January 24, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण – प्रकृतिखण्ड – अध्याय 01 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ पहला अध्याय पञ्चदेवीरूपा प्रकृति का तथा उनके अंश, कला एवं कलांश का विशद वर्णन भगवान् नारायण कहते हैं — नारद ! गणेशजननी दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती, सावित्री और राधा – ये पाँच देवियाँ प्रकृति कहलाती हैं । इन्हीं पर सृष्टि निर्भर है । नारदजी ने पूछा — ज्ञानियों में प्रमुख स्थान प्राप्त करने वाले साधो ! वह प्रकृति कहाँ से प्रकट हुई है, उसका कैसा स्वरूप है, कैसे लक्षण हैं तथा क्यों वह पाँच प्रकार की हो गयी ? उन समस्त देवियों के चरित्र, उनके पूजा के विधान, उनके गुण और वे किसके यहाँ कैसे प्रकट हुईं – ये सभी प्रसङ्ग आप मुझे बताने की कृपा करें। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भगवान् नारायण ने कहा — वत्स! ‘प्र’ का अर्थ है ‘प्रकृष्ट’ और ‘कृति’ से सृष्टि के अर्थ का बोध होता है, अतः सृष्टि करने में जो प्रकृष्ट (परम प्रवीण) है, उसे देवी ‘प्रकृति’ कहते हैं । सर्वोत्तम सत्त्वगुण के अर्थ में ‘प्र’ शब्द, मध्यम रजोगुण के अर्थ में ‘कृ’ शब्द और तमोगुण के अर्थ में ‘ति’ शब्द है। जो त्रिगुणात्मकस्वरूपा है, वही सर्वशक्ति से सम्पन्न होकर सृष्टि विषयक कार्य में प्रधान है, इसलिये ‘प्रधान’ या ‘प्रकृति’ कहलाती है। ‘प्र’ प्रथम अर्थ में और ‘कृति’ सृष्टि-अर्थ में है। अतः जो देवी सृष्टि की आदिकारणरूपा है, उसे प्रकृति कहते हैं । सृष्टि के अवसर पर परब्रह्म परमात्मा स्वयं दो रूपों में प्रकट हुए — प्रकृति और पुरुष । उनका आधा दाहिना अङ्ग ‘पुरुष’ और आधा बायाँ अङ्ग ‘प्रकृति’ हुआ। वही प्रकृति ब्रह्मस्वरूपा, नित्या और सनातनी माया है। जैसे परमात्मा हैं, वैसी उनकी शक्तिस्वरूपा प्रकृति है अर्थात् परब्रह्म परमात्मा के सभी अनुरूप गुण इन प्रकृति में निहित हैं, जैसे अग्नि में दाहिका शक्ति सदा रहती है । इसी से परम योगी पुरुष स्त्री और पुरुष भेद नहीं मानते हैं। नारद! वे सबको ब्रह्ममय देखते हैं। भगवान् श्रीकृष्ण स्वेच्छामय, सर्वतन्त्र – स्वतन्त्र परम पुरुष हैं। उनके मन में सृष्टि की इच्छा उत्पन्न होते ही सहसा ‘मूल प्रकृति’ परमेश्वरी प्रकट हो गयीं । तदनन्तर परमेश्वर की आज्ञा के अनुसार सृष्टि रचना के लिये इनके पाँच रूप हो गये । भगवती प्रकृति भक्तों के अनुरोध से अथवा उन पर कृपा करने के लिये विविध रूप धारण करती हैं। जो गणेश की माता ‘भगवती दुर्गा’ हैं, उन्हें ‘शिवस्वरूपा’ कहा जाता है। ये भगवान् शंकर की प्रेयसी भार्या हैं । नारायणी, विष्णुमाया और पूर्ण ब्रह्मस्वरूपिणी नाम से ये प्रसिद्ध हैं । ब्रह्मादि देवता, मुनिगण तथा मनु प्रभृति — सभी इनकी पूजा करते हैं । ये सबकी अधिष्ठात्री देवी हैं, सनातन ब्रह्मस्वरूपा हैं । यश, मङ्गल, धर्म, श्री, सुख, मोक्ष और हर्ष प्रदान करना इनका स्वाभाविक गुण है । दुःख, शोक और उद्वेग को ये दूर कर देती हैं। शरण में आये हुए दीनों एवं पीड़ितों की रक्षा में सदा संलग्न रहती हैं। ये तेजः स्वरूपा हैं । इनका विग्रह परम तेजस्वी है । इन्हें तेज की अधिष्ठात्री देवी कहा जाता है । ये सर्वशक्तिस्वरूपा हैं और भगवान् शंकर को निरन्तर शक्तिशाली बनाये रखती हैं। सिद्धेश्वरी, सिद्धिरूपा, सिद्धिदा, सिद्धिदाताओं की ईश्वरी, बुद्धि, निद्रा, क्षुधा, पिपासा, छाया, तन्द्रा, दया, स्मृति, जाति, क्षान्ति, शान्ति, कान्ति, भ्रान्ति, चेतना, तुष्टि, पुष्टि, लक्ष्मी, वृत्ति और माता — ये सब इनके नाम हैं। श्रीकृष्ण परब्रह्म परमात्मा हैं। उनके समीप सर्वशक्तिरूप से ये विराजती हैं। श्रुति में इनके सुविख्यात गुण का अत्यन्त संक्षेप में वर्णन किया गया है, जैसा कि आगमों में उपलब्ध होता है। ये अनन्ता हैं । अतएव इनमें गुण भी अनन्त हैं। अब इनके दूसरे रूप का वर्णन करता हूँ, सुनो। जो परम शुद्ध सत्त्वस्वरूपा हैं, उन्हें ‘भगवती लक्ष्मी’ कहा जाता है । परम प्रभु श्रीहरि की वे शक्ति कहलाती हैं । अखिल जगत् की सारी सम्पत्तियाँ उनके स्वरूप हैं। उन्हें सम्पत्ति की अधिष्ठात्री देवी माना जाता है । वे परम सुन्दरी, अनुपम संयमरूपा, शान्तस्वरूपा श्रेष्ठ स्वभाव से सम्पन्न तथा समस्त मङ्गलों की प्रतिमा हैं । लोभ, मोह, काम, क्रोध, मद और अहंकार आदि दुर्गुणों से वे सहज ही रहित हैं। भक्तों पर अनुग्रह करना तथा अपने स्वामी श्रीहरि से प्रेम करना उनका स्वभाव है । वे सबकी आदिकारणरूपा और पतिव्रता हैं । श्रीहरि प्राण के समान जानकर उनसे अत्यन्त प्रेम करते हैं । वे सदा प्रिय वचन ही बोलती हैं; कभी अप्रिय बात नहीं कहतीं; धान्य आदि सभी शस्य तथा सबके जीवन- रक्षा के उपाय उनके रूप हैं । प्राणियों का जीवन स्थिर रहे – एतदर्थ उन्होंने यह रूप धारण कर रखा है। वे परम साध्वी देवी ‘महालक्ष्मी’ नाम से विख्यात होकर वैकुण्ठ में अपने स्वामी की सेवामें सदा संलग्न रहती हैं। स्वर्ग में ‘स्वर्गलक्ष्मी’, राजाओं के यहाँ ‘राजलक्ष्मी’ तथा मर्त्यलोकवासी गृहस्थों के घर ‘गृहलक्ष्मी’ के रूप में वे विराजमान हैं । समस्त प्राणियों तथा द्रव्यों में सर्वोत्कृष्ट शोभा उन्हीं का स्वरूप है। वे परम मनोहर हैं। पुण्यात्माओं की कीर्ति उन्हीं की प्रतिमा है। वे राजाओं की प्रभा हैं । व्यापारियों के यहाँ वे वाणिज्यरूप से विराजती हैं। पापीजन जो कलह आदि अशिष्ट व्यवहार करते हैं, उनमें भी इन्हीं की शक्ति है । वे दयामयी हैं, भक्तों की माता हैं और उन भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये सदा व्याकुल रहती हैं। इस प्रकार दूसरी शक्ति (या प्रकृति) – का परिचय दिया गया। उनका वेदों में वर्णन है तथा सबने उनका सम्मान किया है। सब लोग उनकी आराधना और वन्दना करते हैं । नारद! अब मैं अन्य प्रकृतिदेवी का परिचय देता हूँ, सुनो। परब्रह्म परमात्मा से सम्बन्ध रखने वाली वाणी, बुद्धि, विद्या और ज्ञान की जो अधिष्ठात्री देवी हैं, उन्हें ‘सरस्वती’ कहा जाता है । सम्पूर्ण विद्याएँ उन्हीं के स्वरूप हैं। मनुष्यों को बुद्धि, कविता, मेधा, प्रतिभा और स्मरण शक्ति उन्हीं की कृपा से प्राप्त होती हैं। अनेक प्रकार के सिद्धान्त-भेदों और अर्थों की कल्पनाशक्ति वे ही देती हैं। वे व्याख्या और बोधस्वरूपा हैं। उनकी कृपा से समस्त संदेह नष्ट हो जाते हैं। उन्हें विचारकारिणी और ग्रन्थकारिणी कहा जाता है । वे शक्तिस्वरूपा हैं । सम्पूर्ण संगीत की सन्धि और ताल का कारण उन्हीं का रूप है। प्रत्येक विश्व में जीवों के लिये विषय, ज्ञान और वाणीरूपा वे ही हैं । उनका एक हाथ व्याख्या (अथवा उपदेश ) – की मुद्रा में सदा उठा रहता है। वे शान्तस्वरूपा हैं तथा हाथ में वीणा और पुस्तक लिये रहती हैं। उनका विग्रह शुद्धसत्त्वमय है । वे सदाचारपरायण तथा भगवान् श्रीहरि की प्रिया हैं। हिम, चन्दन, कुन्द, चन्द्रमा, कुमुद और कमल के समान उनकी कान्ति है । वे रत्न ( स्फटिकमणि ) – की माला फेरती हुई भगवान् श्रीकृष्ण के नामों का जप करती हैं। उनकी मूर्ति तपोमयी है। तपस्वीजनों को उनके तप का फल प्रदान करने में वे सदा तत्पर रहती हैं। सिद्धि-विद्या उनका स्वरूप है । वे सदा सम्पूर्ण सिद्धि प्रदान करती हैं। इस प्रकार तृतीया देवी (प्रकृति) श्रीजगदम्बा सरस्वती का शास्त्र के अनुसार किञ्चित् वर्णन किया गया। अब चौथी प्रकृति का परिचय सुनो। नारद! वे चारों वेदों की माता हैं। छन्द और वेदाङ्ग भी उन्हीं से उत्पन्न हुए हैं। संध्या-वन्दन के मन्त्र और तन्त्रों की जननी भी वे ही हैं। द्विजातिवर्णों के लिये उन्होंने अपना यह रूप धारण किया है। वे जगद्रूपा, तपस्विनी, ब्रह्मतेज से सम्पन्न तथा सबका संस्कार करने वाली हैं। उन पवित्र रूप धारण करने वाली देवी को ‘सावित्री’ अथवा ‘गायत्री’ कहते हैं । वे ब्रह्मा की परम प्रिय शक्ति हैं । तीर्थ अपनी शुद्धि के लिये उनके स्पर्श की कामना करते हैं । शुद्ध स्फटिकमणि के समान उनकी स्वच्छ कान्ति है । वे शुद्ध सत्त्वमय विग्रह से शोभा पाती हैं। उनका रूप परम आनन्दमय है। उनका सर्वोत्कृष्ट रूप सदा बना रहता है। वे परब्रह्मस्वरूपा हैं । मोक्ष प्रदान करना उनका स्वाभाविक गुण है । वे ब्रह्मतेज से सम्पन्न परमशक्ति हैं। उन्हें शक्ति की अधिष्ठात्री माना जाता है। नारद! उनके चरण की धूलि सम्पूर्ण जगत् को पवित्र कर देती है । नारद! इन चौथी देवी का प्रसंग सुना चुका । अब तुम्हें पाँचवीं देवी का परिचय देता हूँ । ये प्रेम और प्राणों की अधिदेवी तथा पञ्चप्राणस्वरूपिणी हैं। परमात्मा श्रीकृष्ण को प्राणों से भी बढ़कर प्रिय हैं। सम्पूर्ण देवियों में अग्रगण्य हैं, सबकी अपेक्षा इनमें सुन्दरता अधिक है। इनमें सभी सद्गुण सदा विद्यमान हैं । ये परम सौभाग्यवती और मानिनी हैं। इन्हें अनुपम गौरव प्राप्त है। परब्रह्म का वामार्द्धाङ्ग ही इनका स्वरूप है। ये ब्रह्म के समान ही गुण और तेज से सम्पन्न हैं । इन्हें परावरा, सारभूता, परमाद्या, सनातनी, परमानन्दरूपा, धन्या, मान्या और पूज्या कहा जाता है। ये नित्यनिकुञ्जेश्वरी, रासक्रीड़ा की अधिष्ठात्री देवी हैं। परमात्मा श्रीकृष्ण के रासमण्डल में इनका आविर्भाव हुआ है। इनके विराजने से रासमण्डल की विचित्र शोभा होती है । गोलोकधाम में रहने वाली ये देवी ‘रासेश्वरी’ एवं ‘सुरसिका’ नाम से प्रसिद्ध हैं । रासमण्डल में पधारे रहना इन्हें बहुत प्रिय है। ये गोपी के वेष में विराजती हैं। ये परम आह्लादस्वरूपिणी हैं। इनका विग्रह संतोष और हर्ष से परिपूर्ण है। ये निर्गुणा ( लौकिक त्रिगुणों से रहित स्वरूपभूत गुणवती), निर्लिप्ता (लौकिक विषयभोग से रहित), निराकारा ( पाञ्चभौतिक शरीर से रहित दिव्यचिन्मयस्वरूपा), आत्मस्वरूपिणी (श्रीकृष्ण की आत्मा) नाम से विख्यात हैं । इच्छा और अहंकार से ये रहित हैं । भक्तों पर कृपा करने के लिये ही इन्होंने अवतार धारण कर रखा है। वेदोक्त विधि के अनुसार ध्यान करने से विद्वान् पुरुष इनके रहस्य को समझ पाते हैं। सुरेन्द्र एवं मुनीन्द्र प्रभृति समस्त प्रधान देवता अपने चर्मचक्षुओं से इन्हें देखने में असमर्थ हैं। ये अग्निशुद्ध नीले रंग के दिव्य वस्त्र धारण करती हैं। अनेक प्रकार के दिव्य आभूषण इन्हें सुशोभित किये रहते हैं । इनकी कान्ति करोड़ों चन्द्रमाओं के समान प्रकाशमान है। इनका सर्वशोभासम्पन्न श्रीविग्रह सम्पूर्ण ऐश्वर्यों से सम्पन्न है । भगवान् श्रीकृष्ण के भक्तों को दास्य-रति प्रदान करने वाली एकमात्र ये ही हैं; क्योंकि सम्पूर्ण सम्पत्तियों में ये इस दास्य- सम्पत्ति को ही परम श्रेष्ठ मानती हैं। श्रीवृषभानु के घर पुत्री के रूप से ये पधारी हैं। इनके चरणकमल का संस्पर्श प्राप्त कर पृथ्वी परम पवित्र हो गयी है। मुने! जिन्हें ब्रह्मा आदि देवता नहीं देख सके, वही ये देवी भारतवर्ष में सबके दृष्टिगोचर हो रही हैं। ये स्त्री- रत्नों में साररूपा हैं। भगवान् श्रीकृष्ण के वक्षःस्थल पर इस प्रकार विराजती हैं, जैसे आकाशस्थित नवीन नील मेघों में बिजली चमक रही हो । इन्हें पाने के लिये ब्रह्मा ने साठ हजार वर्षों तक तपस्या की है। उनकी तपस्या का उद्देश्य यही था कि इनके चरणकमल के नख के दर्शन सुलभ हो जायँ, जिससे मैं परम पवित्र बन जाऊँ; परंतु स्वप्न में भी वे इन भगवती के दर्शन प्राप्त न कर सके; फिर प्रत्यक्ष की तो बात ही क्या है । उसी तप के प्रभाव से ये देवी वृन्दावन में प्रकट हुई हैं – धराधाम पर इनका प्राकट्य हुआ है, जहाँ ब्रह्माजी को भी इनका दर्शन प्राप्त हो सका। ये ही पाँचवीं देवी ‘भगवती राधा’ के नाम से प्रसिद्ध हैं । इन प्रकृतिदेवी के अंश, कला, कलांश और कलांशांशभेद से अनेक रूप हैं। प्रत्येक विश्व में सम्पूर्ण स्त्रियाँ इन्हीं की रूप मानी जाती हैं । ये पाँच देवियाँ परिपूर्णतम कही गयी हैं । इन देवियों के जो-जो प्रधान अंश हैं, अब उनका वर्णन करता हूँ, सुनो। भूमण्डल को पवित्र करने वाली गङ्गा इनका प्रधान अंश हैं। ये सनातनी ‘गङ्गा’ जलमयी हैं। भगवान् विष्णु के विग्रह से इनका प्रादुर्भाव हुआ है। पापियों के पापमय ईंधन को भस्म करने के लिये ये प्रज्वलित अग्नि हैं । इन्हें स्पर्श करने, इनमें नहाने अथवा इनका जलपान करने से पुरुष कैवल्य-पद के अधिकारी हो जाते हैं। गोलोक-धाम में जाने के लिये ये सुखप्रद सीढ़ी के रूप में विराजमान हैं। इनका रूप परम पवित्र है । समस्त तीर्थों और नदियों में ये श्रेष्ठ मानी जाती हैं। ये भगवान् शंकर के मस्तक पर जटा में ठहरी थीं । वहाँ से निकलीं और पङ्क्तिबद्ध होकर भारतवर्ष में आ गयीं । तपस्वीजन अपनी तपस्या में सफलता प्राप्त कर सकें — एतदर्थ शीघ्र ही इनका पधारना हो गया। इनका शुद्ध एवं सत्त्वमय स्वरूप चन्द्रमा, श्वेतकमल या दूध के समान स्वच्छ है । मल और अहंकार इनमें लेशमात्र भी नहीं है। ये परम साध्वी गङ्गा भगवान् नारायण को बहुत प्रिय हैं । श्री ‘तुलसी’ को प्रकृतिदेवी का प्रधान अंश माना जाता है। ये विष्णुप्रिया हैं। विष्णु को विभूषित किये रहना इनका स्वाभाविक गुण है। भगवान् विष्णु के चरण में ये सदा विराजमान रहती हैं। मुने! तपस्या, संकल्प और पूजा आदि सभी शुभकर्म इन्हीं से शीघ्र सम्पन्न होते हैं। पुष्पों में ये मुख्य मानी जाती हैं। ये परम पवित्र एवं सदा पुण्यप्रदा हैं। अपने दर्शन और स्पर्शमात्र से ये तुरंत मनुष्यों को परमधाम के अधिकारी बना देती हैं । पापमयी सूखी लकड़ी को जलाने के लिये प्रज्वलित अग्नि के समान रूप धारण करके ये कलि में पधारी हैं। इन देवी तुलसी के चरणकमल का स्पर्श होते ही पृथ्वी परम पावन बन गयी । तीर्थ स्वयं पवित्र होने के लिये इनका दर्शन एवं स्पर्श करना चाहते हैं। इनके अभाव में अखिल जगत् के सम्पूर्ण कर्म निष्फल समझे जाते हैं। इनकी कृपा से मुमुक्षुजन मुक्त हो जाते हैं। जो जिस कामना से इनकी उपासना करते हैं, उनकी वे सारी इच्छाएँ पूर्ण हो जाती हैं। भारतवर्ष में वृक्ष रूप से पधारने वाली ये देवी कल्पवृक्ष-स्वरूपा हैं । भारतवासियों का त्राण (उद्धार एवं रक्षा) करने के लिये इनका यहाँ पधारना हुआ है। ये पूजनीयों में परम देवता हैं। प्रकृतिदेवी के एक अन्य प्रधान अंश का नाम देवी ‘जरत्कारु’ है। ये कश्यपजी की मानसपुत्री हैं; अतः ‘मनसा’ देवी कहलाती हैं। इन्हें भगवान् शंकर की प्रिय शिष्या होने का सौभाग्य प्राप्त है। ये परम विदुषी हैं। नागराज शेष की बहिन हैं। सभी नाग इनका सम्मान करते हैं । नाग की सवारी पर चलने वाली इन अनुपम सुन्दरी देवी को ‘नागेश्वरी’ और ‘नागमाता’ भी कहा जाता है। प्रधान – प्रधान नाग इनके साथ विराजमान रहते हैं । ये नागों से सुशोभित रहती हैं। नागराज इनकी स्तुति करते हैं। ये सिद्धयोगिनी हैं और नागलोक में निवास करती हैं । ये विष्णुस्वरूपिणी हैं । भगवान् विष्णु में इनकी अटल श्रद्धा-भक्ति है । ये सदा श्रीहरि की पूजा में संलग्न रहती हैं। इनका विग्रह तपोमय है । तपस्वीजनों को फल प्रदान करने में ये परम कुशल हैं। ये स्वयं भी तपस्या करती हैं । इन्होंने देवताओं के वर्ष से तीन लाख वर्ष तक भगवान् श्रीहरि की प्रसन्नता के लिये तपस्या की है । भारतवर्ष में जितने तपस्वी और तपस्विनियाँ हैं, उन सबमें ये पूज्य एवं श्रेष्ठ हैं । सर्प- सम्बन्धी मन्त्रों की ये अधिष्ठात्री देवी हैं। ब्रह्मतेज से इनका विग्रह सदा प्रकाशमान रहता है। इनको ‘परब्रह्मस्वरूपा’ कहते हैं। ये ब्रह्म के चिन्तन में सदा संलग्न रहती हैं। जरत्कारुमुनि भगवान् श्रीकृष्ण के अंश हैं। उन्हीं की ये पतिव्रता पत्नी हैं। मुनिवर आस्तीक, जो तपस्वियों में श्रेष्ठ गिने जाते हैं, ये देवी उनकी माता हैं। नारद! प्रकृतिदेवी के एक प्रधान अंश को ‘देवसेना’ कहते हैं। मातृकाओं में ये परम श्रेष्ठ मानी जाती हैं। इन्हें लोग भगवती ‘षष्ठी’ के नाम से कहते हैं। प्रत्येक लोक में शिशुओं का पालन एवं संरक्षण करना इनका प्रधान कार्य है। ये तपस्विनी, विष्णुभक्ता तथा कार्तिकेयजी की पत्नी हैं। ये साध्वी भगवती प्रकृति का छठा अंश हैं। अतएव इन्हें ‘षष्ठी’ देवी कहा जाता है । संतानोत्पत्ति के अवसर पर अभ्युदय के लिये इन षष्ठी योगिनी की पूजा होती है। अखिल जगत् में बारहों महीने लोग इनकी निरन्तर पूजा करते हैं । पुत्र उत्पन्न होने पर छठे दिन सूतिकागृह में इनकी पूजा हुआ करती है – यह प्राचीन नियम है । कल्याण चाहने वाले कुछ व्यक्ति इक्कीसवें दिन इनकी पूजा करते हैं। इनकी मातृका संज्ञा है । ये दयास्वरूपिणी हैं। निरन्तर रक्षा करने में तत्पर रहती हैं। जल, थल, आकाश, गृह — जहाँ कहीं भी बच्चों को सुरक्षित रखना इनका प्रधान उद्देश्य है । प्रकृतिदेवी का एक प्रधान अंश ‘मङ्गलचण्डी’ के नाम से विख्यात है। ये मङ्गलचण्डी प्रकृतिदेवी के मुख से प्रकट हुई हैं। इनकी कृपा से समस्त मङ्गल सुलभ हो जाते हैं। सृष्टि के समय इनका विग्रह मङ्गलमय रहता है। संहार के अवसर पर ये क्रोधमयी बन जाती हैं। इसीलिये इन देवी को पण्डितजन ‘मङ्गल-चण्डी’ कहते हैं। प्रत्येक मङ्गलवार को विश्वभर में इनकी पूजा होती है। इनके अनुग्रह से साधक पुरुष पुत्र, पौत्र, धन, सम्पत्ति, यश और कल्याण प्राप्त कर लेते हैं। प्रसन्न होने पर सम्पूर्ण स्त्रियों के समस्त मनोरथ पूर्ण कर देना इनका स्वभाव ही है। ये भगवती महेश्वरी कुपित होने पर क्षणमात्र में विश्व को नष्ट कर सकती हैं। देवी ‘काली’ को प्रकृतिदेवी का प्रधान अंश मानते हैं । इन देवी के नेत्र ऐसे हैं, मानो कमल हों । संग्राम में जब भगवती दुर्गा के सामने प्रबल राक्षस-बन्धु शुम्भ और निशुम्भ डटे थे, उस समय ये काली भगवती दुर्गा के ललाट से प्रकट हुई थीं। इन्हें दुर्गा का आधा अंश माना जाता है। गुण और तेज में ये दुर्गा के समान ही हैं। इनका परम पुष्ट विग्रह करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशमान है । सम्पूर्ण शक्तियों में ये प्रमुख हैं । इनसे बढ़कर बलवान् कोई है ही नहीं । ‘परम योगस्वरूपिणी देवी सम्पूर्ण सिद्धि प्रदान करती हैं । श्रीकृष्ण के प्रति इनमें अटूट श्रद्धा है । तेज, पराक्रम और गुण में ये श्रीकृष्ण के समान ही हैं। इनका सारा समय भगवान् श्रीकृष्ण के चिन्तन में ही व्यतीत होता है। इन सनातनी देवी के शरीर का रंग भी कृष्ण ही है। ये चाहें तो एक श्वास में समस्त ब्रह्माण्ड को नष्ट कर सकती हैं। अपने मनोरञ्जन के लिये अथवा जगत् को शिक्षा देने के विचार से ही ये संग्राम में दैत्यों के साथ युद्ध करती हैं। सुपूजित होने पर धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- सब कुछ देने में ये पूर्ण समर्थ हैं। ब्रह्मादि देवता, मुनिगण, मनु प्रभृति और मानवसमाज सब-के-सब इनकी उपासना करते हैं। भगवती ‘वसुन्धरा’ भी प्रकृतिदेवी के प्रधान अंश से प्रकट हैं । अखिल जगत् इन्हीं पर ठहरा है । सर्व-शस्य -प्रसूति का (सम्पूर्ण खेती को उत्पन्न करने वाली) कही जाती हैं। इन्हें लोग ‘रत्नाकरा’ और ‘रत्नगर्भा’ भी कहते | सम्पूर्ण रत्नों की खान इन्हीं के अंदर विराजमान है। राजा और प्रजा – सभी लोग इनकी पूजा एवं स्तुति करते हैं । सबको जीविका प्रदान करने के लिये ही इन्होंने यह रूप धारण कर रखा है। ये सम्पूर्ण सम्पत्ति का विधान करती है। ये न रहें तो सारा चराचर जगत् कहीं भी ठहर नहीं सकता । मुनिवर ! प्रकृतिदेवी की जो-जो कलाएँ हैं, उन्हें सुनो और ये जिन-जिनकी पत्नियाँ हैं, वह सब भी मैं तुम्हें बताता हूँ। देवी ‘स्वाहा’ अग्नि की पत्नी हैं। सम्पूर्ण जगत् में इनकी पूजा होती है । इनके बिना देवता अर्पित की हुई हवि पाने में असमर्थ हैं । यज्ञ की पत्नी को ‘दक्षिणा’ कहते हैं । इनका सर्वत्र सम्मान होता है। इनके न रहने पर विश्वभर के सम्पूर्ण कर्म निष्फल समझे जाते हैं । ‘स्वधा’ पितरों की पत्नी हैं। मुनि, मनु और मानव – सभी इनकी पूजा करते हैं। इनका उच्चारण न करके पितरों को वस्तु अर्पण की जाय तो वह निष्फल हो जाती है । वायु की पत्नी का नाम देवी ‘स्वस्ति’ है । प्रत्येक विश्व में इनका सत्कार होता है । इनके बिना आदान-प्रदान सभी निष्फल हो जाते हैं। ‘पुष्टि’ गणेश की पत्नी हैं । धरातल पर सभी इनको पूजते हैं। इनके बिना पुरुष और स्त्री – सभी क्षीण शक्ति-हीन हो जाते हैं । अनन्त की पत्नी का नाम ‘तुष्टि’ है । सब लोग इनकी पूजा एवं वन्दना करते हैं । इनके बिना सम्पूर्ण संसार सम्यक् प्रकार से कभी संतुष्ट हो ही नहीं सकता। ईशान की पत्नी का नाम ‘सम्पत्ति’ है । देवता और मनुष्य – सभी इनका सम्मान करते हैं । इनके न रहने पर विश्वभर की जनता दरिद्र कहलाती है । ‘धृति’ कपिलमुनि की पत्नी हैं। सब लोग सर्वत्र इनका स्वागत करते हैं । ये न रहें तो जगत् में सम्पूर्ण प्राणी धैर्य से हाथ धो बैठें। ‘क्षमा’ यम की पत्नी हैं; ये साध्वी और सुशीला हैं, सभी इनका सम्मान करते हैं; ये न हों तो सब लोग रुष्ट एवं उन्मत्त हो जायँ । सती-साध्वी ‘रति’ कामदेव की पत्नी हैं, ये क्रीड़ा की अधिष्ठात्री देवी हैं। ये न रहें तो जगत् के सब प्राणी केलि- कौतुक से शून्य हो जायँ । सती ‘मुक्ति’ को सत्य की भार्या कहा गया है। सबसे आदर पाने वाली ये देवी परम लोकप्रिय हैं। इनके बिना जगत् सर्वथा बन्धुता – शून्य हो जाता है। परम साध्वी ‘दया’ मोह की पत्नी हैं। ये पूज्य एवं जगत् प्रिय हैं । इनके अभाव में सम्पूर्ण प्राणी सर्वत्र निष्ठुर माने जाते हैं। पुण्य की सहधर्मिणी ‘प्रतिष्ठा’ हैं। ये पुण्यरूपा देवी सदा सुपूजित होती हैं। मुने ! इनके बिना सारा संसार जीते हुए ही मृतक के समान समझा जाता है। सुकर्म की पत्नी ‘कीर्ति’ हैं, जो धन्या और माननीया हैं। सबके द्वारा इनका सम्मान होता है। इनके अभाव में अखिल जगत् यशोहीन होकर मृतक के समान हो जाता है। ‘क्रिया’ उद्योग की पत्नी हैं। इन आदरणीया देवी से सब लोग सहमत हैं । नारद! इनके बिना सारा संसार उच्छिन्न-सा हो जाता है । अधर्म की पत्नी को ‘मिथ्या’ कहते हैं। सभी धूर्त इनका सत्कार करते हैं । सत्ययुग में ये बिलकुल अदृश्य थीं । त्रेतायुग में सूक्ष्म रूप धारण करके प्रकट हो गयीं । द्वापर में अपने आधे शरीर से शोभा पाने लगीं और कलियुग में तो इन ‘मिथ्या’ देवी का शरीर पूरा हृष्ट-पुष्ट हो गया है । सब जगह इनकी पहुँच होने के कारण ये बड़ी प्रगल्भता ( धृष्टता)- के साथ सर्वत्र अपना आधिपत्य जमाये रहती हैं। इनके भाई का नाम ‘कपट’ है। उसके साथ ये प्रत्येक घर में चक्कर लगाती हैं। ‘शान्ति’ और ‘लज्जा’ – ये सुशील की दो आदरणीया पत्नियाँ हैं । नारद! इनके न रहने पर सारा जगत् उन्मत्त की भाँति जीवन व्यतीत करने लगता है। ज्ञान की तीन पत्नियाँ हैं— ‘बुद्धि’, ‘मेधा’ और ‘स्मृति’ । ये साथ छोड़ दें तो समस्त संसार मूर्ख और मरे के समान हो जाय । धर्म की सहधर्मिणी का नाम ‘मूर्ति’ है । कमनीय कान्ति वाली ये देवी सबके मन को मुग्ध किये रहती हैं। इनका सहयोग न मिले तो परमात्मा निराकार ही रह जायँ और सम्पूर्ण विश्व भी निराधार हो जाय। इनके स्वरूप को अपनाकर ही साध्वी लक्ष्मी सर्वत्र शोभा पाती हैं । ‘श्री’ और ‘मूर्ति’ – दोनों इनके स्वरूप हैं। ये परम मान्य, धन्य एवं सुपूज्य हैं । निद्रा ‘कालाग्नि’ रुद्र की पत्नी का नाम है । इनको ‘योगनिद्रा’ भी कहते हैं। रात्रि में इनका सहयोग पाकर सम्पूर्ण प्राणी आच्छन्न अर्थात् नींद से व्याप्त हो जाते हैं । काल की तीन भार्याएँ हैं— ‘संध्या’, ‘रात्रि’ और ‘दिन’ । ये न रहें तो ब्रह्मा भी काल-संख्या का परिगणन नहीं कर सकते। ‘क्षुधा’ और ‘पिपासा’ – ये दो लोभ की भार्याएँ हैं । ये परम धन्य, मान्य और आदर की पात्र हैं । इन्होंने सम्पूर्ण जगत् पर अपना प्रभाव जमा रखा है। इन्हीं के कारण जगत् क्षोभयुक्त तथा चिन्तातुर होता है । ‘प्रभा’ और ‘ दाहिका’ – ये तेज की दो स्त्रियाँ हैं । इनके अभाव में जगत्स्रष्टा ब्रह्मा अपना कार्य सम्पादन करने में असमर्थ हैं । ज्वर की दो प्यारी भार्याएँ हैं— ‘ जरा’ और ‘मृत्यु’ । ये दोनों काल की पुत्रियाँ हैं। इनकी सत्ता न रहे तो ब्रह्मा के बनाये हुए जगत् की व्यवस्था ही बिगड़ जाय । निद्रा की कन्या का नाम ‘तन्द्रा’ है। यह और ‘प्रीति’ – ये दो सुख की प्रियाएँ हैं । ब्रह्मपुत्र नारद! विधि के विधानमें बना रहनेवाला यह सारा जगत् इनसे व्याप्त है । ‘श्रद्धा’ और ‘भक्ति’ – ये वैराग्य की दो परम आदरणीय पत्नियाँ हैं । मुने! इनके कृपा- प्रसाद से अखिल जगत् सदा जीवन्मुक्त हो सकता है । देवमाता अदिति‘, गौओं को उत्पन्न करने वाली ‘सुरभि’, दैत्यों की माता ‘दिति’, ‘कद्रू’, ‘विनता’ और ‘दनु’ – ये सभी देवियाँ सृष्टि का कार्य सँभालती हैं। इन्हें भगवती प्रकृति की ‘कला’ कहा जाता है। अन्य भी बहुत-सी कलाएँ हैं । कुछ कलाओं का परिचय कराता हूँ, सुनो । चन्द्रमा की पत्नी ‘रोहिणी’ और सूर्य की ‘संज्ञा’ हैं। मनु की भार्या का नाम ‘शतरूपा’ है । ‘शची’ इन्द्र की धर्मपत्नी हैं। बृहस्पति की सहधर्मिणी ‘तारा’ हैं। ‘अरुन्धती’ वसिष्ठमुनि की धर्मपत्नी हैं। ‘अहल्या’ गौतम की, ‘अनसूया’ अत्रि की, ‘देवहूति’ कर्दममुनि की और ‘प्रसूति’ दक्ष की पत्नियाँ हैं । पितरों की मानसी कन्या ‘मेनका’ पार्वती की जननी हैं। ‘लोपामुद्रा’, ‘आहूति’, कुबेर की पत्नी, वरुण की पत्नी वरुणानी, यम की पत्नी, ‘बलि की भार्या विन्ध्यावली’, ‘कुन्ती’, ‘दमयन्ती’, ‘यशोदा’, ‘सती देवकी’, ‘गान्धारी’, ‘द्रौपदी’, ‘शैव्या’, ‘सत्यवान् की पत्नी सावित्री’, ‘राधा की जननी वृषभानुप्रिया कलावती’, ‘मन्दोदरी’, ‘कौसल्या’, ‘सुभद्रा’, ‘कैकेयी’, ‘रेवती’, ‘सत्यभामा’, ‘कालिन्दी’, ‘लक्ष्मणा’, ‘जाम्बवती’, ‘नाग्नजिती’, ‘मित्रविन्दा’, ‘रुक्मिणी’, ‘सीता’ – जो स्वयं लक्ष्मी कहलाती हैं । ‘व्यास को जन्म देने वाली महासती योजनगन्धा’,’बाणपुत्री उषा’ उसकी सखी ‘चित्रलेखा’, ‘प्रभावती’, ‘भानुमती’, ‘सती मायावती’, ‘परशुरामजी की माता रेणुका’, ‘हलधर बलराम की जननी रोहिणी’ और ‘श्रीकृष्ण की परम साध्वी बहिन दुर्गास्वरूपा एकानंशा’ आदि भारतवर्ष में भगवती प्रकृति की बहुत-सी कलाएँ विख्यात हैं । जो-जो ग्राम-देवियाँ हैं, वे सभी प्रकृति की कलाएँ हैं । प्रत्येक लोक में जितनी स्त्रियाँ हैं, उन सबको प्रकृति की कला के अंश का अंश समझना चाहिये । इसीलिये स्त्रियों के अपमान से प्रकृति का अपमान माना जाता है। जो पति और पुत्रवाली साध्वी ब्राह्मणी की वस्त्र, अलंकार और चन्दन से पूजा करता है, उसके द्वारा भगवती प्रकृति की पूजा सम्पन्न होती है। जिसने ब्राह्मण की अष्टवर्षा कुमारी का वस्त्र, अलंकार एवं चन्दन आदि से अर्चन कर लिया, उसके द्वारा भगवती प्रकृति स्वयं पूजित हो गयीं । उत्तम, मध्यम और अधम- सभी स्त्रियाँ भगवती प्रकृति के अंश से उत्पन्न हैं । जो श्रेष्ठ आचरणवाली तथा पतिव्रता स्त्रियाँ हैं, इन्हें प्रकृतिदेवी का सत्त्वांश समझना चाहिये। इनको ‘उत्तम’ माना जाता है । जिन्हें भोग ही प्रिय है, वे राजस अंश से प्रकट स्त्रियाँ ‘मध्यम’ श्रेणी की कही गयी हैं। वे सुख भोग में आसक्त होकर सदा अपने कार्य में लगी रहती हैं। प्रकृतिदेवी के तामस अंश से उत्पन्न स्त्रियाँ ‘ अधम ‘ कहलाती हैं। उनके कुल का कुछ पता नहीं रहता। वे मुख से दुर्वचन बोलने वाली, कुलटा, धूर्त, स्वेच्छाचारिणी और कलहप्रिया होती हैं। भूमण्डल की कुलटाएँ, स्वर्ग की अप्सराएँ तथा व्यभिचारिणी स्त्रियाँ प्रकृति का तामस अंश कही गयी हैं । नारद! इस प्रकार प्रकृति के सम्पूर्ण रूप का वर्णन कर दिया। वे सभी देवियाँ पृथ्वी पर पुण्यक्षेत्र भारत में पूजित हुई हैं । दुर्गा दुर्गति का नाश करती हैं। राजा सुरथ ने सर्वप्रथम इनकी उपासना की है। इसके पश्चात् रावण का वध करने की इच्छा से भगवान् श्रीराम ने देवी की पूजा की है । तत्पश्चात् भगवती जगदम्बा तीनों लोकों में सुपूजित हो गयीं। पहले दैत्यों और दानवों का वध करने के लिये ये दक्ष के यहाँ प्रकट हुई थीं । परंतु कुछ काल के पश्चात् पिता के यज्ञ में स्वामी का अपमान देखकर इन्होंने अपना शरीर त्याग दिया। फिर ये हिमालय की पत्नी के उदर से उत्पन्न हुईं। उस समय इन्होंने भगवान् शंकर को पतिरूप में प्राप्त किया। गणेश और स्कन्द – इनके दो पुत्र हुए। गणेश को स्वयं श्रीकृष्ण माना जाता है । स्कन्द विष्णु की कला से उत्पन्न हुए हैं। नारद ! इसके बाद राजा मङ्गल ने सर्वप्रथम लक्ष्मी की आराधना की है । तत्पश्चात् तीनों लोकों में देवता, मुनि और मानव इनकी पूजा करने लगे। राजा अश्वपति ने सबसे पहले सावित्री की उपासना की; फिर प्रधान देवता और श्रेष्ठ मुनि भी इनके उपासक बन गये। सबसे पहले ब्रह्मा ने सरस्वती का सम्मान किया। इसके बाद ये देवी तीनों लोकों में देवताओं और मुनियों की पूजनीया हो गयीं । सर्वप्रथम गोलोक में रासमण्डल के भीतर परमात्मा श्रीकृष्ण ने भगवती राधा की पूजा की है । गोपों, गोपियों, गोपकुमारों और कुमारियों के साथ सुशोभित होकर श्रीकृष्ण ने राधा का पूजन किया था । उस समय कार्तिकी पूर्णिमा की चाँदनी रात थी । गौओं का समुदाय भी इस उत्सव में सम्मिलित था । फिर भगवान् की आज्ञा पाकर ब्रह्मा प्रभृति देवता तथा मुनिगण बड़े हर्ष के साथ भक्तिपूर्वक पुष्प एवं धूप आदि सामग्रियों से निरन्तर इनकी पूजा- वन्दना करने लगे। इस भूमण्डल में पहले राधादेवी की पूजा राजा सुयज्ञ ने की है। ये नरेश पुण्यक्षेत्र भारतवर्ष में थे। भगवान् शंकर के उपदेश के अनुसार इन्होंने देवी की उपासना की थी। फिर भगवान् श्रीकृष्ण की आज्ञा पाकर त्रिलोकी में मुनिगण पुष्प एवं धूप आदि उपचारों से भक्ति प्रदर्शित करते हुए इनकी पूजा में सदा तत्पर रहने लगे। जो-जो कलाएँ प्रकट हुई हैं, उन सबकी भारतवर्ष में पूजा होती है। मुने! तभी से प्रत्येक ग्राम और नगर में ग्रामदेवियों की पूजा होती है । नारद! इस प्रकार आगमों के अनुसार भगवती प्रकृति का सम्पूर्ण शुभ चरित्र मैंने तुम्हें सुना दिया। अब और क्या सुनना चाहते हो ? (अध्याय १) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृति खण्डे नारायणनारदसंवादे प्रकृतिस्वरूपतद्भेदवर्णनं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ ॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ श्रीवेङ्कटेश्वराय नमः ॥ ॥ श्रीमहासरस्वत्यै नमः ॥ ॥ श्रीलक्ष्मीनरसिंहाभ्यां नमः ॥ ॥ अथ प्रकृतिखण्डप्रारंभः ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Related