ब्रह्मवैवर्तपुराण – प्रकृतिखण्ड – अध्याय 63
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
तिरेसठवाँ अध्याय
सुरथ और समाधि पर देवी की कृपा और वरदान

नारदजी ने पूछा — वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ महाभाग नारायण ! अब कृपया यह बताइये कि राजा ने किस प्रकार से पराप्रकृति का सेवन किया था ? समाधि नामक वैश्य ने भी किस प्रकार प्रकृति का उपदेश पाकर निर्गुण एवं निष्काम परमात्मा श्रीकृष्ण को प्राप्त किया था। उनकी पूजा का विधान, ध्यान, मन्त्र, स्तोत्र अथवा कवच क्या है ? जिसका उपदेश महामुनि मेधस् ने राजा सुरथ को दिया था । समाधि वैश्य को देवी प्रकृति ने कौन-सा उत्तम ज्ञान दिया था ? किस उपाय से उन दोनों को सहसा प्रकृतिदेवी का साक्षात्कार प्राप्त हुआ था ? वैश्य ज्ञान पाकर किस दुर्लभ पद को प्राप्त किया था ? अथवा राजा की क्या गति हुई थी? उसे मैं सुनना चाहता हूँ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

श्रीनारायण ने कहा — मुने! राजा सुरथ और समाधि वैश्य ने मेधस् मुनि से देवी का मन्त्र, स्तोत्र, कवच, ध्यान तथा पुरश्चरण-विधि प्राप्त करके पुष्करतीर्थ में उत्तम मन्त्र का जप आरम्भ कर दिया। वे एक वर्ष तक त्रिकाल स्नान करके देवी की समाराधना में लगे रहे, फिर दोनों शुद्ध हो गये। वहीं उन्हें मूलप्रकृति ईश्वरी के साक्षात् दर्शन हुए। देवी ने राजा को राज्य-प्राप्ति का वर दिया । भविष्य में मनु के पद और मनोवाञ्छित सुख की प्राप्ति के लिये आश्वासन दिया । परमात्मा श्रीकृष्ण ने भगवान् शंकर को जो पूर्वकाल में ज्ञान दिया था, वही परम दुर्लभ गूढ़ ज्ञान देवी ने वैश्य को दिया । कृपामयी देवी उपवास से अत्यन्त क्लेश पाते हुए वैश्य को निश्चेष्ट तथा श्वासरहित हुआ देख उसे गोद में उठाकर दुःख करने लगीं और बार-बार कहने लगीं- ‘बेटा! होश में आओ।’ चैतन्यरूपिणी देवी ने स्वयं ही उसे चेतना दी। उस चेतना को पाकर वैश्य होश में आया और प्रकृतिदेवी के सामने रोने लगा । अत्यन्त कृपामयी देवी उसपर प्रसन्न हो कृपापूर्वक बोलीं ।

श्रीप्रकृति ने कहा — बेटा! तुम्हारे मन में जिस वस्तु की इच्छा हो, उसके लिये वर माँगो । अत्यन्त दुर्लभ ब्रह्मत्व, अमरत्व, इन्द्रत्व, मनुत्व और सम्पूर्ण सिद्धियों का संयोग, जो चाहो, ले लो। मैं तुम्हें बालकों को बहलानेवाली कोई नश्वर वस्तु नहीं दूँगी।

वैश्य बोला — माँ ! मुझे ब्रह्मत्व या अमरत्व पाने की इच्छा नहीं है। उससे भी अत्यन्त दुर्लभ कौन-सी वस्तु है ? यह मैं स्वयं ही नहीं जानता । यदि कोई ऐसी वस्तु हो तो वही मेरे लिये अभीष्ट है। अब मैं तुम्हारी ही शरण में आया हूँ, तुम्हें जो अभीष्ट हो, वही मुझे दे दो। मुझे ऐसा वर देने की कृपा करो, जो नश्वर न हो और सबका सार-तत्त्व हो ।

श्रीप्रकृति ने कहा — बेटा ! मेरे पास तुम्हारे लिये कोई भी वस्तु अदेय नहीं है। जो वस्तु मुझे अभीष्ट है, वही मैं तुम्हें दूँगी, जिससे तुम परम दुर्लभ गोलोक-धाम में जाओगे । महाभाग वत्स ! जो देवर्षियों के लिये भी अत्यन्त दुर्लभ है, वह सबका सारभूत ज्ञान ग्रहण करो और श्रीहरि के धाम में जाओ । भगवान् श्रीकृष्ण का स्मरण, वन्दन, ध्यान, अर्चन, गुण-कीर्तन, श्रवण, भावन, सेवा और सब कुछ श्रीकृष्ण को समर्पण – यह वैष्णवों की नवधा भक्ति का लक्षण है ।

स्मरणं वन्दनं ध्यानमर्चनं गुणकीर्त्तनम् ।
श्रवणं भावनं सेवा कृष्णे सर्वनिवेदनम् ॥ १९ ॥
एतदेवं वैष्णवानां नवधा भक्तिलक्षणम् ।
जन्ममृत्युजराव्याधियमताडनखण्डनम् ॥ २० ॥

यह भक्ति जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि तथा यम यातना का नाश करने वाली है । जो नवधा भक्ति से हीन, अधम एवं पापी हैं, उन लोगों की सूर्यदेव सदा आयु ही हरते रहते हैं । जो भक्त हैं और भगवान् में जिनका चित्त लगा हुआ है, ऐसे वैष्णव चिरजीवी, जीवन्मुक्त, निष्पाप तथा जन्मादि विकारों से रहित होते हैं ।

शिव, शेषनाग, धर्म, ब्रह्मा, विष्णु, महाविराट्, सनत्कुमार, कपिल, सनक, सनन्दन, वोढु, पञ्चशिख, दक्ष, नारद, सनातन, भृगु, मरीचि, दुर्वासा, कश्यप, पुलह, अङ्गिरा, मेधस्, लोमश, शुक्र, वसिष्ठ, क्रतु, बृहस्पति, कर्दम, शक्ति, अत्रि, पराशर, मार्कण्डेय, बलि, प्रह्लाद, गणेश्वर, यम, सूर्य, वरुण, वायु, चन्द्रमा, अग्नि, अकूपार, उलूक, नाडीजङ्घ, वायुपुत्र हनुमान्, नर, नारायण, कूर्म, इन्द्रद्युम्न और विभीषण ये परमात्मा श्रीकृष्ण की नवधा भक्ति से युक्त महान् ‘ धर्मिष्ठ’ भक्तशिरोमणि हैं ।

वैश्यराज ! जो भगवान् श्रीकृष्ण के भक्त हैं, वे उन्हीं के अंश हैं तथा सदा जीवन्मुक्त रहते हैं। इतना ही नहीं, वे भूमण्डल के समस्त तीर्थों के पापों का अपहरण करने में समर्थ हैं। ऊपर सात स्वर्ग हैं, बीच में सात द्वीपों से युक्त पृथ्वी है और नीचे सात पाताल हैं। ये सब मिलकर ‘ब्रह्माण्ड’ कहलाते हैं। बेटा ! ऐसे विश्व-ब्रह्माण्डों की कोई गणना नहीं है । प्रत्येक विश्व में पृथक्-पृथक् ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि देवता, देवर्षि, मनु और मानव आदि हैं। सम्पूर्ण आश्रम भी हैं । सर्वत्र मायाबद्ध जीव रहते हैं । जिन महाविष्णु के रोमकूप में असंख्य ब्रह्माण्ड वास करते हैं, उन्हें महाविराट् कहते हैं । वे परमात्मा श्रीकृष्ण के सोलहवें अंश हैं। सबके अभीष्ट आत्मा श्रीकृष्ण सत्य, नित्य, परब्रह्मस्वरूप, निर्गुण, अच्युत, प्रकृति से परे एवं परमेश्वर हैं । तुम उनका भजन करो। वे निरीह, निराकार, निर्विकार, निरञ्जन, निष्काम, निर्विरोध, नित्यानन्द और सनातन हैं। स्वेच्छामय (स्वतन्त्र) तथा सर्वरूप हैं। भक्तों पर कृपा करने के लिये ही वे दिव्य शरीर धारण करते हैं। परम तेज:-स्वरूप तथा सम्पूर्ण सम्पदाओं के दाता हैं । ध्यान के द्वारा उन्हें वश में कर लिया जाय, यह असम्भव है। शिव आदि योगियों के लिये भी उनकी आराधना कठिन है । वे सर्वेश्वर, सर्वपूज्य, सबकी सम्पूर्ण कामनाओं के दाता, सर्वाधार, सर्वज्ञ, सबको आनन्द प्रदान करनेवाले, सम्पूर्ण धर्मों के दाता, सर्वरूप, प्राणरूप, सर्वधर्मस्वरूप, सर्वकारणकारण, सुखद, मोक्षदायक, साररूप, उत्कृष्ट रूपसम्पन्न, भक्तिदायक, दास्यप्रदायक तथा सत्पुरुषों को सम्पूर्ण सिद्धियाँ प्रदान करनेवाले हैं। उनसे भिन्न सारा कृत्रिम जगत् नश्वर है। वे परात्परतर शुद्ध, परिपूर्णतम एवं शिवरूप हैं ।

बेटा ! तुम सुखपूर्वक उन्हीं भगवान् अधोक्षज की शरण लो। ‘कृष्ण’ यह दो अक्षरों का मन्त्र श्रीकृष्णदास्य प्रदान करनेवाला है । तुम इसे ग्रहण करो और दुष्कर सिद्धि की प्राप्ति कराने वाले पुष्करतीर्थ में जाकर इस मन्त्र का दस लाख जप करो। दस लाख के जप से ही तुम्हारे लिये यह मन्त्र सिद्ध हो जायगा ।

ऐसा कहकर भगवती प्रकृति वहीं अन्तर्धान हो गयीं। मुने! उन्हें भक्तिभाव से नमस्कार करके समाधि वैश्य पुष्करतीर्थ में चला गया। पुष्कर में दुष्कर तप करके उसने परमेश्वर श्रीकृष्ण को प्राप्त कर लिया। भगवती प्रकृति के प्रसाद से वह श्रीकृष्ण का दास हो गया। (अध्याय ६३)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे दुर्गोपाख्याने सुरथसमाधिमेधस्संवादे प्रकृतिवैश्यसंवादकथनं नाम त्रिषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६३ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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