February 8, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण – प्रकृतिखण्ड – अध्याय 59 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ उनसठवाँ अध्याय बृहस्पति की कैलास-यात्रा कैलास-यात्रा नारद बोले — तारा का अपहरण हो जाने पर बहस्पति ने क्या किया – उस पतिव्रता को उन्होंने कैसे प्राप्त किया ? मुझे बताने की कृपा करें । श्री नारायण बोले — गुरु बृहस्पति ने स्नान के लिए गयी हुई तारा का विलम्ब जानकर स्वयं उसकी खोज के लिए जाह्नवी-तट पर एक शिष्य को भेजा । हे मुने ! शिष्य ने वहाँ जाकर लोगों के मुख से वहाँ का समस्त वृत्तान्त सुना और वहाँ से लौट कर तारा का अपहरण अपने गुरु से रोदन करते उसने कहा हुए । देवगुरु बृहस्पति उससे सभी बातें जानकर कि चन्द्रमा ने मेरी प्रियतमा का अपहरण कर लिया — मूर्च्छित हो गये। दो घड़ी के उपरान्त चेतना होने पर शिष्य समेत गुरु हार्दिक दुःख प्रकट करते हुए ऊँचे स्वर से रोने लगे । शोक और लज्जा से उन्होंने बार-बार विलाप किया । अनन्तर वे शिष्यों को सम्बोधित कर वेद-सम्मत नीति कहने लगे। उस समय शिष्य वर्ग भी आँखों में आँसू भरे शोकव्याकुल हो रहा था । ॐ नमो भगवते वासुदेवाय बृहस्पति बोले —हे वत्स ! मुझे किसने शाप दे दिया, मैं इस महान कारण को नहीं जानता हूँ । क्योंकि धर्म विरोधी प्राणी को ही दुःख प्राप्त होता है, इसमें संशय नहीं । जिसके गृह में पतिप्राणा एवं मधुर-भाषिणी स्त्री नहीं है, उसे (गृह त्यागकर ) जंगल चला जाना चाहिए क्योंकि उसके लिए जंगल और गृह दोनों समान हैं । जिसकी प्रेमानुरागिणी स्त्री का शत्रु द्वारा अपहरण हो गया हो, उसे जंगल में निवास करना चाहिए, क्योंकि अरण्य और गृह दोनों उसके लिए समान हैं । अहो ! जिसके घर से सुशीला एवं सुन्दरी पत्नी चली जाये, उसे ( उसी समय ) अरण्य चला जाना चाहिए; क्योंकि जंगल और घर उसके लिए दोनों समान हैं । दैवसंयोगवश जिसकी पतिव्रता एवं पतिपरायणा स्त्री का अपहरण हो जाय उसे वन में चला जाना चाहिए, उसके लिए जैसे घर वैसे वन है । जिसके घर में माता नहीं है और सुशासित स्त्री नहीं है, उसे अरण्य और गृह दोनों समान होने के नाते वन चला जाना चाहिए । जिसके घर में धनराशि एवं बन्धु वर्ग अधिक हैं, किन्तु प्रिया नहीं है उसे अरण्य चला जाना चाहिए क्योंकि उसके लिए घर और वन दोनों समान हैं । स्त्री-शून्य गृह वन के समान है, जिस घर में स्त्री है वही गृह है, क्योंकि स्त्री ही घर है, केवल गृह को गृह नहीं कहा गया है । इसलिए स्त्रीविहीन पुरुष देव एवं पितृ कर्मों में अपवित्र माना गया है और वह दिन में जो कुछ कर्म करता है, उसका फलभागी नहीं होता है । जिस प्रकार दाहिका शक्ति से हीन अग्नि, प्रभा-हीन सूर्य, शोभाहीन चन्द्रमा, शक्तिहीन जीव, शरीर बिना आत्मा, आधार बिना आधेय, प्रकृति बिना ईश मन्द (शून्य) रहता है । हे द्विज ! जिस प्रकार फलदायक यज्ञ दक्षिणा बिना असमर्थ रहता है, यज्ञ की सामग्री और उसका मूल भाग कर्मों के फल प्रदान में असमर्थ होता है । एवं सोनार जिस प्रकार सुवर्ण के बिना अपने कर्म में अशक्त रहता है और मृत्तिका (मिट्टी) के बिना कुम्हार अपने कार्यों में असमर्थ रहता है. उसी प्रकार गृहस्थ गृह की अधिष्ठात्री देवी एवं अपनी शक्ति रूप गृहिणी के बिना अपने सभी कर्मों में निरन्तर अशक्त रहता है । क्योंकि जितनी क्रियायें हैं सभी स्त्री द्वारा आरम्भ होती हैं, सभी गृह स्त्री के कारण ही बनते हैं, इसलिए गृहस्थों को गृह में भी सुख स्त्री द्वारा ही प्राप्त होता है । सदा हर्ष भी स्त्री मूलक ही प्राप्त होता है, सभी मंगल स्त्री द्वारा होते हैं । इस भाँति सारा संसार स्त्री मुलक है । प्रसन्नता भी स्त्री द्वारा ही प्राप्त होती है। जिस प्रकार रथी का रथ होता है उसी प्रकार गृहस्थों का गृह होता है और रथ का संचालक सारथी जैसे होता है उसी भाँति गृहस्थों की संचालिका उसकी प्रिया पत्नी होती है । इसलिए सभी रत्नों में स्त्रीरत्न प्रधान है । उसे दुष्कुल से भी गृहस्थों को ले लेना चाहिए, ऐसा ब्रह्मा ने कहा है । जैसे बिना कमल का जल और बिना शोभा के कमल (हेय) होता है उसी भाँति गृही पुरुषों का गृह बिना गृहिणी का होता है । इतना कह कर गुरु बृहस्पति घर के भीतर चले गये और फिर घर से बाहर निकल आये। अधिक शोकमग्न होने के नाते उनका यही क्रम बना रहा। बार-बार मूर्च्छित हो जाते थे और थोड़े समय में चेतना भी आ जाती थी। अपनी प्रिया के गुणों का बार-बार स्मरण करके उच्च स्वर से वे बार-बार रोदन करते थे । अनन्तर महाज्ञानी बृहस्पति को उनके बड़े-बड़े शिष्यों और अन्य महर्षियों ने भलीभाँति समझाया, जिससे वे सुरेन्द्र के घर गये । इन्द्र ने उनकी अर्चना समेत आतिथ्य सत्कार किया और कुशल पूछा। गुरु ने अपना समस्त वृत्तान्त कह सुनाया, जो हृदय में शल्य (कील ) की भाँति चुभने वाला था । बृहस्पति की बातें सुनकर इन्द्र के नेत्र रक्त कमल की भाँति रक्तवर्ण हो गये । क्रोध से अधरोष्ठ फड़काते हुए उन्होंने उनसे कहा । महेन्द्र बोले — इस बात की खोज करने के लिए एक सहस्र गुप्तचर भेज रहा हूँ, जो अति निपुण एवं दक्ष होने के नाते इसके रहस्य का ठीक-ठीक पता लगायेंगे । और मेरी माता तारा के साथ पापी चन्द्रमा जहाँ होगा, वहीं सर्भ देवगणों के साथ तैयार होकर चल रहा हूँ । हे महाभाग ! आप चिन्ता त्याग दें, सब अच्छा ही होगा । यह विपत्ति कल्याण मूलक है क्योंकि बिना विपत्ति भोगे किसे सम्पत्ति प्राप्त होती है । हे मुने ! इतना कहकर इन्द्र ने अतिशीघ्र एक सहस्र दूतों को भेज दिया, जो उस कर्म में अति निपुण थे । वे दूतगण समस्त विश्व के अति दुर्लघ्य और निर्जन स्थानों में उस रहस्य का पता लगाते हुए सौ वर्ष के उपरान्त लौटकर इन्द्र से मिले और कहने लगे — शुक्राचार्य के यहाँ चन्द्रमा सुखपूर्वक रह रहा है. तारा समेत भयभीत होकर वह उन्हीं की शरण में है — ऐसा दूतों ने इन्द्र से कहा । इसे सुनकर इन्द्र ने मुख नीचे कर लिया और शोक सन्तप्त होकर हार्दिक दुःख प्रकट करते हुए उन्होंने बृहस्पति से कहा । महेन्द्र बोले — हे नाथ ! सुनिये मैं कह रहा हूँ, जो परिणाम में सुखप्रदायक होगा । हे महाभाग ! आप भय छोड़ दें, अनन्तर सब कुछ अच्छा ही होगा। न तो आपने शुक्र को जीता और न मैंने दैत्य को जीता यही सोचकर चन्द्रमा कवि शुक्र की शरण में गया है । इसलिए हमलोगों के साथ आप शीघ्र ब्रह्मलोक चलें और ब्रह्मा को साथ लेकर हमलोग शिवजी के यहाँ चलेंगे । इतना कहकर महेन्द्र सन्तप्त होते हुए गुरु को साथ लिये ब्रह्मलोक गये, जो देखने में सुखप्रद और निरामय था । वहाँ ब्रह्मा को देखकर गुरु समेत उन्होंने उन्हें नमस्कार किया और देवों के परमेश्वर उन ब्रह्मा को समस्त वृत्तान्त कहकर सुनाया । महेन्द्र की बातें सुनकर कमल से उत्पन्न होने वाले विनययुक्त ब्रह्मा ने हँस कर उनसे कहा, जो हित तथ्य एवं नीति का सार था । ब्रह्मा बोले — जो दूसरे को दुःख पहुँचाता है, उसे सनातन भगवान् श्रीकृष्ण शासक होने के नाते स्वयं दुःख देते हैं । मैं सृष्टि का स्रष्टा हूँ, सनातन विष्णु उसकी रक्षा करते हैं, रुद्र संहार करते हैं और शिव (कल्याण) प्रदान करते हैं । धर्म समस्त के साक्षी एवं निरन्तर सब के कारण हैं, इस प्रकार सभी देवगण अपने-अपने विषय में भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा का पालन करते हैं । अंगिरा से बृहस्पति, उतथ्य और जितेन्द्रिय संवर्त ये तीन पुत्र उत्पन्न हुए जो वेद-वेदांग के पारगामी थे । अंगिरा ने कनिष्ठ (छोटे) पुत्र संवर्त को कुछ नहीं दिया, वह तपस्वी हो गया, परमेश्वर श्रीकृष्ण का सतत ध्यान करता है । मध्यम ( मझला ) पुत्र उतथ्य की पतिव्रता पत्नी का, जो उस समय गर्भिणी एवं कामभावनाहीन तथा भाई की पत्नी थी, इन्होंने कामवश अपहरण कर लिया। जो कामी कामवश भाई की कामभावनाहीन पत्नी का अपहरण करता है, उसे सहस्र ब्रह्महत्या का पाप लगता है, इसमें संशय नहीं । उसे चन्द्र-सूर्य के समय तक कुम्भीपाक नरक में रहना पड़ता है, क्योंकि भाई की स्त्री का अपहरण करने वाला मनुष्य मातृगामी कहलाता है । उपरान्त वहाँ से निकलकर वह पापी विष्ठा का कीड़ा होता है, सहस्रों करोड़ वर्ष तक उसमें रहकर वह पातकी महापापी होता है। हे पुरन्दर ! पश्चात् पुंश्चली (व्यभिचारिणी) स्त्री की योनि के गड्ढे का कीड़ा होता है । अनन्तर सहस्र करोड़ वर्ष गीध, सौ जन्मों तक कुत्ता और भाई की पत्नी का अपहरण करने के नाते सौ जन्मों तक सूकर होता है । एवं जो बलवान् पुरुष अपने दुर्बल भाई को उसका दाय भाग ( हिस्सा) नहीं देता है, उसे चन्द्र-सूर्य के समय तक कुम्भीपाक नरक में रहना पड़ता है । क्योंकि सैकड़ों करोड़ कल्प बीत जाने पर भी बिना उपभोग किये कर्म नष्ट नहीं होता है, अतः अपना किया हुआ शुभ- अशुभ कर्म अवश्य भोगना पड़ता है । बृहस्पति जगद्गुरु शिव के गुरुपुत्र हैं, इसलिए बलवानों में श्रेष्टः उन ईश्वर को यह वृत्तान्त बता देना चाहिए । समस्त देववृन्द अपने वाहन समेत तैयार होकर नर्मदा के तट पर चलें और मुनिगण वहाँ मध्यस्थ रहेंगे, पीछे उस पुण्य नर्मदा तट पर हम भी आ रहे हैं। गुरुपुत्र ( बृहस्पति ) भी कैलाश जायें । महेन्द्र बोले — वेदों के प्रणेता, सिद्धों और योगियों के गुरु एवं मृत्युञ्जय शिव के गुरुपुत्र बृहस्पति कैसे हुए? क्योंकि अंगिरा तुम्हारे पुत्र हैं और उनके पुत्र बृहस्पति हैं और महादेव तुम से श्रेष्ठ ज्ञानी हैं अतः गुरु पिता के शिष्य कैसे हुए? ब्रह्मा बोले — हे पुरन्दर ! महाकथा पुराणों में अति गुप्त है । अतः मैं इस प्राचीन कथा को पुन: कह रहा हूँ, सुनो । पहले समय में अंगिरा की पत्नी कर्म दोषवश मृतवत्सा थी ( उसके बच्चे छोटी अवस्था में मर जाते थे) । उसने परमात्मा श्रीकृष्ण का व्रत किया । भगवान् सनत्कुमार ने एक वर्ष तक उससे पुंसवन नामक व्रत सविधि सम्पन्न कराया, जिससे उस समय दयामय एवं परमात्मा श्रीकृष्ण ने, जो कृपानिधि, स्वेच्छामय, परब्रह्म एवं भक्तों पर अनुग्रहार्थ शरीर धारण करने वाले हैं, गोलोक से आकर उस लक्ष्मीमूर्ति सुव्रता से कहा, जो विनय-विनम्र, आँखों में आँसू भरे स्तुति कर रही थी । श्रीकृष्ण बोले —हे पुत्रि! इस व्रत-फल को ग्रहण करो, जो मेरे तेज से युक्त है। इसका भक्षण कर लो, मेरे वरदान द्वारा मेरे अंश से पुत्र उत्पन्न होगा। जो देवों का पति और गुरु तथा बड़े-बड़े ज्ञानियों में श्रेष्ठ होगा । हे साध्वि ! मेरे वरदान द्वारा तुम्हारे बृहस्पति पुत्र उत्पन्न होगा । मेरे वरदान द्वारा जो पुत्र उत्पन्न होगा वह मेरा वरपुत्र कहलायेगा । अतः तुम्हारे गर्भ में जो मेरा पुत्र होगा, वह चिरजीवी होगा । इतना कहकर राधिका-नाथ भगवान् श्रीकृष्ण अपने लोक चले गये । अतः भगवान श्रीकृष्ण का यह वर ( दान जन्य ) पुत्र है जो ज्ञानीश्वर, और स्वयं गुरु है । भगवान् श्रीकृष्ण ने मृत्यु जीतने वाला महाज्ञान पहले शिवजी को दिया था। उन्होंने हिमालय पर तीन लाख दिव्य वर्ष तक तप किया, जिससे भगवान् ने प्रसन्न होकर उन्हें अपना योग, सम्पूर्ण ज्ञान, अपने समान तेज, अपनी शक्ति विष्णुमाया, और अपना अंश वृष वाहन रूप में दिया तथा अपना शूल, अपना कवच, अपना द्वादशाक्षर मंत्र भी प्रदान किया। अनन्तर शिव ने कृपामय एवं परात्पर भगवान् श्रीकृष्ण की स्तुति की। शिवलोक (कैलास) में विष्णु की माया शिवजी की प्रिया शिवा होकर रहने लगी। वह नारायण की सनातनी शक्ति है । उस सनातनी ने समस्त देवों के तेज से प्रकट होकर समस्त दैत्य-वृन्दों का संहार किया और देवों को उनके अपने-अपने पद पर प्रतिष्ठित किया । वही मूल प्रकृति कल्पान्त में दक्ष की कन्या सती होकर अवतीर्ण हुई, जिसने पिता के यज्ञ में पति की निन्दावश योग द्वारा अपना शरीर त्याग कर हिमालय की कन्या होकर जन्म ग्रहण किया। वही पतिव्रता शंकरी अधिक काल तक भगवान् कृष्ण का तप करके शंकर जी को प्राप्त हुई है। अतः परात्पर एवं परमात्मा श्रीकृष्ण शंकर जी के गुरु हैं । बृहस्पति स्वयमेव भगवान् श्रीकृष्ण के वरदत्त पुत्र हैं, इसी कारण देवगुरु ( बृहस्पति) शिवजी के गुरुपुत्र हैं । इस प्रकार मैंने अति गुह्य एवं प्राचीन कथा तथा प्रधान सम्बन्ध जो सुना था, तुम्हें सुना दिया। परम्परा प्राप्त अन्य कथा भी सुना रहा हूँ, सुनो । दुर्वासा और गरुड़ ये दोनों प्रतापी शंकर जी के अंश हैं और अंगिरा के शिष्य हैं। इस प्रकार भी बृहस्पति शिवजी के गुरुपुत्र हैं तथा दक्ष के शापवश प्राणप्रिया सती के मर जाने पर भगवान शिव मोहवश अपना ज्ञान और स्वयं अपने को भूल गये थे, भगवान् श्रीकृष्ण से प्रेरित होकर अंगिरा ने उन्हें पुनः उसका स्मरण कराया था। इसीलिए मेरे पुत्र अंगिरा शिवजी के गुरु हैं, अतः स्वयं बृहस्पति केवल कैलास जायें। और तुम देवों के साथ तैयार होकर नर्मदा तट पर चलो। हे नारद ! जगत् के विधाता ब्रह्मा इतना कहकर चुप हो गये । अनन्तर गुरु कैलास गये और महेन्द्र नर्मदा तट पर पहुँचे । ॥ श्रीब्रह्मवैवतमहापुराण के दूसरे प्रकृति खण्ड में नारद-नारायण-संवादविषयक दुर्गापाख्यान में बृहस्पति का कैलास-गमन नामक उनसठवाँ अध्याय समाप्त ॥ ५९ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. 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