December 24, 2024 | vadicjagat | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण – ब्रह्मखण्ड – अध्याय 05 ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः पाँचवाँ अध्याय ब्रह्मा आदि कल्पों का परिचय, गोलोक में श्रीकृष्ण का नारायण आदि के साथ रास मण्डल में निवास, श्रीकृष्ण के वामपार्श्व से श्रीराधा का प्रादुर्भाव; राधा के रोमकूपों से गोपांगनाओं का प्राकट्य तथा श्रीकृष्ण से गोपों, गौओं, बलीवर्दों, हंसों, श्वेत घोड़ों और सिंहों की उत्पत्ति; श्रीकृष्ण द्वारा पाँच रथों का निर्माण तथा पार्षदों का प्राकट्य; भैरव, ईशान और डाकिनी आदि की उत्पत्ति महर्षि शौनक के पूछने पर सौति कहते हैं – ब्रह्मन! मैंने सबसे पहले ब्रह्म कल्प के चरित्र का वर्णन किया है। अब वाराह कल्प और पाद्म कल्प – इन दोनों का वर्णन करूँगा, सुनिये। मुने! ब्राह्म, वाराह और पाद्म – ये तीन प्रकार के कल्प हैं; जो क्रमशः प्रकट होते हैं। जैसे सत्य युग, त्रेता, द्वापर और कलियुग– ये चारों युग क्रम से कहे गये हैं, वैसे ही वे कल्प भी हैं। तीन सौ साठ युगों का एक दिव्य युग माना गया है। इकहत्तर दिव्य युगों का एक मन्वन्तर होता है। चौदह मनुओं के व्यतीत हो जाने पर ब्रह्मा जी का एक दिन होता है। ऐसे तीन सौ साठ दिनों के बीतने पर ब्रह्मा जी का एक वर्ष पूरा होता है। इस तरह के एक सौ आठ वर्षों की विधाता की आयु बतायी गयी है। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय यह परमात्मा श्रीकृष्ण का एक निमेषकाल है। कालवेत्ता विद्वानों ने ब्रह्मा जी की आयु के बराबर कल्प का मान निश्चित किया है। छोटे-छोटे कल्प बहुत-से हैं, जो संवर्त आदि के नाम से विख्यात हैं। महर्षि मार्कण्डेय सात कल्पों तक जीने वाले बताये गये हैं; परंतु वह कल्प ब्रह्मा जी के एक दिन के बराबर ही बताया गया है। तात्पर्य यह है मार्कण्डेय मुनि की आयु ब्रह्मा जी के सात दिन में ही पूरी हो जाती है, ऐसा निश्चय किया गया है। ब्रह्म, वाराह और पाद्म – ये तीन महाकल्प कहे गये हैं। इनमें जिस प्रकार सृष्टि होती है, वह बताता हूँ। सुनिये। ब्राह्म कल्प में मधु-कैटभ के मेद से मेदिनी की सृष्टि करके स्रष्टा ने भगवान् श्रीकृष्ण की आज्ञा ले सृष्टि-रचना की थी। फिर वाराह कल्प में जब पृथ्वी एकार्णव के जल में डूब गयी थी, वाराह रूपधारी भगवान् विष्णु के द्वारा अत्यन्त प्रयत्नपूर्वक रसातल से उसका उद्धार करवाया और सृष्टि-रचना की; तत्पश्चात् पाद्म कल्प में सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने विष्णु के नाभि कमल पर सृष्टि का निर्माण किया। ब्रह्मलोक पर्यन्त जो त्रिलोकी है, उसी की रचना की, ऊपर के जो नित्य तीन लोक हैं, उनकी नहीं। सृष्टि-निरूपण के प्रसंग में मैंने यह काल-गणना बतायी है और किंचिन मात्र सृष्टि का निरूपण किया है। अब फिर आप क्या सुनना चाहते हैं? शौनक जी ने पूछा – सूतनन्दन! अब यह बताइये कि गोलोक में सर्वव्यापी महान परमात्मा गोलोक नाथ ने इस नारायण आदि की सृष्टि करके फिर क्या किया है? इस विषय का विस्तारपूर्वक वर्णन करने की कृपा करें। सौति ने कहा – ब्रह्मन! इन सबकी सृष्टि करके इन्हें साथ ले भगवान् श्रीकृष्ण अत्यन्त कमनीय सुरम्य रासमण्डल में गये। रमणीय कल्पवृक्षों के मध्यभाग में मण्डलाकार रासमण्डल अत्यन्त मनोहर दिखायी देता था। वह सुविस्तृत, सुन्दर, समतल और चिकना था। चन्दन, कस्तूरी, अगर और कुमकुम से उसको सजाया गया था। उस पर दही, लावा, सफेद धान और दूर्वादल बिखेरे गये थे। रेशमी सूत में गुँथे हुए नूतन चन्दन-पल्लवों की बन्दनवारों और केले के खंभों द्वारा वह चारों ओर से घिरा हुआ था। करोड़ों मण्डप, जिनका निर्माण उत्तम रत्नों के सारभाग से हुआ था, उस भूमि की शोभा बढ़ाते थे। उनके भीतर रत्नमय प्रदीप जल रहे थे। वे पुष्प और सुगन्ध की धूप से वासित थे। उनके भीतर अत्यन्त ललित प्रसाधन-सामग्री रखी हुई थी। वहाँ जाकर जगदीश्वर श्रीकृष्ण सबके साथ उन मण्डपों में ठहरे। मुनिश्रेष्ठ! उस रासमण्डल का दर्शन करके वे सब लोग आश्चर्य से चकित हो उठे। वहाँ श्रीकृष्ण के वामपार्श्व से एक कन्या प्रकट हुई, जिसने दौड़कर फूल ले आकर उन भगवान् के चरणों में अर्ध्य प्रदान किया। उसके अंग अत्यन्त कोमल थे। वह मनोहारिणी और सुन्दरियों में भी सुन्दरी थी। उसके सुन्दर एवं अरुण ओष्ठ और अधर अपनी लालिमा से बन्धुजीव पुष्प (दुपहरिये के फूल)– की शोभा को पराजित कर रहे थे। मनोहर दन्तपंक्ति मोतियों की श्रेणी को तिरस्कृत करती थी। वह सुन्दरी किशोरी बड़ी मनोहर थी। उसका सुन्दर मुख शरत्पूर्णिमा के कोटि चन्द्रों की शोभा को छीन लेता था। सीमन्त भाग बड़ा मनोहर था। नेत्र शरत्काल के प्रफुल्ल कमलों के समान अत्यन्त सुन्दर दिखायी देते थे। उसकी मनोहर नासिका के सामने पक्षिराज गरुड़ की नुकीली चोंच हार मान चुकी थी। वह मनोहारिणी बाला अपने दोनों कपोलों द्वारा सुनहरे दर्पण की शोभा को तिरस्कृत कर रही थी। रत्नों के आभूषणों से विभूषित दोनों कान बड़े सुन्दर लगते थे। सुन्दर कपोलों में चन्दन, अगुरु, कस्तूरी, कुमकुम और सिन्दूर की बूँदों से पत्र रचना की गयी थी, जिससे वह बड़ी मनोहर जान पड़ती थी। उसके सँवारे हुए केश पाश मालती की माला से अलंकृत थे। वह सती-साध्वी बाला अपने सिर पर सुन्दर एवं सुगन्धित वेणी धारण करती थी। उसके दोनों चरणस्थल कमलों की प्रभा को छीन लेते थे। उसकी मन्द-मन्द गति हंस और खंजन के गर्व का गंजन करने वाली थी। वह उत्तम रत्नों के सार भाग से बनी हुई मनोहर वनमाला, हीरे का बना हुआ हार, रत्न निर्मित केयूर, कंगन, सुन्दर रत्नों के सार भाग से निर्मित अत्यन्त मनोहर पाशक (गले की जंजीर या कान का पासा), बहुमूल्य रत्नों का बना झनकारता हुआ मंजीर तथा अन्य नाना प्रकार के चित्रांकित सुन्दर जड़ाऊ आभूषण पहने हुए थी। वह गोविन्द से वार्तालाप करके उनकी आज्ञा पा मुसकराती हुई श्रेष्ठ रत्नमय सिंहासन पर बैठ गयी। उसकी दृष्टि अपने उन प्राणवल्लभ के मुखारविन्द पर ही लगी हुई थी। उस किशोरी के रोमकूपों से तत्काल ही गोपांगनाओं का आविर्भाव हुआ, जो रूप और वेष के द्वारा भी उसी की समानता करती थीं। उनकी संख्या लक्षकोटि थी। वे सब-की-सब नित्य सुस्थिर-यौवना थीं। संख्या के जानकार विद्वानों ने गोलोक में गोपांगनाओं की उक्त संख्या ही निर्धारित की है। मुने! फिर तो श्रीकृष्ण के रोमकूपों से भी उसी क्षण गोपगणों का आविर्भाव हुआ, जो रूप और वेष में भी उन्हीं के समान थे। संख्यावेत्ता महर्षियों का कथन है कि श्रुति में गोलोक के कमनीय मनोहर रूप वाले गोपों की संख्या तीस करोड़ बतायी गयी है। फिर तत्काल ही श्रीकृष्ण के रोमकूपों से नित्य सुस्थिर यौवन वाली गौएँ प्रकट हुईं, जिनके रूप-रंग अनेक प्रकार के थे। बहुतेरे बलीवर्द (साँड़), सुरभि जाति की गौएँ, नाना प्रकार के सुन्दर-सुन्दर बछड़े और अत्यन्त मनोहर, श्यामवर्ण वाली बहुत-सी कामधेनु गायें भी वहाँ तत्काल प्रकट हो गयीं। उनमें से एक मनोहर बलीवर्द को, जो करोड़ों सिंहों के समान बलशाली था, श्रीकृष्ण ने शिव को सवारी के लिये दे दिया। तत्पश्चात् श्रीकृष्ण के चरणों के नखछिद्रों से सहसा मनोहर हंस-पंक्ति प्रकट हुई। उन हंसों में नर, मादा और बच्चे सभी मिले-जुले थे। उनमें से एक राजहंस को, जो महान बल-पराक्रम से सम्पन्न था, श्रीकृष्ण ने तपस्वी ब्रह्मा को वाहन बनाने के लिये अर्पित कर दिया। तदनन्तर परमात्मा श्रीकृष्ण के बायें कान के छिद्र से सफेद रंग के घोड़ों का समुदाय प्रकट हुआ, जो बड़ा मनोहर जान पड़ता था। उनमें से एक श्वेत अश्व गोपांगना-वल्लभ श्रीकृष्ण ने देवसभा में विराजमान धर्म को सवारी के लिये प्रसन्नतापूर्वक दे दिया। फिर उन परम पुरुष के दाहिने कान के छिद्र से उस देवसभा के भीतर ही महान बलवान और पराक्रमी सिंहों की श्रेणी प्रकट हुई। श्रीकृष्ण ने उनमें से एक सिंह जो बहुमूल्य श्रेष्ठ हार से अलंकृत था, बड़े आदर के साथ प्रकृति (दुर्गा)– देवी को अर्पित कर दिया। उन्हें वही सिंह दिया गया, जिसे वे लेना चाहती थीं। इसके बाद योगीश्वर श्रीकृष्ण ने योगबल से पाँच रथों का निर्माण किया। वे सब शुद्ध एवं सर्वश्रेष्ठ रत्नों से बनाये गये थे। मन के समान वेग से चलने वाले और मनोहर थे। उनकी ऊँचाई लाख योजन की और विस्तार सौ योजन का था। उनमें लाख-लाख पहिये लगे थे। उनका वेग वायु के समान था। उन रथों में एक-एक लाख क्रीड़ा भवन बने हुए थे। उनमें श्रृंगारोचित भोग वस्तुएँ और असंख्य शय्याएँ थीं। उन गृहों में लाखों रत्नमय दीप प्रकाश फैलाते थे और लाखों घोड़े उस रथ की शोभा बढ़ाते थे। भाँति-भाँति के विचित्र चित्र उनमें अंकित थे। सुन्दर रत्नमय कलश उनकी उज्ज्वलता बढ़ा रहे थे। रत्नमय दर्पणों और आभूषणों से वे सभी रथ (वाहन) भरे हुए थे। श्वेत चँवर उनकी शोभा बढ़ा रहे थे। अग्नि में तपाकर शुद्ध किये गये सुनहरे वस्त्र, विचित्र-विचित्र माला, श्रेष्ठ मणि, मोती, माणिक्य तथा हीरों के हारों से वे सभी रथ अलंकृत थे। कुछ-कुछ लाल रंग के असंख्य सुन्दर कृत्रिम कमल, जो श्रेष्ठ रत्नों के सार भाग से निर्मित हुए थे, उन रथों को सुशोभित कर रहे थे। द्विजश्रेष्ठ! भगवान् श्रीकृष्ण ने उनमें से एक रथ तो नारायण को दे दिया और एक राधिका को देकर शेष सभी रथ अपने लिये रख लिये। तत्पश्चात् श्रीकृष्ण के गुह्य देश से पिंगल वर्ण वाले पार्षदों के साथ एक पिंगल पुरुष प्रकट हुआ। गुह्य देश से आविर्भूत होने के कारण वे सब गुह्यक कहलाये और वह पुरुष उन गुह्यकों का स्वामी कुबेर कहलाया, जो धनाध्यक्ष के पद पर प्रतिष्ठित है। कुबेर के वामपार्श्व से एक कन्या प्रकट हुई, जो कुबेर की पत्नी हुई। वह देवी समस्त सुन्दरियों में मनोरमा थी, अतः उसी नाम से प्रसिद्ध हुई। फिर भगवान् के गुह्य देश से भूत, प्रेत, पिशाच, कूष्माण्ड, ब्रह्मराक्षस और विकृत अंग वाले वेताल प्रकट हुए। मुने! तदनन्तर श्रीकृष्ण के मुख से कुछ पार्षदों का प्राकट्य हुआ, जिनके चार भुजाएँ थीं। वे सब-के-सब श्यामवर्ण थे और हाथों में शंख, चक्र, गदा एवं पद्म धारण करते थे। उनके गले में वनमाला लटक रही थी। उन सबने पीताम्बर पहन रखे थे, उनके मस्तक पर किरीट, कानों में कुण्डल तथा अन्यान्य अंगों में रत्नमय आभूषण शोभा दे रहे थे। श्रीकृष्ण ने वे चार भुजाधारी पार्षद नारायण को दे दिये। गुह्यकों को उनके स्वामी कुबेर के हवाले किया और भूत-प्रेतादि भगवान् शंकर को अर्पित कर दिये। तदनन्तर श्रीकृष्ण के चरणारविन्दों से द्विभुज पार्षद प्रकट हुए, जो श्यामवर्ण के थे और हाथों में जपमाला लिये हुए थे। वे श्रेष्ठ पार्षद निरन्तर आनन्दपूर्वक भगवान् के चरणकमलों का ही चिन्तन करते थे। श्रीकृष्ण ने उन्हें दास्यकर्म में नियुक्त किया। वे दास यत्नपूर्वक अर्घ्य लिये प्रकट हुए थे। वे सभी श्रीकृष्ण परायण वैष्णव थे। उनके सारे अंग पुलकित थे, नेत्रों से अश्रु झर रहे थे और वाणी गद्गद थी। उनका चित्त केवल भगवत चरणारविन्दों के चिन्तन में ही संलग्न रहता था। इसके बाद श्रीकृष्ण के दाहिने नेत्र से भयंकर गण प्रकट हुए, जो हाथों में त्रिशूल और पट्टिश लिये हुए थे। उन सब के तीन नेत्र थे और मस्तक पर चन्द्राकार मुकुट धारण करते थे। वे सब-के-सब विशालकाय तथा दिगम्बर थे। प्रज्वलित अग्निशिखा के समान जान पड़ते थे। वे सभी महान भाग्यशाली भैरव कहलाये। वे शिव के समान ही तेजस्वी थे। रुरुभैरव, संहारभैरव, कालभैरव, असितभैरव, क्रोधभैरव, भीषणभैरव, महाभैरव तथा खटवांगभैरव – ये आठ भैरव माने गये हैं। श्रीकृष्ण के बायें नेत्र से एक भयंकर पुरुष प्रकट हुआ, जो त्रिशूल, पट्टिश, व्याघ्रचर्ममय वस्त्र और गदा धारण किये हुए था। वह दिगम्बर, विशालकाय, त्रिनेत्रधारी और चन्द्राकार मुकुट धारण करने वाला था। वह महाभाग पुरुष ‘ईशान’ कहलाया, जो दिक्पालों का स्वामी है। इसके बाद श्रीकृष्ण की नासिका के छिद्र से डाकिनियाँ, योगिनियाँ तथा सहस्रों क्षेत्रपाल प्रकट हुए। इनके सिवा उन परम पुरुष के पृष्ठ देश से सहसा तीन करोड़ श्रेष्ठ देवताओं का प्रादुर्भाव हुआ, जो दिव्य मूर्तिधारी थे। (अध्याय ५) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे सौतिशौनकसंवादे सृष्टिनिरूपणे ब्रह्मखण्डे पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. Please login or register ॥ श्री ब्रह्मवैवर्त महापुराण के ब्रह्मखण्ड में सृष्टि-निरूपण नामक पाँचवाँ अध्याय समाप्त ॥ ५ ॥ Please follow and like us: Related