ब्रह्मवैवर्तपुराण – प्रकृतिखण्ड – अध्याय 64
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
चौंसठवाँ अध्याय
देवी की पूजा का विधान, ध्यान, प्रतिमा की स्थापना, परिहार-स्तुति, शङ्ख में तीर्थों का आवाहन तथा देवी के षोडशोपचार पूजन का क्रम

भगवान् नारायण कहते हैं — महाभाग नारद! राजा सुरथ ने जिस क्रम से देवी परा प्रकृति की आराधना की थी, वह वेदोक्त क्रम बता रहा हूँ, सुनो। महाराज सुरथ ने स्नान करके आचमन किया । फिर त्रिविध न्यास करन्यास, अङ्गन्यास तथा मन्त्राङ्गन्यास करके भूतशुद्धि की । इसके बाद प्राणायाम करके शङ्ख-शोधन के अनन्तर देवी का ध्यान किया और मिट्टी की प्रतिमा में उनका आवाहन किया। फिर भक्तिभाव से ध्यान करके प्रेमपूर्वक उनका पूजन किया। देवी के दाहिने भाग में लक्ष्मी की स्थापना करके परम धार्मिक नरेश ने उनकी भी भक्तिभाव से पूजा की। नारद! तत्पश्चात् देवी के सामने कलश पर गणेश, सूर्य, अग्नि, विष्णु, शिव और पार्वती — इन छः देवताओं का आवाहन करके राजाने विधिपूर्वक भक्ति से उनका पूजन किया। प्रत्येक विद्वान् पुरुष को चाहिये कि वह पूर्वोक्त छः देवताओं की पूजा और वन्दना करके महादेवी का प्रेमपूर्वक निम्नाङ्कित रीति से ध्यान करे।

मुने! सामवेद में जो ध्यान बताया गया है, वह परम उत्तम तथा कल्प-वृक्ष के समान वाञ्छा-पूरक है।

ध्यायेन्नित्यं महादेवीं मूलप्रकृतिमीश्वरीम् ॥ ८ ॥
ब्रह्मविष्णुशिवादीनां पूज्यां वन्द्यां सनातनीम् ।
नारायणीं विष्णुमायां वैष्णवीं विष्णुभक्तिदाम् ॥ ९ ॥
सर्वस्वरूपां सर्वेषां सर्वाधारां परात्पराम् ।
सर्वविद्यासर्वमन्त्रसर्वशक्तिस्वरूपिणीम् ॥ १० ॥
सगुणां निर्गुणां सत्त्वां वरां स्वेच्छामयीं सतीम् ।
महाविष्णोश्च जननीं कृष्णस्यार्द्धाङ्गसम्भवाम् ॥ ११ ॥
कृष्णप्रियां कृष्णशक्तिं कृष्णबुद्ध्यधिदेवताम् ।
कृष्णस्तुतां कृष्णपूज्यां कृष्णवन्द्यां कृपामयीम् ॥ १२ ॥
तप्तकाञ्चनवर्णाभां कोटिसूर्य्यसमप्रभाम् ।
ईषद्धास्यप्रसन्नास्यां भक्तानुग्रहकारिकाम् ॥ १३ ॥
दुर्गां शतभुजां देवीं महद्दुर्गतिनाशिनीम् ।
त्रिलोचनप्रियां साध्वीं त्रिगुणां च त्रिलोचनाम् ॥ १४ ॥
त्रिलोचनप्राणरूपां शुद्धार्द्धचन्द्रशेखराम् ।
बिभ्रतीं कबरीभारं मालतीमाल्यमण्डितम् ॥ १५ ॥
वर्तुलं वामवक्त्रं च शम्भोर्मानसमोहिनीम् ।
रत्नकुण्डलयुग्मेन गण्डस्थलविराजिताम् ॥ १६ ॥
नासादक्षिणभागेन बिभ्रतीं गजमौक्तिकम् ।
अमूल्यरत्नं बहुलं बिभ्रतीं श्रवणोपरि ॥ १७ ॥
मुक्तापंक्तिविनिन्द्यैकदन्तपंक्तिसुशोभिताम् ।
पक्वबिम्बाधरोष्ठीं च सुप्रसन्नां सुमंगलाम् ॥ १८ ॥
चित्रपत्रावलीरम्यकपोलयुगलोज्ज्वलाम् ।
रत्नकेयूरवलयरत्नमञ्जीररञ्जिताम् ॥ १९ ॥
रत्नकङ्कणभूषाढ्यां रत्नपाशंकशोभिताम् ।
रत्नांगुलीयनिकरैः करांगुलिचयोज्ज्वलाम् ॥ २० ॥
पादाङ्गुलिनखासक्तालक्तरेखासुशोभनाम् ।
वह्निशुद्धांशुकाधानां गन्धचन्दनचर्चिताम् ॥ २१ ॥
बिभ्रतीं स्तनयुग्मं च कस्तूरीबिन्दुशोभितम् ।
सर्वरूपगुणवतीं गजेन्द्रमन्दगामिनीम् ॥ २२ ॥
अतीव कान्तां शान्तां च नितान्तां योगसिद्धिषु ।
विधातुश्च विधात्रीं च सर्वधात्रीं च शंकरीम् ॥ २३ ॥
शरत्पार्वणचन्द्रास्यामतीव सुमनोहराम् ।
कस्तूरीबिन्दुभिः सार्द्धमधश्चन्दनबिन्दुना ॥ २४ ॥
सिन्दूरबिन्दुना शश्वद्भालमध्यस्थलोज्ज्वलाम् ।
शरन्मध्याह्नकमलप्रभामोचनलोचनाम् ॥ २५ ॥
चारुकज्जलरेखाभ्यां सर्वतश्च समुज्ज्वलाम् ।
कोटिकन्दर्पलावण्यलीलानिन्दितविग्रहाम् ॥ २६ ॥
रत्नसिंहासनस्थां च सद्रत्नमुकुटोज्ज्वलाम् ।
सृष्टौ स्रष्टुः शिल्परूपां दयां पातुश्च पालने ॥ २७ ॥
संहारकाले संहर्त्तुः परां संहाररूपिणीम् ।
निशुम्भशुम्भमथिनीं महिषासुरमर्दिनीम् ॥ २८ ॥
पुरा त्रिपुरयुद्धे च संस्तुता त्रिपुरारिणा ।
मधुकैटभयोर्युद्धे विष्णुशक्तिस्वरूपिणीम् ॥ २९ ॥
सर्वदैत्यनिहन्त्रीं च रक्तबीजविनाशिनीम् ।
नृसिंहशक्तिरूपां च हिरण्यकशिपोर्वधे ॥ ३० ॥
वराहशक्तिं वाराहे हिरण्याक्षवधे तथा ।
परब्रह्मस्वरूपां च सर्वशक्तिं सदा भजे ॥ ३१ ॥

मूलप्रकृति ईश्वरी महादेवी का नित्य ध्यान करे। वे सनातनी देवी ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि के लिये भी पूजनीया तथा वन्दनीया हैं । उन्हें नारायणी और विष्णुमाया कहते हैं । वे वैष्णवीदेवी विष्णुभक्ति देनेवाली हैं। यह सब कुछ उनका ही स्वरूप है। वे सबकी ईश्वरी, सबकी आधारभूता, परात्परा, सर्वविद्यारूपिणी, सर्वमन्त्रमयी तथा सर्वशक्तिस्वरूपा हैं । वे सगुणा और निर्गुणा हैं । सत्यस्वरूपा, श्रेष्ठा, स्वेच्छामयी एवं सती हैं । महाविष्णु की जननी हैं। श्रीकृष्ण के आधे अङ्ग से प्रकट हुई हैं। कृष्णप्रिया, कृष्णशक्ति एवं कृष्णबुद्धि की अधिष्ठात्री देवी हैं। श्रीकृष्ण ने उनकी स्तुति, पूजा और वन्दना की है। वे कृपामयी हैं। उनकी अङ्गकान्ति तपाये हुए सुवर्ण के समान है। उनकी प्रभा करोड़ों सूर्यों की दीप्ति को भी लज्जित करती है। उनके प्रसन्न मुख पर मन्द-मन्द हास्य की छटा छायी हुई है । वे भक्तों पर अनुग्रह करनेके लिये व्याकुल हैं। उनका नाम दुर्गादेवी है ।

वे सौ भुजाओं से युक्त हैं और महती दुर्गति का नाश करनेवाली हैं। त्रिनेत्रधारी महादेवजी की प्रिया हैं। साध्वी हैं। त्रिगुणमयी एवं त्रिलोचना हैं । त्रिलोचन शिव की प्राणरूपा हैं। उनके मस्तक पर विशुद्ध अर्द्धचन्द्र का मुकुट है। वे मालती की पुष्पमालाओं से अलंकृत केशपाश धारण करती हैं। उनका मुख सुन्दर एवं गोलाकार है । वे भगवान् शिव के मन को मोहनेवाली हैं । रत्नों के युगल कुण्डल से उनके कपोल उद्भासित होते रहते हैं। वे नासिका के दक्षिण भाग में गजमुक्ता से निर्मित नथ धारण करती हैं। कानों में बहुसंख्यक बहुमूल्य रत्नमय आभूषण पहनती हैं। मोतियों की पाँत को तिरस्कृत करने वाली दन्तपंक्ति उनके मुख की शोभा बढ़ाती है । पके हुए बिम्बफल के समान उनके लाल-लाल ओठ हैं । वे अत्यन्त प्रसन्न तथा परम मङ्गलमयी हैं ।

विचित्र पत्ररचना से रमणीय उनके कपोल-युगल परम उज्ज्वल प्रतीत होते हैं । रत्नों के बने हुए बाजूबन्द, कंगन तथा रत्नमय मञ्जीर उनके विभिन्न अङ्गों का सौन्दर्य बढ़ाते हैं । रत्नमय कङ्कणों से उनके दोनों हाथ विभूषित हैं । रत्नमय पाशक उनकी शोभा बढ़ाते हैं । रत्नमयी अंगूठियों से उनके हाथों की अँगुलियाँ जगमगाती रहती हैं। पैरों की अँगुलियों और नखों में लगे हुए महावर की रेखा उनकी शोभावृद्धि करती है । वे अग्रिशुद्ध दिव्य वस्त्र धारण करती हैं। उनके विभिन्न अङ्ग गन्ध, चन्दन से चर्चित हैं। वे कस्तूरी के विन्दुओं से सुशोभित दो स्तन धारण करती हैं। सम्पूर्ण रूप और गुणों से सम्पन्न हैं तथा गजराज के समान मन्द गति से चलती हैं । अत्यन्त कान्तिमती तथा शान्तस्वरूपा हैं।

योग-सिद्धियों में बहुत बढ़ी-चढ़ी हैं। विधाता की भी सृष्टि करनेवाली तथा सबकी माता हैं। समस्त लोकों का कल्याण करनेवाली हैं । शरत्काल की पूर्णिमा के चन्द्रमा की भाँति उनका परम सुन्दर मुख है । वे अत्यन्त मनोहारिणी हैं। उनके भालदेश का मध्यभाग कस्तूरी-बिन्दु, चन्दन-बिन्दु तथा सिन्दूर-बिन्दु से सदा उद्दीप्त होता रहता है। उनके नेत्र शरद् ऋतु के मध्याह्नकाल में खिले हुए कमलों की कान्ति को छीने लेते हैं। काजल की सुन्दर रेखाओं से वे सर्वथा सुशोभित होते हैं। उनके श्रीअङ्ग करोड़ों कन्दर्पं की लावण्य-लीला को तिरस्कृत करनेवाले हैं । वे रत्नमय सिंहासनपर विराजमान हैं। उनका मस्तक उत्तम रत्नों के बने हुए मुकुट से उद्भासित होता है ।

वे स्रष्टा सृष्टि में शिल्परूपा और पालक के पालन में दयारूपा हैं। संहारकाल में संहारक की उत्तम संहाररूपिणी शक्ति हैं। निशुम्भ और शुम्भ को मथ डालनेवाली तथा महिषासुर का मर्दन करनेवाली हैं। पूर्वकाल में त्रिपुर-युद्ध के समय त्रिपुरारि महादेव ने इनकी स्तुति की थी । मधु और कैटभ के युद्ध में वे विष्णु की शक्तिस्वरूपिणी थीं । समस्त दैत्यों का वध तथा रक्तबीज का विनाश करनेवाली यही हैं। हिरण्यकशिपु के वधकाल में ये नृसिंहशक्तिरूप में प्रकट हुई थीं। हिरण्याक्ष के वधकाल में भगवान् वाराह के भीतर वाराही शक्ति यही थीं। ये परब्रह्मरूपिणी तथा सर्वशक्तिस्वरूपा हैं। मैं सदा इनका भजन करता हूँ ।

इस प्रकार ध्यान करके विद्वान् पुरुष अपने सिर पर पुष्प रखे और पुनः ध्यान करके भक्तिभाव से आवाहन करे । प्रकृति की प्रतिमा का स्पर्श करके मनुष्य इस प्रकार मन्त्र पढ़े तथा मन्त्र द्वारा ही यत्नपूर्वक जीव-न्यास करे ।

एह्येहि भगवत्यम्ब शिवलोकात्सनातनि ।
गृहाण मम पूजां च शारदीयां सुरेश्वरि ॥ ३४ ॥
इहागच्छ जगत्पूज्ये तिष्ठ तिष्ठ महेश्वरि ।
हे मातरस्यामर्चायां सन्निरुद्धा भवाम्बिके ॥ ३५ ॥
इहागच्छन्तु त्वत्प्राणाश्चाधिप्राणैः सहाच्युते ।
इहागच्छन्तु त्वरितं तवैव सर्व शक्तयः ॥ ३६ ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं च दुर्गायै वह्निजायान्तमेव च ।
समुच्चार्य्योरसि प्राणाः सन्तिष्ठन्तु सदाशिवे ॥ ३७ ॥
सर्वेन्द्रियाधिदेवास्ते इहागच्छन्तु चण्डिके ।
ते शक्तयोऽत्रागच्छन्तु इहागच्छन्तु ईश्वराः ॥ ३८ ॥

अम्ब! भगवति! सनातनि ! शिवलोक से आओ, आओ। सुरेश्वरि ! मेरी शारदीया पूजा ग्रहण करो । जगत्पूज्ये ! महेश्वरि ! यहाँ आओ, ठहरो, ठहरो । हे मातः ! हे अम्बिके! तुम इस प्रतिमा में निवास करो। अच्युते ! इस प्रतिमा में तुम्हारे प्राण निम्नभाग में रहनेवाले प्राणों के साथ आवें, रहें । तुम्हारी सम्पूर्ण शक्तियाँ इस प्रतिमा में तुरंत पदार्पण करें। ‘ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं दुर्गायै स्वाहा।’ इस मन्त्र का उच्चारण करके कहे— ‘हे सदाशिवे ! इस प्रतिमा के हृदय में प्राण स्थित हों । चण्डिके ! सम्पूर्ण इन्द्रियों के अधिदेवता यहाँ आवें । तुम्हारी शक्तियाँ यहाँ आवें। ईश्वर यहाँ आवें । देवि! तुम इस प्रतिमा में पधारो।’

इस प्रकार आवाहन करके निम्नाङ्कित मन्त्र से परिहार-स्तुति करनी चाहिये । विप्रवर ! एकाग्रचित्त होकर परिहार को सुनो।

स्वागतं भगवत्यम्ब शिवलोकाच्छिवप्रिये ।
प्रसादं कुरु मां भद्रे भद्रकालि नमोऽस्तु ते ॥ ४० ॥
धन्योऽहं कृतकृत्योऽहं सफलं जीवनं मम ।
आगताऽसि यतो दुर्गे माहेश्वरि मदालयम् ॥ ४१ ॥
अद्य मे सफलं जन्म सार्थकं जीवनं मम ।
पूजयामि यतो दुर्गां पुण्यक्षेत्रे च भारते ॥ ४२ ॥
भारते भवतीं पूज्यां दुर्गां यः पूजयेद् बुधः ।
सोऽन्ते याति च गोलोकं परमैश्वर्य्यवानिह ॥ ४३ ॥
कृत्वा च वैष्णवीपूजां विष्णुलोकं व्रजेत्सुधीः ।
माहेश्वरीं च संपूज्य शिवलोकं च गच्छति ॥ ४४ ॥
सात्त्विकी राजसी चैव त्रिधा पूजा च तामसी ।
भगवत्याश्च वेदोक्ता चोत्तमा मध्यमा ऽधमा ॥ ४५ ॥
सात्त्विकी वैष्णवानां च शाक्तादीनां च राजसी ।
अदीक्षितानामसतामन्येषां तामसी स्मृता ॥ ४६ ॥
जीवहत्या विहीना या वरा पूजा तु वैष्णवी ।
वैष्णवा यान्ति गोलोकं वैष्णवीबलिदानतः ॥ ४७ ॥
माहेश्वरी राजसी च बलिदानसमन्विता ।
शाक्तादयो राजसाश्च कैलासं यान्ति ते तथा ॥ ४८ ॥
किरातास्त्रिदिवं यान्ति तामस्या पूजया तया ।
त्वमेव जगतां मातश्चतुर्वर्गफलप्रदा ॥ ४९ ॥
सर्वशक्तिस्वरूपा च कृष्णस्य परमात्मनः ।
जन्ममृत्युजराव्याधिहरा त्वं च परात्परा ॥ ५० ॥
सुखदा मोक्षदा भद्रा कृष्णभक्तिप्रदा सदा ।
नारायणि महामाये दुर्गे दुर्गतिनाशिनि ॥ ५१ ॥
दुर्गेति स्मृतिमात्रेण याति दुर्गं नृणामिह ।

शिवप्रिये ! भगवति अम्बे! शिवलोक से जो तुम आयी हो, तुम्हारा स्वागत है । भद्रे ! मुझ पर कृपा करो । भद्रकालि ! तुम्हें नमस्कार है । दुर्गे ! माहेश्वरि ! तुम जो मेरे घर में आयी हो, इससे मैं धन्य हूँ, कृतकृत्य हूँ और मेरा जीवन सफल है। आज मेरा जन्म सफल और जीवन सार्थक हुआ; क्योंकि मैं भारतवर्ष के पुण्यक्षेत्र में दुर्गाजी का पूजन करता हूँ। जो विद्वान् भारतवर्ष में आप पूजनीया दुर्गा का पूजन करता है, वह अन्त में गोलोकधाम को जाता है और इहलोक में भी उत्तम ऐश्वर्य से सम्पन्न बना रहता है। वैष्णवीदेवी की पूजा करके विद्वान् पुरुष विष्णुलोक में जाता है और माहेश्वरी की पूजा करके वह शिवलोक को प्राप्त होता है। वेदों में सात्त्विकी, राजसी और तामसी के भेद से तीन प्रकार की देवी की पूजा बतायी गयी है, जो क्रमशः उत्तम, मध्यम और अधम है। सात्त्विकी पूजा वैष्णवों की है, शाक्त आदि राजसी पूजा करते हैं और जो किसी मन्त्र की दीक्षा नहीं ले सके हैं, ऐसे असत् पुरुषों की पूजा तामसी कही गयी है । जो पूजा जीवहत्या से रहित और श्रेष्ठ है, वही सात्त्विकी एवं वैष्णवी मानी गयी है। वैष्णवलोग वैष्णवीदेवी के वरदान से गोलोक में जाते हैं । माहेश्वरी एवं राजसी पूजा में बलिदान होता है। शाक्त आदि राजस पुरुष उस पूजा से कैलास में जाते हैं । किरातगण तामसी देवी की आराधना द्वारा स्वर्ग प्राप्त करते हैं । माँ ! तुम्हीं जगत् के जीवों को धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप चारों फल प्रदान करनेवाली हो। तुम परमात्मा श्रीकृष्ण की सर्वशक्तिस्वरूपा हो । जन्म, मृत्यु, जरा और व्याधि का अपहरण करनेवाली परात्परा हो । सुखदायिनी, मोक्षदायिनी, भद्रा (कल्याणकारिणी) तथा सदा श्रीकृष्णभक्ति प्रदान करने वाली हो । महामाये ! नारायणि ! दुर्गे ! तुम दुर्गति का नाश करनेवाली हो। दुर्गा नाम के स्मरणमात्र से यहाँ मनुष्यों का दुर्गम कष्ट दूर हो जाता है ।

इस प्रकार परिहार-स्तवन करके साधक देवी के बायें भाग में तिपाई के ऊपर शङ्ख रखे । उसमें जल भर दे और दूर्वा, पुष्प तथा चन्दन डाल दे। तत्पश्चात् उसे दाहिने हाथ से पकड़कर मनुष्य इस तरह मन्त्र पढ़े ।

पुण्यस्त्वं शंख पुण्यानां मङ्गलानां च मङ्गलम् ।
प्रभूतः शंखचूडात्त्वं पुरा कल्पे पवित्रकः ॥ ५४ ॥

‘हे शङ्ख ! तुम पवित्र वस्तुओंमें परम पवित्र हो, मङ्गलोंके भी मङ्गल हो । पूर्वकल्पमें शङ्खचूडसे तुम्हारी उत्पत्ति हुई, इसलिये परम पवित्र हो ।’

इस विधि से अर्घ्य-पात्र की स्थापना करके विद्वान् पुरुष उसे देवी को अर्पित करे । तदनन्तर सोलह उपचार चढ़ाकर देवी की पूजा करे । सजल कुश से त्रिकोण मण्डल बनाकर वहाँ धार्मिक पुरुष कच्छप, शेषनाग और पृथ्वी का पूजन करे । मण्डल के भीतर ही तिपाई रखे और उसके ऊपर शङ्ख । शङ्ख में तीन भाग जल डालकर उसकी पूजा करे तथा उसमें गङ्गा आदि तीर्थों का आवाहन करते हुए कहे-

गङ्गे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति ।
नर्म्मदे सिन्धुकावेरि चन्द्रभागे च कौशिकि ॥ ९८ ॥
स्वर्णरेखे कनखले पारिभद्रे च गण्डकि ।
श्वेतगङ्गे रुद्ररेखे पम्पे चम्पे च गोमति ॥ ५९ ॥
पद्मावति त्रिपर्णाशे विपाशे विरजे प्रभे ।
शतह्रदे चेलगंगे जलेऽस्मिन्सन्निधिं कुरु ॥ ६० ॥

गङ्गे ! यमुने! गोदावरि! सरस्वति! नर्मदे! सिन्धु ! कावेरि ! चन्द्रभागे ! कौशिकि! स्वर्णरेखे ! कनखले ! पारिभद्रे ! गण्डकि ! श्वेतगङ्गे ! चन्द्ररेखे ! पम्पे ! चम्पे ! गोमति ! पद्मावति ! त्रिपर्णाशे ! विपाशे ! विरजे ! प्रभे ! शतह्रदे! तथा चेलगङ्गे ! आपलोग इस जलमें निवास करें ।

तत्पश्चात् उस जल में तुलसी और चन्दन से अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा, विष्णु, वरुण तथा शिव – इन छः देवताओं की पूजा करे। फिर उस जल से समस्त नैवेद्यों का प्रोक्षण करे। इसके बाद एक-एक करके सोलह उपचार समर्पित करे। आसन, वसन, पाद्य, स्नानीय, अनुलेपन, मधुपर्क, गन्ध, अर्घ्य, पुष्प, अभीष्ट नैवेद्य, आचमनीय, ताम्बूल, रत्नमय भूषण, धूप, दीप और शय्या – ये सोलह उपचार हैं ।

(आसन)
अमूल्यरत्नसंक्लृप्तं नानाचित्र विराजितम् ।
वरं सिंहासनं श्रेष्ठं गृह्यतां शङ्करप्रिये ॥ ६५ ॥
शंकरप्रिये ! अमूल्य रत्नों द्वारा निर्मित तथा नाना प्रकार के चित्रों द्वारा शोभित श्रेष्ठ सिंहासन ग्रहण करो।
(वस्त्र)
अनन्तसूत्रप्रभवमीश्वरेच्छाविनिर्मितम् ।
ज्वलदग्निविशुद्धं च वसनं गृह्यतां शिवे ॥ ६६ ॥
शिवे ! असंख्य सूत्रों से बने हुए तथा ईश्वर की इच्छा से निर्मित प्रज्वलित अग्नि द्वारा शुद्ध किया हुआ दिव्य वस्त्र स्वीकार करो ।
(पाद्य)
अमूल्यरत्नपात्रस्थं निर्मलं जाह्नवीजलम् ।
पादप्रक्षालनार्थाय दुर्गे देवि प्रगृह्यताम् ॥ ६७ ॥
दुर्गे ! बहुमूल्य रत्नमय पात्र में रखे हुए निर्मल गङ्गाजल को पैर धोने के लिये पाद्य के रूप में ग्रहण करो।
(स्नानीय)
सुगन्धामलकीस्निग्धद्रवमेतत्सुदुर्लभम् ।
सुपक्वं विष्णुतैलं च गृह्यतां परमेश्वरि ॥ ६८ ॥
परमेश्वरि ! सुगन्धित आँवले का स्निग्ध द्रव और परम दुर्लभ सुपक्व विष्णुतैल स्नानीय सामग्री के रूप में प्रस्तुत है । इसे स्वीकार करो।
(अनुलेपन)
कस्तूरीकुंकुमाक्तं च सुगन्धि द्रुतचन्दनम् ।
सुवासितं जगन्मातर्गृह्यतामनुलेपनम् ॥ ६९ ॥
जगदम्ब ! कस्तूरी और कुङ्कुम से मिश्रित सुगन्धित चन्दनद्रव सुवासित अनुलेपन के रूप में समर्पित है। इसे ग्रहण करो ।
( मधुपर्क)
माध्वीकं रत्नपात्रस्थं सुपवित्रं सुमङ्गलम् ।
मधुपर्कं महादेवि गृह्यतां प्रीतिपूर्वकम् ॥ ७० ॥
महादेवि ! रत्नपात्र में स्थित परम पवित्र एवं परम मङ्गलमय माध्वीक मधुपर्क के रूप में प्रस्तुत है । इसे प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करो ।
( गन्ध)
सुगन्धमूलचूर्णं च सुगन्धद्रव्यसंयुतम् ।
सुपवित्रं मङ्गलार्हं देवि गन्धं गृहाण मे ॥ ७१ ॥
देवि ! विभिन्न वृक्षों के मूल का चूर्ण गन्ध द्रव्य से युक्त हो परम पवित्र एवं मङ्गलोपयोगी गन्ध के रूप में समर्पित है। इसे ग्रहण करो ।
( अर्घ्य )
पवित्रं शंखपात्रस्थं दूर्वापुष्पाक्षतान्वितम् ।
स्वर्गमन्दाकिनीतोयमर्घ्यं चण्डि गृहाण मे ॥ ७२ ॥
चण्डिके ! पवित्र शङ्खपात्र में स्थित स्वर्ग-गङ्गा का जल दूर्वा, पुष्प और अक्षत से युक्त अर्घ्य के रूप में अर्पित है । इसे स्वीकार करो।
(पुष्प)
सुगन्धि पुष्पश्रेष्ठं च पारिजाततरूद्भवम् ।
नानापुष्पादिमाल्यानि गृह्यन्तां जगदम्बिके ॥ ७३ ॥
जगदम्बिके! पारिजात-वृक्ष से उत्पन्न सुगन्धित श्रेष्ठ पुष्प और मालती आदि फूलों की माला ग्रहण करो ।
( नैवेद्य)
दिव्यं सिद्धान्नमामान्नं पिष्टकं पायसादिकम् ।
मिष्टान्नं लड्डुकफलं नैवेद्यं गृह्यतां शिवे ॥ ७४ ॥
शिवे ! दिव्य सिद्धान्न, आमान्न, पीठा, खीर आदि, लड्डू और दूसरे – दूसरे मिष्टान्न तथा सामयिक फल नैवेद्य के रूप में प्रस्तुत हैं । इन्हें स्वीकार करो ।
( आचमनीय)
सुवासितं शीततोयं कर्पूरादिसुसंस्कृतम् ।
मया निवेदितं भक्त्या गृह्यतां शैलकन्यके ॥ ७५ ॥
गिरिराजनन्दिनि ! मैंने भक्तिभाव से आचमनीय के रूप में कर्पूर आदि से सुसंस्कृत एवं सुवासित शीतल जल अर्पित किया है । इसे ग्रहण करो।
(ताम्बूल)
गुवाकपर्णचूर्णं च कर्पूरादिसुवासितम् ।
सर्वभोगकरं रम्यं ताम्बूलं देवि गृह्यताम् ॥ ७६ ॥
देवि ! सुपारी, पान और चूना को एकत्र करके उसे कर्पूर आदि से सुवासित किया है । वही यह समस्त भोगों में श्रेष्ठ रमणीय ताम्बूल है । इसे स्वीकार करो ।
( रत्नमय भूषण)
अमूल्यरत्नसारैश्च खचितं चेश्वरेच्छया ।
सर्वाङ्गशोभनकरं भूषणं देवि गृह्यताम् ॥ ७७ ॥
देवि ! अत्यन्त मूल्यवान् रत्नों के सार-भाग के द्वारा ईश्वरेच्छा से निर्मित तथा सम्पूर्ण अङ्गों को शोभासम्पन्न बनाने वाला रत्नमय आभूषण ग्रहण करो।
(धूप)
तरुनिर्य्यासचूर्णं च गन्धवस्तुसमन्वितम् ।
हुताशमशिखाशुद्धं धूपं देवि च गृह्यताम् ॥ ७८ ॥
देवि ! वृक्ष की गोद के चूर्ण को सुगन्धित वस्तुओं से मिश्रित करके अग्नि की शिखा से शुद्ध किया गया है। इस धूप को स्वीकार करो।
(दीप)
दिव्यरत्नविशेषं च सान्द्रध्वान्तनिवारकम् ।
सुपवित्रं प्रदीपं च गृह्यतां परमेश्वरि ॥ ७९ ॥
परमेश्वरि ! घने अन्धकार को दूर करने वाला यह परम पवित्र दीप दिव्य रत्नविशेष है। इसे ग्रहण करो ।
( शय्या)
रत्नसारगणाकीर्णं दिव्यं पर्य्यङ्कमुत्तमम् ।
सूक्ष्मवस्त्रैश्च संस्यूतं देवि तल्पं प्रगृह्यताम् ॥ ८० ॥
देवि ! यह उत्तम दिव्य पर्यङ्क रत्नों के सारभाग से निर्मित हुआ है । इस पर गद्दा है और वह महीन वस्त्र की चादर से ढका हुआ है। तुम इस शय्या को स्वीकार करो ।

मुने! इस प्रकार दुर्गादेवी का पूजन करके उन्हें पुष्पाञ्जलि चढ़ावे । तदनन्तर देवी की सहचरी आठ नायिकाओं का यत्नतः पूजन करे। उनके नाम इस प्रकार हैं- उग्रचण्डा, प्रचण्डा, चण्डोग्रा, चण्डनायिका, अतिचण्डा, चामुण्डा, चण्डा और चडवती । अष्टदल कमल पर पूर्व आदि दिशा के क्रम से इनकी स्थापना करके पञ्चोपचारों द्वारा पूजन करे।

दलों के मध्यभाग में भैरवों का पूजन करना चाहिये। उनके नाम इस प्रकार हैं — महाभैरव, संहारभैरव, असिताङ्गभैरव, रुरुभैरव, कालभैरव, क्रोधभैरव, ताम्रचूडभैरव तथा चन्द्रचूडभैरव । इन सबकी पूजा करके बीच की कर्णिका में नौ शक्तियों का पूजन करे । क्रम यह है कि कमल के आठ दलों में आठ शक्तियों की और बीच की कर्णिका में नवीं शक्ति की स्थापना करे। इस तरह इन सबका भक्तिपूर्वक पूजन करना चाहिये । इन शक्तियों के नाम यों हैं — ब्रह्माणी, वैष्णवी, रौद्री माहेश्वरी, नारसिंही, वाराही, इन्द्राणी तथा कार्तिकी (कौमारी) । इनके अतिरिक्त नवीं प्रधाना शक्ति हैं सर्वमङ्गला, जो सर्वशक्तिस्वरूपा हैं ।

इन नौ शक्तियों का पूजन करने के पश्चात् कलश में देवताओं का पूजन करे । शंकर, कार्तिकेय, सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि, वायु, वरुण, देवीकी चेटी, वटु तथा चौंसठ योगिनी – इन सबका विधिवत् पूजन करके यथाशक्ति भेंट-उपहार अर्पित करके विद्वान् पुरुष स्तुति करे । कवच को भक्तिपूर्वक पढ़कर उसे गले में बाँध ले । फिर परिहार नामक स्तुति करके विद्वान् पुरुष देवी को नमस्कार करे । इस प्रकार उपहार दे स्तुति करके कवच बाँधकर विद्वान् पुरुष धरती पर माथा टेक दण्डवत् प्रणाम करे और ब्राह्मण को दक्षिणा दे ।   (अध्याय ६४ )

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे दुर्गोपाख्याने पूजाविधिबलिपशुलक्षणविशेषो नाम चतुष्षष्टितमोऽध्यायः ॥ ६४ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

Content is available only for registered users. Please login or register

Please follow and like us:
Pin Share

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.