ब्रह्मवैवर्तपुराण – प्रकृतिखण्ड – अध्याय 48
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
अड़तालीसवाँ अध्याय
नारद-नारायण-संवाद में पार्वतीजी के पूछने पर महादेवजी के द्वारा श्रीराधा के प्रादुर्भाव एवं महत्त्व आदि का वर्णन

नारदजी बोले — भगवान् नारायण के ध्यान में तत्पर रहनेवाले महाभाग मुनिवर नारायण ! आप नारायण के ही अंश हैं। अतः भगवन्! आप नारायण से सम्बन्ध रखने वाली कथा कहिये । सुरभी का उपाख्यान अत्यन्त मनोहर है, उसे मैंने सुन लिया । वह समस्त पुराणों में गोपनीय कहा गया है। पुराणवेत्ताओं ने उसकी बड़ी प्रशंसा की है। अब मैं श्रीराधा का परम उत्तम आख्यान सुनना चाहता हूँ। उनके प्रादुर्भाव के प्रसङ्ग तथा उनके ध्यान, स्तोत्र और उत्तम कवच को भी सुनने की मेरी प्रबल इच्छा है; अतः आप इन सबका वर्णन कीजिये ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

मुनिवर श्रीनारायण ने कहा — नारद! पूर्वकाल की बात है, कैलास शिखर पर सनातन भगवान् शंकर, जो सर्वस्वरूप, सबसे श्रेष्ठ, सिद्धों के स्वामी तथा सिद्धिदाता हैं, बैठे हुए थे । मुनिलोग भी उनकी स्तुति करके उनके पास ही बैठे थे। भगवान् शिव का मुखारविन्द प्रसन्नता से खिला हुआ था। उनके अधरों पर मन्द मुस्कान की छटा छा रही थी। वे कुमार को परमात्मा श्रीकृष्ण के रासोत्सव का सरस आख्यान सुना रहे थे। उस प्रसङ्ग के श्रवण कुमार की बड़ी रुचि थी । रासमण्डल का वर्णन चल रहा था।

जब इस आख्यान की समाप्ति हुई और अपनी बात प्रस्तुत करने का अवसर आया, उस समय सती-साध्वी पार्वती मन्द मुस्कान के साथ अपने प्राणवल्लभ के समक्ष प्रश्न उपस्थित करने को उद्यत हुईं। पहले तो वे डरती हुई-सी स्वामी की स्तुति करने लगीं । फिर जब प्राणेश्वर ने मधुर वचनों द्वारा उन्हें प्रसन्न किया, तब वे देवेश्वरी महादेवी उमा महादेवजी के सामने वह अपूर्व राधिकोपाख्यान सुनाने के लिये अनुरोध करने लगीं, जो पुराणों में भी परम दुर्लभ है।

श्रीपार्वती बोलीं — नाथ! मैंने आपके मुखारविन्द से पाञ्चरात्र आदि सारे उत्तमोत्तम आगम, नीतिशास्त्र, योगियों के योगशास्त्र, सिद्धों के सिद्ध-शास्त्र, नाना प्रकार के मनोहर तन्त्रशास्त्र, परमात्मा श्रीकृष्ण के भक्तों के भक्तिशास्त्र तथा समस्त देवियों के चरित्र का श्रवण किया। अब मैं श्रीराधा का उत्तम आख्यान सुनना चाहती हूँ । श्रुति में कण्वशाखा के भीतर श्रीराधा की प्रशंसा संक्षेप से की गयी है, उसे मैंने आपके मुख से सुना है; अब व्यास द्वारा वर्णित श्रीराधा की महत्ता सुनाइये। पहले आगमाख्यान के प्रसङ्ग में आपने मेरी इस प्रार्थना को स्वीकार किया था । ईश्वर की वाणी कभी मिथ्या नहीं हो सकती।

अतः आप श्रीराधा के प्रादुर्भाव, ध्यान, उत्तम नाम-माहात्म्य, उत्तम पूजा-विधान, चरित्र, स्तोत्र, उत्तम कवच, आराधन-विधि तथा अभीष्ट पूजा-पद्धति का इस समय वर्णन कीजिये । भक्तवत्सल ! मैं आपकी भक्त हूँ, अतः मुझे ये सब बातें अवश्य बताइये । साथ ही, इस बात पर भी प्रकाश डालिये कि आपने आगमाख्यान से पहले ही इस प्रसङ्ग का वर्णन क्यों नहीं किया था ?

पार्वती का उपर्युक्त वचन सुनकर भगवान् पञ्चमुख शिव ने अपना मस्तक नीचा कर लिया । अपना सत्य भङ्ग होने के भय से वे मौन हो गये — चिन्ता में पड़ गये। उस समय उन्होंने अपने इष्टदेव करुणानिधान भगवान् श्रीकृष्ण का ध्यान द्वारा स्मरण किया और उनकी आज्ञा पाकर वे अपनी अर्धाङ्गस्वरूपा पार्वती से इस प्रकार बोले — ‘देवि ! आगमाख्यान का आरम्भ करते समय मुझे परमात्मा भगवान् श्रीकृष्ण ने राधाख्यान के प्रसङ्ग से रोक दिया था, परंतु महेश्वरि ! तुम तो मेरा आधा अङ्ग हो; अतः स्वरूपतः मुझसे भिन्न नहीं हो। इसलिये भगवान् श्रीकृष्ण ने इस समय मुझे यह प्रसङ्ग तुम्हें सुनाने की आज्ञा दे दी है। सतीशिरोमणे ! मेरे इष्टदेव की वल्लभा श्रीराधा का चरित्र अत्यन्त गोपनीय, सुखद तथा श्रीकृष्ण-भक्ति प्रदान करनेवाला है।

दुर्गे ! वह सब पूर्वापर श्रेष्ठ प्रसङ्ग मैं जानता हूँ । मैं जिस रहस्य को जानता हूँ, उसे ब्रह्मा तथा नागराज शेष भी नहीं जानते । सनत्कुमार, सनातन, देवता, धर्म, देवेन्द्र, मुनीन्द्र, सिद्धेन्द्र तथा सिद्धपुङ्गवों को भी उसका ज्ञान नहीं है। सुरेश्वरि ! तुम मुझसे भी बलवती हो; क्योंकि इस प्रसङ्ग को न सुनाने पर अपने प्राणों का परित्याग कर देने को उद्यत हो गयी थीं। अतः मैं इस गोपनीय विषय को तुमसे कहता हूँ । दुर्गे ! यह परम अद्भुत रहस्य है । मैं इसका कुछ वर्णन करता हूँ, सुनो। श्रीराधा का चरित्र अत्यन्त पुण्यदायक तथा दुर्लभ है।

बभूव रमणी रम्या रासेशा रमणोत्सुका ।
अमूल्यरत्नाभरणा रत्नसिंहासनस्थिता ॥ ३० ॥
वह्निशुद्धांशुकाधाना कोटिपूर्णशशिप्रभा ।
तप्तकाञ्चनवर्णाभा राजिता च स्वतेजसा ॥ ३१ ॥
सस्मिता सुदती शुद्धा शरत्पद्मनिभानना ।
बिभ्रती कबरीं रम्यां मालतीमाल्यमण्डिताम् ॥ ३२ ॥
रत्नमालां च दधती ग्रीष्मसूर्य्यसमप्रभाम् ।
मुक्ताहारेण शुभ्रेण गंगाधारानिभेन च ॥ ३३ ॥
संयुक्तं वर्तुलोत्तुंगं सुमेरु गिरिसन्निभम् ।
कठिनं सुन्दरं दृश्यं कस्तूरीपत्रचिह्नितम् ॥ ३४ ॥
मांगल्यं मंगलार्हं च स्तनयुग्मं च बिभ्रती ।
नितम्बश्रोणिभारार्त्ता नवयौवनसुन्दरी ॥ ३५ ॥

एक समय रासेश्वरी श्रीराधाजी श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण से मिलने को उत्सुक हुईं। उस समय वे रत्नमय सिंहासन पर अमूल्य रत्नाभरणों से विभूषित होकर बैठी थीं। अग्निशुद्ध दिव्य वस्त्र उनके श्रीअङ्गों की शोभा बढ़ा रहा था। उनकी मनोहर अङ्गकान्ति करोड़ों पूर्ण चन्द्रमाओं को लज्जित कर रही थी। उनकी प्रभा तपाये हुए सुवर्ण के सदृश जान पड़ती थी। वे अपनी ही दीप्ति से दमक रही थीं। शुद्धस्वरूपा श्रीराधा के अधर पर मन्द मुसकान खेल रही थी। उनकी दन्त-पंक्ति बड़ी ही सुन्दर थी। उनका मुखारविन्द शरत्काल के प्रफुल्ल कमलों की शोभा को तिरस्कृत कर रहा था। वे मालती- सुमनों की माला से मण्डित रमणीय केशपाश धारण करती थीं । उनके गले की रत्नमयी माला ग्रीष्म ऋतु के सूर्य के समान दीप्तिमती थी । कण्ठ में प्रकाशित शुभ मुक्ताहार गङ्गा की धवल धार के समान शोभा पा रहा था ।

रसिकशेखर श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण ने मन्द मन्द मुस्कराती हुई अपनी उन प्रियतमा को देखा । प्राणवल्लभा पर दृष्टि पड़ते ही विश्वकान्त श्रीकृष्ण मिलन के लिये उत्सुक हो गये । परम मनोहर कान्ति वाले प्राणवल्लभ को देखते ही श्रीराधा उनके सामने दौड़ी गयीं। महेश्वरि ! उन्होंने अपने प्राणाराम की ओर धावन किया, इसीलिये पुराणवेत्ता महापुरुषों ने उनका ‘राधा’ यह सार्थक नाम निश्चित किया । राधा श्रीकृष्ण की आराधना करती हैं और श्रीकृष्ण श्रीराधा की । वे दोनों परस्पर आराध्य और आराधक हैं। संतों का कथन है कि उनमें सभी दृष्टियों से पूर्णतः समता है। महेश्वरि ! मेरे ईश्वर श्रीकृष्ण रास में प्रियाजी के धावनकर्म का स्मरण करते हैं, इसीलिये वे उन्हें ‘राधा’ कहते हैं, ऐसा मेरा अनुमान है। दुर्गे ! भक्त पुरुष ‘रा’ शब्द के उच्चारण-मात्र से परम दुर्लभ मुक्ति को पा लेता है और ‘धा’ शब्द के उच्चारण से वह निश्चय ही श्रीहरि के चरणों में दौड़कर पहुँच जाता है । ‘रा’ का अर्थ है ‘पाना’ और ‘धा’ का अर्थ है ‘निर्वाण’ (मोक्ष) । भक्तजन उनसे निर्वाण-मुक्ति पाता है, इसलिये उन्हें ‘राधा’ कहा गया है ।

श्रीराधा के रोमकूपों से गोपियों का समुदाय प्रकट हुआ है तथा श्रीकृष्ण के रोमकूपों से सम्पूर्ण गोपों का प्रादुर्भाव हुआ है। श्रीराधा के वामांश-भाग से महालक्ष्मी का प्राकट्य हुआ है । वे ही शस्य की अधिष्ठात्री देवी तथा गृहलक्ष्मी के रूप में भी आविर्भूत हुई हैं। देवी महालक्ष्मी चतुर्भुज विष्णु की पत्नी हैं और वैकुण्ठधाम में वास करती हैं। राजा को सम्पत्ति देने वाली राजलक्ष्मी भी उन्हीं की अंशभूता हैं। राजलक्ष्मी की अंशभूता मर्त्य-लक्ष्मी हैं, जो गृहस्थों के घर-घर में वास करती हैं। वे ही शस्याधिष्ठातृदेवी तथा वे ही गृहदेवी हैं। स्वयं श्रीराधा श्रीकृष्ण की प्रियतमा हैं तथा श्रीकृष्ण के ही वक्षःस्थल में वास करती हैं। वे उन परमात्मा श्रीकृष्ण के प्राणों की अधिष्ठात्री देवी हैं।

पार्वति ! ब्रह्मा से लेकर तृण अथवा कीटपर्यन्त सम्पूर्ण जगत् मिथ्या ही है । केवल त्रिगुणातीत परब्रह्म परमात्मा श्रीराधावल्लभ श्रीकृष्ण ही परम सत्य हैं; अतः तुम उन्हीं की आराधना करो। वे सबसे प्रधान, परमात्मा, परमेश्वर, सबके आदिकारण, सर्वपूज्य, निरीह तथा प्रकृति से परे विराजमान हैं। उनका नित्यरूप स्वेच्छामय है। वे भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये ही शरीर धारण करते हैं । श्रीकृष्ण से भिन्न जो दूसरे-दूसरे देवता हैं; उनका रूप प्राकृत तत्त्वों से ही गठित है। श्रीराधा श्रीकृष्ण को प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं। वे परम सौभाग्यशालिनी हैं। वे मूलप्रकृति परमेश्वरी श्रीराधा महाविष्णु की जननी हैं। संत पुरुष मानिनी राधा का सदा सेवन करते हैं। उनका चरणारविन्द ब्रह्मादि देवताओं के लिये परम दुर्लभ होने पर भी भक्तजनों के लिये सदा सुलभ है। सुदामा के शाप से देवी श्रीराधा को गोलोक से इस भूतल पर आना पड़ा था । उस समय वे वृषभानु गोप के घर में अवतीर्ण हुई थीं। वहाँ उनकी माता कलावती थीं । (अध्याय ४८ )

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादान्तर्गत हरगौरीसंवादे राधोपाख्याने राधोत्पत्तितत्पूजादिकथनं नामाष्टचत्वारिंशत्तमोऽध्यायः ॥ ४८ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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