ब्रह्मवैवर्तपुराण – प्रकृतिखण्ड – अध्याय 65
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
पैंसठवाँ अध्याय
देवी के बोधन, आवाहन, पूजन और विसर्जन के नक्षत्र, इन सबकी महिमा, राजा को देवी का दर्शन एवं उत्तम ज्ञान का उपदेश देना

नारदजी ने पूछा — महाभाग ! आपने जो कुछ कहा है, वह अमृतरस से भी बढ़कर मधुर और उत्तम है। उसे पूर्णरूप से मैंने सुन लिया । प्रभो ! अब भली-भाँति यह बताइये कि देवी का स्तोत्र और कवच क्या है ? तथा उनके पूजन से किस फल की प्राप्ति होती है ?

नारायण ने कहा — आर्द्रा नक्षत्र में देवी को जगावे और मूल नक्षत्र में उनका प्रतिमा में प्रवेश या आवाहन करे । फिर उत्तराषाढ़ नक्षत्र में पूजा करके श्रवण नक्षत्र में देवी का विसर्जन करे । आर्द्रायुक्त नवमी तिथि में देवी को जगाकर जो पूजा की जाती है, उस एक बार की पूजा से मनुष्य सौ वर्षों तक की हुई पूजा का फल पा लेता है। मूल नक्षत्र में देवी का प्रवेश होने पर यज्ञ का फल प्राप्त होता है। उत्तराषाढ़ में पूजन करने पर वाजपेय-यज्ञ के फल की प्राप्ति होती है। श्रवण नक्षत्र में देवी का विसर्जन करके मनुष्य लक्ष्मी तथा पुत्र-पौत्रों को पाता है, इसमें संशय नहीं है । देवी की पूजा से मनुष्य को पृथ्वी की परिक्रमा का पुण्य प्राप्त होता है।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

यदि तिथि के साथ आर्द्रा नक्षत्र का योग न मिले तो केवल नवमी में पार्वती का बोधन करके मनुष्य एक पक्ष तक पूजन करे तो उसे अश्वमेधयज्ञ का फल प्राप्त होता है। उस दशा में नवमी को पूजन करके दशमी को विसर्जन कर दे। सप्तमी को पूजन करके विद्वान् पुरुष बलि अर्पण करे, अष्टमी को बलिरहित पूजन उत्तम माना गया है । अष्टमी को बलि देने से मनुष्यों पर विपत्ति आती है। विद्वान् पुरुष नवमी तिथि को भक्तिभाव से विधिवत् बलि दे । विप्रवर ! उस बलि से मनुष्यों पर दुर्गाजी प्रसन्न होती हैं । परंतु यह बलि हिंसात्मक नहीं होनी चाहिये; क्योंकि हिंसा से मनुष्य पाप का भागी होता है, इसमें संशय नहीं । जो जिसका वध करता है, वह मारा गया प्राणी भी जन्मान्तर में उस मारनेवाले का वध करता है – यह वेद की वाणी है। (हिंसाजन्यं च पापं च लभते नात्र संशयः ॥ यो यं हन्ति स तं हन्ति चेति वेदोक्तमेव च ।) इसीलिये वैष्णवजन वैष्णवी (हिंसारहित) पूजा करते हैं ।

इस प्रकार पूरे वर्ष तक भक्तिभाव से पूजन करके गले में कवच बाँधकर राजा ने परमेश्वरी का स्तवन किया। उनके द्वारा किये गये स्तवन से संतुष्ट हुई देवी ने उन्हें साक्षात् दर्शन दिये। उन्होंने सामने देवी को देखा, वे ग्रीष्म ऋतु के सूर्य की भाँति देदीप्यमान थीं। वे तेजः स्वरूपा, सगुणा एवं निर्गुणा परादेवी तेजोमण्डल के मध्यभाग में स्थित हो अत्यन्त कमनीय जान पड़ती थीं। भक्तों पर अनुग्रह के लिये कातर हुई उन कृपारूपा स्वेच्छामयी देवी को देखकर राजेन्द्र सुरथ ने भक्ति से गर्दन नीची करके  पुनः उनकी स्तुति की। उस स्तुति से संतुष्ट हो जगदम्बा ने मन्द मुस्कराहट के साथ राजेन्द्र को सम्बोधित करके कृपापूर्वक यह सत्य बात कही।

प्रकृति बोली — राजन् ! तुम साक्षात् मुझको पाकर उत्तम वैभव माँग रहे हो। इस समय तुम्हें यही अभीष्ट है, इसलिये मैं वैभव ही दे रही हूँ । महाराज ! तुम अपने समस्त शत्रुओं को जीतकर निष्कण्टक राज्य पाओ। फिर दूसरे जन्म में तुम सावर्णि नामक आठवें मनु होओगे। नरेश्वर ! मैं परिणाम में (अन्ततोगत्वा) तुम्हें ज्ञान दूँगी। साथ ही परमात्मा श्रीकृष्ण में भक्ति एवं दास्यभाव
प्रदान करूँगी। जो मन्दबुद्धि मानव साक्षात् मुझको पाकर वैभव की याचना करता है, वह माया से ठगा गया है; इसलिये विष खाता है और अमृत का त्याग करता है।

ब्रह्मा आदि से लेकर कीटपर्यन्त सारा जगत् नश्वर ही है, केवल निर्गुण परब्रह्म श्रीकृष्ण ही नित्य सत्य हैं । ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदिकी आदिजननी परात्परा प्रकृति मैं ही हूँ। मैं सगुणा, निर्गुणा, श्रेष्ठा, सदा स्वेच्छामयी, नित्यानित्या, सर्वरूपा, सर्वकारणकारणा और सबकी बीजरूपा मूलप्रकृति ईश्वरी हूँ । रमणीय गोलोक में पुण्यमय वृन्दावन के भीतर रासमण्डल में परमात्मा श्रीकृष्ण की प्राणाधिका राधा मैं ही हूँ। मैं ही दुर्गा, विष्णुमाया तथा बुद्धिकी अधिष्ठात्री देवी हूँ। वैकुण्ठ में मैं ही लक्ष्मी और साक्षात् सरस्वती देवी हूँ । ब्रह्मलोक में मुझे ही ब्रह्माणी तथा वेदमाता सावित्री कहते हैं । मैं ही गङ्गा, तुलसी तथा सबकी आधारभूता वसुन्धरा हूँ । नरेश्वर ! मैंने अपनी कला से नाना प्रकारके रूप धारण किये हैं । मायाद्वारा सम्पूर्ण स्त्रियोंके रूपमें मेरा ही प्रादुर्भाव हुआ है । परम पुरुष परमात्मा श्रीकृष्ण ने अपनी भ्रूभङ्गलीला से मेरी सृष्टि की है। उन्हीं पुरुषोत्तम ने अपनी भ्रूभङ्गलीला से उस महान् विराट् की भी सृष्टि की है, जिसके रोमकूपों में सदैव असंख्य विश्व-ब्रह्माण्ड निवास करते हैं । वे सब-के-सब कृत्रिम हैं, तथापि माया से सब लोग उन अनित्य लोकों में भी सदा नित्यबुद्धि करते हैं । सातों द्वीपों और समुद्रों से युक्त पृथ्वी, नीचे के सात पाताल और ऊपर के सात स्वर्ग-इन सबको मिलाकर एक विश्व-ब्रह्माण्ड कहा गया है, जिसकी रचना ब्रह्माद्वारा हुई है ।

इस तरह के जो असंख्य ब्रह्माण्ड हैं, उन सबमें पृथक् पृथक् ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि विद्यमान हैं। उन सबके ईश्वर श्रीकृष्ण हैं । यही परात्पर ज्ञान है। वेदों, व्रतों, तीर्थों, तपस्याओं, देवताओं और पुण्यों का जो सारतत्त्व है, वह श्रीकृष्ण है । श्रीकृष्ण-भक्ति से हीन जो मूढ़ मनुष्य है, वह निश्चय ही जीते-जी मृतक के समान है। श्रीकृष्ण-भक्तों को छूकर बहनेवाली वायु का स्पर्श पाकर सारे तीर्थ पवित्र हो गये हैं । श्रीकृष्ण – मन्त्रों का उपासक ही जीवन्मुक्त माना गया है। जप, तप, तीर्थ और पूजा के बिना केवल मन्त्रग्रहण मात्र से नर नारायण हो जाता है। श्रीकृष्ण-भक्त अपने नाना और उनके ऊपर की सौ पीढ़ियों का तथा पिता से लेकर ऊपर की एक सहस्र पीढ़ियों का उद्धार करके गोलोक में जाता है। नरेश्वर ! यह सारभूत ज्ञान मैंने तुम्हें बताया है। सावर्णिक मन्वन्तर के अन्त में जब तुम्हारे सारे दोष समाप्त हो जायँगे, उस समय मैं तुम्हें श्रीहरि की भक्ति प्रदान करूँगी । कर्मों का फल भोगे बिना उनका सैकड़ों करोड़ कल्पों में भी क्षय नहीं होता है । अपने किये हुए शुभ या अशुभ कर्म का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है।

मैं जिसपर अनुग्रह करती हूँ, उसे परमात्मा श्रीकृष्ण के प्रति निर्मल, निश्चल एवं सुदृढ़ भक्ति प्रदान करती हूँ और जिन्हें ठगना चाहती हूँ; उन्हें प्रातः कालिक स्वप्न के समान मिथ्या एवं भ्रमरूपिणी सम्पत्ति प्रदान करती हूँ । बेटा! मैंने तुम्हें यह ज्ञान की बात बतायी है। अब तुम सुखपूर्वक जाओ ।

ऐसा कहकर महादेवी वहीं अन्तर्धान हो गयीं। राज्यप्राप्ति का वरदान पाकर राजा देवी को नमस्कार करके अपने घर को चले गये । वत्स नारद ! इस प्रकार मैंने तुम्हें दुर्गाजी का परम उत्तम उपाख्यान सुनाया है । (अध्याय ६५)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे दुर्गोपाख्याने प्रकृतिसुरथसंवादे ज्ञानकथनं नाम पञ्चषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६५ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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