ब्रह्मवैवर्तपुराण – प्रकृतिखण्ड – अध्याय 06
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
छठा अध्याय
विष्णुपत्नी लक्ष्मी, सरस्वती एवं गङ्गा का परस्पर शापवश भारतवर्ष में पधारना

भगवान् नारायण कहते हैं —  नारद! वे भगवती सरस्वती स्वयं वैकुण्ठ में भगवान् श्रीहरि के पास रहती हैं। पारस्परिक कलह के कारण गङ्गा ने इन्हें शाप दे दिया था । अतः ये भारतवर्ष में अपनी एक कला से पधारकर नदी-रूप में प्रकट हुईं । मुने ! सरस्वती नदी पुण्य प्रदान करने वाली, पुण्यरूपा और पुण्यतीर्थ-स्वरूपिणी हैं। पुण्यात्मा पुरुषों को चाहिये कि वे इनका सेवन करें । इनके तट पर पुण्यवानों की ही स्थिति है । ये तपस्वियों के लिये तपोरूपा हैं और तपस्या का फल भी इनसे कोई अलग वस्तु नहीं है । किये हुए सब पाप लकड़ी के समान हैं। उन्हें जलाने के लिये ये प्रज्वलित अग्नि-स्वरूपा हैं । भूमण्डल पर रहने वाले जो मानव इनकी महिमा जानते हुए इनके तट पर अपना शरीर त्यागते हैं, उन्हें वैकुण्ठ में स्थान प्राप्त होता है । भगवान् विष्णु के भवन पर वे बहुत दिनों तक वास करते हैं ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

तदनन्तर सरस्वती नदी में स्नान की और भी महिमा कहकर नारायण ने कहा कि इस प्रकार सरस्वती की महिमा का कुछ वर्णन किया गया है । अब पुनः क्या सुनना चाहते हो ।

सौति कहते हैं — शौनक ! भगवान् नारायण की बात सुनकर मुनिवर नारद ने पुनः तत्काल ही उनसे यह पूछा ।

नारदजी ने कहा — सत्त्वस्वरूपा तथा सदा पुण्यदायिनी गङ्गा ने सर्वपूज्या सरस्वतीदेवी को शाप क्यों दे दिया ? इन दोनों तेजस्विनी देवियों के विवाद का कारण अवश्य ही कानों को सुख देने वाला होगा। आप इसे बताने की कृपा कीजिये ।

भगवान् नारायण बोले — नारद ! यह प्राचीन कथा मैं तुमसे कहता हूँ, सुनो। लक्ष्मी, सरस्वती और गङ्गा ये तीनों ही भगवान् श्रीहरि की भार्या हैं। एक बार सरस्वती को यह संदेह हो गया कि श्रीहरि मेरी अपेक्षा गङ्गा से अधिक प्रेम करते हैं। तब उन्होंने श्रीहरि को कुछ कड़े शब्द कह दिये । फिर वे गङ्गा पर क्रोध करके कठोर बर्ताव करने लगीं । तब शान्तस्वरूपा, क्षमामयी लक्ष्मी ने उनको रोक दिया । इस पर सरस्वती ने लक्ष्मी को गङ्गा का पक्ष करने वाली मानकर आवेश में शाप दे दिया कि ‘तुम निश्चय ही वृक्षरूपा और नदीरूपा हो जाओगी ।’

लक्ष्मी ने सरस्वती के इस शाप को सुन लिया; परंतु स्वयं बदले में सरस्वती को शाप देना तो दूर रहा, उनके मन में तनिक-सा क्रोध भी उत्पन्न नहीं हुआ । वे वहीं शान्त बैठी रहीं और सरस्वती के हाथ को अपने हाथ से पकड़ लिया । पर गङ्गा से यह नहीं देखा गया। उन्होंने सरस्वती को शाप दे दिया ।

गङ्गा ने कहा — ‘ बहन लक्ष्मी ! जो तुम्हें शाप दे चुकी है, वह सरस्वती भी नदीरूपा हो जाय । यह नीचे मर्त्यलोक में चली जाय, जहाँ सब पापीजन निवास करते हैं ।’

नारद ! गङ्गा की यह बात सुनकर सरस्वती ने उन्हें शाप दे दिया कि तुम्हें भी धरातल पर जाना होगा और तुम पापियों के पाप को अङ्गीकार करोगी । इतने में भगवान् श्रीहरि वहाँ आ गये । उस समय चार भुजावाले वे प्रभु अपने चार पार्षदों से सुशोभित थे । उन्होंने सरस्वती का हाथ पकड़कर उन्हें अपने समीप प्रेम से बैठा लिया । तत्पश्चात् वे सर्वज्ञानी श्रीहरि प्राचीन अखिल ज्ञान का रहस्य समझाने लगे । उन दुःखित देवियों के कलह और शाप का मुख्य कारण सुनकर परम प्रभु ने समयानुकूल बातें बतायीं ।

भगवान् श्रीहरि बोले — लक्ष्मी ! शुभे ! तुम अपनी कला से राजा धर्मध्वज के घर पधारो । तुम किसी की योनि से उत्पन्न न होकर स्वयं भूमण्डलपर प्रकट हो जाना । वहीं तुम वृक्षरूप से निवास करोगी । ‘शङ्खचूड’ नामक एक असुर मेरे अंश से उत्पन्न होगा । तुम उसकी पत्नी बन जाना । तत्पश्चात् निश्चय ही तुम्हें मेरी प्रेयसी भार्या बनने का सौभाग्य प्राप्त होगा । भारतवर्ष में त्रिलोक-पावनी ‘तुलसी’ के नाम से तुम्हारी प्रसिद्धि होगी । वरानने ! अभी-अभी तो तुम भारती के शाप से भारत में ‘पद्मावती’ नामक नदी बनकर पधारो ।’

तदनन्तर गङ्गा से कहा — ‘गङ्गे ! तुम सरस्वती के शापवश अपने अंश से पापियों का पाप भस्म करने के लिये विश्वपावनी नदी बनकर भारतवर्ष में जाना । सुकल्पिते ! भगीरथ की तपस्या से तुम्हें वहाँ जाना पड़ेगा । धरातल पर तुमको सब लोग भगवती भागीरथी कहेंगे । समुद्र मेरा अंश है । मेरे आज्ञानुसार तुम उसकी पत्नी होना स्वीकार कर लेना ।’

 इसके बाद सरस्वती से कहा — ‘ भारती ! तुम गङ्गा का शाप स्वीकार करके अपनी एक कला से भारतवर्ष में चलो । तुम अपने पूर्ण अंश से ब्रह्म-सदन पर पधारकर उनकी कामिनी बन जाओ; ये गङ्गा अपने पूर्ण अंश से शिव के स्थान पर चलें । यहाँ अपने पूर्ण अंश से केवल लक्ष्मी रह जायँ । कारण, इनका स्वभाव परम शान्त है । ये कभी तनिक-सा क्रोध नहीं करतीं । मुझ पर इनकी अटूट श्रद्धा है। ये सत्त्वस्वरूपा हैं । ये महान् साध्वी, अत्यन्त सौभाग्यवती, क्षमामूर्ति, सुन्दर आचरणों से सुशोभित तथा निरन्तर धर्म का पालन करती हैं । इनके एक अंश की कला का महत्त्व है कि विश्वभर में सम्पूर्ण स्त्रियाँ धर्मात्मा, पतिव्रता, शान्तरूपा तथा सुशीला बनकर प्रतिष्ठा प्राप्त करती हैं ।’

अब भगवान् श्रीहरि स्वयं अपना विचार कहने लगे — अहो ! विभिन्न स्वभाव वाली तीन स्त्रियों, तीन नौकरों और तीन बान्धवों का एकत्र रहना वेद की अनुमति से विरुद्ध है । ये एक जगह रहकर कल्याणप्रद नहीं हो सकते । जिन गृहस्थों के घर स्त्री पुरुष के समान व्यवहार करे और पुरुष स्त्री के अधीन रहे, उसका जीवन निष्फल समझा जाता है । उसके प्रत्येक पग पर अशुभ है । जिसकी स्त्री मुखदुष्टा, योनिदुष्टा और कलहप्रिया हो, उसके लिये तो जंगल ही घर से बढ़कर सुखदायी है । कारण, वहाँ उसे जल, स्थल और फल तो मिल ही जाते हैं । ये फल – जल आदि जंगल में निरन्तर सुलभ रहते हैं, घर पर नहीं मिल सकते । अग्नि के पास रहना ठीक है; अथवा हिंसक जन्तुओं के निकट रहने पर भी सुख मिल सकता है; किंतु दुष्टा स्त्री के निकट रहने वाले पुरुष को अवश्य ही महान् क्लेश भोगना पड़ता है ।

वरानने ! पुरुषों के लिये व्याधि-ज्वाला अथवा विष-ज्वाला को ठीक बताया जा सकता है; किंतु दुष्टा स्त्रियों के मुख की ज्वाला मृत्यु से भी अधिक कष्टप्रद होती है । स्त्री के वश में रहने वाले पुरुषों की शुद्धि शरीर के भस्म हो जाने पर भी हो जाय – यह निश्चित नहीं है । स्त्री के वश में रहने वाला व्यक्ति दिन में जो कुछ कर्म करता है, उसके फल का वह भागी नहीं हो पाता । इस लोक और परलोक में – सब जगह उसकी निन्दा होती है । जो यश और कीर्ति से रहित है, उसे जीते हुए भी मुर्दा समझना चाहिये । एक भार्या वाले को ही चैन नहीं; फिर जिसके अनेक स्त्रियाँ हों, उसके लिये तो सुख की कल्पना ही असम्भव है । अतएव गङ्गे ! तुम शिव के पास जाओ और सरस्वती ! तुम्हें ब्रह्मा के स्थान पर चले जाना चाहिये । यहाँ मेरे भवन पर केवल सुशीला लक्ष्मीजी रह जायँ; क्योंकि परम साध्वी, उत्तम आचरण करनेवाली एवं पतिव्रता स्त्री का स्वामी इस लोक में स्वर्ग का सुख भोगता है और परलोक में उसके लिये कैवल्यपद सुरक्षित है । जिसकी पत्नी पतिव्रता है, वह परम पवित्र, सुखी और मुक्त समझा जाता है ।

भगवान् नारायण कहते हैं — नारद ! इस प्रकार कहकर भगवान् श्रीहरि चुप हो गये। तब गङ्गा और लक्ष्मी तथा सरस्वती – तीनों देवियाँ परस्पर एक-दूसरे का आलिङ्गन करके रोने लगीं । शोक और भय ने उनके शरीर को कँपा दिया था । उनकी आँखों से आँसू बह रहे थे । उन सबको एकमात्र भगवान् ही शरण्य दृष्टिगोचर हुए । अतः वे क्रमशः उनसे प्रार्थना करने लगीं ।

सरस्वती ने कहा — नाथ! मुझ दुष्टा को पाप, ताप और शाप से बचाने के लिये कोई प्रायश्चित्त बता दीजिये, जिससे मेरा जन्म और जीवन शुद्ध हो जाय । भला, आप – जैसे महान् सच्चरित्र स्वामी के परित्याग कर देने पर कहाँ कौन स्त्रियाँ जीवित रह सकती हैं ? प्रभो ! मैं भारतवर्ष में योगसाधन करके इस शरीर का त्याग कर दूँगी – यह निश्चित है ।

गङ्गा बोली — जगत्प्रभो! आप किस अपराध से मुझे त्याग रहे हैं? मैं जीवित नहीं रह सकूँगी ।

लक्ष्मी ने कहा — नाथ ! आप सत्त्व-स्वरूप हैं। बड़े आश्चर्य की बात है, आपको कैसे क्षोभ हो गया । आप अपनी इन पत्नियों पर कृपा कीजिये । कारण, श्रेष्ठ स्वामी के लिये क्षमा ही उत्तम है । मैं सरस्वती का शाप स्वीकार करके अपनी एक कला से भारतवर्ष में जाऊँगी । परंतु प्रभो ! मुझे कितने समय तक वहाँ रहना होगा और मैं पुनः कब आपके चरणों के दर्शन प्राप्त कर सकूँगी । पापीजन मेरे जल में स्नान और आचमन करके अपना पाप मुझ पर लाद देंगे, तब उस पाप से मुक्त होकर आपके चरणों में आने का अधिकार मुझे कैसे प्राप्त हो सकेगा ?

अच्युत ! मैं अपनी एक कला से धर्मध्वज की पुत्री होकर जब ‘तुलसी’ (वृन्दा) – रूप में स्थित हो जाऊँगी, तब मुझे पुनः कब आपके चरणकमल प्राप्त होंगे ? कृपानिधे ! यह तो बताइये कि जब मैं वृक्षरूप में उसकी अधिदेवी बनकर रहने लगूँगी, तब कब तक आप मेरा उद्धार करेंगे ? यदि ये गङ्गा सरस्वती के शाप से भारतवर्ष में चली जायँगी, तब फिर किस समय शाप और पाप से छुटकारा पाकर आपको प्राप्त कर सकेंगी ?

गङ्गा के शाप से ये सरस्वती भी यदि भारत में जायँगी तो कब शाप से मुक्त होकर पुनः आपके चरणकमलों को पा सकेंगी ? प्रभो ! आप जो इन सरस्वती से कह रहे हैं कि तुम ब्रह्मा के घर सिधारो अथवा गङ्गा को शिव के भवन पर जाने की आज्ञा दे रहे हैं – आपके इन वचनों के लिये मैं आपसे क्षमा चाहती हूँ । आप कृपा करके इन्हें ऐसा दण्ड न दें ।

नारद ! इस प्रकार कहकर भगवती लक्ष्मी ने अपने स्वामी श्रीहरि के चरण पकड़ लिये, उन्हें प्रणाम किया और अपने केश से भगवान् के चरणों को आवेष्टित करके वे बारंबार रोने लगीं । भगवान् श्रीहरि सदा भक्तों पर अनुग्रह करने वाले हैं। प्रार्थना सुनकर उन्होंने देवी कमला को हृदय से चिपका लिया और प्रसन्नमुख से मुस्कराते हुए कहा ।

भगवान् विष्णु बोले — सुरेश्वरि ! कमलेक्षणे ! मैं तुम्हारी बात भी रखूँगा और अपने वचन की भी रक्षा करूँगा । साथ ही तुम तीनों में समता कर दूँगा, अतः सुनो – ये सरस्वती कला के एक अंश से नदी बनकर भारतवर्ष में जायँ, आधे अंश से ब्रह्मा के भवन पर पधारें तथा पूर्ण अंश से स्वयं मेरे पास रहें । ऐसे ही ये गङ्गा भगीरथ के सत्प्रयत्न से अपने कलांश से त्रिलोकी को पवित्र करने के लिये भारतवर्ष में जायँ और स्वयं पूर्ण अंश से मेरे पास भवन पर रहें । वहाँ इन्हें शंकर के मस्तक पर रहने का दुर्लभ अवसर भी प्राप्त होगा । ये स्वभावतः पवित्र तो हैं ही, किंतु वहाँ जाने पर इनकी पवित्रता और भी बढ़ जायगी ।

वामलोचने ! तुम अपनी कला अंशांश से भारतवर्ष में चलो । वहाँ तुम्हें ‘पद्मावती’ नदी और ‘तुलसी’ वृक्ष के रूप से विराजना होगा । कलि के पाँच हजार वर्ष व्यतीत हो जाने पर तुम नदी रूपिणी देवियों का उद्धार हो जायगा । तदनन्तर तुम लोग मेरे भवन पर लौट आओगी । पद्मभवे ! सम्पूर्ण प्राणियों के पास जो सम्पत्ति और विपत्ति आती है – इसमें कोई-न-कोई हेतु छिपा रहता है। बिना विपत्ति सहे किन्हीं को भी गौरव प्राप्त नहीं हो सकता । अब तुम्हारे शुद्ध होने का उपाय बताता हूँ ।

मेरे मन्त्रों की उपासना करने वाले बहुत-से संत पुरुष भी तुम्हारे जल में नहाने-धोने के लिये पधारेंगे । उस समय तुम उनके दर्शन और स्पर्श प्राप्त करके सब पापों से छुटकारा पा जाओगी । सुन्दरि ! इतना ही नहीं; किंतु भूमण्डल पर जितने असंख्य तीर्थ हैं, वे सभी मेरे भक्तों के दर्शन और स्पर्श पाकर परम पावन बन जायँगे । भारतवर्ष की भूमि अत्यन्त पवित्र है । मेरे मन्त्रों के उपासक अनगिनत भक्त वहाँ वास करते हैं । प्राणियों को पवित्र करना और तारना ही उनका प्रधान उद्देश्य है । मेरे भक्त जहाँ रहते और अपने पैर धोते हैं, वह स्थान महान् तीर्थ एवं परम पवित्र बन जाता है- यह बिलकुल निश्चित है ।

मद्भक्ता यत्र तिष्ठन्ति पादं प्रक्षालयन्ति च ।
तत्स्थानं च महातीर्थं सुपवित्रं भवेद् ध्रुवम् ॥

( प्रकृतिखण्ड ६ । ९४)

घोर पापी भी मेरे भक्त के दर्शन और स्पर्श के प्रभाव से पवित्र होकर जीवन्मुक्त हो सकता है । नास्तिक व्यक्ति भी मेरे भक्त दर्शन और स्पर्श से पवित्र हो सकता है । जो कमर में तलवार बाँधकर द्वारपाल की हैसियत से जीविका चलाते हैं, मुनीमी-मात्र जिनकी जीविका का साधन है, जो इधर-उधर चिट्ठी-पत्री पहुँचाकर अपना भरण-पोषण करते हैं तथा गाँव-गाँव घूमकर भीख माँगना ही जिनका व्यवसाय है एवं जो बैलों को जोतते हैं, ऐसे ब्राह्मण को अधम कहा जाता है; किंतु मेरे भक्त के दर्शन और स्पर्श उन्हें पवित्र कर देते हैं । विश्वासघाती, मित्रघाती, झूठी गवाही देनेवाले तथा धरोहर हड़पनेवाले नीच व्यक्ति भी मेरे भक्तों के दर्शन और स्पर्श से शुद्ध हो सकते हैं। मेरे भक्त के दर्शन एवं स्पर्श में ऐसी अद्भुत शक्ति है कि उसके प्रभाव से महापातकी व्यक्ति तक पवित्र हो सकता है ।

सुन्दरि ! पिता, माता, स्त्री, छोटा भाई, पुत्र, पुत्री, बहन, गुरुकुल, नेत्रहीन बान्धव, सासु और श्वशुर जो पुरुष इनके भरण-पोषणकी व्यवस्था नहीं करता, उसे महान् पातकी कहते हैं; किंतु मेरे भक्तों के दर्शन और स्पर्श करने से वह भी शुद्ध हो जाता है। पीपल के वृक्ष को काटनेवाले, मेरे भक्तों के निन्दक तथा नीच ब्राह्मण को भी मेरे भक्त का दर्शन और स्पर्श पवित्र बना देता है। घोर पातकी मनुष्य भी मेरे भक्तों के दर्शन और स्पर्श से पवित्र हो सकते हैं।

श्रीमहालक्ष्मी ने कहा — भक्तों पर कृपा करने के लिये आतुर रहने वाले प्रभो ! अब आप उन अपने भक्तों के लक्षण बतलाइये, जिनके दर्शन और स्पर्श से हरिभक्तिहीन, अत्यन्त अहंकारी, अपने मुँह अपनी बड़ाई करने वाले, धूर्त, शठ एवं साधु निन्दक अत्यन्त अधम मानव तक तुरंत पवित्र हो जाते हैं तथा जिनके नहाने धोने से सम्पूर्ण तीर्थों में पवित्रता आ जाती है; जिनके चरणों की धूलि से तथा चरणोदक से पृथ्वी का कल्मष दूर हो जाता है तथा जिनका दर्शन एवं स्पर्श करने के लिये भारतवर्ष में लोग लालायित रहते हैं; क्योंकि विष्णुभक्त पुरुषों का समागम सम्पूर्ण प्राणियों के लिये परम लाभदायक है । जलमय तीर्थ ही तीर्थ नहीं हैं और न मृण्मय एवं प्रस्तरमय देवता ही देवता हैं; क्योंकि वे दीर्घकाल तक सेवा करने पर ही पवित्र करते हैं । अहो ! साक्षात् देवता तो विष्णु – भक्तों को मानना चाहिये, जो क्षणभर में पवित्र कर देते हैं ।

न ह्यम्भयानि तीर्थानि न देवा मृच्छिलामयाः ।
ते पुनन्त्यपि कालेन विष्णुभक्ताः क्षणादहो ॥

( प्रकृतिखण्ड ६ । ११० )

सूतजी कहते हैं — शौनक ! महालक्ष्मी की बात सुनकर उनके आराध्य स्वामी भगवान् श्रीहरि का मुखमण्डल मुस्कान से खिल उठा । फिर वे अत्यन्त गूढ़ एवं श्रेष्ठ रहस्य कहने के लिये प्रस्तुत हो गये ।

श्रीभगवान् बोले — लक्ष्मी ! भक्तों के लक्षण श्रुति एवं पुराणों में छिपे हुए हैं। इन पुण्यमय लक्षणों में पापों का नाश करने, सुख देने तथा भुक्ति-मुक्ति प्रदान करने की प्रचुर शक्ति है। जिसको सद्गुरु के द्वारा विष्णु का मन्त्र प्राप्त होता है ( और जो सब कुछ छोड़कर केवल मुझको ही सर्वस्व मानता है), उसी को वेद-वेदाङ्ग पुण्यात्मा एवं श्रेष्ठ मनुष्य बतलाते हैं। ऐसे व्यक्ति के जन्म लेने मात्र से पूर्व के सौ पुरुष, चाहे वे स्वर्ग में हों अथवा नरक में तुरंत मुक्ति के अधिकारी हो जाते हैं। यदि उन पूर्वजों में से किन्हीं का कहीं जन्म हो गया है तो उन्होंने जिस योनि में जन्म पाया है, वहीं उनमें जीवन्मुक्तता आ जाती है और समयानुसार वे परमधाम में चले जाते हैं । मुझमें भक्ति रखने वाला मानव मेरे गुणों से सम्पन्न होकर मुक्त हो जाता है । उसकी वृत्ति मेरे गुण का अनुसरण करने में ही लगी रहती है । वह सदा मेरी कथा-वार्ता में लगा रहता है । मेरा गुणानुवाद सुनने मात्र से वह आनन्दमग्न हो उठता है । उसका शरीर पुलकित हो जाता है और वाणी गद्गद हो जाती है । उसकी आँखों में आँसू भर आते हैं और वह अपनी सुधि-बुधि खो बैठता है । मेरी पवित्र सेवा में नित्य नियुक्त रहने के कारण सुख, चार प्रकार की सालोक्यादि मुक्ति, ब्रह्मा का पद अथवा अमरत्व – कुछ भी पाने की अभिलाषा वह नहीं करता । मनु, इन्द्र एवं ब्रह्मा की उपाधि तथा स्वर्ग के राज्य का सुख – ये सभी परम दुर्लभ हैं; किंतु मेरा भक्त स्वप्न में भी इनकी इच्छा नहीं करता।

न वाञ्छन्ति सुखं मुक्तिं सालोक्यादिचतुष्टयम् ।
ब्रह्मत्वममरत्वं वा तद्वाञ्छा मम सेवने ॥
इन्द्रत्वं च मनुत्वं च ब्रह्मत्वं च सुदुर्लभम् ।
स्वर्गराज्यादिभोगं च स्वप्नेऽपि च न वाञ्छति ॥

( प्रकृतिखण्ड ६ । ११९-१२० )

ऐसे मेरे बहुत-से भक्त भारतवर्ष में निवास करते हैं । उन भक्तों के जैसा जन्म सबके लिये सुलभ नहीं है। जो सदा मेरा गुणानुवाद सुनते और सुनने योग्य पद्यों को गाकर आनन्द से विह्वल हो जाते हैं, वे बड़भागी भक्त अन्य साधारण मनुष्य, तीर्थ एवं मेरे परमधाम को भी पवित्र करके धराधाम पर पधारते हैं । पद्मे ! इस प्रकार मैंने तुम्हारे प्रश्न का समाधान कर दिया। अब तुम्हें जो उचित जान पड़े, वह करो ।

तदनन्तर वे सभी देवियाँ, भगवान् श्रीहरि ने जो कुछ आज्ञा दी थी, उसी के अनुसार कार्य करने में संलग्न हो गयीं। स्वयं भगवान् अपने सुखदायी आसन पर विराजमान हो गये ।  (अध्याय ६ )

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे सरस्वत्युपाख्यानं नाम षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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