January 7, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण – ब्रह्मखण्ड – अध्याय 14 ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः चौदहवाँ अध्याय ब्राह्मण-बालक रूपधारी विष्णु का मालावती के साथ संवाद, ब्राह्मण के पूछने पर मालावती का अपने दुःख और इच्छा को व्यक्त करना तथा ब्राह्मण का कर्मफल के विवेचनपूर्वक विभिन्न देवताओं की आराधना से प्राप्त होने वाले फल का वर्णन करना, श्रीकृष्ण एवं उनके भजन की महिमा बताना सौति कहते हैं — मुने! क्षणभर वहाँ खड़े रह कर परम मंगलदायक ब्रह्मा और शिव आदि देवता मालावती के निकट गये। देवताओं को आया देख पतिव्रता मालावती ने अपने प्राणवल्लभ को उनके समीप रखकर उन सबको प्रणाम किया। तत्पश्चात वह फूट-फूटकर रोने लगी। इसी बीच में वहाँ उस देव समाज के भीतर कोई ब्राह्मण-बालक आया। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय उसकी आकृति बड़ी मनोहर थी। दण्ड, छत्र, श्वेत वस्त्र और उज्ज्वल तिलक धारण किये तथा हाथ में एक बड़ी-सी पुस्तक लिये वह ब्राह्मण-कुमार अपने तेज से प्रज्वलित-सा हो रहा था। उसके सम्पूर्ण अंग चन्दन से चर्चित थे। वह परम शान्त जान पड़ता था और मन्द-मन्द मुस्करा रहा था। विष्णु की माया से विस्मित हुए देवताओं की अनुमति ले वह वहीं देवसभा के मध्यभाग में बैठ गया और तारा मण्डल के बीच में प्रकाशित होने वाले चन्द्रमा की भाँति शोभा पाने लगा। वह ब्राह्मण-बालक समस्त देवताओं तथा मालती (मालावती) – से इस प्रकार बोला। ब्राह्मण ने कहा — यहाँ ब्रह्मा और शिव आदि सम्पूर्ण देवता किसलिये पधारे हैं? जगत् की सृष्टि करने वाले साक्षात विधाता यहाँ किस कार्य से आये हैं? समस्त ब्रह्माण्डों का संहार करने वाले स्वयं सर्वव्यापी शम्भु भी यहाँ विराज रहे हैं। इसका क्या कारण है? तीनों लोकों के समस्त कर्मों के साक्षी धर्म भी यहाँ उपस्थित हैं, यह महान आश्चर्य है। सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि, काल, मृत्युकन्या तथा यम आदि का समागम ही यहाँ किसलिये सम्भव हुआ है? हे मालावति ! तुम्हारी गोद में अत्यन्त सूखा हुआ शव कौन है? जीती-जागती स्त्री के पास मरा हुआ पुरुष क्यों है ? उस सभा में देवताओं तथा मालावती से ऐसा प्रश्न करके वे ब्राह्मण देवता जब चुप हो गये, तब मालावती उन विद्वान ब्राह्मण को प्रणाम करके यों बोली। मालावती ने कहा — मैं ब्राह्मण रूपधारी भगवान् विष्णु को प्रसन्नतापूर्वक प्रणाम करती हूँ, जिनके दिये हुए जल और पुष्पमात्र से सम्पूर्ण देवता तथा श्रीहरि भी संतुष्ट होते हैं। प्रभो! मैं शोक से आतुर हूँ। आप मेरे इस निवेदन पर ध्यान दीजिये; क्योंकि योग्य और अयोग्य पर भी कृपा करने वाले संत-महात्माओं का अनुग्रह सदा सब पर समान रूप से प्रकट होता है। विप्रवर! मैं उपबर्हण की पत्नी तथा चित्ररथ की कन्या हूँ। मुझे सब लोग मालावती कहते हैं। मैंने लक्ष दिव्य वर्षों तक अपने इन स्वामी के साथ प्रत्येक सुरम्य तथा मनोहर स्थान पर स्वच्छन्द क्रीड़ा की है। द्विजेन्द्र! आप विद्वान् हैं। साध्वी युवतियों का अपने प्रियतम के प्रति जितना स्नेह होता है, वह सब आपको शास्त्र के अनुसार विदित है। मेरे पति ने अकस्मात ब्रह्मा जी का शाप प्राप्त होने से अपने प्राणों को त्याग दिया है। अतः मैं देवताओं से यह उद्देश्य रखकर विलाप करती हूँ कि मेरे पति जीवित हो जायें। पृथ्वी पर सब लोग अपने-अपने कार्य की सिद्धि के लिये व्यग्र रहते हैं। वे लाभ-हानि को नहीं जानते। केवल स्वार्थ-साधन में तत्पर रहते हैं। सुख, दुःख, भय, शोक, संताप, ऐश्वर्य, परमानन्द, जन्म, मृत्यु और मोक्ष — ये सब मनुष्यों को अपने कर्म एवं प्रयत्न के अनुसार प्राप्त होते हैं। देवता सबके जनक हैं। वे ही कर्मों का फल देते हैं। साथ ही वे लीलापूर्वक कर्मरूपी वृक्षों का मूलोच्छेद करने में भी समर्थ होते हैं। देवता से बढ़कर कोई बन्धु नहीं है। देवता से बढ़कर कोई बलवान् नहीं है। देवता से बढ़कर दयालु और दाता भी दूसरा कोई नहीं है। मैं समस्त देवताओं से याचना करती हूँ कि वे मुझे पतिदान दें। यही मुझे अभीष्ट है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के फल देने वाले देवता कल्पवृक्ष रूप हैं। इसलिये मैं इनसे याचना करती हूँ, ये मेरा मनोरथ सफल करें। यदि देवता लोग मुझे अभीष्ट पतिदान देंगे, तब तो इनका भला है; अन्यथा मैं इन सबको निश्चय ही स्त्री के वध का पाप दूँगी। इतना ही नहीं, मैं इन सबको दारुण एवं दुर्निवार शाप भी दे सकती हूँ। सती के शाप को टालना बहुत कठिन होता है। किस तपस्या से उसका निवारण किया जायेगा? शौनक! ऐसा कहकर शोकातुर पतिव्रता मालावती उस देवसभा में चुप हो गयी। तब उन श्रेष्ठ ब्राह्मण ने उससे कहा। ब्राह्मण बोले — मालावती! इसमें संदेह नहीं कि देवता लोग कर्मों का फल देने वाले हैं; परंतु वह फल तत्काल नहीं, देर से मिलता है। ठीक वैसे ही, जैसे किसान बोये हुए अनाज का फल तुरंत नहीं, देर से पाता है। पतिव्रते ! गृहस्थ पुरुष हलवाहे के द्वारा अपने खेत में जो अनाज बोता है, उसका समयानुसार अंकुर प्रकट होता है। फिर समय आने पर वह वृक्ष होता और फलता भी है। तत्पश्चात अन्य समय में वह पकता है और अन्य समय में गृहस्थ पुरुष उसके फल को पाता है। इसी प्रकार सबके विषय में समझ लेना चाहिये। प्रत्येक कर्म का फल देर से ही मिलता है। संसार में गृहस्थ पुरुष जो बीज बोता है, वही भगवान् विष्णु की माया से समयानुसार अंकुर और वृक्ष होता है और यथासमय गृहस्थ पुरुष को उसके फल की उपलब्धि होती है। पुण्यात्मा पुरुष पुण्यभूमि में चिरकाल तक जो तप करता है, उसका फल देने वाले सचमुच देवता ही हैं; इसमें संशय नहीं है। ब्राह्मणों के मुख में तथा ऊसर भूमि से रहित उत्तम खेत में मनुष्य भक्तिभाव से जो आहुति डालता है, उसका फल उसे निश्चय ही प्राप्त होता है। बल, सौन्दर्य, ऐश्वर्य, धन, पुत्र, स्त्री और उत्तम पति– कोई भी पदार्थ तपस्या के बिना नहीं मिलता। अतः तप के बिना क्या हो सकता है ? जो भक्तिभाव से प्रकृति (दुर्गादेवी)– का सेवन करता है, वह प्रत्येक जन्म में विनयशील सद्गुणवती तथा सुन्दरी प्राणवल्लभा पत्नी को प्राप्त करता है। प्रकृति के ही वर से भक्त पुरुष लीलापूर्वक अविचल लक्ष्मी, पुत्र-पौत्र, भूमि, धन और संतति को पाता है। भगवान् शिव कल्याणस्वरूप, कल्याणदाता और कल्याणप्राप्ति के कारण हैं । वे ज्ञानानन्दस्वरूप, महात्मा, परमेश्वर एवं मृत्युंजय हैं । जो भक्ति-भाव से उन महेश्वर का सेवन करता है, वह पुरुष प्रत्येक जन्म में सुन्दरी पत्नी पाता है और उनकी आराधना करने वाली स्त्री प्रत्येक जन्म में उत्तम पति पाती है। भगवान् हर के वर से मनुष्य को विद्या, ज्ञान, उत्तम कविता, पुत्र-पौत्र, उत्कृष्ट लक्ष्मी, धन, बल और पराक्रम की प्राप्ति होती है। जो मानव ब्रह्मा जी का भजन करता है, वह भी संतान और लक्ष्मी को पाता है। ब्रह्मा जी के वरदान से मनुष्य को विद्या, ऐश्वर्य और आनन्द की प्राप्ति होती है। जो मनुष्य भक्तिभाव से दीनानाथ, दिनेश्वर सूर्य की आराधना करता है, वह निश्चय ही यहाँ विद्या, आरोग्य, आनन्द, धन और पुत्र पाता है। जो सबसे प्रथम पूजने योग्य, सर्वेश्वर, सनातन, देवाधिदेव गणेश जी की भक्तिभाव से पूजा करता है, उसके जन्म-जन्म में समस्त विघ्नों का नाश होता है। वह सोते-जागते हर समय परम आनन्द का अनुभव करता है। गणेश जी के वरदान से उसको ऐश्वर्य, पुत्र, पौत्र, धन, प्रज्ञा, ज्ञान, विद्या और उत्तम कवित्व की प्राप्ति होती है। जो देवताओं के स्वामी लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु का भजन करता है, वह यदि वर पाने का इच्छुक हो तो उसे वह सम्पूर्ण वर प्राप्त हो जाता है। अन्यथा अवश्य ही उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। शान्तिस्वरूप जगत् पालक श्रीविष्णु की सेवा करके सचमुच ही मनुष्य समस्त तप, सम्पूर्ण धर्म तथा परम उत्तम यश एवं कीर्ति को प्राप्त कर लेता है। जो मूढ़ सर्वेश्वर विष्णु का सेवन करके उसके बदले में कोई वर लेना चाहता है, उसे विधाता ने ठग लिया और विष्णु की माया ने मोह में डाल दिया। नारायण की माया सब कुछ करने में समर्थ, सब की कारणभूता और परमेश्वरी है। वह जिस पर कृपा करती है, उसे विष्णु-मन्त्र देती है। जो धर्मात्मा मनुष्य धर्म का भजन करता है, वह निश्चय ही सम्पूर्ण धर्म का फल पाता है और इहलोक में सुख भोगकर परलोक में विष्णु के परमपद को प्राप्त कर लेता है। जो मनुष्य जिस देवता की भक्तिभाव से आराधना करता है, वह पहले उसी को पाता है, फिर समयानुसार उस देवता के साथ ही वह उत्तम विष्णुधाम में चला जाता है। भगवान् श्रीकृष्ण प्रकृति से परे तथा तीनों गुणों से अतीत – निर्गुण हैं। ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि के सेव्य, उनके आदिकारण, परात्पर अविनाशी परब्रह्म एवं सनातन भगवान् हैं। साकार, निराकार, ज्योतिःस्वरूप, स्वेच्छामय, सर्वव्यापी, सर्वाधार, सर्वेश्वर, परमानन्दमय, ईश्वर, निर्लिप्त तथा साक्षिरूप हैं । वे भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये ही दिव्य विग्रह धारण करते हैं। जो उनकी आराधना करता है, वह सचमुच ही जीवन्मुक्त है। वह बुद्धिमान पुरुष कोई वर नहीं ग्रहण करता। सालोक्य आदि चारों प्रकार की मुक्तियों को भी वह तुच्छ समझने लगता है। ब्रह्मत्व, अमरत्व और मोक्ष भी उसके लिये तुच्छ-सा हो जाता है। ऐश्वर्य को वह मिट्टी के ढेले के समान नश्वर मानता है। इन्द्रत्व, मनुत्व और चिरजीवीत्व को भी पानी के बुलबुले के समान क्षणभंगुर समझकर अत्यन्त तुच्छ गिनने लगता है। सोते-जागते हर समय श्रीकृष्ण की सेवा ही चाहता है। उनकी दासता के सिवा दूसरा कोई पद नहीं मानता। श्रीकृष्ण के चरणारविन्दों में निरन्तर एवं अविचल भक्ति पाकर वह पूर्णकाम हो जाता है। श्रीकृष्ण भक्त उन परिपूर्णतम ब्रह्म का सेवन करके सदा सुस्थिर रहता है। वह अपने कुल की करोड़ों, नाना के कुल की सैकड़ों तथा श्वशुर के कुल की सैकड़ों पूर्व पीढ़ियों का लीलापूर्वक उद्धार करके दास, दासी, माता और पत्नी का तथा पुत्र के बाद की भी सैकड़ों पीढ़ियों का उद्धार कर देता है और स्वयं निश्चय ही गोलोक में जाता है। मनुष्य तभी तक कामासक्त होकर गर्भ में निवास करता है, तभी तक यम-यातना भोगता है और गृहस्थ पुरुष तभी तक भोगों की इच्छा रखता है, जब तक कि श्रीकृष्ण का सेवन नहीं करता। यमराज उस भक्त के कर्म सम्बन्धी लेख को तत्काल भय के मारे दूर कर देता है। ब्रह्मा जी पहले से ही उसके स्वागत के लिये मधुपर्क आदि तैयार करके रखते हैं और सोचते हैं कि अहो! वह मेरे लोक को लाँघकर इसी मार्ग से यात्रा करेगा। कोटिशत कल्पों में भी उसका वहाँ से निष्कासन नहीं होगा। जैसे सर्प गरुड़ को देखते ही भाग जाते हैं, उसी तरह करोड़ों जन्मों के किये हुए पाप भी श्रीकृष्ण-भक्त से भयभीत हो उसे छोड़कर पलायन कर जाते हैं। श्रीकृष्ण-भक्त मानव-शरीर को छोड़ने के बाद निर्भय हो गोलोक में जाता है। वहाँ जाने पर दिव्य शरीर धारण करके सदा श्रीकृष्ण की सेवा करता है। श्रीकृष्ण जब तक गोलोक में निवास करते हैं, तब तक भक्त पुरुष निरन्तर वहाँ उनकी सेवा में रहता है। श्रीकृष्ण का दास ब्रह्मा की नश्वर आयु को एक निमेष भर का मानता है। (अध्याय १४) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे ब्रह्मखण्डे सौतिशौनकसंवादे विष्णुमालावतीसंवादो नाम चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. 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