ब्रह्मवैवर्तपुराण – ब्रह्मखण्ड – अध्याय 26
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः
छब्बीसवाँ अध्याय
ब्राह्मणों के आह्निक आचार तथा भगवान्‌ के पूजन की विधि का वर्णन

सौति कहते हैं — शौनकजी ! देवर्षि नारद ने भगवान् शंकर से श्रीहरि के स्तोत्र, कवच, मन्त्र, उत्तम पूजाविधान, ध्यान तथा उनके तत्त्वज्ञान की याचना की । महेश्वर ने उन्हें स्तोत्र, कवच, मन्त्र, ध्यान, पूजा-विधि तथा उनके पूर्वजन्म-सम्बन्धी ज्ञान का उपदेश दिया। वह सब कुछ पाकर मुनिश्रेष्ठ नारद का मनोरथ पूर्ण हो गया। उन्होंने अपने शरणागतवत्सल गुरु भगवान् शिव को भक्तिभाव से प्रणाम किया और इस प्रकार कहा ।

नारदजी बोले – वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ प्रभो ! आप ब्राह्मणों के आह्निक आचार (दिनचर्या या नित्य-कर्म ) – का वर्णन कीजिये, जिससे प्रतिदिन स्वधर्म-पालन हो सके ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

श्रीमहेश्वर ने कहा – प्रतिदिन ब्राह्ममुहूर्त में उठकर रात्रि में पहने हुए कपड़े को बदल दे और अपने ब्रह्मरन्ध्र में स्थित सूक्ष्म, निर्मल, ग्लानि-रहित सहस्रदल-कमल पर विराजमान गुरुदेव का चिन्तन करे । ध्यान में यह देखे कि ब्रह्मरन्ध्रवर्ती सहस्रदल-कमल पर गुरुजी प्रसन्नतापूर्वक बैठे हैं, मन्द मन्द मुस्करा रहे हैं, व्याख्या की मुद्रा में उनका हाथ उठा हुआ है और शिष्य प्रति उनके हृदय में बड़ा स्नेह है । मुख पर प्रसन्नता छा रही है । वे शान्त तथा निरन्तर संतुष्ट रहने वाले हैं और साक्षात् परब्रह्मस्वरूप हैं । सदा इसी प्रकार उनका चिन्तन करना चाहिये ।

इस तरह ध्यान करके मन-ही-मन गुरु की आराधना करे । तदनन्तर निर्मल, श्वेत, सहस्रदलभूषित, विस्तृत हृदय-कमल पर विराजमान इष्टदेव का चिन्तन करे । जिस देवता का जैसा ध्यान और जो रूप बताया गया है, वैसा ही चिन्तन करना चाहिये । गुरु की आज्ञा ले समयोचित कर्तव्य का पालन करना चाहिये । क्रम यह है कि पहले गुरु का ध्यान करके उन्हें प्रणाम करे। फिर उनकी विधिवत् पूजा करने के पश्चात् उनकी आज्ञा ले इष्टदेव का ध्यान एवं पूजन करे । गुरु ही देवता के स्वरूप का दर्शन कराते हैं । वे ही इष्टदेव मन्त्र, पूजाविधि और जप का उपदेश देते हैं। गुरु ने इष्टदेव को देखा है; किंतु इष्टदेव ने गुरु को नहीं देखा है। इसलिये गुरु इष्टदेव से भी बढ़कर हैं।

गुरु ब्रह्मा हैं, गुरु विष्णु हैं, गुरु महेश्वरदेव हैं, गुरु आद्या प्रकृति – ईश्वरी ( दुर्गा देवी) हैं, गुरु चन्द्रमा, अग्नि और सूर्य हैं, गुरु ही वायु और वरुण हैं, गुरु ही माता-पिता और सुहृद् हैं तथा गुरु ही परब्रह्म परमात्मा हैं । गुरु से बढ़कर दूसरा कोई पूजनीय नहीं है । इष्टदेव के रुष्ट होने पर गुरु शिष्य अथवा साधक की रक्षा करने में समर्थ हैं। परंतु गुरुदेव के रुष्ट होने पर सम्पूर्ण देवता मिलकर भी उस साधक की रक्षा करने में समर्थ नहीं हैं । जिस पर गुरु सदा संतुष्ट हैं, उसे पग-पग पर विजय प्राप्त होती है और जिस पर गुरुदेव रुष्ट हैं, उसके लिये सदा सर्वनाश की ही सम्भावना रहती है। जो मूढ़ भ्रमवश गुरु की पूजा न करके इष्टदेव का पूजन करता है, वह सैकड़ों ब्रह्महत्याओं के पाप का भागी होता है, इसमें संशय नहीं है । सामवेद में साक्षात् भगवान् श्रीहरि ने भी ऐसी बात कही है। इसलिये गुरु इष्टदेव से भी बढ़कर परम पूजनीय हैं।

मुने ! इस प्रकार गुरुदेव तथा इष्टदेव का ध्यान एवं स्तवन करके साधक वेद में बताये हुए स्थान पर पहुँचकर प्रसन्नतापूर्वक मल और मूत्र का त्याग करे। जल, जल के निकट का स्थान, बिल-युक्त भूमि, प्राणियों के निवास के निकट, देवालय के समीप, वृक्ष की जड़ के पास, मार्ग, हल से जोती हुई भूमि, खेती से भरे हुए खेत, गोशाला, नदी, कन्दरा के भीतर का स्थान, फुलवाड़ी, कीचड़युक्त अथवा दलदल की भूमि, गाँव आदि के भीतर की भूमि, लोगों के घर के आसपास का स्थान, मेख या खम्भे के पास, पुल, सरकंडों के वन, श्मशान-भूमि, अग्नि के समीप, क्रीडास्थल (खेल-कूद के मैदान ), विशाल वन, मचान के नीचे का स्थान, पेड़ की छाया से युक्त स्थान, जहाँ भूमि के भीतर प्राणी रहते हों वह स्थान, जहाँ ढेर-के-ढेर पत्ते जमा हों वह भूमि, जहाँ घनी दूब उगी हो अथवा कुश जमे हों वह स्थान, बाँबी, जहाँ वृक्ष लगाये गये हों वहाँ की भूमि तथा जो किसी विशेष कार्य के लिये झाड़-बुहारकर साफ की गयी हो, वह भूमि — इन सबको छोड़कर सूर्य के ताप से रहित स्थान में गड्ढा खोद उसी में मल-मूत्र का त्याग करना चाहिये ।

दिन में उत्तराभिमुख होकर मल-मूत्र का त्याग करे; रात में पश्चिम की ओर मुँह करके और संध्याकाल में दक्षिण की ओर मुँह रखते हुए मलोत्सर्ग तथा मूत्रोत्सर्ग करना उचित है। मौन रहकर, जोर-जोर से साँस न लेते हुए मलत्याग करे, जिससे उसकी दुर्गन्ध नाक में न जाय । मलत्याग के पश्चात् उस मल को मिट्टी डालकर ढक दे। तदनन्तर बुद्धिमान् पुरुष गुदा आदि अङ्ग को शुद्ध करे। पहले ढेले या मिट्टी से गुदा आदि की शुद्धि करे । तत्पश्चात् उसे जल से धोकर शुद्ध करे। मृत्तिका-युक्त जो जल शौच के उपयोग में आता है, उसका परिमाण सुनो। मूत्रत्याग के पश्चात् लिङ्ग में एक बार मिट्टी लगाये और धोये। फिर बायें हाथ में चार बार मिट्टी लगाकर धोये । तत्पश्चात् दोनों हाथों में दो बार मिट्टी लगाकर धोना चाहिये, यह मूत्र-शौच कहा गया। यदि मैथुन के अनन्तर मूत्र – शौच करना हो तो उसमें मिट्टी लगाने और धोने की संख्या दुगुनी कर दे अथवा मैथुन के अनन्तर का शौच मूत्र – शौच की अपेक्षा चौगुना होना चाहिये।

मलत्याग के पश्चात् लिङ्ग में एक बार, गुदा में तीन बार, बायें हाथ में दस बार तथा दोनों हाथों में सात बार मिट्टी देनी चाहिये। छठे बार मिट्टी लगाकर धोने से पैरों की शुद्धि होती है। गृहस्थ ब्राह्मणों के लिये मलत्याग के अनन्तर यही शौच बताया गया है । विधवाओं के लिये इस शौच का परिमाण दुगुना बताया गया है। यतियों, वैष्णवों, ब्रह्मर्षियों एवं ब्रह्मचारियों के लिये गृहस्थों की अपेक्षा चौगुने शौच का विधान किया गया है। उपनयन-रहित द्विज, शूद्र तथा स्त्री के लिये उतने ही शौच का विधान है, जितने से उन-उन अङ्गों में लगे हुए मल के लेप और दुर्गन्ध मिट जायँ । क्षत्रिय और वैश्य के लिये भी गृहस्थ ब्राह्मणों के समान शौच का विधान है। वैष्णव आदि मुनियों के लिये दुगुना शौच कहा गया है। शुद्धि की इच्छा रखने वाले मनुष्य को शौच के उपर्युक्त नियम में न्यूनता या अधिकता नहीं करनी चाहिये; क्योंकि विहित नियम का उल्लङ्घन करने पर प्रायश्चित्त का भागी होना पड़ता है।

नारद! अब तुम मुझसे शौच तथा उसके नियम के विषय में सावधान होकर सुनो ! मिट्टी से शुद्धि करने पर वास्तविक शुद्धि होती है । ब्राह्मण भी इस नियम का उल्लङ्घन करे तो वह अशुद्ध ही है । बाँबी की मिट्टी, चूहों की खोदी हुई मिट्टी और पानी के भीतर की मिट्टी भी शौच के उपयोग में न लाये । शौच से बची हुई मिट्टी, घर की दीवार से ली हुई मिट्टी तथा लीपने-पोतने के काम में लायी हुई मिट्टी भी शौच के लिये त्याज्य है । जिसके भीतर प्राणी रहते हों, जहाँ पेड़ से गिरे हुए पत्तों के ढेर लगे हों तथा जहाँ की भूमि हल से जोती गयी हो, वहाँ की भी मिट्टी न ले । कुश और दूर्वा के जड़ से निकाली गयी, पीपल की जड़ के निकट से लायी गयी तथा शयन की वेदी से निकाली गयी मिट्टी को भी शौच के काम में न लाये । चौराहे की, गोशाला की, गाय की खुरी की, जहाँ खेती लहलहा रही हो, उस खेत की तथा उद्यान की मिट्टी को भी त्याग दे ।

ब्राह्मण नहाया हो अथवा नहीं, उपर्युक्त शौचाचार के पालन मात्र से शुद्ध हो जाता है तथा जो शौच से हीन है, वह नित्य अपवित्र एवं समस्त कर्मों अयोग्य है । विद्वान् ब्राह्मण इस शौचाचार का पालन करके मुँह धोये । पहले सोलह बार कुल्ला करके मुख शुद्ध करने के पश्चात् दँतुवन से दाँत की सफाई करे। फिर सोलह बार कुल्ला करके मुँह शुद्ध करे ।

नारद! दाँत माँजने के लिये जो काठ की लकड़ी ली जाती है, उसके विषय में भी कुछ नियम है, उसे सुनो। सामवेद में श्रीहरि ने आह्निक प्रकरण में इसका निरूपण किया है।

अपामार्ग (चिड़चिड़ा या ऊँगा), सिन्धुवार ( सँभालू या निर्गुण्डी), आम, करवीर ( कनेर), खैर, सिरस, जाति (जायफल), पुन्नाग (नागकेसर या कायफल), शाल (साखू), अशोक, अर्जुन, दूधवाला वृक्ष, कदम्ब, जामुन, मौलसिरी, उड़ (अढ़उल) और पलाश — ये वृक्ष दँतुवन के लिये उत्तम माने गये हैं । बेर, देवदारु, मन्दार (आक), सेमर, कँटीले वृक्ष तथा लता आदि को त्याग देना चाहिये । पीपल, प्रियाल (पियाल), तिन्तिडीक ( इमली), ताड़, खजूर और नारियल आदि वृक्ष दँतुवन के उपयोग में वर्जित हैं। जिसने दाँतों की शुद्धि नहीं की, वह सब प्रकार के शौच से रहित है । शौचहीन पुरुष सदा अपवित्र होता है । वह समस्त कर्मों के लिये अयोग्य है । शौचाचार का पालन करके शुद्ध हुआ ब्राह्मण स्नान के पश्चात् दो धुले हुए वस्त्र धारण करके पैर धो आचमन के पश्चात् प्रात:- काल की संध्या करे ।

इस प्रकार जो कुलीन ब्राह्मण तीनों संध्याओं के समय संध्योपासना करता है, वह समस्त तीर्थों में स्नान के पुण्य का भागी होता है। जो त्रिकाल संध्या नहीं करता, वह अपवित्र है । समस्त कर्मों के अयोग्य है। वह दिन में जो काम करता है, उसके फल का भागी नहीं होता। जो प्रात: और सायं संध्या का अनुष्ठान नहीं करता, वह शूद्र के समान है । उसको समस्त ब्राह्मणोचित कर्म से बाहर निकाल देना चाहिये । प्रातः मध्याह्न और सायं-संध्या का परित्याग करके द्विज प्रतिदिन ब्रह्महत्या और आत्महत्या के पाप का भागी होता है ।

जो एकादशी व्रत और संध्योपासना से हीन है, वह द्विज शूद्रजाति की स्त्री से सम्बन्ध रखने वाले पापी की भाँति एक कल्प तक कालसूत्र नामक नरक में निवास करता है। प्रातःकाल की संध्योपासना करके श्रेष्ठ साधक गुरु, इष्टदेव, सूर्य, ब्रह्मा, महादेव, विष्णु, माया, लक्ष्मी और सरस्वती को प्रणाम करे। तत्पश्चात् गुड़, घी, दर्पण, मधु और सुवर्ण का स्पर्श करके समयानुसार स्नान आदि करे । जब पोखरी या बावड़ी में स्नान करे, तब धर्मात्मा एवं विद्वान् पुरुष पहले उसमें से पाँच पिण्ड मिट्टी निकालकर बाहर फेंक दे। नदी, नद, गुफा अथवा तीर्थ में स्नान करना चाहिये।

पहले जल में गोता लगाकर पुनः स्नान के लिये संकल्प करे । वैष्णव महात्माओं का स्नान-विषयक संकल्प श्रीकृष्ण की प्रीति के लिये होता है और गृहस्थों का वह संकल्प किये हुए पापों के नाश के उद्देश्य से होता है । ब्राह्मण संकल्प करके अपने शरीर में मिट्टी पोते । उस समय निम्नांकित वेद-मन्त्र का पाठ करे। मिट्टी लगाने का उद्देश्य शरीर की शुद्धि ही है ।

शरीर में मृत्तिका-लेपन का मन्त्र

अश्वक्रान्ते रथक्रान्ते विष्णुक्रान्ते वसुन्धरे ।
मृत्तिके हर मे पापं यन्मया दुष्कृतं कृतम् ॥

‘वसुन्धरे ! तुम्हारे ऊपर अश्व चलते हैं, रथ दौड़ते हैं और भगवान् विष्णु ने अपने चरणों से तुम्हें आक्रान्त किया है ( अथवा अवतार-काल में तुम्हारे ऊपर लीला-विहार करते हैं) । मृत्तिकामयी देवि! मैंने जो भी दुष्कर्म किया है, मेरा वह सारा पाप तुम हर लो।’

उद्धृतासि वराहेण कृष्णेन शतबाहुना ।
आरुह्य मम गात्राणि सर्वं पापं प्रमोचय ॥
पुण्यं देहि महाभागे स्नानानुज्ञां कुरुष्व माम् ।

‘सैकड़ों भुजाओं से सुशोभित वराहरूपधारी श्रीकृष्ण ने एकार्णव के जल से तुम्हें ऊपर उठाया है। तुम मेरे अङ्ग पर आरूढ़ हो समस्त पापों को दूर कर दो। महाभागे ! पुण्य प्रदान करो और मुझे स्नान करने के लिये आज्ञा दो ।’

तपोधन ! ऐसा कहकर नाभि तक जल में प्रवेश करे और मन्त्रोच्चारणपूर्वक चार हाथ लम्बा-चौड़ा सुन्दर मण्डल बनाकर उसमें हाथ दे तीर्थों का आवाहन करे । जो-जो तीर्थ हैं, उन सबका वर्णन कर रहा हूँ ।

गङ्गे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति ।
नर्मदे सिन्धु कावेरि जलेऽस्मिन् संनिधिं कुरु ॥

‘हे गङ्गे! यमुने! गोदावरि! सरस्वति! नर्मदे! सिन्धु ! और कावेरि ! तुम सब लोग इस जल में निवास करो’ (इस प्रकार आवाहन करने से सब तीर्थ जल में आ जाते हैं) । तदनन्तर नलिनी, नन्दिनी, सीता, मालिनी, महापथा, भगवान् विष्णु पादार्घ्यसे प्रकट हुई त्रिपथगामिनी गङ्गा, पद्मावती, भोगवती, स्वर्णरेखा, कौशिकी, दक्षा, पृथ्वी, सुभगा, विश्वकाया, शिवामृता, विद्याधरी, सुप्रसन्ना, लोकप्रसाधिनी, क्षेमा, वैष्णवी, शान्ता, शान्तिदा, गोमती, सती, सावित्री, तुलसी, दुर्गा, महालक्ष्मी, सरस्वती, श्रीकृष्णप्राणाधिका राधिका, लोपामुद्रा, दिति, रति, अहल्या, अदिति, संज्ञा, स्वधा, स्वाहा, अरुन्धती, शतरूपा तथा देवहूति इत्यादि देवियों का शुद्ध बुद्धि वाला बुद्धिमान् पुरुष स्मरण करे। इनके स्मरण से स्नान कर अथवा बिना स्नान किये ही मनुष्य परम पवित्र हो जाता है ।

इसके बाद विद्वान् पुरुष दोनों भुजाओं के मूलभाग में, ललाट में, कण्ठदेश में और वक्षः- स्थल में तिलक लगाये। यदि ललाट में तिलक न हो तो स्नान, दान, तप, होम, देवयज्ञ तथा पितृयज्ञ — सब कुछ निष्फल हो जाता है । ब्राह्मण स्नान के पश्चात् तिलक करके संध्या और तर्पण करे । फिर भक्तिभाव से देवताओं को नमस्कार करके प्रसन्नतापूर्वक अपने घर को जाय । वहाँ यत्नपूर्वक पैर धोकर धुले हुए दो वस्त्र धारण करे ।

तत्पश्चात् बुद्धिमान् पुरुष मन्दिर में जाय । यह साक्षात् श्रीहरि का ही कथन है । जो स्नान करके पैर धोये बिना ही मन्दिर में घुस जाता है, उसका स्नान, जप और होम आदि सब नष्ट हो जाता है। जो गृहस्थ पुरुष पानी से भींगे या तेल से तर वस्त्र पहनकर घर में प्रवेश करता है, उसके ऊपर लक्ष्मी रुष्ट हो जाती हैं और उसे अत्यन्त भयंकर शाप देकर उसके घर से निकल जाती हैं । यदि ब्राह्मण पिण्डलियों से ऊपर तक पैरों को धोता है तो वह जब तक गङ्गाजी का दर्शन न कर ले, तब तक चाण्डाल बना रहता है ।

ब्रह्मन् ! पवित्र साधक आसन पर बैठ कर आचमन करे । फिर संयमपूर्वक रहकर भक्तिभाव से सम्पन्न हो वेदोक्त विधि से इष्टदेव की पूजा करे । शालग्राम – शिला में, मणि में, मन्त्र में, प्रतिमा में, जल में, थल में, गाय की पीठ पर अथवा गुरु एवं ब्राह्मण में श्रीहरि की पूजा की जाय तो वह उत्तम मानी जाती है। जो अपने सिर पर शालग्राम का चरणोदक छिड़कता है, उसने मानो सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान कर लिया और सम्पूर्ण यज्ञों की दीक्षा ग्रहण कर ली । जो मनुष्य प्रतिदिन भक्तिभाव से शालग्राम- शिला का जल ( चरणामृत) पान करता है, वह जीवन्मुक्त होता है और अन्त में श्रीकृष्ण धाम को जाता है ।

नारद! जहाँ शालग्राम-शिला-चक्र विद्यमान है, वहाँ निश्चय ही चक्रसहित भगवान् विष्णु तथा सम्पूर्ण तीर्थ विराजमान हैं। वहाँ जो देहधारी जानकर, अनजान में अथवा भाग्यवश मर जाता है, वह दिव्य रत्नों द्वारा निर्मित विमान पर बैठकर श्रीहरि के धाम को जाता है। कौन ऐसा साधुपुरुष है, जो शालग्राम – शिला के सिवा और कहीं श्रीहरि का पूजन करेगा; क्योंकि शालग्राम शिला में श्रीहरि की पूजा करने पर परिपूर्ण फल की प्राप्ति होती है। पूजा के आधार (प्रतीक) – का वर्णन किया गया।

अब पूजन की विधि सुनो। श्रीहरि की पूजा बहुसंख्यक सज्जनों द्वारा सम्मानित है। अतः शास्त्र के अनुसार उसका वर्णन करता हूँ । कोई-कोई वैष्णव पुरुष श्रीहरि को प्रतिदिन भक्तिभाव से सोलह सुन्दर तथा पवित्र उपचार अर्पित करते हैं। कोई बारह द्रव्यों का उपचार और कोई पाँच वस्तुओं का उपचार चढ़ाते हैं । जिनकी जैसी शक्ति हो, उसके अनुसार पूजन करें। पूजा की जड़ है – भगवान् के प्रति भक्ति । आसन, वस्त्र, पाद्य, अर्घ्य, आचमनीय, पुष्प, चन्दन, धूप, दीप, उत्तम नैवेद्य, गन्ध, माल्य, ललित एवं विलक्षण शय्या, जल, अन्न और ताम्बूल —ये सामान्यतः अर्पित करने योग्य सोलह उपचार हैं।

गन्ध, अन्न, शय्या और ताम्बूल — इनको छोड़कर शेष द्रव्य बारह उपचार हैं।

पाद्य, अर्घ्य, आचमनीय, पुष्प और नैवेद्य — ये पाँच उपचार हैं।

श्रेष्ठतम साधक मूलमन्त्र का उच्चारण करके ये सभी उपचार अर्पित करे । गुरु के उपदेश से प्राप्त हुआ मूलमन्त्र समस्त कर्मों में उत्तम माना गया है । पहले भूतशुद्धि करके फिर प्राणायाम करे । तत्पश्चात् अङ्गन्यास, प्रत्यङ्गन्यास, मन्त्रन्यास तथा वर्णन्यास का सम्पादन करके अर्घ्यपात्र प्रस्तुत करे। पहले त्रिकोणाकार मण्डल बनाकर उसके भीतर भगवान् कूर्म ( कच्छप ) – की पूजा करे । इसके बाद द्विज शङ्ख में जल भरकर उसे वहीं स्थापित करे । फिर उस जल की विधिवत् पूजा करके उसमें तीर्थों का आवाहन करे । तदनन्तर उस जल से पूजा के सभी उपचारों का प्रक्षालन करे ।

इसके बाद फूल लेकर पवित्र साधक योगासन से बैठे और गुरु के बताये हुए ध्यान के अनुसार अनन्यभाव से भगवान् श्रीकृष्ण का चिन्तन करे। इस तरह ध्यान करके साधक मूलमन्त्र का उच्चारण करते हुए पाद्य आदि सब उपचार बारी-बारी से आराध्यदेव को अर्पित करे । तन्त्रशास्त्र में बताये हुए अङ्ग-प्रत्यङ्ग देवताओं के साथ श्रीहरि की पूजा करे । मूलमन्त्र का यथाशक्ति जप करके इष्टदेव के मन्त्र का विसर्जन करे। फिर भाँति-भाँति के उपहार निवेदित करके स्तुति के पश्चात् कवच का पाठ करे। तत्पश्चात् विसर्जन करके पृथ्वी पर माथा टेककर प्रणाम करे। इस तरह देवपूजा सम्पन्न करके बुद्धिमान् एवं विद्वान् पुरुष श्रौत तथा स्मार्त अग्नि से युक्त यज्ञ का अनुष्ठान करे। मुने! यज्ञ के पश्चात् दिक्पाल आदि को बलि देनी चाहिये। फिर यथाशक्ति नित्य- श्राद्ध और अपने वैभव के अनुसार दान करे। यह सब करके पुण्यात्मा साधक आवश्यक आहार-विहार में प्रवृत्त हो।

श्रुति में पूजन का यही क्रम सुना गया है। नारद ! इस प्रकार मैंने तुमसे सम्पूर्ण वेदोक्त उत्तम सूत्र का तथा ब्राह्मणों के आह्निक कर्म का वर्णन किया । अब और क्या सुनना चाहते हो ? (अध्याय २६)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे ब्रह्मखण्डे शिवनारदसंवादे आह्निकनिरूपणं नाम षड्विंशतितमोऽध्यायः ॥ २६ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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