February 6, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण – प्रकृतिखण्ड – अध्याय 45 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ पैंतालीसवाँ अध्याय मनसा देवी का उपाख्यान भगवान् नारायण कहते हैं — नारद! आगमों के अनुसार देवी षष्ठी और मङ्गलचण्डिका का उपाख्यान कह चुका । अब मनसादेवी का चरित्र, जो धर्म के मुख से मैं सुन चुका हूँ, तुमसे कहता हूँ, सुनो। ये भगवती कश्यपजी की मानसी कन्या हैं तथा मन से उद्दीप्त होती हैं, इसलिये ‘मनसा’ देवी के नाम से विख्यात हैं । आत्मा में रमण करने वाली इन सिद्धयोगिनी वैष्णवीदेवी ने तीन युगों तक परब्रह्म भगवान् श्रीकृष्ण की तपस्या की है। गोपीपति परम प्रभु उन परमेश्वर ने इनके वस्त्र और शरीर को जीर्ण देखकर इनका ‘जरत्कारु’ नाम रख दिया। साथ ही, उन कृपानिधि ने कृपापूर्वक इनकी सभी अभिलाषाएँ पूर्ण कर दीं, इनकी पूजा का प्रचार किया और स्वयं भी इनकी पूजा की। स्वर्ग में, ब्रह्मलोक में, भूमण्डल में और पाताल में — सर्वत्र इनकी पूजा प्रचलित हुई । ॐ नमो भगवते वासुदेवाय सम्पूर्ण जगत् में ये अत्यधिक गौरवर्णा, सुन्दरी और मनोहारिणी हैं; अतएव ये साध्वी देवी ‘जगद्गौरी’ – के नाम से विख्यात होकर सम्मान प्राप्त करती हैं । भगवान् शिव से शिक्षा प्राप्त करने के कारण ये देवी ‘शैवी’ कहलाती हैं । भगवान् विष्णु की ये अनन्य उपासिका हैं । अतएव लोग इन्हें ‘वैष्णवी’ कहते हैं। राजा जनमेजय के यज्ञ में इन्हीं के सत्प्रयत्न से नागों के प्राणों की रक्षा हुई थी, अतः इनका नाम ‘नागेश्वरी’ और ‘नागभगिनी’ पड़ गया । विष का संहार करने में परम समर्थ होने से इनका एक नाम ‘विषहरी‘ है । इन्हें भगवान् शंकर से योग-सिद्धि प्राप्त हुई थी । अतः ये ‘सिद्ध-योगिनी’ कहलाने लगीं। इन्होंने शंकर से महान् गोपनीय ज्ञान एवं मृतसंजीवनी नामक उत्तम विद्या प्राप्त की है, इस कारण विद्वान् पुरुष इन्हें ‘महाज्ञानयुता’ कहते हैं । ये परम तपस्विनी देवी मुनिवर आस्तीक की माता हैं । अतः ये देवी जगत् में सुप्रतिष्ठित होकर ‘ आस्तीकमाता’ नाम से विख्यात हुई हैं । जगत्पूज्य योगी महात्मा मुनिवर जरत्कारु की प्यारी पत्नी होने के कारण ये ‘जरत्कारुप्रिया’ नाम से विख्यात हुईं। ॥ ॐ नमो मनसायै ॥ जरत्कारुर्जगद्गौरी मनसा सिद्धयोगिनी । वैष्णवी नागभगिनी शैवी नागेश्वरी तथा ॥ १५ ॥ जरत्कारुप्रियाऽऽस्तीकमाता विषहरीति च । महाज्ञानयुता चैव सा देवी विश्वपूजिता ॥ १६ ॥ द्वादशैतानि नामानि पूजाकाले च यः पठेत् । तस्य नागभयं नस्ति तस्य वंशोद्भवस्य च ॥ १७ ॥ जरत्कारु, जगद्गौरी, मनसा, सिद्धयोगिनी, वैष्णवी, नागभगिनी, शैवी, नागेश्वरी, जरत्कारुप्रिया, आस्तीकमाता, विषहरी और महाज्ञानयुता — इन बारह नामों से विश्व इनकी पूजा करता है। जो पुरुष पूजा के समय इन बारह नामों का पाठ करता है, उसे तथा उसके वंशज को भी सर्प का भय नहीं हो सकता। नागभीदे च शयने नागग्रस्ते च मन्दिरे । नागक्षते नागदुर्गे नागवेष्टितविग्रहे ॥ १८ ॥ इदं स्तोत्रं पठित्वा तु मुच्यते नात्र संशयः । नित्यं पठेद्यस्तं दृष्ट्वा नागवर्गः पलायते ॥ १९ ॥ दशलक्षजपेनैव स्तोत्रसिद्धिर्भवेन्नृणाम् । स्तोत्रं सिद्धं भवेद्यस्य स विषं भोक्तुमीश्वरः ॥ २० ॥ नागौघं भूषणं कृत्वा स भवेन्नागवाहनः । नागासनो नागतल्पो महा सिद्धो भवेन्नरः ॥ २१ ॥ जिस शयनागार में नागों का भय हो, जिस भवन में बहुतेरे नाग भरे हों, नागों से युक्त होने के कारण जो महान् दारुण स्थान बन गया हो तथा जो नागों से वेष्टित हो, वहाँ भी पुरुष इस स्तोत्र का पाठ करके सर्पभय से मुक्त हो जाता है — इसमें कोई संशय नहीं है। जो नित्य इसका पाठ करता है, उसे देखकर नाग भाग जाते हैं। दस लाख पाठ करने से यह स्तोत्र मनुष्यों के लिये सिद्ध हो जाता है। जिसे यह स्तोत्र सिद्ध हो गया, वह विष-भक्षण करने तथा नागों को भूषण बनाकर नाग पर सवारी करने में भी समर्थ हो सकता है। वह नागासन, नागतल्प तथा महान् सिद्ध हो जाता है । (अध्याय ४५) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे मनसोपाख्याने मनसास्तोत्रादि कथनं नाम पञ्चचत्वारिंशत्तमोऽध्यायः ॥ ४५ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Please follow and like us: Related