ब्रह्मवैवर्तपुराण – प्रकृतिखण्ड – अध्याय 56
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
छप्पनवाँ अध्याय
श्रीजगन्मङ्गल-राधाकवच तथा उसकी महिमा

श्रीपार्वती बोलीं — श्रीराधा की पूजा का विधान और स्तोत्र अत्यन्त अद्भुत है, उसे मैंने सुन लिया । अब राधा-कवच का वर्णन कीजिये । आपकी कृपा से उसे भी सुनूँगी ।

श्रीमहेश्वर ने कहा — दुर्गे ! सुनो। मैं परम अद्भुत राधाकवच का वर्णन आरम्भ करता हूँ । पूर्वकाल में साक्षात् परमात्मा श्रीकृष्ण ने गोलोक में इस अति गोपनीय परम तत्त्वरूप तथा सर्वमन्त्र समूहमय कवच का मुझसे वर्णन किया था। यह वही कवच है, जिसे धारण करके पाठ करने से ब्रह्मा ने वेदमाता सावित्री को पत्नीरूप में प्राप्त किया। सुरेश्वरि ! तुम सर्वलोकजननी हो । मुझे तुम्हारा स्वामी होने का जो सौभाग्य प्राप्त हुआ है, वह इस कवच को धारण करने का ही प्रभाव है । इसी को धारण करके भगवान् नारायण ने महालक्ष्मी को प्राप्त किया । इसी को धारण करने से प्रकृति से परवर्ती निर्गुण परमात्मा श्रीकृष्ण पूर्वकाल में सृष्टिरचना करने की शक्ति से सम्पन्न हुए। जगत्पालक विष्णु ने इसी को धारण करके सिन्धु-कन्या को प्राप्त किया । इसी कवच के प्रभाव से शेषनाग समस्त ब्रह्माण्ड को अपने मस्तक पर सरसों के दाने की भाँति धारण करते हैं ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

इसी का आश्रय ले महाविराट् प्रत्येक रोमकूप में असंख्य ब्रह्माण्डों को धारण करते हैं और सबके आधार बने हैं। इस कवच का धारण और पाठ करने से धर्म सबके साक्षी और कुबेर धनाध्यक्ष हुए हैं। इसके पाठ और धारण का ही यह प्रभाव है कि इन्द्र देवताओं के स्वामी तथा मनु नरेशों के भी सम्राट् हुए हैं। इसके पाठ और धारण से ही श्रीमान् चन्द्रदेव राजसूय यज्ञ करने में सफल हुए और सूर्यदेव तीनों लोकों के ईश्वर-पद पर प्रतिष्ठित हो सके। इसका मन के द्वारा धारण और वाणी द्वारा पाठ करने से अग्निदेव जगत् को पवित्र करते हैं तथा पवनदेव मन्दगति से प्रवाहित हो तीनों भुवनों को पावन बनाते हैं।

इस कवच को ही धारण करने का यह प्रभाव है कि मृत्युदेव समस्त प्राणियों में स्वच्छन्दगति से विचरते हैं । इसके पाठ और धारण से ही सशक्त हो जमदग्निनन्दन परशुराम ने पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियों से सूनी कर दिया और कुम्भज ऋषि ने समुद्र को पी लिया। इसे धारण करके ही भगवान् सनत्कुमार ज्ञानियों के गुरु हुए हैं और नर-नारायण ऋषि जीवन्मुक्त एवं सिद्ध हो गये हैं । इसी के धारण और पठन से ब्रह्मपुत्र वसिष्ठ सिद्ध हो गये हैं। कपिल सिद्धों के स्वामी हुए हैं। इसी के प्रभाव से प्रजापति दक्ष और भृगु मुझसे निर्भय होकर द्वेष करते हैं, कूर्म शेष को भी धारण करते हैं, वायुदेव सबके आधार हुए हैं और वरुण सबको पवित्र करनेवाले हो सके हैं। शिवे ! इसी के प्रभाव से ईशान दिक्पाल और यम शासक हुए हैं । इसी का आश्रय लेने से काल एवं कालाग्निरुद्र तीनों लोकों का संहार करने में समर्थ हो सके हैं। इसी को धारण करके गौतम सिद्ध हुए, कश्यप प्रजापति के पद पर प्रतिष्ठित हो सके और मुनिवर दुर्वासा ने अपनी पत्नी का वियोग होने पर पूर्वकाल में देवी की कलास्वरूपा वसुदेवकुमारी एकानंशा को प्राप्त किया ।

पूर्वकाल में श्रीरामचन्द्रजी ने रावण द्वारा हरी हुई सीता को इसी कवच के प्रताप से प्राप्त किया। राजा नल ने इसी के पाठ से सती दमयन्ती को पाया। महावीर शङ्खचूड़ इसी के प्रभाव से दैत्यों का स्वामी हुआ । दुर्गे ! इसी का आश्रय लेने से वृषभ नन्दिकेश्वर मुझको वहन करते हैं और गरुड़ श्रीहरि के वाहन हो सके हैं। पूर्वकाल सिद्धों और मुनियों ने इसी के प्रभाव से सिद्धि प्राप्त की । इसी को धारण करके महालक्ष्मी सम्पूर्ण सम्पदाओं को देने में समर्थ हुईं। सरस्वती को सत्पुरुषों में श्रेष्ठ स्थान प्राप्त हुआ तथा कामपत्नी रति-क्रीड़ा में कुशल हो सकी। वेदमाता सावित्री ने इस कवच के प्रभाव से ही सिद्धि प्राप्त की । सिन्धुकन्या इसी के बल से मर्त्यलक्ष्मी और विष्णु की पत्नी हुईं । इसी को धारण करके तुलसी पवित्र और गङ्गा भुवनपावनी हुईं। इसका आश्रय लेकर ही वसुन्धरा सबकी आधारभूमि तथा सम्पूर्ण शस्यों से सम्पन्न हुईं। इसको धारण करने से मनसादेवी विश्वपूजित सिद्धा हुईं और देवमाता अदिति ने भगवान् विष्णु को पुत्ररूप में प्राप्त किया। लोपामुद्रा और अरुन्धती ने इस कवच को धारण करके ही पतिव्रताओं में ऊँचा स्थान प्राप्त किया तथा सती देवहूति ने इसी के प्रभाव से कपिल जैसा पुत्र पाया । शतरूपा ने जो प्रियव्रत और उत्तानपाद- जैसे पुत्र प्राप्त किये तथा तुम्हारी माता मेना ने भी जो तुम जैसी देवी गिरिजा को पुत्री के रूप में पाया, वह इस कवच का ही माहात्म्य है । इस प्रकार समस्त सिद्धगणों ने राधाकवच के प्रभाव से सम्पूर्ण ऐश्वर्य प्राप्त किये हैं।

विनियोग:- ॐ अस्य श्रीजगन्मङ्गलकवचस्य प्रजापति – ऋषिर्गायत्री छन्दः स्वयं रासेश्वरी देवता श्रीकृष्ण- भक्तिसम्प्राप्तौ विनियोगः ।

इस जगन्मङ्गल राधाकवच के प्रजापति ऋषि हैं, गायत्री छन्द है, स्वयं रासेश्वरी देवता हैं और श्रीकृष्णभक्ति-प्राप्ति के लिये इसका विनियोग बताया गया है ।

जो अपना शिष्य और श्रीकृष्णभक्त ब्राह्मण हो, उसी के समक्ष इस कवच को प्रकाशित करे। जो शठ तथा दूसरे का शिष्य हो, उसको इसका उपदेश देने से मृत्यु की प्राप्ति होती है । प्रिये ! राज्य दे दे, अपना मस्तक कटा दे; परंतु अनधिकारी को यह कवच न दे। मैंने गोलोक में देखा था कि साक्षात् परमात्मा श्रीकृष्ण ने भक्तिभाव से अपने कण्ठ में इसको धारण किया था । पूर्वकाल में ब्रह्मा और विष्णु ने भी इसे अपने गले में स्थान दिया था ।

॥ श्रीजगन्मङ्गल-राधाकवच ॥
ॐ राधेति चतुर्थ्यन्तं वह्निजायान्तमेव च ॥ ३२ ॥
कृष्णेनोपासितो मन्त्रः कल्पवृक्षः शिरोऽवतु ।
ॐ ह्रीं श्रीं राधिकां ङेन्तं वह्निजायान्तमेव च ॥ ३३ ॥
कपालं नेत्रयुग्मं च श्रोत्र युग्मं सदाऽवतु ।
ॐ एं ह्रीं श्रीं राधिकायै वह्निजायान्तमेव च ॥ ३४ ॥
मस्तकं केशसंघांश्च मन्त्रराजः सदाऽवतु ।
ॐ रां राधाचतुर्थ्यन्तं वह्निजायान्तमेव च ॥ ३५ ॥
सर्वसिद्धिप्रदः पातु कपोलं नासिकां मुखम् ।
क्लीं श्रीकृष्णप्रिया ङेन्तं कण्ठं पातु नमोऽन्तकम् ॥ ३६ ॥
ॐ रां रासेश्वरीं ङेन्तं स्कंधं पातु नमोऽन्तकम् ।
ॐ रां रासविलासिन्यै स्वाहा पृष्ठं सदाऽवतु ॥ ३७ ॥
वृन्दावनविलासिन्यै स्वाहा वक्षः सदाऽवतु ।
तुलसीवनवासिन्यै स्वाहा पातु नितम्बकम् ॥ ३८ ॥
कृष्णप्राणाधिका ङेन्तं स्वाहान्तं प्रणवादिकम् ।
पादयुग्मं च सर्वाङ्गं सन्ततं पातु सर्वतः ॥ ३९ ॥
प्राच्यां रक्षतु सा राधा वह्नौ कृष्णप्रियाऽवतु ।
दक्षे रासेश्वरी पातु गोपीशा नैर्ऋतेऽवतु ॥ ४० ॥
पश्चिमे निर्गुणा पातु वायव्ये कृष्णपूजिता ।
उत्तरे सन्ततं पातु मूलप्रकृतिरीश्वरी ॥ ४१ ॥
सर्वेश्वरी सदैशान्यां पातु मां सर्वपूजिता ।
जले स्थले चान्तरिक्षे स्वप्ने जागरणे तथा ॥ ४२ ॥
महाविष्णोश्च जननी सर्वतः पातु सन्ततम् ।
कवचं कथितं दुर्गे श्रीजगन्मङ्गलं परम् ॥ ४३ ॥
यस्मै कस्मै न दातव्यं गुह्याद्गुह्यतरं परम् ।
तव स्नेहान्मयाऽऽ ख्यातं प्रवक्तव्यं न कस्यचित् ॥ ४४ ॥
गुरुमभ्यर्च्य विधिवद्वस्त्रालङ्कारचन्दनैः ।
कण्ठे वा दक्षिणे बाहौ धृत्वा विष्णुसमो भवेत् ॥ ४५ ॥
शतलक्षजपेनैव सिद्धं च कवचं भवेत् ।
यदि स्यात्सिद्धकवचो न दग्धो वह्निना भवेत् ॥ ४६ ॥
एतस्मात्कवचाद्दुर्गे राजा दुर्य्योधनः पुरा ।
विशारदो जलस्तम्भं वह्निस्तम्भं च निश्चितम् ॥ ४७ ॥
मया सनत्कुमाराय पुरा दत्तं च पुष्करे ।
सूर्य्यपर्वणि मेरौ च स सान्दीपनये ददौ ॥ ४८ ॥
बल्लाय तेन दत्तं च ददौ दुर्य्योधनाय सः ।
कवचस्य प्रसादेन जीवन्मुक्तो भवेन्नरः ॥ ४९ ॥

‘ॐ राधायै स्वाहा।’ यह मन्त्र कल्पवृक्ष के समान मनोवाञ्छित फल देनेवाला है और श्रीकृष्ण ने इसकी उपासना की है। यह मेरे मस्तककी रक्षा करे । ‘ॐ ह्रीं श्रीं राधिकायै स्वाहा ।’ यह मन्त्र मेरे कपाल की तथा दोनों नेत्रों और कानों की सदा रक्षा करे । ‘ ॐ रां ह्रीं श्रीं राधिकायै स्वाहा ।’ यह मन्त्रराज सदा मेरे मस्तक और केशसमूहों की रक्षा करे । ‘ॐ रां राधायै स्वाहा ।’ यह सर्वसिद्धिदायक मन्त्र मेरे कपोल, नासिका और मुख की रक्षा करे । ‘ॐ क्लीं श्रीं कृष्णप्रियायै नमः ।’ यह मन्त्र मेरे कण्ठकी रक्षा करे । ॐ रां रासेश्वर्यै नमः ।‘ यह मन्त्र मेरे कंधे की रक्षा करे। ‘ॐ रां रासविलासिन्यै स्वाहा ।’ यह मन्त्र मेरे पृष्ठभाग की सदा रक्षा करे । ‘ॐ वृन्दावनविलासिन्यै स्वाहा ।’ यह मन्त्र वक्षःस्थल की सदा रक्षा करे । ‘ॐ तुलसीवनवासिन्यै स्वाहा ।’ यह मन्त्र नितम्ब की रक्षा करे। ‘ॐ कृष्ण- प्राणाधिकायै स्वाहा ।’ यह मन्त्र दोनों चरणों तथा सम्पूर्ण अङ्गों की सदा सब ओर से रक्षा करे। राधा पूर्व-दिशा में मेरी रक्षा करें। कृष्णप्रिया अग्नि-कोण में मेरा पालन करें। रासेश्वरी दक्षिण दिशा में मेरी रक्षाका भार सँभालें । गोपीश्वरी नैर्ऋत्य-कोण में मेरा संरक्षण करें। निर्गुणा पश्चिम तथा कृष्णपूजिता वायव्यकोण में मेरा पालन करें। मूलप्रकृति ईश्वरी उत्तरदिशा में निरन्तर मेरे संरक्षण में लगी रहें । सर्वपूजिता सर्वेश्वरी सदा ईशानकोण में मेरी रक्षा करें। महाविष्णु-जननी जल, स्थल, आकाश, स्वप्न और जागरण में सदा सब ओर से मेरा संरक्षण करें ।

दुर्गे ! यह परम उत्तम श्रीजगन्मङ्गल-कवच मैं तुमसे कहा है । यह गूढ़ से भी परम गूढ़तर तत्त्व है । इसका उपदेश हर एक को नहीं देना चाहिये । मैंने तुम्हारे स्नेहवश इसका वर्णन किया है। किसी अनधिकारी के सामने इसका प्रवचन नहीं करना चाहिये। जो वस्त्र, आभूषण और चन्दन से गुरु की विधिवत् पूजा करके इस कवच को कण्ठ या दाहिनी बाँह में धारण करता है, वह भगवान् विष्णु के समान तेजस्वी हो जाता है । सौ लाख जप करने पर यह कवच सिद्ध हो जाता है। यदि किसी को यह कवच सिद्ध हो जाय तो वह आग से जलता नहीं है।

दुर्गे ! पूर्वकाल में इस कवच को धारण करने से ही राजा दुर्योधन ने जल और अग्नि का स्तम्भन करने में निश्चितरूप से दक्षता प्राप्त की थी। मैंने पहले पुष्करतीर्थ में सूर्यग्रहण के अवसर पर सनत्कुमार को इस कवच का उपदेश दिया था। सनत्कुमार ने मेरुपर्वत पर सान्दीपनि को यह कवच प्रदान किया। सान्दीपनि ने बलरामजी को और बलरामजी ने दुर्योधन को इसका उपदेश दिया। इस कवच के प्रसाद से मनुष्य जीवन्मुक्त हो सकता है।

जो राधामन्त्र का उपासक होकर प्रतिदिन इस कवच का भक्तिभाव से पाठ करता है, वह विष्णुतुल्य तेजस्वी होता तथा राजसूय यज्ञ का फल पाता है । सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान, सब प्रकार का दान, सम्पूर्ण व्रतों में उपवास, पृथ्वी की परिक्रमा, समस्त यज्ञों की दीक्षा का ग्रहण, सदैव सत्य की रक्षा, नित्यप्रति श्रीकृष्ण की सेवा, श्रीकृष्ण-नैवेद्य का भक्षण तथा चारों वेदों का पाठ करने पर मनुष्य जिस फल को पाता है, उसे निश्चय ही वह इस कवच के पाठ से पा लेता है। राजद्वार पर, श्मशानभूमि में, सिंहों और व्याघ्रों से भरे हुए वन में, दावानल में, विशेष संकट के अवसर पर, डाकुओं और चोरों से भय प्राप्त होने पर, जेल जाने पर, विपत्ति में पड़ जानेपर, भयंकर एवं अटूट बन्धन में बँधने पर तथा रोगों से आक्रान्त होने पर यदि मनुष्य इस कवच को धारण कर ले तो निश्चय ही वह समस्त दुःखों से छूट जाता है। दुर्गे ! महेश्वरि ! यह तुम्हारा ही कवच तुमसे कहा है । तुम्हीं सर्वरूपा माया हो और छल से इस विषयमें मुझसे पूछ रही हो ।

श्रीनारायण कहते हैं— नारद! इस प्रकार राधिका की कथा कहकर बारंबार माधव का स्मरण करके भगवान् शंकर के सम्पूर्ण अङ्गों में रोमाञ्च हो आया । उनके नेत्रों से आँसुओं की धारा बहने लगी। श्रीकृष्ण के समान कोई देवता नहीं है, गङ्गा-जैसी दूसरी नदी नहीं है, पुष्कर के समान कोई तीर्थ नहीं है तथा ब्राह्मण से बढ़कर कोई वर्ण नहीं है । नारद! जैसे परमाणु से बढ़कर सूक्ष्म, महाविष्णु ( महाविराट्) – से बढ़कर महान् तथा आकाश से अधिक विस्तृत दूसरी कोई वस्तु नहीं है, उसी प्रकार वैष्णव से बढ़कर ज्ञानी तथा भगवान् शंकर से बढ़कर कोई योगीन्द्र नहीं है । देवर्षे !
उन्होंने ही काम, क्रोध, लोभ और मोह पर विजय पायी है । भगवान् शिव सोते जागते हर समय श्रीकृष्ण के ध्यान में तत्पर रहते हैं । जैसे कृष्ण हैं, वैसे शिव हैं । श्रीकृष्ण और शिव में कोई भेद नहीं है।

शिशब्दो मङ्गलार्थश्च वकारो दातृवाचकः ।
मङ्गलानां प्रदाता यः स शिवः परिकीर्त्तितः ॥ ६३ ॥
नराणां सन्ततं विश्वे शं कल्याणं करोति यः ।
कल्याणं मोक्ष इत्युक्तं स एवं शङ्करः स्मृतः ॥ ६४ ॥
ब्रह्मादीनां सुराणां च मुनीनां वेदवादिनाम् ।
तेषां च महतां देवो महादेवः प्रकीर्तितः ॥ ६५ ॥
महती पूजिता विश्वे मूलप्रकृतिरीश्वरी। ।
तस्या देवः पूजितश्च महादेवः स च स्मृतः ॥ ६६ ॥
विश्वस्थानां च सर्वेषां महतामीश्वरः स्वयम् ।
महेश्वरं च तेनेमं प्रवदन्ति मनीषिणः ॥ ६७ ॥

वत्स! जैसे वैष्णवों में शम्भु तथा देवताओं में माधव श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार कवचों में यह जगन्मङ्गल राधाकवच सर्वोत्तम है । ‘शि’ यह मङ्गलवाचक है और ‘व’ कार का अर्थ है दाता । जो मङ्गलदाता है, वही शिव कहा गया है। जो विश्व के मनुष्यों का सदा ‘शं’ अर्थात् कल्याण करते हैं, वे ही शंकर कहे गये हैं। कल्याण का तात्पर्य यहाँ मोक्ष से है। ब्रह्मा आदि देवता तथा वेदवादी मुनि-ये महान् कहे गये हैं । उन महान् पुरुषों के जो देवता हैं, उन्हें महादेव कहते हैं । सम्पूर्ण विश्व में पूजित मूलप्रकृति ईश्वरी को महती देवी कहा गया है। उस महादेवी के द्वारा पूजित देवता का नाम महादेव है । विश्व में स्थित जितने महान् हैं, उन सबके वे ईश्वर हैं। इसलिये मनीषी पुरुष इन्हें महेश्वर कहते हैं।

ब्रह्मपुत्र नारद! तुम धन्य हो, जिसके गुरु श्रीकृष्णभक्ति प्रदान करनेवाले साक्षात् महेश्वर हैं । फिर तुम मुझसे क्यों पूछ रहे हो ! (अध्याय ५६)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे राधिकोपाख्याने तन्मन्त्रादिकथनं नाम षट्पञ्चाशत्तमोऽध्याय ॥ ५६ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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