ब्रह्मवैवर्तपुराण – ब्रह्मखण्ड – अध्याय 10
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः
दसवाँ अध्याय
जाति और सम्बन्ध का निर्णय

तदनन्तर सौति ने मुनिश्रेष्ठ बालखिल्यादि, बृहस्पति, उतथ्य, पराशर, विश्रवा, कुबेर, रावण, कुम्भकर्ण, महात्मा विभीषण, वात्स्य, शाण्डिल्य, सावर्णि, कश्यप तथा भरद्वाज आदि की; ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और अनेकानेक वर्णसंकर जातियों की उत्पत्ति के प्रसंग सुनाकर कहा– अश्विनी कुमार के द्वारा एक ब्राह्मणी के गर्भ से पुत्र की उत्पत्ति हुई। इससे उस ब्राह्मणी के पति ने पुत्र सहित पत्नी का त्याग कर दिया। ब्राह्मणी दुःखित हो योग के द्वारा देह त्याग कर गोदावरी नाम की नदी हो गयी। सूर्यनन्दन अश्विनी कुमार स्वयं उस पुत्र को यत्नपूर्वक चिकित्सा-शास्त्र, नाना प्रकार के शिल्प तथा मन्त्र पढ़ाये, किंतु वह ब्राह्मण निरन्तर नक्षत्रों की गणना करने और वेतन लेने से वैदिक धर्म से भ्रष्ट हो इस भूतल पर गणक हो गया। उस लोभी ब्राह्मण ने ग्रहण के समय तथा मृतकों के दान लेने के समय शूद्रों से भी अग्रदान ग्रहण किया था; इसलिये ‘अग्रदानी’ हुआ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

एक पुरुष किसी ब्राह्मण यज्ञ में यज्ञकुण्ड से प्रकट हुआ। वह धर्मवक्ता ‘सूत’ कहलाया। वही हम लोगों का पूर्वपुरुष माना गया है। कृपानिधान ब्रह्मा जी ने उसे पुराण पढ़ाया। इस प्रकार यज्ञकुण्ड से उत्पन्न सूत पुराणों का वक्ता हुआ। सूत के वीर्य और वैश्या के गर्भ से एक पुरुष की उत्पत्ति हुई, जो अत्यन्त वक्ता था। लोक में उसकी भट्ट (भाट) संज्ञा हुई। वह सभी के लिये स्तुति पाठ करता है।

यह मैंने भूतल पर जो जातियाँ हैं, उनके निर्णय के विषय में कुछ बातें बतायी हैं। वर्णसंकर-दोष से और भी बहुत-सी जातियाँ हो गयी हैं। सभी जातियों में जिनका जिनके साथ सर्वथा सम्बन्ध है, उनके विषय में मैं वेदोक्त तत्त्व का वर्णन करता हूँ – जैसा कि पूर्वकाल में ब्रह्मा जी ने कहा था। पिता, तात और जनक – ये शब्द जन्मदाता के अर्थ में प्रयुक्त होते हैं।

अम्बा, माता, जननी और प्रसू – इनका प्रयोग गर्भधारिणी के अर्थ में होता है। पिता के पिता को पितामह कहते हैं और पितामह के पिता को प्रपितामह। इनसे ऊपर के जो कुटुम्बीजन हैं, उन्हें सगोत्र कहा गया है। माता के पिता को मातामह कहते हैं, मातामह के पिता की संज्ञा प्रमातामह है और प्रमातामह के पिता को वृद्धप्रमातामह कहा गया है। पिता की माता को पितामही और पितामही की सास को प्रपितामही कहते हैं। प्रपितामही की सास को वृद्धप्रपितामही जानना चाहिये ।

माता की माता मातामही कही गयी है। वह माता के समान ही पूजित होती है। प्रमातामह की पत्नी को प्रमातामही समझना चाहिये। प्रमातामह के पिता की स्त्री वृद्धप्रमातामही जानने योग्य है। पिता के भाई को पितृव्य (ताऊ, चाचा) और माता के भाई को मातुल (मामा) कहते हैं। पिता की बहिन पितृष्वसा (फुआ या बुआ ) कही गयी है और माता की बहिन मासुरी (मातृष्वसा या मौसी)। सूनु, तनय, पुत्र, दायाद और आत्मज – ये बेटे के अर्थ में परस्पर पर्यायवाची शब्द हैं। अपने से उत्पन्न हुए पुरुष (पुत्र) के अर्थ में धनभाक और वीर्यज शब्द भी प्रयुक्त होते हैं। उत्पन्न की गयी पुत्री के अर्थ में दुहिता, कन्या और आत्मजा शब्द प्रचलित हैं। पुत्र की पत्नी को वधू (बहू) जानना चाहिये और पुत्री के पति को जामाता (दामाद) ।

प्रियतम पति के अर्थ में पति, प्रिय, भर्ता और स्वामी आदि शब्द प्रयुक्त होते हैं। पति के भाई को देवर कहा गया है और पति की बहिन को ननान्दा (ननद), पति के पिता को श्वसुर और पति की माता को श्वश्रु (सास) कहते हैं। भार्या, जाया, प्रिया, कान्ता और स्त्री – ये पत्नी के अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। पत्नी के भाई को श्यालक (साला) और पत्नी की बहिन को श्यालिका (साली) कहते हैं। पत्नी की माता को श्वश्रू (सास) तथा पत्नी के पिता को श्वसुर कहा गया है। सगे भाई को सोदर या सहोदर और सगी बहिन को सोदरा या सहोदरा कहते हैं। बहिन के बेटे को भागिनेय (भगिना या भानजा) कहते हैं और भाई के बेटे को भ्रातृज (भतीजा)।

बहनोई के अर्थ में आबुत्त (भगिनीकान्त और भगिनीपति) आदि शब्दों का प्रयोग होता है। साली का पति (साढू) भी अपना भाई ही है; क्योंकि दोनों के ससुर एक हैं। मुने! श्वसुर को भी पिता जानना चाहिये। वह जन्मदाता पिता के ही तुल्य है। अन्नदाता, भय से रक्षा करने वाला, पत्नी का पिता, विद्यादाता और जन्मदाता– ये पाँच मनुष्यों के पिता हैं। अन्नदाता की पत्नी, बहिन, गुरु-पत्नी, माता, सौतेली माँ, बेटी, बहू, नानी, दादी, सास, माता की बहिन, पिता की बहिन, चाची और मामी– ये चौदह माताएँ हैं। पुत्र के पुत्र के अर्थ में पौत्र शब्द का प्रयोग होता है तथा उसके भी पुत्र के अर्थ में प्रपौत्र शब्द का। प्रपौत्र के भी जो पुत्र आदि हैं, वे वंशज तथा कुलज कहे गये हैं।

कन्या के पुत्र को दौहित्र कहते हैं और उसके जो पुत्र आदि हैं, वे बान्धव कहे गये हैं। भानजे के जो पुत्र आदि पुरुष हैं, उनकी भी बान्धव संज्ञा है। भतीजे के जो पुत्र आदि हैं, वे ज्ञाति माने गये हैं। गुरुपुत्र तथा भाई- इन्हें पोष्य एवं परम बान्धव कहा गया है। मुने! गुरुपुत्री और बहिन को भी पोष्या तथा मातृतुल्या माना गया है। पुत्र के गुरु को भी भ्राता मानना चाहिये। वह पोष्य तथा सुस्निग्ध बान्धव कहा गया है। पुत्र के श्वशुर को भी भाई समझना चाहिये।

वह वैवाहिक बन्धु माना गया है। बेटी के श्वशुर के साथ भी यही सम्बन्ध बताया गया है। कन्या का गुरु भी अपना भाई ही है। वह सुस्निग्ध बान्धव माना गया है। गुरु और श्वशुर के भाइयों का भी सम्बन्ध गुरुतुल्य ही कहा गया है। जिसके साथ बन्धुत्व (भाई का-सा व्यवहार) हो, उसे मित्र कहते हैं। जो सुख देने वाला है, उसे मित्र जानना चाहिये और जो दुःख देने वाला है, वह शत्रु कहलाता है।

दैववश कभी बान्धव भी दुःख देने वाला हो जाता है और जिससे कोई भी सम्बन्ध नहीं है, वह सुखदायक बन जाता है। विप्रवर! इस भूतल पर मनुष्यों के विद्याजनित, योनिजनित और प्रीतिजनित– ये तीन प्रकार के सम्बन्ध कहे गये हैं। मित्रता के सम्बन्ध को प्रीतिजनित सम्बन्ध जानना चाहिये। वह सम्बन्ध परम दुर्लभ है। मित्र की माता और मित्र की पत्नी–ये माता के तुल्य हैं, इसमें संशय नहीं है। मित्र के भाई और पिता मनुष्यों के लिये चाचा, ताऊ के समान आदरणीय हैं। (अध्याय १०)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे सौतिशौनकसंवादे ब्रह्मखण्डे जातिसम्बन्धनिर्णयो नाम दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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