्वासा हँसे और वेदोक्त सारतत्त्वस्वरूप सत्य वचन बोले । मुनि ने कहा — महेन्द्र ! विषयी पुरुषों के लिये परमपद अत्यन्त दुर्लभ है। तुम जैसे लोगों को तो प्राकृत प्रलय-काल में भी मुक्ति नहीं मिल सकती। सृष्टिकाल में जीवों का आविर्भाव तथा प्रलयकाल में तिरोभाव मात्र होता है । ठीक उसी तरह, जैसे प्रातः काल प्राणियों का जागरण और रात्रिकाल में शयन हुआ करता है। जैसे काल-चक्र भ्रमण करता रहता है, उसी प्रकार विषयी जीव भी ईश्वर की इच्छा से गाड़ी के पहिये की तरह सदा ही आवागमन का चक्कर काटते रहते हैं । साठ विपलों का एक पल, साठ पलों का एक दण्ड, दो दण्डों का एक मुहूर्त, तीस मुहूर्तों का एक दिन-रात, पंद्रह दिन-रातों का एक पक्ष, शुक्ल और कृष्ण नामक दो पक्षों का एक मास, दो मासों की एक ऋतु, तीन ऋतुओं का एक अयन, दो अयनों का एक वर्ष, तैंतालीस लाख बीस हजार मानववर्षों के चार युग तथा मनुष्यों के पचीस हजार पाँच सौ साठ चतुर्युगों की एक इन्द्र की आयु होती है। यही एक मनु की भी आयु कही गयी है। दस लाख आठ हजार इन्द्रों का पतन हो जाने पर ब्रह्माजी की आयु पूरी होती है। तभी ‘प्राकृतिक लय’ होता है। वत्स ! प्राकृतिक प्रलय के समय परमात्मा श्रीकृष्ण की पलकें गिरती हैं। जब फिर उनकी पलकें उठती या आँख खुलती है, तब पुनः नयी सृष्टि का आरम्भ होता है। श्रुति में ब्रह्मा की सृष्टि और प्रलयों को असंख्य बताया गया है। जैसे पृथ्वी के धूलिकणों की गणना नहीं हो सकती, उसी तरह सृष्टि और प्रलयों की भी कोई गिनती नहीं है । यह चन्द्रशेखर शिव का कथन है। उपर्युक्त इन्द्रों का मोक्ष नहीं होता । अतः देवराज! तुम कोई दूसरा वर माँगो, जो सृष्टि-सूत्र के अनुरूप हो। मुने! मुनीश्वर दुर्वासा की यह बात सुनकर देवराज को बड़ा विस्मय हुआ । तब उन्होंने वहाँ अपने पूर्व ऐश्वर्य का ही वरण किया । ‘तुम अपने पूर्व ऐश्वर्य को शीघ्र ही प्राप्त कर लोगे’ — ऐसा कहकर मुनि दुर्वासा अपने घर को चले गये । (अध्याय ३६) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे दुर्वासोमुनिसुरेन्द्रसंवादे इन्द्रं प्रति दुर्वासःशापादिकथनं नाम षट्त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३६ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. 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