February 7, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण – प्रकृतिखण्ड – अध्याय 52 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ बावनवाँ अध्याय शेष कृतघ्नों के कर्मफलों का विभिन्न मुनियों द्वारा प्रतिपादन पार्वती ने पूछा — प्रभो ! अन्य कृतघ्नों को जिस-जिस फल की प्राप्ति होती है, उसके विषय में उन वेद-वेदाङ्ग के पारंगत विद्वानों ने क्या कहा ? श्रीमहेश्वर बोले — – प्रिये ! राजेन्द्र सुयज्ञ के प्रश्न करने पर उन सब मुनियों में महान् ऋषि नारायण ने प्रवचन देना आरम्भ किया । नारायण ने कहा — भूपाल ! जो अपनी या दूसरों की दी हुई ब्राह्मण-वृत्ति का अपहरण करता है, उसे कृतघ्न समझना चाहिये । उसे जो फल मिलता है, उसको सुनो। जिनकी जीविका छिन जाती है, उन ब्राह्मणों के आँसुओं से धरती के जितने धूलिकण भीगते हैं, उतने सहस्र वर्षों तक वह ‘शूलप्रोत’ नामक नरक में रहता है। दहकते हुए अंगार उसे खाने को मिलते हैं और औटाया हुआ मूत्र पीने को । तपे हुए अंगारों की शय्या पर उसे सोना पड़ता है । उठने की चेष्टा करने पर यमराज के दूत उन्हें पीटते हैं। उस नरक-यातना के अन्त में वह महापापी जीव भारतवर्ष में विष्ठा का कीड़ा होता है । उस योनि में उसे देवता के वर्ष से साठ हजार वर्षों तक रहना पड़ता है। तत्पश्चात् वह मानव भूमिहीन, संतानहीन, दरिद्र, कृपण, रोगी और निन्दनीय शूद्र होता है। उसके बाद उसकी शुद्धि होती है । ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नारद बोले — जो नराधम अपनी अथवा परायी कीर्ति का हनन करता है, वह कृतघ्न कहा गया है । उसको मिलने वाले फल का वर्णन सुनो। नरेश्वर ! वह अत्यन्त दीर्घकाल तक अन्धकूप नामक नरक में निवास करता है । उसमें सरौते- जैसे कीड़े उसे सदा काटते और खाते रहते हैं । वह पापी वहाँ तपाया हुआ खारा पानी पीता और खाता है । तदनन्तर सात जन्मों तक सर्प और पाँच जन्मों तक कौआ होने के बाद वह शूद्र होता है । देवल ने कहा — जो भारतवर्ष में ब्राह्मण, गुरु अथवा देवता के धन का अपहरण करता है, उसे महान् पापी एवं कृतघ्न समझना चाहिये। वह बहुत लंबे समय तक ‘अवटोद’ नामक नरक में निवास करता है । तदनन्तर शराबी और शूद्र होता है । इसके बाद उसकी शुद्धि होती है । जैगीषव्य बोले — जो पिता, माता तथा गुरु प्रति भक्ति-हीन होकर उनका पालन नहीं करता, उलटे वाणी द्वारा उनकी ताड़ना करता है, उसे ‘कृतघ्न’ कहा गया है। जो कुलटा नारी प्रतिदिन वाणी द्वारा अपने स्वामी को ताने मारती या फटकारती है, वह ‘कृतघ्नी’ कही गयी है । भारतवर्ष में वह बहुत बड़ी पापिनी है । कृतघ्न पुरुष हो या स्त्री, दोनों ‘वह्निकुण्ड’ नामक महाघोर नरक में पड़ते हैं। वहाँ बहुत लंबे समय तक वे अग्नि में ही वास करते हैं। तत्पश्चात् सात जन्मों तक जलौका (जोंक) होकर वह शुद्ध होता है। वाल्मीकि ने कहा — राजन् ! जैसे सभी तरुओं में सर्वत्र वृक्षत्व है, कहीं भी वृक्षत्व का त्याग नहीं है, उसी तरह सम्पूर्ण पापों में कृतघ्नता है । जो काम, क्रोध तथा भय के कारण झूठी गवाही देता है तथा सभा में पक्षपातपूर्वक बात करता है, वह कृतघ्न माना गया है। राजन्! जो पुण्य-मात्र का हनन करता है, वह भी कृतघ्न ही है । सर्वत्र सबके पुण्य की हानि में कृतघ्नता निहित है। नरेश्वर ! जो भारतवर्ष में झूठी गवाही देता या पक्षपातपूर्ण बात करता है, वह निश्चय ही बहुत लंबे समय तक सर्पकुण्ड में निवास करता है । सदा उसके शरीर में साँप लिपटे रहते हैं; वह डरा रहता है और साँप उसे खाये जाते हैं । यमदूतों की मार पड़ने पर वह साँपों का मल-मूत्र खाने को विवश होता है । तदनन्तर भारत में सात-सात जन्मों तक वह अपनी सात पीढ़ी के पूर्वजों-सहित गिरगिट और मेढक होता है। इसके बाद विशाल वन में सेमल का वृक्ष होता है। तत्पश्चात् गूँगा मनुष्य एवं शूद्र होकर वह शुद्धि-लाभ करता है । आस्तीक बोले — गुरुपत्नीगमन करने पर मानव मातृगामी समझा जाता है। मातृगमन करने पर मनुष्यों के लिये प्रायश्चित्त नहीं मिलता । नृपश्रेष्ठ ! भारतवर्ष में मातृगामी पुरुषों को जो दोष प्राप्त होता है, वह शूद्रों को ब्राह्मणी के साथ समागम करने पर लगता है। यदि ब्राह्मणी शूद्र के साथ मैथुन करे तो उसे भी उतना ही दोष प्राप्त होता है । कन्या, पुत्रवधू, सास, गर्भवती भौजाई और भगिनी के साथ समागम करने पर भी वैसा ही दोष लगता है। राजेन्द्र ! अब ब्रह्माजी के बताये अनुसार दोष का निरूपण करूँगा । जो महापापी मानव इन सबके साथ मैथुन करता है वह जीते-जी ही मृतक-तुल्य होता है, चाण्डाल एवं अस्पृश्य समझा जाता है। उसे सूर्यमण्डल के दर्शन का भी अधिकार नहीं होता। वह शालग्राम का, उनके चरणामृत का, तुलसीदल-मिश्रित जल का, सम्पूर्ण तीर्थजल का तथा ब्राह्मणों के चरणोदक का स्पर्श भी नहीं कर सकता। वह पातकी मनुष्य विष्ठा के तुल्य घृणित होता है। उसे देवता, गुरु और ब्राह्मण को नमस्कार करने का भी अधिकार नहीं रह जाता है। उसका जल मूत्र से भी अधिक अपवित्र होता है । भारत में पृथ्वी उसके भार से दब जाती है । वह उसके बोझ को ढोने में असमर्थ हो जाती है। बेटी बेचने वाले पापी की भाँति गुरुपत्नीगामी के पाप से भी सारा देश पतित हो जाता है। उसके स्पर्श से, उसके साथ वार्तालाप करने से, सोने से, एक स्थान में रहने और साथ-साथ भोजन करने से मनुष्यों को पाप लगता है। वह कुम्भीपाक में निवास करता है । वहाँ उसे दिन-रात अविरामगति से चक्र की भाँति घूमना पड़ता है। वह आग की लपटों से जलता और यमदूतों द्वारा पीटा जाता है। इस प्रकार वह महापापी प्रतिदिन नरक यातना भोगता है। घोर प्राकृतिक महाप्रलय बीतने पर जब पुनः सृष्टि का आरम्भ होता है तो वह फिर वैसा ही हो जाता है। नरक-यातना के पश्चात् हजारों वर्षों तक उसे विष्ठा का कीड़ा होना पड़ता है । तदनन्तर वह पत्नीहीन नपुंसक चाण्डाल होता है। तत्पश्चात् उसे सात जन्मों तक गलित कोढ़ से युक्त शूद्र एवं नपुंसक होना पड़ता है। इसके बाद वह कोढ़ी, अन्धा एवं नपुंसक ब्राह्मण होता है । इस प्रकार सात जन्म धारण करने के पश्चात् उस महापापी की शुद्धि होती है। मुनि बोले — इस प्रकार हमने शास्त्र के अनुसार सब बातें बतायीं। राजन् ! तुम इन विप्रवर को प्रणाम करो और निश्चय ही इन्हें अपने घर को लौटा ले चलो। वहाँ यत्नपूर्वक ब्राह्मण-देवता का पूजन करके इनका आशीर्वाद लो । महाराज ! इसके बाद शीघ्र ही वन को जाओ और तपस्या करो। ब्राह्मण के शाप से छुटकारा मिलने पर फिर यहाँ आओगे । पार्वति ! ऐसा कहकर सब मुनि, देवता, राजा तथा बन्धुवर्ग के लोग तुरंत अपने-अपने स्थान को चले गये । (अध्याय ५२) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादान्तर्गतहरगौरीसंवादे राधोपाख्याने सुयज्ञोपाख्याने कर्मविपाको नाम द्विपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५२ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. 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