ब्रह्मवैवर्तपुराण – ब्रह्मखण्ड – अध्याय 16
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः
सोलहवाँ अध्याय
मालावती के पूछने पर ब्राह्मण द्वारा वैद्यकसंहिता का वर्णन, आयुर्वेद की आचार्य परम्परा, उसके सोलह प्रमुख विद्वानों तथा उनके द्वारा रचित तन्त्रों का नाम-निर्देश, ज्वर आदि चौंसठ रोग, उनके हेतुभूत वात, पित्त, कफ की उत्पत्ति के कारण और उनके निवारण के उपायों का विवेचन

ब्राह्मण बोले — शुभे ! तुमने काल, यम, मृत्युकन्या तथा व्याधिगणों का साक्षात्कार कर लिया । अब तुम्हारे मन में क्या संदेह है? उसे पूछो।

ब्राह्मण की बात सुनकर सती मालावती को बड़ा हर्ष हुआ। उसके मन में जो प्रश्न था, उसे उसने उन जगदीश्वर के समक्ष प्रस्तुत किया ।

मालावती ने कहा — ब्रह्मन! आपने जो यह कहा कि रोग प्राणियों के प्राणों का अपहरण करता है, रोग के जो नाना प्रकार के कारण हैं, उन सबका वेद (आयुर्वेद) में निरूपण किया गया है, उसके सम्बन्ध में मेरा निवेदन यों है – जिसका निवारण करना कठिन है, वह अमंगलकारी रोग जिस उपाय से शरीर में न फैले, उसका आप वर्णन करने की कृपा करें। मैंने जो-जो बात पूछी है या नहीं पूछी है तथा जो ज्ञात है अथवा नहीं ज्ञात है, वह सब कल्याण की बात आप मुझे बताइये; क्योंकि आप दीनों पर दया करने वाले गुरु हैं।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

मालावती का वचन सुनकर ब्राह्मण रूपधारी भगवान् विष्णु ने वहाँ ‘वैद्यकसंहिता’ का वर्णन आरम्भ किया।

ब्राह्मण बोले — जो सम्पूर्ण तत्त्वों के ज्ञाता, समस्त कारणों के भी कारण तथा वेद-वेदांगों के बीज के भी बीज हैं, उन परमेश्वर श्रीकृष्ण की मैं वन्दना करता हूँ। समस्त मंगलों के भी मंगलकारी बीजस्वरूप उन सनातन परमेश्वर ने मंगल के आधारभूत चार वेदों को प्रकट किया। उनके नाम हैं– ऋक्, यजु, साम और अथर्व। उन वेदों को देखकर और उनके अर्थ का विचार करके प्रजापति ने आयुर्वेद का संकलन किया। इस प्रकार पंचम वेद का निर्माण करके भगवान् ने उसे सूर्यदेव के हाथ में दिया। उससे सूर्यदेव ने एक स्वतन्त्र संहिता बनायी। फिर उन्होंने अपने शिष्यों को वह अपनी ‘आयुर्वेद संहिता’ दी और पढ़ायी।

तत्पश्चात उन शिष्यों ने भी अनेक संहिताओं का निर्माण किया। पतिव्रते! उन विद्वानों के नाम और उनके रचे हुए तन्त्रों के नाम, जो रोगनाश के बीजरूप हैं, मुझसे सुनो। धन्वन्तरि, दिवोदास, काशिराज, दोनों अश्विनीकुमार, नकुल, सहदेव, सूर्यपुत्र यम, च्यवन, जनक, बुध, जाबाल, जाजलि, पैल, करथ और अगस्त्य – ये सोलह विद्वान वेद-वेदांगों के ज्ञाता तथा रोगों के नाशक (वैद्य) हैं।

पतिव्रते! सबसे पहले भगवान् धन्वन्तरि ने ‘चिकित्सा-तत्त्व-विज्ञान’ नामक एक मनोहर तन्त्र का निर्माण किया। फिर दिवोदास ने ‘चिकित्सा-दर्पण’ नामक ग्रन्थ बनाया। काशिराज ने ‘दिव्य चिकित्सा-कौमुदी’ का प्रणयन किया। दोनों अश्विनीकुमारों ने ‘चिकित्सा-सार-तन्त्र’ की रचना की, जो भ्रम का निवारण करने वाला है। नकुल ने ‘वैद्यक-सर्वस्व’ नामक तन्त्र बनाया। सहदेव ने ‘व्याधि-सिन्धु-विमर्दन’ नामक ग्रन्थ तैयार किया। यमराज ने ‘ज्ञानार्णव’ नामक महातन्त्र की रचना की। भगवान् च्यवन मुनि ने ‘जीवदान’ नामक ग्रन्थ बनाया। योगी जनक ने ‘वैद्य-संदेह-भञ्जन’ नामक ग्रन्थ लिखा। चन्द्रकुमार बुध ने ‘सर्वसार’, जाबाल ने ‘तन्त्रसार’ और जाजलि मुनि ने ‘वेदांगसार’ नामक तन्त्र की रचना की। पैल ने ‘निदान-तन्त्र’, करथ ने उत्तम ‘सर्वधर-तन्त्र’ तथा अगस्त्य जी ने ‘द्वैधनिर्णय’ तन्त्र का निर्माण किया।

ये सोलह तन्त्र चिकित्सा-शास्त्र के बीज हैं, रोग-नाश के कारण हैं तथा शरीर में बल का आधान करने वाले हैं। आयुर्वेद के समुद्र को ज्ञानरूपी मथानी से मथकर विद्वानों ने उससे नवनीत-स्वरूप ये तन्त्र–ग्रन्थ प्रकट किये हैं। सुन्दरि! इन सबको क्रमशः देखकर तुम दिव्य भास्कर-संहिता का तथा सर्वबीज स्वरूप आयुर्वेद का पूर्णतया ज्ञान प्राप्त कर लोगी। आयुर्वेद के अनुसार रोगों का परिज्ञान करके वेदना को रोक देना —  इतना ही वैद्य का वैद्यत्व है। वैद्य आयु का स्वामी नहीं है – वह उसे घटा अथवा बढ़ा नहीं सकता। चिकित्सक आयुर्वेद का ज्ञाता, चिकित्सा की क्रिया को यथार्थरूप से जानने वाला धर्मनिष्ठ और दयालु होता है; इसलिये उसे ‘वैद्य’ कहा गया है।

दारुण ज्वर समस्त रोगों का जनक है। उसे रोकना कठिन होता है। वह शिव का भक्त और योगी है। उसका स्वभाव निष्ठुर होता है और आकृति विकृत (विकराल) । उसके तीन पैर, तीन सिर, छः हाथ और नौ नेत्र हैं। वह भयंकर ज्वर काल, अन्तक और यम के समान विनाशकारी होता है। भस्म ही उसका अस्त्र है तथा रुद्र उसके देवता हैं। मन्दाग्नि उसका जनक है। मन्दाग्नि के जनक तीन हैं– वात, पित्त और कफ। ये ही प्राणियों को दुःख देने वाले हैं। वातज, पित्तज और कफज – ये ज्वर के तीन भेद हैं। एक चौथा ज्वर भी होता है, जिसे त्रिदोषज भी कहते हैं। पाण्डु, कामल, कुष्ठ, शोथ, प्लीहा, शूलक, ज्वर, अतिसार, संग्रहणी, खाँसी, व्रण (फोड़ा), हलीमक, मूत्रकृच्छ्र, रक्तविकार या रक्तदोष से उत्पन्न होने वाला गुल्म, विषमेह, कुब्ज, गोद, गलगंड (घेंघा), भ्रमरी, सन्निपात, विसूचिका (हैजा) और दारुणी आदि अनेक रोग हैं। इन्हीं के भेद और प्रभेदों को लेकर चौंसठ रोग माने गये हैं। ये चौंसठ रोग मृत्युकन्या के पुत्र हैं और जरा उसकी पुत्री है। जरा अपने भाइयों के साथ सदा भूतल पर भ्रमण किया करती है।

ये सब रोग उस मनुष्य के पास नहीं जाते, जो इनके निवारण का उपाय जानता है और संयम से रहता है। उसे देखकर वे रोग उसी तरह भागते हैं, जैसे गरुड़ को देखकर साँप।

नेत्रों को जल से धोना, प्रतिदिन व्यायाम करना, पैरों के तलवों में तेल मलवाना, दोनों कानों में तेल डालना और मस्तक पर भी तेल रखना – यह प्रयोग जरा और व्याधि का नाश करने वाला है। जो वसन्त-ऋतु में भ्रमण, स्वल्प मात्रा में अग्नि सेवन तथा नयी अवस्था वाली भार्या का यथा समय उपभोग करता है, उसके पास जरा-अवस्था नहीं जाती। ग्रीष्म-ऋतु में जो तालाब या पोखरे के शीतल जल में स्नान करता, घिसा हुआ चन्दन लगाता और वायु सेवन करता है, उसके निकट जरा-अवस्था नहीं जाती। वर्षा-ऋतु में जो गरम जल से नहाता है, वर्षा के जल का सेवन नहीं करता और ठीक समय पर परिमित भोजन करता है, उसे वृद्धावस्था नहीं प्राप्त होती। जो शरद्-ऋतु की प्रचण्ड धूप का सेवन नहीं करता, उसमें घूमना-फिरना छोड़ देता है, कुएँ, बावड़ी या तालाब के जल में नहाता है और परिमित भोजन करता है, उसके पास वृद्धावस्था नहीं फटकने पाती। जो हेमन्त-ऋतु में प्रातःकाल अथवा पोखरे आदि के जल में स्नान करता, यथासमय आग तापता, तुरंत की तैयार की हुई गरम-गरम रसोई खाता है, उसके पास जरा-अवस्था नहीं जाती है। जो शिशिर-ऋतु में गरम कपड़े, प्रज्वलित अग्नि और नये बने हुए गरम-गरम अन्न का सेवन करता है तथा गरम जल से ही स्नान करता है, उसके समीप वृद्धावस्था की पहुँच नहीं होती।

जो तुरंत के बने हुए ताजे अन्न का, खीर और घृत का तथा समयानुसार तरुणी स्त्री का उचित सेवन करता है, वृद्धावस्था उसके निकट नहीं जाती। जो भूख लगने पर ही उत्तम अन्न खाता, प्यास लगने पर ठंडा जल पीता और प्रतिदिन ताम्बूल का सेवन करता है, उसके पास वृद्धावस्था नहीं पहुँचती। जो प्रतिदिन दही, ताजा मक्खन और गुड़ खाता तथा संयम से रहता है, उसके समीप जरावस्था नहीं जाती है। जो मांस, वृद्धा स्त्री, नवोदित सूर्य तथा तरुण दधि (पाँच दिन के रखे हुए दही)– का सेवन करता है, उस पर जरावस्था अपने भाइयों के साथ हर्षपूर्वक आक्रमण करती है। सुन्दरी! जो रात को दही खाते हैं, कुलटा एवं रजस्वला स्त्री का सेवन करते हैं, उनके पास भाइयों सहित जरावस्था बड़े हर्ष के साथ आती है। रजस्वला, कुलटा, विधवा, जारदूती, शूद्र के पुरोहित की पत्नी तथा ऋतुहीना जो स्त्रियाँ हैं, उनका अन्न भोजन करने वाले लोगों को बड़ा पाप लगता है। उस पाप के साथ ही जरावस्था उनके पास आती है। रोगों के साथ पापों की सदा अटूट मैत्री होती है।

पापेन जायते व्याधिः पापेन जायते जरा ।
पापेन जायते दैन्यं दुःखं शोको भयंकरः ।।
तस्मात् पापं महावैरं दोषबीजममङगलम् ।
भारते संततं सन्तो नाचरन्ति भयातुराः ।।
(ब्रह्मखण्ड १६।५१-५२)

पाप ही रोग, वृद्धावस्था तथा नाना प्रकार के विघ्नों का बीज है। पाप से रोग होता है, पाप से बुढ़ापा आता है और पाप से ही दैन्य, दुःख एवं भयंकर शोक की उत्पत्ति होती है। इसलिये भारत के संत पुरुष सदा भयातुर हो कभी पाप का आचरण नहीं करते।

क्योंकि वह महान् वैर उत्पन्न करने वाला, दोषों का बीज और अमंगलकारी होता है। जो अपने धर्म के आचरण में लगा हुआ है, भगवान् के मन्त्र की दीक्षा ले चुका है, श्रीहरि की समाराधना में संलग्न है, गुरु, देवता और अतिथियों का भक्त है, तपस्या में आसक्त है, व्रत और उपवास में लगा रहता है और सदा तीर्थ सेवन करता है, उसे देखकर रोग उसी तरह भाग जाते हैं, जैसे गरुड़ को देखकर साँप। ऐसे पुरुषों के पास जरा-अवस्था नहीं जाती है और न दुर्जय रोग समूह ही उस पर आक्रमण करते हैं।

पतिव्रते मालावती! वात, पित्त और कफ– ये तीन ज्वर के जनक हैं। ये जिस प्रकार देहधारियों में संचार करते और स्वयं जाते हैं, उसके विविध कारणों तथा उपायों को मुझसे सुनो। जब भूख की आग प्रज्वलित हो रही हो और उस समय आहार न मिले तो प्राणियों के शरीर में– मणिपूरक तन्त्र के अनुसार छः चक्रों में से तीसरा चक्र, जिसकी स्थिति नाभि के पास मानी जाती है। यह तेजोमय और विद्युत के समान आभा वाला है। इसका रंग नीला है। इसमें दस दल होते हैं और उन दलों पर ‘ड’ से लेकर ‘फ’ तक के अक्षर अंकित हैं। वह चक्र शिव का निवास स्थान माना जाता है। उस पर ध्यान लगाने से सब विषयों का ज्ञान हो जाता है। चक्र में पित्त का प्रकोप होता है। ताड़ और बेल का फल खाकर तत्काल जल पी लिया जाये तो वही सद्यः प्राणनाशक पित्त हो जाता है। जो दैव का मारा हुआ पुरुष शरद्-ऋतु में गरम पानी पीता और भादों में तिक्त भोजन करता है, उसका पित्त बढ़ जाता है। धनिया पीसकर उसे शक्कर के साथ ठंडे जल में घोल दिया जाये तो उसको पीने से पित्त की शान्ति होती है। चना सब प्रकार का, गव्य पदार्थ, तक्ररहित दही, पके हुए बेल और ताल के फल, ईख के रस से बनी हुई सब वस्तुएँ, अदरक, मूँग की दाल का जूस तथा शर्करा मिश्रित तिल का चूर्ण– ये सब पित्त का नाश करने वाली औषधियाँ हैं, जो तत्काल बल और पुष्टि प्रदान करती हैं। पित्त का कारण और उसके नाश का उपाय बताया गया।

अब दूसरी बात मुझसे सुनो। भोजन के बाद तुरंत स्नान करना, बिना प्यास के जल पीना, सारे शरीर में तिल का तेल मलना, स्निग्ध तैल तथा स्निग्ध आँवले के द्रव का सेवन, बासी अन्न का भोजन, तक्रपान, केले का पका हुआ फल, दही, वर्षा का जल, शक्कर का शर्बत, अत्यन्त चिकनाई से युक्त जल का सेवन, नारियल का जल, बासी पानी से रूखा स्नान (बिना तेल लगाये नहाना), तरबूज के पके फल खाना, ककड़ी के अधिक पके हुए फल का सेवन करना, वर्षा-ऋतु में तालाब में नहाना और मूली खाना– इन सबसे कफ की वृद्धि होती है। वह कफ ब्रह्मरन्ध्र में उत्पन्न होता है, जो महान् वीर्यनाशक माना गया है।

गन्धर्व-नन्दिनि! आग तापकर शरीर से पसीना निकालना, भूजी भाँग का सेवन करना, पकाये हुए तेल-विशेष को काम में लाना, घूमना, सूखे पदार्थ खाना, सूखी पकी हर्र का सेवन करना, कच्चा पिण्डारक (पिण्डारा- एक प्रकार का फल-शाक), कच्चा केला, बेसवार (एक जड़ी का पौधा । भावप्रकाश के अनुसार यह पौधा हिमालय के शिखरों पर होता है। इसका कन्द लहसुन के कन्द के समान और इसकी पत्तियाँ महीन सारहीन होती हैं। इसकी टहनियों में बारीक काँटे होते हैं और दूध निकलता है। यह अष्टवर्ग औषध के अन्तर्गत है और इसका कंद मधुर, बलकारक, कामोद्दीपक होता है। ऋषभ और जीवक दोनों एक ही जाति के गुल्म हैं, भेद केवल इतना ही है कि ऋषभ की आकृति बैल के सींग की तरह होती है और जीवक की झाडू की-सी।)( (पीसा हुआ जीरा, मिर्च, लौंग आदमसाला), सिन्धुवार ( सिन्दुवार या निर्गुडी), अनाहार (उपवास), अपानक ( पानी न पीना), घृतमिश्रित रोचना-चूर्ण, घी मिलाया हुआ सूखा शक्कर, काली मिर्च, पिप्पल, सूखा अदरक, जीवक (अष्टवर्गान्तर्गत औषध विशेष) तथा मधु — ये द्रव्य तत्काल कफ को दूर करने वाले तथा बल और पुष्टि देने वाले हैं ।

अब वात के प्रकोप का कारण सुनो। भोजन के बाद तुरंत पैदल यात्रा करना, दौड़ना, आग तापना, सदा घूमना और मैथुन करना, वृद्धा स्त्री के साथ सहवास करना, मन में निरन्तर संताप रहना, अत्यन्त रूखा खाना, उपवास करना, किसी के साथ जूझना, कलह करना, कटु वचन बोलना, भय और शोक से अभिभूत होना– ये सब केवल वायु की उत्पत्ति के कारण हैं। आज्ञा नामक चक्र में वायु की उत्पत्ति होती है। अब उसकी औषधि सुनो। केले का पका हुआ फल, बिजौरा नीबू के फल के साथ चीनी का शर्बत, नारियल का जल, तुरंत का तैयार किया हुआ तक्र,  उत्तम पिट्ठी (पूआ, कचौरी आदि), भैंस का केवल मीठा दही या उसमें शक्कर मिला हो, तुरंत का बासी अन्न, सौवीर (जौ को सड़ाकर बनाई हुई एक प्रकार की काँजी । विशेष—वैद्यक में यह अग्निदीपक, विरेचक तथा कफ, ग्रहणी, अर्श, उदावर्त, अस्थिर शूल आदि दोषों में उपकारी माना जाता है ।), ठंडा पानी, पकाया हुआ तेलविशेष अथवा केवल तिल का तेल, नारियल, ताड़, खजूर, आँवले का बना हुआ उष्ण द्रव पदार्थ, ठंडे और गरम जल का स्नान, सुस्निग्ध चन्दन का द्रव, चिकने कमलपत्र की शैय्या और स्निग्ध व्यंजन– वत्से! ये सब वस्तुएँ तत्काल ही वायु दोष का नाश करने वाली हैं।

मनुष्यों में तीन प्रकार के वायु-दोष होते हैं। शारीरिक क्लेशजनित, मानसिक संतापजनित और कामजनित। मालावति! इस प्रकार मैंने तुम्हारे समक्ष रोगसमूह का वर्णन किया तथा उन रोगों के नाश के लिये श्रेष्ठ विद्वानों ने जो नाना प्रकार के तन्त्र बनाये हैं, उनकी भी चर्चा की। वे सभी तन्त्र रोगों का नाश करने वाले हैं। उनमें रोग निवारण के लिये रसायन आदि परम दुर्लभ उपाय बताये गये हैं। साध्वि! विद्वानों द्वारा रचे गये उन सब तन्त्रों का यथावत वर्णन कोई एक वर्ष में भी नहीं कर सकता। शोभने! बताओ, तुम्हारे प्राणवल्लभ की मृत्यु किस रोग से हुई है। मैं उसका उपाय करूँगा, जिससे ये जीवित हो जायेंगे।

सौति कहते हैं — ब्राह्मण की यह बात सुनकर गन्धर्व कुमारी चित्ररथ-पुत्री मालावती ने प्रसन्न होकर इस प्रकार कहना आरम्भ किया।

मालावती बोली — विप्रवर! सुनिये। सभा में लज्जित हुए मेरे प्रियतम ने ब्रह्मा जी के शाप के कारण योगबल से प्राणों का परित्याग किया है। मैंने आपके मुँह से निकले हुए अपूर्व, शुभ एवं मनोहर आख्यान को पूर्णरूप से सुना है। इस संसार में विपत्ति के बिना कब, किसको, कहाँ आप-जैसे महात्माओं का संग प्राप्त हुआ है? विद्वन! अब मुझे मेरे प्राणनाथ को जीवित करके दे दीजिये। मैं आप सब लोगों के चरणों में नमस्कार करके स्वामी के साथ अपने घर को जाऊँगी।

मालावती का यह वचन सुनकर ब्राह्मण रूपधारी भगवान् विष्णु उसके पास से उठकर शीघ्र ही देवताओं की सभा में गये। (अध्याय १६)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे ब्रह्मखण्डे मालावतीविष्णुसंवादे चिकित्साप्रणयने षोडशोऽध्यायः ॥ १६ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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