ब्रह्मवैवर्तपुराण – प्रकृतिखण्ड – अध्याय 05
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
पाँचवाँ अध्याय
याज्ञवल्क्य द्वारा भगवती सरस्वती की स्तुति

[ ऋषिप्रवर ] भगवान् नारायण कहते हैं — नारद! सरस्वती देवीका स्तोत्र सुनो, जिससे सम्पूर्ण मनोरथ सिद्ध हो जाते हैं ।

प्राचीन समय की बात है याज्ञवल्क्य नाम से प्रसिद्ध एक महामुनि थे। उन्होंने उसी स्तोत्र से भगवती सरस्वती की स्तुति की थी । जब गुरु के शाप से मुनि की श्रेष्ठ विद्या नष्ट हो गयी, तब वे अत्यन्त दुःखी होकर लोलार्क कुण्ड पर, जो उत्तम पुण्य प्रदान करने वाला तीर्थ है, गये। उन्होंने तपस्या के द्वारा सूर्य का प्रत्यक्ष दर्शन पाकर शोकविह्वल हो भगवान् सूर्य का स्तवन तथा बारंबार रोदन किया। तब शक्तिशाली सूर्य ने याज्ञवल्क्य को वेद और वेदाङ्ग का अध्ययन कराया।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

सूर्य ने साथ ही कहा — ‘मुने! तुम स्मरण-शक्ति प्राप्त करने के लिये भक्तिपूर्वक वाग्देवता भगवती सरस्वती की स्तुति करो।’ इस प्रकार कहकर दीनजनों पर दया करने वाले सूर्य अन्तर्धान हो गये। तब याज्ञवल्क्य मुनि ने स्नान किया और विनयपूर्वक सिर झुकाकर वे भक्तिपूर्वक स्तुति करने लगे ।

॥ याज्ञवल्क्य कृत सकल-कामना-दायक सरस्वती स्तोत्रम् ॥

॥ याज्ञवल्क्य उवाच ॥
कृपां कुरु जगन्मातर्मामेवं हततेजसम् ।
गुरुशापात्स्मृतिभ्रष्टं विद्याहीनं च दुःखितम् ॥ ६ ॥
ज्ञानं देहि स्मृतिं देहि विद्यां विद्याधिदेवते ।
प्रतिष्ठां कवितां देहि शक्तिं शिष्यप्रबोधिकाम् ॥ ७ ॥
ग्रन्थनिर्मितिशक्तिं च सच्छिष्यं सुप्रतिष्ठितम् ।
प्रतिभां सत्सभायां च विचारक्षमतां शुभाम् ॥ ८ ॥
लुप्तां सर्वां दैववशान्नवां कुरु पुनः पुनः ।
यथाऽङ्कुरं जनयति भगवान्योगमायया ॥ ९ ॥
ब्रह्मस्वरूपा परमा ज्योतीरूपा सनातनी ।
सर्वविद्याधिदेवी या तस्यै वाण्ये नमो नमः ॥ १० ॥
यया विना जगत्सर्वं शश्वज्जीवन्मृतं सदा ।
ज्ञानाघिदेवी या तस्यै सरस्वत्यै नमो नमः ॥ ११ ॥
यया विना जगत्सर्वं मूकमुन्मत्तवत्सदा ।
वागधिष्ठातृदेवी या तस्यै वाण्यै नमो नमः ॥ १२ ॥
हिमचन्दनकुन्देन्दुकुमुदाम्भोज सन्निभा ।
वर्णाधिदेवी या तस्यै चाक्षरायै नमो नमः ॥ १३ ॥
विसर्गबिन्दुमात्राणां यदधिष्ठानमेव च ।
इत्थं त्वं गीयसे सद्भिर्भारत्यै ते नमो नमः ॥ १४ ॥
यया विनाऽत्र संख्याकृत्संख्यां कर्त्तुं न शक्नुते ।
कालसंख्यास्वरूपा या तस्यै देव्यै नमो नमः ॥ १५ ॥
व्याख्यास्वरूपा या देवी व्याख्याधिष्ठातृदेवता ।
भ्रमसिद्धान्तरूपा या तस्यै देव्यै नमो नमः ॥ १६ ॥
स्मृतिशक्ति ज्ञानशक्ति बुद्धिशक्तिस्वरूपिणी ।
प्रतिभाकल्पनाशक्तिर्या च तस्यै नमो नमः ॥ १७ ॥
सनत्कुमारो ब्रह्माणं ज्ञानं पप्रच्छ यत्र वै ।
बभूव जडवत्सोऽपि सिद्धान्तं कर्त्तुमक्षमः ॥ १८ ॥
तदाऽऽजगाम भगवानात्मा श्रीकृष्ण ईश्वरः ।
उवाच सत्तमं स्तोत्रं वाण्या इति विधिं तदा ॥ १९ ॥
स च तुष्टाव तां ब्रह्मा चाज्ञया परमात्मनः ।
चकार तत्प्रसादेन तदा सिद्धान्तमुत्तमम् ॥ २० ॥
यदाऽप्यनन्तं पप्रच्छ ज्ञानमेकं वसुन्धरा ।
बभूव मूकवत्सोऽपि सिद्धान्तं कर्तुमक्षमः ॥ २१ ॥
तदा त्वां च स तुष्टाव संत्रस्तः कश्यपाज्ञया ।
ततश्चकार सिद्धान्तं निर्मलं भ्रमभञ्जनम् ॥ २२ ॥
व्यासः पुराणसूत्रं च समपृच्छत वाल्मिकिम् ।
मौनीभूतः स सस्मार त्वामेव जगदंबिकाम् ॥ २३ ॥
तदा चकार सिद्धान्तं त्वद्वरेण मुनीश्वरः ।
स प्राप निर्मलं ज्ञानं प्रमादध्वंसकारणम् ॥ २४ ॥
पुराणसूत्रं श्रुत्वा स व्यासः कृष्णकलोद्भवः ।
त्वां सिषेवे च दध्यौ च शतवर्षं च पुष्करे ।
तदा त्वत्तो वरं प्राप्य स कवीन्द्रो बभूव ह ॥ २५ ॥
तदा वै वेदभागं च पुराणानि चकार ह ।
यदा महेन्द्रे पप्रच्छ तत्त्वज्ञानं शिवा शिवम् ॥ २६ ॥
क्षणं त्वामेव संचिन्त्य तस्यै ज्ञानं ददौ विभुः ।
पप्रच्छ शब्दशास्त्रं च महेन्द्रश्च बृहस्पतिम् ॥ २७ ॥
दिव्यं वर्षसहस्रं च स त्वां दध्यौ च पुष्करे ।
तदा त्वत्तो वरं प्राप्य दिव्यं वर्षसहस्रकम् ।
उवाच शब्दशास्त्रं च तदर्थं च सुरेश्वरम् ॥ २८ ॥
अध्यापिताश्च यैः शिष्या यैरधीतं मुनीश्वरैः ।
ते च त्वां परिसंचिन्त्य प्रवर्त्तन्ते सुरेश्वरि ॥ २९ ॥
त्वं संस्तुता पूजिता च मुनीन्द्रमनुमानवैः ।
दैत्येन्द्रैश्च सुरैश्चापि ब्रह्मविष्णुशिवादिभिः ॥ ३० ॥
जडीभूतः सहस्रास्यः पञ्चवक्त्रश्चतुर्मुखः ।
यां स्तोतुं किमहं स्तौमि तामेकास्येन मानवः ॥ ३१ ॥
इत्युक्त्वा याज्ञवल्क्यश्च भक्तिनम्रात्मकन्धरः ।
प्रणनाम निराहारो रुरोद च मुहुर्मुहुः ॥ ३२ ॥
तदा ज्योतिस्त्वरूपा सा तेनादृष्टाऽप्युवाच तम् ।
सुकवीन्द्रो भवेत्युक्त्वा वैकुण्ठं च जगाम ह ॥ ३३ ॥
याज्ञवल्क्यकृतं वाणीस्तोत्रं यः संयतः पठेत् ।
स कवीन्द्रो महावाग्मी बृहस्पतिसमो भवेत् ॥ ३४ ॥
महामूर्खश्च दुर्मेधा वर्षमेकं च यः पठेत् ।
स पण्डितश्च मेधावी सुकविश्च भवेद्ध्रुवम् ॥ ३५ ॥

याज्ञवल्क्य बोले — जगन्माता ! मुझ पर कृपा करो। मेरा तेज नष्ट हो गया है। गुरु के शाप से मेरी स्मरण शक्ति खो गयी है। मैं विद्या से वञ्चित होने के कारण बहुत दुःखी हूँ । विद्या की अधिदेवते ! तुम मुझे ज्ञान, स्मृति, विद्या, प्रतिष्ठा, कवित्व-शक्ति, शिष्यों को समझाने की शक्ति तथा ग्रन्थ-रचना करने की क्षमता दो। साथ ही मुझे अपना उत्तम एवं सुप्रतिष्ठित शिष्य बना लो। माता ! मुझे प्रतिभा तथा सत्पुरुषों की सभा में विचार प्रकट करने की उत्तम क्षमता दो। दुर्भाग्यवश मेरा जो सम्पूर्ण ज्ञान नष्ट हो गया है, वह मुझे पुनः नवीन रूप में प्राप्त हो जाय। जिस प्रकार देवता धूल या राख में छिपे हुए बीज को समयानुसार अङ्कुरित कर देते हैं, वैसे ही तुम भी मेरे लुप्त ज्ञान को पुनः प्रकाशित कर दो।

जो ब्रह्मस्वरूपा, परमा, ज्योतिरूपा, सनातनी तथा सम्पूर्ण विद्याओं की अधिष्ठात्री हैं, उन वाणीदेवी को बार-बार प्रणाम है। जिनके बिना सारा जगत् सदा जीते-जी मरे के समान है तथा जो ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी हैं, उन माता सरस्वती को बारंबार नमस्कार है। जिनके बिना सारा जगत् सदा गूँगा और पागल के समान हो जायगा तथा जो वाणी की अधिष्ठात्री देवी हैं, उन वाग्देवता को बारंबार नमस्कार है। जिनकी अङ्ग-कान्ति हिम, चन्दन, कुन्द, चन्द्रमा, कुमुद तथा श्वेतकमल के समान उज्ज्वल है तथा जो वर्णों (अक्षरों) की अधिष्ठात्री देवी हैं, उन अक्षर-स्वरूपा देवी सरस्वती को बारंबार नमस्कार है।

विसर्ग, बिन्दु एवं मात्रा इन तीनों का जो अधिष्ठान है, वह तुम हो; इस प्रकार साधु पुरुष तुम्हारी महिमा का गान करते हैं । तुम्हीं भारती हो। तुम्हें बारंबार नमस्कार है। जिनके बिना सुप्रसिद्ध गणक भी संख्या के परिगणन में सफलता नहीं प्राप्त कर सकता, उन कालसंख्या-स्वरूपिणी भगवती को बारंबार नमस्कार है । जो व्याख्यास्वरूपा तथा व्याख्या की अधिष्ठात्री देवी हैं; भ्रम और सिद्धान्त दोनों जिनके स्वरूप हैं, उन वाग्देवी को बारंबार नमस्कार है। जो स्मृतिशक्ति, ज्ञानशक्ति और बुद्धिशक्तिस्वरूपा हैं तथा जो प्रतिभा और कल्पनाशक्ति हैं, उन भगवती को बारंबार प्रणाम है।

एक बार सनत्कुमार ने जब ब्रह्माजी से ज्ञान पूछा, तब ब्रह्मा भी जडवत् हो गये । सिद्धान्त की स्थापना करने में समर्थ न हो सके। तब स्वयं परमात्मा भगवान् श्रीकृष्ण वहाँ पधारे। उन्होंने आते ही कहा ‘प्रजापते ! तुम उन्हीं इष्टदेवी भगवती सरस्वती की स्तुति करो।’ देवि ! परमप्रभु श्रीकृष्ण की आज्ञा पाकर ब्रह्मा ने तुम्हारी स्तुति की । तुम्हारे कृपा प्रसाद से उत्तम सिद्धान्त के विवेचन में वे सफलीभूत हो गये ।

ऐसे ही एक समय की बात है – पृथ्वी ने महाभाग अनन्त ज्ञान का रहस्य पूछा, तब शेषजी भी मूकवत् हो गये । सिद्धान्त नहीं बता सके । उनके हृदय में घबराहट उत्पन्न हो गयी। फिर कश्यप की आज्ञा के अनुसार उन्होंने सरस्वती की स्तुति की। इससे शेष ने भ्रम को दूर करने वाले निर्मल सिद्धान्त की स्थापना में सफलता प्राप्त कर ली। जब व्यास ने वाल्मीकि से पुराणसूत्र के विषय में प्रश्न किया, तब वे भी चुप हो गये। ऐसी स्थिति में वाल्मीकि ने आप जगदम्बा का ही स्मरण किया । आपने उन्हें वर दिया, जिसके प्रभाव से मुनिवर वाल्मीकि सिद्धान्त का प्रतिपादन कर सके। उस समय उन्हें प्रमाद को मिटाने वाला निर्मल ज्ञान प्राप्त हो गया था।

भगवान् श्रीकृष्ण के अंश व्यासजी वाल्मीकि मुनि के मुख से पुराणसूत्र सुनकर उसका अर्थ कविता के रूप में स्पष्ट करने के लिये तुम्हारी ही उपासना और ध्यान करने लगे। उन्होंने पुष्करक्षेत्र में रहकर सौ वर्षों तक उपासना की । माता ! तब तुमसे वर पाकर व्यासजी कवीश्वर बन गये। उस समय उन्होंने वेदों का विभाजन तथा पुराणों की रचना की। जब देवराज इन्द्र ने भगवान् शंकर से तत्त्वज्ञान के विषय में प्रश्न किया, तब क्षणभर भगवती का ध्यान करके वे उन्हें ज्ञानोपदेश करने लगे। फिर इन्द्र ने बृहस्पति से शब्द-शास्त्र के विषय में पूछा। जगदम्बे ! उस समय बृहस्पति पुष्करक्षेत्र में जाकर देवताओं के वर्ष से एक हजार वर्ष तक तुम्हारे ध्यान में संलग्न रहे इतने वर्षों के बाद तुमने उन्हें वर प्रदान किया । तब वे इन्द्र को शब्दशास्त्र और उसका अर्थ समझा सके। बृहस्पति ने जितने शिष्यों को पढ़ाया और जितने सुप्रसिद्ध मुनि उनसे अध्ययन कर चुके हैं, वे सब-के-‍सब भगवती सुरेश्वरी का चिन्तन करने के पश्चात् ही सफलीभूत हुए हैं ।

माता ! वह देवी तुम्हीं हो। मुनीश्वर, मनु और मानव – सभी तुम्हारी पूजा और स्तुति कर चुके हैं। ब्रह्मा, विष्णु, शिव, देवता और दानवेश्वर प्रभृति – सबने तुम्हारी उपासना की है। जब हजार मुखवाले शेष, पाँच मुख वाले शंकर तथा चार मुख वाले ब्रह्मा तुम्हारा यशोगान करने में जडवत् हो गये, तब एक मुखवाला मैं मानव तुम्हारी स्तुति कर ही कैसे सकता हूँ।

नारद! इस प्रकार स्तुति करके मुनिवर याज्ञवल्क्य भगवती सरस्वती को प्रणाम करने लगे। उस समय भक्ति के कारण उनका कंधा झुक गया था। उनकी आँखों से जल की धाराएँ निरन्तर गिर रही थीं। इतने में ज्योति: स्वरूपा महामाया का उन्हें दर्शन प्राप्त हुआ।

देवी ने उनसे कहा — ‘मुने! तुम सुप्रख्यात कवि हो जाओ।’ यों कहकर भगवती महामाया वैकुण्ठ पधार गयीं । जो पुरुष याज्ञवल्क्यरचित इस सरस्वती स्तोत्र को पढ़ता है, उसे कवीन्द्र पद की प्राप्ति हो जाती है। भाषण करने में वह बृहस्पति की तुलना कर सकता है। कोई महान् मूर्ख अथवा दुर्बुद्धि ही क्यों न हो, यदि वह एक वर्ष तक नियमपूर्वक इस स्तोत्र का पाठ करता है तो वह निश्चय ही पण्डित, परम बुद्धिमान् एवं सुकवि हो जाता है। (अध्याय ५ )

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे याज्ञवल्क्योक्तवाणीस्तवनं नाम पञ्चमोऽध्यायः॥ ५ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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