February 5, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण – प्रकृतिखण्ड – अध्याय 43 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ तैंतालीसवाँ अध्याय देवी षष्ठी के ध्यान, पूजन, स्तोत्र तथा विशद महिमा का वर्णन नारदजी ने कहा — प्रभो ! भगवती ‘षष्ठी’, मङ्गलचण्डिका तथा देवी मनसा — ये देवियाँ मूलप्रकृति की कला मानी गयी हैं। मैं अब इनके प्राकट्य का प्रसङ्ग यथार्थरूप से सुनना चाहता हूँ । भगवान् नारायण कहते हैं — मुने ! मूलप्रकृति के छठे अंश से प्रकट होने के कारण ये ‘ षष्ठी’ देवी कहलाती हैं । बालकों की ये अधिष्ठात्री देवी हैं। इन्हें ‘ विष्णुमाया’ और ‘बालदा’ भी कहा जाता है। मातृकाओं में ‘देवसेना’ नाम से ये प्रसिद्ध हैं । उत्तम व्रत का पालन करने वाली इन साध्वी देवी को स्वामी कार्तिकेय की पत्नी होने का सौभाग्य प्राप्त है । वे प्राणों से भी बढ़कर इनसे प्रेम करते हैं। बालकों को दीर्घायु बनाना तथा उनका भरण-पोषण एवं रक्षण करना इनका स्वाभाविक गुण है। ये सिद्धियोगिनी देवी अपने योग के प्रभाव से बच्चों के पास सदा विराजमान रहती हैं। ब्रह्मन् ! इनकी पूजा-विधि के साथ ही यह एक उत्तम इतिहास सुनो। पुत्र प्रदान करने वाला यह परम सुखदायी उपाख्यान धर्मदेव के मुख से मैंने सुना है । ॐ नमो भगवते वासुदेवाय प्रियव्रत नाम से प्रसिद्ध एक राजा हो चुके हैं। उनके पिता का नाम था — स्वायम्भुव मनु । प्रियव्रत योगिराज होने के कारण विवाह करना नहीं चाहते थे । तपस्या में उनकी विशेष रुचि थी। परंतु ब्रह्माजी की आज्ञा तथा सत्प्रयत्न के प्रभाव से उन्होंने विवाह कर लिया। मुने! विवाह के बाद सुदीर्घकाल तक उन्हें कोई भी संतान नहीं हो सकी। तब कश्यपजी ने उनसे पुत्रेष्टि यज्ञ कराया। राजा की प्रेयसी भार्या का नाम मालिनी था । मुनि ने उन्हें चरु प्रदान किया । चरु भक्षण करने के पश्चात् रानी मालिनी गर्भवती हो गयीं । तत्पश्चात् सुवर्ण के समान प्रतिभा वाले एक कुमार की उत्पत्ति हुई; परंतु सम्पूर्ण अङ्गों से सम्पन्न वह कुमार मरा हुआ था। उसकी आँखें उलट चुकी थीं। उसे देखकर समस्त नारियाँ तथा बान्धवों की स्त्रियाँ भी रो पड़ीं । पुत्र के असह्य शोक के कारण माता को मूर्च्छा आ गयी । मुने! राजा प्रियव्रत उस मृत बालक को लेकर श्मशान में गये। उस एकान्त भूमि में पुत्र को छाती से चिपकाकर आँखों से आँसुओं की धारा बहाने लगे। इतने में उन्हें वहाँ एक दिव्य विमान दिखायी पड़ा। शुद्ध स्फटिकमणि के समान चमकने वाला वह विमान अमूल्य रत्नों से बना था । तेज से जगमगाते हुए उस विमान की रेशमी वस्त्रों से अनुपम शोभा हो रही थी । अनेक प्रकार के अद्भुत चित्रों से वह विभूषित था । पुष्पों की माला से वह सुसज्जित था । उसी पर बैठी हुई मन को मुग्ध करने वाली एक परम सुन्दरी देवी को राजा प्रियव्रत ने देखा। श्वेत चम्पा के फूल के समान उनका उज्ज्वल वर्ण था । सदा सुस्थिर तारुण्य से.शोभा पानेवाली वे देवी मुस्करा रही थीं। उनके मुख पर प्रसन्नता छायी थी । रत्नमय भूषण उनकी छवि बढ़ाये हुए थे। योगशास्त्र में पारंगत वे देवी भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये आतुर थीं। ऐसा जान पड़ता था मानो वे मूर्तिमती कृपा ही हों। उन्हें सामने विराजमान देखकर राजा ने बालक को भूमि पर रख दिया और बड़े आदर के साथ उनकी पूजा और स्तुति की। नारद! उस समय स्कन्द की प्रिया देवी षष्ठी अपने तेज से देदीप्यमान थीं। उनका शान्त विग्रह ग्रीष्मकालीन सूर्य के समान चमचमा रहा था। उन्हें प्रसन्न देखकर राजा ने पूछा। राजा प्रियव्रत ने पूछा — सुशोभने ! कान्ते ! सुव्रते ! वरारोहे ! तुम कौन हो, तुम्हारे पतिदेव कौन हैं और तुम किसकी कन्या हो ? तुम स्त्रियों में धन्यवाद एवं आदर की पात्र हो । नारद! जगत् को मङ्गल प्रदान करने में प्रवीण तथा देवताओं के रण में सहायता पहुँचाने वाली वे भगवती ‘देवसेना’ थीं । पूर्वसमय में देवता दैत्यों से ग्रस्त हो चुके थे। इन देवी ने स्वयं सेना बनकर देवताओं का पक्ष ले युद्ध किया था। इनकी कृपा से देवता विजयी हो गये थे । अतएव इनका नाम ‘देवसेना’ पड़ गया। महाराज प्रियव्रत की बात सुनकर ये उनसे कहने लगीं । भगवती देवसेना ने कहा — राजन् ! मैं ब्रह्मा की मानसी कन्या हूँ । जगत् पर शासन करने वाली मुझ देवी का नाम ‘देवसेना’ है। विधाता ने मुझे उत्पन्न करके स्वामी कार्तिकेय को सौंप दिया है। मैं सम्पूर्ण मातृकाओं में प्रसिद्ध हूँ । स्कन्द की पतिव्रता भार्या होने का गौरव मुझे प्राप्त है। भगवती मूलप्रकृति के छठे अंश से प्रकट होने के कारण विश्व में देवी ‘ षष्ठी’ नाम से मेरी प्रसिद्धि है। मेरे प्रसाद से पुत्रहीन व्यक्ति सुयोग्य पुत्र, प्रियाहीन जन प्रिया, दरिद्री धन तथा कर्मशील पुरुष कर्मों के उत्तम फल प्राप्त कर लेते हैं। राजन् ! सुख, दुःख, भय, शोक, हर्ष, मङ्गल, सम्पत्ति और विपत्ति — ये सब कर्म के अनुसार होते हैं । अपने ही कर्म के प्रभाव से पुरुष अनेक पुत्रों का पिता होता है और कुछ लोग पुत्रहीन भी होते हैं। किसी को मरा हुआ पुत्र होता है और किसी को दीर्घजीवी — यह कर्म का ही फल है। गुणी, अङ्गहीन, अनेक पत्नियों का स्वामी, भार्यारहित, रूपवान्, रोगी और धर्मी होने में मुख्य कारण अपना कर्म ही है। कर्म के अनुसार ही व्याधि होती है और पुरुष आरोग्यवान् भी हो जाता है। अतएव राजन् ! कर्म सबसे बलवान् है — यह बात श्रुति में कही गयी है । मुने ! इस प्रकार कहकर देवी षष्ठी ने उस बालक को उठा लिया और अपने महान् ज्ञान के प्रभाव से खेल-खेल में ही उसे पुनः जीवित कर दिया। अब राजा ने देखा तो सुवर्ण के समान प्रतिभावाला वह बालक हँस रहा था। अभी महाराज प्रियव्रत उस बालक की ओर देख ही रहे थे कि देवी देवसेना उस बालक को लेकर आकाश में जाने को तैयार हो गयीं । ब्रह्मन् ! यह देख राजा के कण्ठ, ओष्ठ और तालू सूख गये, उन्होंने पुनः देवी की स्तुति की। तब संतुष्ट हुई देवी ने राजा से कर्मनिर्मित वेदोक्त वचन कहा । देवी ने कहा — तुम स्वायम्भुव मनु के पुत्र हो । त्रिलोकी में तुम्हारा शासन चलता है। तुम सर्वत्र मेरी पूजा कराओ और स्वयं भी करो । तब मैं तुम्हें कमल के समान मुख वाला यह मनोहर पुत्र प्रदान करूँगी। इसका नाम सुव्रत होगा। इसमें सभी गुण और विवेकशक्ति विद्यमान रहेगी। यह भगवान् नारायण का कलावतार तथा प्रधान योगी होगा। इसे पूर्वजन्म की बातें याद रहेंगी। क्षत्रियों में श्रेष्ठ यह बालक सौ अश्वमेध-यज्ञ करेगा। सभी इसका सम्मान करेंगे। उत्तम बल से सम्पन्न होने के कारण यह ऐसी शोभा पायेगा, जैसे लाखों हाथियों में सिंह । यह धनी, गुणी, शुद्ध, विद्वानों का प्रेमभाजन तथा योगियों, ज्ञानियों एवं तपस्वियों का सिद्धरूप होगा । त्रिलोकी में इसकी कीर्ति फैल जायगी । यह सबको सब सम्पत्ति प्रदान कर सकेगा । इस प्रकार कहने के पश्चात् भगवती देवसेना ने उन्हें वह पुत्र दे दिया। राजा प्रियव्रत ने पूजा की सभी बातें स्वीकार कर लीं। यों भगवती देवसेना ने उन्हें उत्तम वर दे स्वर्ग के लिये प्रस्थान किया। राजा भी प्रसन्न-मन होकर मन्त्रियों के साथ अपने घर लौट आये। आकर पुत्र-विषयक वृत्तान्त सबसे कह सुनाया। नारद ! यह प्रिय वचन सुनकर स्त्री और पुरुष सब-के-सब परम संतुष्ट हो गये । राजा ने सर्वत्र पुत्र प्राप्ति के उपलक्ष में माङ्गलिक कार्य आरम्भ करा दिया। भगवती की पूजा की। ब्राह्मणों को बहुत सा धन दान किया । तबसे प्रत्येक मास में शुक्लपक्ष की षष्ठी तिथि के अवसर पर भगवती षष्ठी का महोत्सव यत्नपूर्वक मनाया जाने लगा। बालकों के प्रसवगृह में छठे दिन, इक्कीसवें दिन तथा अन्नप्राशन के शुभ समय पर यत्नपूर्वक देवी की पूजा होने लगी । सर्वत्र इसका पूरा प्रचार हो गया। स्वयं राजा प्रियव्रत भी पूजा करते थे । सुव्रत ! अब भगवती देवसेना का ध्यान, पूजन, स्तोत्र कहता हूँ, सुनो। यह प्रसङ्ग कौथुमशाखा में वर्णित है | धर्मदेव के मुख से सुनने का मुझे अवसर मिला था। मुने! शालग्राम की प्रतिमा, कलश अथवा वट के मूलभाग में या दीवाल पर पुत्तलिका बनाकर प्रकृति के छठे अंश से प्रकट होनेवाली शुद्धस्वरूपिणी इन भगवती की इस प्रकार पूजा करनी चाहिये । विद्वान् पुरुष इनका इस प्रकार ध्यान करे — षष्ठांशां प्रकृतेः शुद्धां सुप्रतिष्ठां च सुव्रताम् । सुपुत्रदां च शुभदां दयारूपां जगत्प्रसूम् ॥ ४९ ॥ श्वेतचम्पकवर्णाभां रत्नभूषणभूषिताम् । पवित्ररूपां परमां देवसेनां परां भजे ॥ ५० ॥ ‘ सुन्दर पुत्र, कल्याण तथा दया प्रदान करने वाली ये देवी जगत् की माता हैं । श्वेत चम्पक के समान इनका वर्ण है । रत्नमय भूषणों से ये अलंकृत हैं। इन परम पवित्रस्वरूपिणी भगवती देवसेना की मैं उपासना करता हूँ।’ विद्वान् पुरुष यों ध्यान करने के पश्चात् भगवती को पुष्पाञ्जलि समर्पण करे । पुनः ध्यान करके मूलमन्त्र से इन साध्वी देवी की पूजा करने का विधान है । पाद्य, अर्घ्य, आचमनीय, गन्ध, धूप, दीप, विविध प्रकारके नैवेद्य तथा सुन्दर फल द्वारा भगवती की पूजा करनी चाहिये । उपचार अर्पण करने के पूर्व ‘ॐ ह्रीं षष्ठीदेव्यै स्वाहा’ इस मन्त्र का उच्चारण करना विहित है। पूजक पुरुष को चाहिये कि यथाशक्ति इस अष्टाक्षर महामन्त्र का जप भी करे । तदनन्तर मन को शान्त करके भक्तिपूर्वक स्तुति करने के पश्चात् देवी को प्रणाम करे। फल प्रदान करनेवाला यह उत्तम स्तोत्र सामवेद में वर्णित है। जो पुरुष देवी के उपर्युक्त अष्टाक्षर महामन्त्र का एक लाख जप करता है, उसे अवश्य ही उत्तम पुत्र की प्राप्ति होती है, ऐसा ब्रह्माजी ने कहा है। मुनिवर ! अब सम्पूर्ण शुभ कामनाओं को प्रदान करनेवाला स्तोत्र सुनो। नारद! सबका मनोरथ पूर्ण करने वाला यह स्तोत्र वेदों में गोप्य है । ॥ प्रियव्रत उवाच ॥ नमो देव्यै महादेव्यै सिद्ध्यै शान्त्यै नमो नमः । सुखादायै मोक्षदायै षष्ठीदेव्यै नमो नमः ॥ ५७ ॥ वरदायै पुत्रदायै धनदायै नमो नमः । सुखदायै मोक्षदायै षष्ठीदेव्यै नमो नमः ॥ ५८ ॥ शक्तेः षष्ठांशरूपायै सिद्धायै च नमो नमः । मायायै सिद्धयोगिन्यै षष्ठीदेव्यै नमो नमः ॥ ५९ ॥ पारायै पारदायै च षष्ठीदेव्यै नमो नमः । सारायै सारदायै च पारायै सर्वकर्मणाम् ॥ ६० ॥ बालाधिष्ठातृदेव्यै च षष्ठी देव्यै नमो नमः । कल्याणदायै कल्याण्यै फलदायै च कर्मणाम् ॥ ६१ ॥ प्रत्यक्षायै च भक्तानां षष्ठीदेव्यै नमो नमः । पूज्यायै स्कन्दकान्तायै सर्वेषां सर्वकर्मसु ॥ ६२ ॥ देवरक्षणकारिण्यै षष्ठीदेव्यै नमो नमः । शुद्धसत्त्वस्वरूपायै वन्दितायै नृणां सदा ॥ ६३ ॥ हिंसाक्रोधैर्वर्जितायै षष्ठीदेव्यै नमो नमः । धनं देहि प्रियां देहि पुत्रं देहि सुरेश्वरि ॥ ६४ ॥ धर्मं देहि यशो देहि षष्ठीदेव्यै नमो नमः । भूमिं देहि प्रजां देहि देहि विद्यां सुपूजिते ॥ ६९ ॥ कल्याणं च जयं देहि षष्ठीदेव्यै नमो नमः । इति देवीं च संस्तूय लेभे पुत्रं प्रियव्रतः ॥ ६६ ॥ यशस्विनं च राजेन्द्रं षष्ठीदेवीप्रसादतः । षष्ठीस्तोत्रमिदं ब्रह्मन्यः शृणोति च वत्सरम् ॥ ६७ ॥ अपुत्रो लभते पुत्रं वरं सुचिरजीविनम् । वर्षमेकं च या भक्त्या संयत्तेदं शृणोति च ॥ ६८ ॥ सर्वपापाद्विनिर्मुक्ता महावन्ध्या प्रसूयते । वीरपुत्रं च गुणिनं विद्यावन्तं यशस्विनम् ॥ ६९ ॥ सुचिरायुष्मन्तमेव षष्ठीमातृप्रसादतः । काकवन्ध्या च या नारी मृतापत्या च या भवेत् ॥ ७० ॥ वर्षं श्रुत्वा लभेत्पुत्रं षष्ठीदेवीप्रसादतः । रोगयुक्ते च बाले च पिता माता शृणोति च ॥ ७१ ॥ मासं च मुच्यते बालः षष्ठीदेवीप्रसादतः । राजा प्रियव्रत बोले — ‘देवी को नमस्कार है। महादेवी को नमस्कार है । भगवती सिद्धि एवं शान्ति को नमस्कार है । शुभा, देवसेना एवं भगवती षष्ठी को बार-बार नमस्कार है । वरदा, पुत्रदा, धनदा, सुखदा एवं मोक्षप्रदा भगवती षष्ठी को बार-बार नमस्कार है । मूलप्रकृति के छठे अंश से प्रकट होने वाली भगवती सिद्धा को नमस्कार है । माया, सिद्धयोगिनी, सारा, शारदा और परादेवी नाम से शोभा पाने वाली भगवती षष्ठी को बार-बार नमस्कार है। बालकों की अधिष्ठात्री, कल्याण प्रदान करने वाली, कल्याण-स्वरूपिणी एवं कर्मों के फल प्रदान करने वाली देवी षष्ठी को बार-बार नमस्कार है । अपने भक्तों को प्रत्यक्ष दर्शन देने वाली तथा सबके लिये सम्पूर्ण कार्यों में पूजा प्राप्त करने की अधिकारिणी स्वामी कार्तिकेय की प्राणप्रिया देवी षष्ठी को बार-बार नमस्कार है। मनुष्य जिनकी सदा वन्दना करते हैं तथा देवताओं की रक्षा में जो तत्पर रहती हैं, उन शुद्धसत्त्वस्वरूपा देवी षष्ठी को बार-बार नमस्कार है। हिंसा और क्रोध से रहित भगवती षष्ठी को बार-बार नमस्कार है। सुरेश्वरि ! तुम मुझे धन दो, प्रिया पत्नी दो और पुत्र देने की कृपा करो । महेश्वरि ! तुम मुझे सम्मान दो, विजय दो और मेरे शत्रुओं का संहार कर डालो। धन और यश प्रदान करने वाली भगवती षष्ठी को बार-बार नमस्कार है। सुपूजिते ! तुम भूमि दो, प्रजा दो, विद्या दो तथा कल्याण एवं जय प्रदान करो। तुम षष्ठीदेवी को बार-बार नमस्कार है । ‘ इस प्रकार स्तुति करने के पश्चात् महाराज प्रियव्रत ने षष्ठीदेवी के प्रभाव से यशस्वी पुत्र प्राप्त कर लिया । ब्रह्मन् ! जो पुरुष भगवती षष्ठी के इस स्तोत्र को एक वर्ष तक श्रवण करता है, वह यदि अपुत्री हो तो दीर्घजीवी सुन्दर पुत्र प्राप्त कर लेता है । जो एक वर्ष तक भक्तिपूर्वक देवी की पूजा करके इनका यह स्तोत्र सुनता है, उसके सम्पूर्ण पाप विलीन हो जाते हैं । महान् वन्ध्या भी इसके प्रसाद से संतान प्रसव करने की योग्यता प्राप्त कर लेती है । वह भगवती देवसेना की कृपा से गुणी, विद्वान्, यशस्वी, दीर्घायु एवं श्रेष्ठ पुत्र की जननी होती है । काकवन्ध्या अथवा मृतवत्सा नारी एक वर्ष तक इसका श्रवण करने के फलस्वरूप भगवती षष्ठी के प्रभाव से पुत्रवती हो जाती है। यदि बालक को रोग हो जाय तो उसके माता-पिता एक मास तक इस स्तोत्र का श्रवण करें तो षष्ठीदेवी की कृपा से उस बालक की व्याधि शान्त हो जाती है । (अध्याय ४३) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे षष्ठ्युपाख्याने षष्ठीदेव्युत्पत्तितत्पूजास्तोत्रादिकथनं नाम त्रिचत्वारिंशत्तमोऽध्यायः ॥ ४३ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Related