ब्रह्मवैवर्तपुराण – प्रकृतिखण्ड – अध्याय 44
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
चौवालीसवाँ अध्याय
भगवती मङ्गलचण्डी का उपाख्यान

भगवान् नारायण कहते हैं — ब्रह्मपुत्र नारद ! आगम शास्त्र के अनुसार षष्ठीदेवी का चरित्र कह दिया। अब भगवती मङ्गलचण्डी का उपाख्यान सुनो, साथ ही उनकी पूजा का विधान भी । इसे मैंने धर्मदेव के मुख से सुना था, वही बता रहा हूँ। यह श्रुतिसम्मत उपाख्यान सम्पूर्ण विद्वानों को भी अभीष्ट है। ‘चण्डी’ शब्द का प्रयोग ‘दक्षा’ (चतुरा) – के अर्थ में होता है और ‘मङ्गल’ शब्द कल्याण का वाचक है। जो मङ्गल-कल्याण करने में दक्ष हो, वह ‘मङ्गलचण्डिका’ कही जाती है । ‘दुर्गा’ के अर्थ में चण्डी शब्द का प्रयोग होता है और मङ्गल शब्द भूमिपुत्र मङ्गल के अर्थ में भी आता है। अतः जो मङ्गल की अभीष्ट देवी हैं, उन देवी को ‘मङ्गलचण्डिका’ कहा गया है । मनुवंश में मङ्गल नामक एक राजा थे। सप्तद्वीपवती पृथ्वी उनके शासन में थी। उन्होंने इन देवी को अभीष्ट देवता मानकर पूजा की थी। इसलिये भी ये ‘मङ्गलचण्डी’ नाम से विख्यात हुईं। जो मूलप्रकृति भगवती जगदीश्वरी ‘दुर्गा’ कहलाती हैं, उन्हीं का यह रूपान्तर है । ये देवी कृपा की मूर्ति धारण करके सबके सामने प्रत्यक्ष हुई हैं। स्त्रियों की ये इष्टदेवी हैं।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

सर्वप्रथम भगवान् शंकर ने इन सर्वश्रेष्ठरूपा देवी की आराधना की। ब्रह्मन् ! त्रिपुर नामक दैत्य के भयंकर वध के समय का यह प्रसङ्ग है । भगवान् शंकर बड़े संकट में पड़ गये थे । दैत्य ने रोष में आकर उनके वाहन विमान को आकाश से नीचे गिरा दिया था। तब ब्रह्मा और विष्णु ने उन्हें प्रेरणा की। उन महानुभावों का उपदेश मानकर शंकर भगवती दुर्गा की स्तुति करने लगे। वे भी देवी मङ्गलचण्डी ही थीं । केवल रूप बदल लिया था ।

स्तुति करने पर वे ही देवी भगवान् शंकर के सामने प्रकट हुईं और उनसे बोलीं — ‘प्रभो! तुम्हें भय नहीं करना चाहिये । स्वयं सर्वेश भगवान् श्रीहरि ही वृषभ का रूप धारण करके तुम्हारे सामने उपस्थित होंगे। वृषध्वज ! मैं युद्ध-शक्तिस्वरूपा बनकर तुम्हारा साथ दूँगी । फिर स्वयं मेरी तथा श्रीहरि की सहायता से तुम देवताओं को पदच्युत करने वाले उस दानव को, जिसने घोर शत्रुता ठान रखी है, मार डालोगे ।’

मुनिवर ! इस प्रकार कहकर भगवती अन्तर्धान हो गयीं । उसी क्षण उन शक्तिरूपी देवी से शंकर सम्पन्न हो गये। भगवान् श्रीहरि ने एक अस्त्र दे दिया था। अब उसी अस्त्र से त्रिपुर-वध में उन्हें सफलता प्राप्त हो गयी। दैत्य के मारे जाने पर सम्पूर्ण देवताओं तथा महर्षियों ने भगवान् शंकर का स्तवन किया । उस समय सभी भक्ति में सराबोर होकर अत्यन्त नम्र हो गये थे। उसी क्षण भगवान् शंकर के मस्तक पर पुष्पों की वर्षा होने लगी। ब्रह्मा और विष्णु ने परम संतुष्ट होकर उन्हें शुभ आशीर्वाद और सदुपदेश भी दिया। तब भगवान् शंकर सम्यक् प्रकार से स्नान करके भक्ति के साथ भगवती मङ्गलचण्डी की आराधना करने लगे । पाद्य, अर्घ्य, आचमन, विविध वस्त्र, पुष्प, चन्दन, भाँति-भाँति के नैवेद्य, बलि, वस्त्र, अलंकार, माला, तीर, पिष्टक, मधु, सुधा तथा नाना प्रकार के फलों द्वारा भक्तिपूर्वक उन्होंने देवी की पूजा की। नाच, गान, वाद्य और नाम-कीर्तन भी कराया। तत्पश्चात् माध्यन्दिन शाखा में कहे हुए ध्यान-मन्त्र के द्वारा भगवती मङ्गलचण्डी का भक्तिपूर्वक ध्यान किया । नारद! उन्होंने मूलमन्त्र का उच्चारण करके ही भगवती को सभी द्रव्य समर्पण किये थे । वह मन्त्र इस प्रकार है-

‘ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं सर्वपूज्ये देवि मङ्गलचण्डिके ऐं कूं फट् स्वाहा।’  देवीभागवत नवम स्कन्धके ४७वें अध्यायमें भी यह मन्त्र आया है, वहाँ ‘ऐं क्रू’ के स्थान में ‘हूं हूं’ ऐसा पाठ है।

– इक्कीस अक्षर का यह मन्त्र सुपूजित होने पर भक्तों को सम्पूर्ण कामना प्रदान करने के लिये कल्पवृक्षस्वरूप है। दस लाख जप करने पर इस मन्त्र की सिद्धि होती है ।

ब्रह्मन् ! अब ध्यान सुनो। सर्वसम्मत ध्यान वेदप्रणीत है ।

देवीं षोडशवर्षीयां रम्यां सुस्थिरयौवनाम् ।
सर्वरूपगुणाढ्यां च कोमलांगीं मनोहराम् ॥ २३ ॥
श्वेतचम्पकवर्णाभां चन्द्रकोटिसमप्रभाम् ।
वह्निशुद्धांशुकाधानां रत्नभूषणभूषिताम् ॥ २४ ॥
बिभ्रतीं कबरीभारं मल्लिकामाल्यभूषितम् ।
बिम्बोष्ठीं सुदतीं शुद्धां शरत्पद्मनिभाननाम् ॥ २५ ॥
ईषद्धास्यप्रसन्नास्यां सुनीलोत्पललोचनाम् ।
जगद्धात्रीं च दात्रीं च सर्वेभ्यः सर्वसम्पदाम् ॥ २६ ॥
संसारसागरे घोरे पोतरूपां वरां भजे ॥ २७ ॥

‘सुस्थिरयौवना भगवती मङ्गलचण्डिका सदा सोलह वर्ष की ही जान पड़ती हैं। ये सम्पूर्ण रूप-गुण से सम्पन्न, कोमलाङ्गी एवं मनोहारिणी हैं। श्वेत चम्पा के समान इनका गौरवर्ण तथा करोड़ों चन्द्रमाओं के तुल्य इनकी मनोहर कान्ति है । ये अग्निशुद्ध दिव्य वस्त्र धारण किये रत्नमय आभूषणों से विभूषित हैं। मल्लिका-पुष्पों से समलंकृत केशपाश धारण करती हैं। बिम्बसदृश लाल ओठ, सुन्दर दन्त-पंक्ति तथा शरत्काल के प्रफुल्ल कमल की भाँति शोभायमान मुख वाली मङ्गलचण्डिका के प्रसन्न वदनारविन्द पर मन्द मुस्कान की छटा छा रही है। इनके दोनों नेत्र सुन्दर खिले हुए नीलकमल के समान मनोहर जान पड़ते हैं । सबको सम्पूर्ण सम्पदा प्रदान करने वाली ये जगदम्बा घोर संसार-सागर से उबारने में जहाज का काम करती हैं। मैं सदा इनका भजन करता हूँ ।’

मुने ! यह तो भगवती मङ्गलचण्डिका का ध्यान हुआ। ऐसे ही स्तवन भी है, सुनो।

॥ शङ्कर उवाच ॥
रक्ष रक्ष जगन्मातर्देवि मङ्गलचण्डिके ।
संहर्त्रि विपदां राशेर्हर्षमङ्गलकारिके ॥ २९ ॥
हर्षमङ्गलदक्षे च हर्षमङ्गलचण्डिके ।
शुभे मङ्गलदक्षे च शुभमङ्गल चण्डिके ॥ ३० ॥
मंगले मङ्गलार्हे च सर्वमङ्गलमंगले ।
सतां मङ्गलदे देवि सर्वेषां मंगलालये ॥ ३१ ॥
पूज्या मङ्गलवारे च मंगलाभीष्टदैवते ।
पूज्ये मङ्गलभूपस्य मनुवंशस्य सन्ततम् ॥ ३२ ॥
मंगलाधिष्ठातृदेवि मंगलानां च मंगले ।
संसारे मंगलाधारे मोक्षमङ्गलदायिनि ॥ ३३ ॥
सारे च मंगलाधारे पारे त्वं सर्वकर्मणाम् ।
प्रतिमङ्गलवारं च पूज्ये त्वं मङ्गलप्रदे ॥ ३४ ॥
स्तोत्रेणानेन शम्भुश्च स्तुत्वा मगलचण्डिकाम् ।
प्रतिमङ्गलवारे च पूजां कृत्वा गतः शिवः ॥ ३५ ॥
देव्याश्च मङ्गलस्तोत्रं यः शृणोति समाहितः ।
तन्मंगलं भवेच्छश्वन्न भवेत्तदमङ्गलम् ॥ ३६ ॥

महादेवजी ने कहा — जगन्माता भगवती मङ्गलचण्डिके ! तुम सम्पूर्ण विपत्तियों का विध्वंस करने वाली हो एवं हर्ष तथा मङ्गल प्रदान करने को सदा प्रस्तुत रहती हो। मेरी रक्षा करो, रक्षा करो। खुले हाथ हर्ष और मङ्गल देने वाली हर्ष-मङ्गल-चण्डिके ! तुम शुभा, मङ्गल-दक्षा, शुभ-मङ्गल-चण्डिका, मङ्गला, मङ्गलार्हा तथा सर्व-मङ्गल-मङ्गला कहलाती हो। देवि ! साधु-पुरुषों को मङ्गल प्रदान करना तुम्हारा स्वाभाविक गुण है । तुम सबके लिये मङ्गल का आश्रय हो । देवि! तुम मङ्गल ग्रह की इष्टदेवी हो । मङ्गल के दिन तुम्हारी पूजा होनी चाहिये । मनुवंश में उत्पन्न राजा मङ्गल की पूजनीया देवी हो । मङ्गलाधिष्ठात्री देवि! तुम मङ्गलों के लिये भी मङ्गल हो । जगत् के समस्त मङ्गल तुम पर आश्रित हैं । तुम सबको मोक्षमय मङ्गल प्रदान करती हो । मङ्गल को सुपूजित होने पर मङ्गलमय सुख प्रदान करने वाली देवि ! तुम संसार की सारभूता मङ्गलाधारा तथा समस्त कर्मों से परे हो ।’

इस स्तोत्र स्तुति करके भगवान् शंकर ने देवी मङ्गलचण्डिका की उपासना की। वे प्रति मङ्गलवार को उनका पूजन करके चले जाते हैं । यों ये भगवती सर्वमङ्गला सर्वप्रथम भगवान् शंकर से पूजित हुईं। उनके दूसरे उपासक मङ्गल ग्रह हैं। तीसरी बार राजा मङ्गल ने तथा चौथी बार मङ्गल के दिन कुछ सुन्दरी स्त्रियों ने इन देवी की पूजा की। पाँचवीं बार मङ्गल की कामना रखने वाले बहुसंख्यक मनुष्यों ने मङ्गल-चण्डिका का पूजन किया। फिर तो विश्वेश शंकर से सुपूजित ये देवी प्रत्येक विश्व में सदा पूजित होने लगीं। मुने ! इसके बाद देवता, मुनि, मनु और मानव — सभी सर्वत्र इन परमेश्वरी की पूजा करने लगे ।

जो पुरुष मन को एकाग्र करके भगवती मङ्गलचण्डिका के इस मङ्गलमय स्तोत्र का श्रवण करता है, उसे सदा मङ्गल प्राप्त होता है । अमङ्गल उसके पास नहीं आ सकता । उसके पुत्र और पौत्रों में वृद्धि होती है तथा उसे प्रतिदिन मङ्गल ही दृष्टिगोचर होता है ।    (अध्याय ४४)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे मङ्गलोपाख्याने तत्स्तोत्रादिकथनं नाम चतुश्चत्वारिंशत्तमोऽध्यायः ॥ ४४ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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