February 7, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण – प्रकृतिखण्ड – अध्याय 51 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ इक्यावनवाँ अध्याय ऋषियों द्वारा ब्राह्मण को क्षमा के लिये प्रेरित करते हुए कृतघ्नों के भेद तथा विभिन्न पापों के फल का प्रतिपादन पार्वती ने पूछा — प्रभो ! ब्राह्मणों और ब्रह्माजी के पुत्रों ने, जो नीति के विद्वान् थे, उस समय उन ब्राह्मणदेवता से नीति की कौन-सी बात कही, यह मुझे बताने की कृपा करें। श्रीमहादेवजी बोले — सुमुखि ! उस मुनि-समुदाय ने स्तुति और विनय से ब्राह्मण को संतुष्ट करके क्रमशः इस प्रकार कहना आरम्भ किया । सनत्कुमार ने कहा — ब्रह्मन् ! तुम्हारे पीछे-पीछे राजा की लक्ष्मी और कीर्ति भी चली आयी है । सत्त्व, यश, सुशीलता, महान् ऐश्वर्य, पितर, अग्नि और देवता भी राजा को श्रीहीन करके उनके घर से बाहर चले आये हैं । द्विजश्रेष्ठ ! अब तुम संतुष्ट हो जाओ; क्योंकि ब्राह्मण शीघ्र ही संतुष्ट होने वाला कहा गया है । मुने! ब्राह्मणों का हृदय नवनीत के समान कोमल होता है। वह तपस्या से परिमार्जित होने के कारण अत्यन्त निर्मल और शुद्ध होता है। अतः विप्रवर! अब क्षमा करो । आओ और राजभवन को पवित्र करो । जिसके घर से अतिथि निराश होकर लौट जाता है, उसके देवता, पितर तथा अग्नि भी निराश होकर लौट जाते हैं; क्योंकि वहाँ अतिथि का सत्कार नहीं हुआ । इसलिये विप्रवर! क्षमा करो, आओ और राजभवन को शुद्ध करो । ॐ नमो भगवते वासुदेवाय पुलस्त्यजी बोले — जो घर पर आये हुए अतिथि को टेढ़ी आँखों से देखते हैं, उन्हें अतिथि अपना पाप देकर और उनके पुण्य लेकर चला जाता है । अतः तुम राजा के दोष को क्षमा कर दो। वत्स! तुम्हारी जहाँ मौज हो, जाओ। राजा अपने कर्मदोष से ही उठकर खड़े नहीं हुए थे । उनके उस दोष को तुम क्षमा कर दो। पुलह ने कहा — जो क्षत्रिय, राजलक्ष्मी के मद से अथवा जो ब्राह्मण विद्या के मद से किसी ब्राह्मण का अपमान करता है, वह क्षत्रिय श्रीहीन होता है तथा वह ब्राह्मण त्रिकाल संध्या से शून्य हो जाता है। वे दोनों ही एकादशीव्रत तथा भगवान् विष्णु के नैवेद्य से वञ्चित हो जाते हैं । क्रतु बोले — ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र कोई भी क्यों न हो, जो ब्राह्मण का अपमान करता है, वह दीक्षा के पुण्य और अधिकार से भ्रष्ट हो जाता है। इतना ही नहीं, उसका धन नष्ट हो जाता है तथा वह पुत्र और पत्नी से भी हीन हो जाता है। यह एक अटल सत्य है, अतः भगवन् ! क्षमा करो । आओ और राजा के घर को पवित्र करो । अङ्गिरा ने कहा — जो ज्ञानवान् ब्राह्मण होकर किसी ब्राह्मण का अपमान करता है, वह भारतवर्ष में सात जन्मों तक सवारी ढोने वाला बैल होता है । मरीचि बोले — जो पुण्यक्षेत्र भारतवर्ष में देवता, ब्राह्मण तथा गुरु का अपमान करता है, वह भगवान् विष्णु की भक्ति से वञ्चित हो जाता है । कश्यप ने कहा — जो वैष्णव ब्राह्मण को देखकर उसका अपमान करता है, वह विष्णु-मन्त्र की दीक्षा से वञ्चित हो विष्णु-पूजा से भी विरत हो जाता है। प्रचेता बोले — जो अतिथि ब्राह्मण को आया देख उसके लिये अभ्युत्थान नहीं करता — उठकर खड़ा नहीं हो जाता, वह भारत-भूमि में माता-पिता की भक्ति से रहित होता है। उस मूढ़ को सात जन्मों तक हाथी की योनि में जन्म लेना पड़ता है। अतः द्विजश्रेष्ठ ! शीघ्र चलो। राजा को आशीर्वाद दो । दुर्वासा ने कहा — जो गुरु, ब्राह्मण अथवा देवता की प्रतिमा को देखकर शीघ्र ही उसके सामने मस्तक नहीं झुकाता, वह पृथ्वी पर सूअर होता है। अतः ब्रह्मन्! हमारे सब अपराधों को क्षमा करो और चलकर अतिथि सत्कार ग्रहण करो । राजा ने पूछा — आप सब लोग श्रेष्ठ मुनि हैं। आपने किसी-न-किसी बहाने से धर्म का उपदेश किया है । अतः सब कुछ स्पष्ट बताकर मुझ मूर्ख को समझाइये । विद्वनों ! आप लोग पहले मुझे यह बतावें कि स्त्री-हत्या, गो-हत्या, कृतघ्नता, गुरु-पत्नी-गमन तथा ब्रह्म-हत्या करने वालों को कौन-सा दोष लगता है तथा उसका परिहार कैसे होता है ? वसिष्ठजी बोले — राजन् ! यदि स्वेच्छापूर्वक गो-वध का पाप किया गया हो तो उसके प्रायश्चित्त के लिये मनुष्य एक वर्ष तक तीर्थों में भ्रमण करता रहे। वह प्रतिदिन जौ की रोटी अथवा जौ की लप्सी खाये और हाथ से ही जल पीये । वर्ष पूरा होने पर ब्राह्मणों को दक्षिणा सहित सौ अच्छी और दुधारू गौओं का दान करे । प्रायश्चित्त से पाप क्षीण हो जाने पर भी मनुष्य अपने सम्पूर्ण पाप से मुक्त नहीं होता। जो पाप शेष रह जाता है, उसी के फल से वह दुःखी एवं चाण्डाल होता है। यदि आतिदेशिक हत्या हुई हो अर्थात् साक्षात् गोवध आदि न होकर उसके समान बताया गया कोई पापकर्म बन गया हो तो उसमें साक्षात् की हुई हत्या से आधा फल भोगना पड़ता है। अनुकल्प-रूप प्रायश्चित्त से उस हत्या का पाप यद्यपि क्षीण हो जाता है तथापि उससे पूर्णतया छुटकारा नहीं मिलता । शुक्र ने कहा — स्त्री की हत्या करने पर निश्चय ही गोहत्या से दूना पाप लगता है । स्त्री-हत्यारा हजारों वर्षों तक कालसूत्र नामक नरक में निवास करता है । तदनन्तर वह महापापी मानव सात जन्मों तक सूअर और सात जन्मों तक सर्प होता है । इसके बाद उसकी शुद्धि होती है । बृहस्पति बोले — स्त्रीहत्या से दूना पाप लगता है ब्रह्महत्या । ब्रह्महत्यारा एक लाख वर्षों तक निश्चय ही महाभयंकर कुम्भीपाक नरक में निवास करता है । तदनन्तर उस महापापी को सौ वर्षों तक विष्ठा का कीड़ा होना पड़ता है, इसके बाद सात जन्मों तक सर्प होकर वह उस पाप से शुद्ध होता है । गौतम ने कहा — राजेन्द्र ! कृतघ्न को ब्रह्महत्या से चौगुना पाप लगता है । वेद में अवश्य ही कृती शुद्धि के लिये कोई प्रायश्चित्त नहीं कहा गया है । राजा ने पूछा — वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ महर्षे ! आप मुझे कृतघ्नों का लक्षण बताइये । कृतघ्नों के कितने भेद हैं और उनमें से किन्हें किस दोष की प्राप्ति होती है ? ऋष्यशृङ्ग ने उत्तर दिया — सामवेद में सोलह प्रकार के कृतघ्नों का निरूपण किया गया है। वे सब-के-सब प्रत्येक दोष से प्रत्येक फल के भागी होते हैं। सत्कर्म, सत्य, पुण्य, स्वधर्म, तप, प्रतिज्ञा, दान, स्वगोष्ठी-परिपालन, गुरुकृत्य, देवकृत्य, कामकृत्य, द्विजपूजन, नित्य-कृत्य, विश्वास, परधर्म और परप्रदान —इनमें स्थित हुए मनुष्यों का जो वध करता है, वह पापिष्ठ कृतघ्न कहा गया है। इनके लिये जो लोक हैं, वे उस जन्म से भिन्न योनियों में उपलब्ध होते हैं । राजेन्द्र ! वे पापी कृतघ्न जिन-जिन नरकों में जाते हैं, वे वे नरक निश्चय ही यमलोक में विद्यमान हैं । सुयज्ञ ने पूछा — प्रभो ! किस प्रकार के कृतघ्न कौन-सा कर्म करके किन-किन भयंकर नरकों में जाते हैं ? इसे एक-एक करके मैं सुनना चाहता हूँ । आप बताने की कृपा करें। कात्यायन ने कहा — जो शपथ खाकर भी अपने सत्य को मिटा देता है, उसका पालन नहीं करता, वह कृतघ्न अवश्य ही चार युगों तक कालसूत्र नरक में निवास करता है । फिर सात-सात जन्मों तक कौआ और उल्लू होकर पुनः सात जन्मों तक महारोगी शूद्र होता है। इसके बाद उसकी शुद्धि होती है । तत्पश्चात् सर्वश्री सनन्दन, सनातन, पराशर, जरत्कारु, भरद्वाज और विभाण्डक ने विभिन्न कृतघ्नों के भेद तथा उनको प्राप्त होने वाली दुर्गति का वर्णन किया । तदनन्तर श्रीमार्कण्डेयजी बोले । मार्कण्डेय ने कहा — नरेश्वर ! शूद्रजातीय स्त्री के साथ समागम करने पर ब्राह्मण को जो दोष प्राप्त होता है, उसका वर्णन वेदों में किया गया है । उसे बताता हूँ, सावधान होकर सुनो। जो ब्राह्मण शूद्रजातीय स्त्री के साथ सम्बन्ध स्थापित करता है, वह कृतघ्नों में प्रधान है । उसे चौदह इन्द्रों के स्थितिकाल तक कृमिदंष्ट्र नामक नरक में निवास करना पड़ता है। वहाँ वह ब्राह्मण कीड़ों के काटने से व्याकुल रहता है । यमराज के दूत उससे प्रतिदिन तपायी हुई लोहे की प्रतिमा का आलिङ्गन करवाते हैं । तदनन्तर निश्चय ही वह व्यभिचारिणी स्त्री की योनि का कीड़ा होता है। इस अवस्था में एक हजार वर्षों तक रहने के बाद वह शूद्र होता है। तत्पश्चात् उसकी शुद्धि होती है । सुयश बोले — मुने! अन्य कृतघ्नों के भी कर्मों का फल बताइये। यह ब्राह्मण का शाप मेरे लिये श्लाघ्य है; क्योंकि इसके कारण मुझे सत्संग का लाभ हुआ । भला, विपत्ति में पड़े बिना किसको सम्पत्ति प्राप्त होती है । मैं धन्य हूँ, कृतकृत्य हूँ। मेरा जीवन सफल हो गया; क्योंकि आज मेरे घर पर मुक्त मुनिगण और देवता पधारे हैं। (अध्याय ५१) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादान्तर्गतहरगौरीसंवादे नृपमुनिसंवादे राधोपाख्याने कर्मविपाको नामैकपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५१ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. 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