ब्रह्मवैवर्तपुराण – प्रकृतिखण्ड – अध्याय 09
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
नौवाँ अध्याय
पृथ्वी के प्रति शास्त्र विपरीत व्यवहार करने पर नरकों की प्राप्ति का वर्णन

नारदजी बोले — भगवन्! पृथ्वी का दान करने से जो पुण्य तथा उसे छीनने, दूसरे की भूमि का हरण करने, अम्बुवाची में पृथ्वी का उपयोग करने, भूमि पर वीर्य गिराने तथा जमीन पर दीपक रखने से जो पाप बनता है, उसे मैं सुनना चाहता हूँ। वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ प्रभो ! मेरे पूछने के अतिरिक्त अन्य भी जो पृथ्वीजन्य पाप हैं, उन को उन के प्रतीकार सहित बताने की कृपा करें।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय


भगवान् नारायण बोले — मुने ! जो पुरुष भारतवर्ष में किसी संध्यापूत ब्राह्मण को एक बित्ता भी भूमि दान करता है, वह भगवान् विष्णु के धाम में जाता है। फसलों से भरी-पूरी भूमि को ब्राह्मण के लिये अर्पण करने वाला सत्पुरुष उतने ही वर्षों तक भगवान् विष्णु के धाम में विराजता है, जितने उस जमीन के रजःकण हों। जो गाँव, भूमि और धान्य ब्राह्मण को देता है, उस के पुण्य से दाता और प्रतिगृहीता — दोनों व्यक्ति सम्पूर्ण पापों से छूटकर वैकुण्ठधाम में स्थान पाते हैं । जो साधु पुरुष भूमिदान के लिये दाता को उत्साहित करता है, उसे अपने मित्र एवं गोत्र के साथ वैकुण्ठ में जाने का सौभाग्य प्राप्त होता है ।

अपनी अथवा दूसरे की दी हुई ब्राह्मण की भूमि हरण करने वाला व्यक्ति सूर्य एवं चन्द्रमा की स्थिति पर्यन्त ‘कालसूत्र’ नामक नरक में स्थान पाता है। इतना ही नहीं, इस पाप के प्रभाव से उसके पुत्र और पौत्र आदि के पास भी पृथ्वी नहीं ठहरती । वह श्रीहीन, पुत्रहीन और दरिद्र होकर घोर रौरव नरक में गिरता है। जो गोचरभूमि को जोतकर धान्य उपार्जन करता है और वही धान्य ब्राह्मण को देता है तो इस निन्दित कर्म के प्रभाव से उसे देवताओं के वर्ष से सौ वर्ष तक ‘कुम्भीपाक’ नामक नरक में रहना पड़ता है। गौओं के रहने के स्थान, तड़ाग तथा रास्ते को जोतकर पैदा किये हुए अन्न का दान करने वाला मानव चौदह इन्द्र की आयु तक ‘असिपत्र’ नामक नरक में रहता है। जो कामान्ध व्यक्ति एकान्त में पृथ्वी पर वीर्य गिराता है, उसे वहाँ की जमीन में जितने रजःकण हैं, उतने वर्षों तक ‘रौरव’ नरक में रहना पड़ता है । अम्बुवाची में भूमि खोदने वाला मानव ‘कृमिदंश’ नामक नरक में जाता और उसे वहाँ चार युगों तक रहना पड़ता है। जो दूसरे के तड़ाग में पड़ी हुई कीचड़ को निकालकर शुद्ध जल होने पर स्नान करता है, उसे ब्रह्मलोक में स्थान मिलता है। जो मन्दबुद्धि मानव भूमिपति के पितरों को श्राद्ध में पिण्ड न देकर श्राद्ध करता है, उसे अवश्य ही नरकगामी होना पड़ता है।

दीपक, शिवलिङ्ग, भगवती की मूर्ति, शङ्ख, यन्त्र, शालग्राम का जल, फूल, तुलसीदल, जपमाला, पुष्पमाला, कपूर, गोरोचन, चन्दन की लकड़ी, रुद्राक्ष की माला, कुश की जड़, पुस्तक और यज्ञोपवीत — इन वस्तुओं को भूमि पर रखने से मानव नरक में वास करता है । गाँठ में बँधे हुए यज्ञसूत्र की पूजा करना सभी द्विजातिवर्णों के लिये अत्यावश्यक है । भूकम्प एवं ग्रहण के अवसर पर पृथ्वी को खोदने से बड़ा पाप लगता है। इस मर्यादा का उल्लङ्घन करने से दूसरे जन्म में अङ्गहीन होना पड़ता है।

इस पर सबके भवन बने हैं, इसलिये यह ‘भूमि’ कहलाती है । कश्यप की पुत्री होने से काश्यपी’ तथा स्थिररूप होने से ‘स्थिरा’ कही जाती है। महामुने! विश्व को धारण करने से ‘विश्वम्भरा’, अनन्तरूप होने से ‘अनन्ता’ तथा पृथु की कन्या होने से अथवा सर्वत्र फैली रहने से इसका नाम ‘पृथ्वी’ पड़ा है। (अध्याय ९ )

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे नारदनाराणयसंवादे पृथिव्युपाख्यानं नाम नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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