January 18, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण – ब्रह्मखण्ड – अध्याय 24 ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः चौबीसवाँ अध्याय ब्रह्माजी का नारद को गृहस्थ-धर्म का महत्त्व बताते हुए विवाह के लिये राजी करना और नारद का पिता की आज्ञा ले शिवलोक को जाना सौति कहते हैं — नारद को इस प्रकार जाते देख ब्रह्माजी उदास हो गये और इस प्रकार बोले । ब्रह्माजी ने कहा — ‘अच्छी बात है। बेटा ! तुम तपस्या के लिये जाओ। अब संसार की सृष्टि करने से मेरा भी क्या प्रयोजन है ? मैं सर्वेश्वर श्रीकृष्ण को जानने के लिये गोलोक को जाऊँगा । सनक, सनन्दन, सनातन तथा चौथा बेटा सनत्कुमार — ये चारों वैरागी हैं ही । यति, हंसी, आरुणि, वोढु तथा पञ्चशिख — ये सब पुत्र तपस्वी हो गये। फिर संसार की रचना से मेरा क्या प्रयोजन ? मरीचि, अङ्गिरा, भृगु, रुचि, अत्रि, कर्दम, प्रचेता, क्रतु और मनु — ये मेरे आज्ञापालक हैं। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय समस्त पुत्रों में केवल वसिष्ठ ऐसे हैं, जो सदा मेरी आज्ञा के अधीन रहते हैं । उपर्युक्त पुत्रों के सिवा अन्य सब-के-सब अविवेकी तथा मेरी आज्ञा से बाहर हैं। ऐसी दशा में मेरा संसार की सृष्टि से क्या प्रयोजन है? बेटा ! सुनो। मैं तुम्हें वेदोक्त मङ्गलमय वचन सुना रहा हूँ। वह वचन परम्परा-क्रम से पालित होता आ रहा है तथा धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्षरूप चारों पुरुषार्थों को देनेवाला है। समस्त विद्वान् धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की इच्छा रखते हैं; क्योंकि ये वेदों में विहित तथा विद्वानों की सभाओं में प्रशंसित हैं। वेदों में जिसका विधान है वह धर्म है और जिसका निषेध है वह अधर्म है। ब्राह्मण को चाहिये कि वह पहले सुखपूर्वक यज्ञोपवीत धारण करके फिर वेदों का अध्ययन करे । अध्ययन समाप्त होने पर गुरु को दक्षिणा दे। इसके बाद उत्तम कुल में उत्पन्न एवं परम विनीत स्वभाव वाली कन्या के साथ विवाह करे। उत्तम कुल में उत्पन्न हुई नारी साध्वी तथा पति-सेवा में तत्पर होती है। अच्छे कुल की स्त्री कभी उद्दण्ड नहीं हो सकती । पद्मरागमणि की खान में काँच कैसे पैदा हो सकता है ? नारद! नीच कुल में उत्पन्न हुई नारी ही माता-पिता के दोष से उद्दण्ड होती है। वही दुष्टा तथा सब कर्मों में स्वतन्त्र होती है। बेटा! सभी स्त्रियाँ दुष्ट नहीं होती हैं; क्योंकि वे लक्ष्मी की कलाएँ हैं। जो अप्सराओं के अंश से तथा नीच कुल में उत्पन्न होती हैं, वे ही स्त्रियाँ कुलटा हुआ करती हैं। साध्वी स्त्री गुणहीन स्वामी की सेवा एवं प्रशंसा करती है और कुलटा सद्गुणशाली पति की भी सेवा नहीं करती । उलटे उसकी निन्दा करती है। अतः साधुपुरुष प्रयत्नपूर्वक उत्तम कुल में उत्पन्न हुई कन्या के साथ विवाह करे । उसके गर्भ से अनेक पुत्रों को जन्म देकर वृद्धावस्था में तपस्या के लिये जाय । आग में निवास करना उत्तम है, साँप के मुख में तथा काँटे पर भी रह लेना अच्छा है, परंतु मुँह से दुर्वचन निकालने वाली स्त्री के साथ निवास करना कदापि अच्छा नहीं है । वह इन अग्नि, सर्प और कण्टक से भी अधिक दुःखदायिनी होती है। बेटा! मैंने तुम्हें वेद पढ़ाया है। अब तुम मुझे यही गुरुदक्षिणा दो कि विवाह कर लो। वत्स ! तुम्हारी पूर्वजन्म की पत्नी मालती उत्तम कुल में उत्पन्न हुई है। तुम किसी मङ्गलमय दिन और क्षण में उसके साथ विवाह करो। वह सती तुम्हें पाने के लिये ही मनुवंशी सृञ्जय के घर में जन्म लेकर भारतवर्ष में तपस्या कर रही है। इस समय उसका नाम रत्नमाला है। वह लक्ष्मी की कला है। तुम उसे ग्रहण करो। भारतवर्ष में लोगों की तपस्या का फल व्यर्थ नहीं होता । मनुष्य को अध्ययन के पश्चात् पहले गृहस्थ होना चाहिये, फिर वानप्रस्थ । तत्पश्चात् मोक्ष के निमित्त तपस्या का आश्रय लेना चाहिये । वेद में यही क्रम सुना गया है। श्रुति में यह भी सुना गया है कि वैष्णवों के लिये श्रीहरि की पूजा ही तपस्या है। तुम वैष्णव हो । अतः घर में रहो और श्रीकृष्ण-चरणों की अर्चना करो। बेटा ! जिसके भीतर और बाहर श्रीहरि ही विद्यमान हैं, उसे तपस्या से क्या लेना है ? जिसके बाहर और भीतर श्रीहरि नहीं हैं अर्थात् जो श्रीहरि को अपने बाहर और भीतर व्याप्त नहीं देखता, उसे भी व्यर्थ की तपस्या से क्या लेना-देना है ? तपस्या के द्वारा श्रीहरि की ही आराधना की जाती है, दूसरा कोई आराध्य नहीं है। बेटा ! जहाँ-तहाँ कहीं भी रहकर की हुई श्रीकृष्ण की सेवा सर्वोत्तम तप है । अतः तुम मेरे कहने से ही घर में रहकर श्रीहरि का भजन करो । मुनिश्रेष्ठ ! गृहस्थ बनो; क्योंकि गृहस्थों को सदा ही सुख मिलता है । पत्नी के परिग्रह का प्रयोजन है पुत्र की प्राप्ति; क्योंकि पुत्र सैकड़ों प्राणवल्लभा पत्नियों से भी अधिक प्रिय होता है । पुत्र से बढ़कर कोई बन्धु नहीं है तथा पुत्र से बढ़कर कोई प्रिय नहीं है। सबसे जीतने की इच्छा करे। एकमात्र पुत्र से ही पराजय की कामना करे। कोई भी प्रिय पदार्थ अपने लिये नहीं (पुत्र के लिये) रखा जाता है; इसलिये भी पुत्र प्रिय होता है । अतः प्रियतम पुत्र को अपना श्रेष्ठ धन सौंप देना चाहिये ।’ शौनक ! ऐसा कहकर ब्रह्माजी चुप हो गये । तब ज्ञानिशिरोमणि नारद ने पिता से यह बात कही । नारदजी बोले — तात ! जो स्वयं सब कुछ जानकर अपने पुत्र को कुमार्ग में लगाता है, वह पिता दयालु कैसे माना जा सकता है ? ब्रह्मन् ! सारा संसार पानी के बुलबुले के समान नश्वर है । जैसे जल की रेखा मिथ्या होती है, उसी प्रकार तीनों लोक मिथ्या हैं। जिसका मन श्रीहरि की दासता छोड़कर विषय के लिये चञ्चल रहता है, उसका दुर्लभ मानव तन व्यर्थ हो गया । भवसागर में कौन किसकी प्रिया है और कौन किसका पुत्र या बन्धु है ? कर्ममयी तरङ्गों के उठने से इन सबका संयोग हो जाता है और उन तरङ्गों के शान्त होने पर ये एक-दूसरे से बिछुड़ जाते हैं। जो सत्कर्म करवाता है, वही मित्र है, वही पिता और गुरु है। जो दुर्बुद्धि उत्पन्न करता है, वह तो शत्रु है । उसे पिता कैसे कहा जा सकता है ? तात ! इस प्रकार मैंने शास्त्र के अनुसार वेद का बीज ( सारतत्त्व) बताया । यद्यपि यह ध्रुव सत्य है, तथापि मुझे आपकी आज्ञा का पालन करना चाहिये । भगवन् ! पहले मैं नर-नारायण के आश्रम पर जाऊँगा । वहाँ नारायण की वार्ता सुनने के पश्चात् पत्नी – परिग्रह करूँगा । ऐसा कहकर नारदमुनि पिता के सामने चुप हो रहे, उसी क्षण उनके ऊपर फूलों की वर्षा होने लगी । पिता के सामने क्षणभर खड़े रहकर मुनिवर नारद ने फिर यह मङ्गलदायक वचन कहा । श्रीनारद बोले — पिताजी ! पहले मुझे कृष्णमन्त्र का उपदेश दीजिये, जो मेरे मन को अभीष्ट है । श्रीकृष्णमन्त्र-सम्बन्धी जो ज्ञान है तथा जिसमें उनके गुणों का वर्णन है, वह सब भी मुझे बताइये । इसके बाद आपकी प्रसन्नता के लिये मैं दार-संग्रह करूँगा; क्योंकि मन की इच्छा पूर्ण हो जाने पर ही मनुष्य को कोई काम करने में सुख मिलता है। नारद की यह बात सुनकर ज्ञानवेत्ताओं में श्रेष्ठ कमलजन्मा ब्रह्माजी बड़े प्रसन्न हुए और अपने पुत्र से फिर इस प्रकार बोले । ब्रह्माजी ने कहा — वत्स ! भगवान् शंकर तुम्हारे पूर्वजन्म के गुरु हैं और हमारे भी पुरातन गुरु हैं। अत: तुम उन्हीं ज्ञानियों के गुरु कल्याणदाता शान्तस्वरूप शिव के पास जाओ। वहीं उन पुरातन गुरु भगवन् मन्त्र का ज्ञान प्राप्त करके नारायण की कथा-वार्ता सुनो और शीघ्र ही मेरे घर लौट आओ । शौनक ! ऐसा कहकर तीनों लोकों का धारण-पोषण करने वाले ब्रह्माजी चुप हो गये और नारद मुनि पिता को भक्तिभाव से प्रणाम करके शिवलोक को चले गये । (अध्याय २४) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे ब्रह्मखण्डे सौतिशौनकसंवादे ब्रह्मनारदोक्तसंसारसुखासुखवर्णनं नाम चतुर्विंशतितमोऽध्यायः ॥ २४ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. 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