ब्रह्मवैवर्तपुराण – ब्रह्मखण्ड – अध्याय 06
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः
छठा अध्याय
श्रीकृष्ण का नारायण आदि को लक्ष्मी आदि का पत्नी रूप में दान, महादेव जी का दार-संयोग में अरुचि प्रकट करके निरन्तर भजन के लिये वर माँगना तथा भगवान् का उन्हें वर देते हुए उनके नाम आदि की महिमा बताकर उन्हें भविष्य में शिवा से विवाह की आज्ञा देना तथा शिवा आदि को मन्त्रादि का उपदेश करना

सौति कहते हैं– तदनन्तर श्रीकृष्ण ने श्रेष्ठ रत्नों की माला के साथ महालक्ष्मी और सरस्वती– इन दो देवियों को भी नारायण के हाथ में सादर समर्पित कर दिया। तत्पश्चात् ब्रह्मा जी को सावित्री, धर्म को मूर्ति, कामदेव को रूपवती रति और कुबेर को मनोरमा सादर प्रदान की। इसी तरह अन्यान्य स्त्रियों को भी पतियों के हाथ में दिया। जो-जो स्त्री जिस-जिससे प्रकट हुई थी, उस-उस रूपवती सती को उसी-उसी पति के हाथों में अर्पित किया।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

तदनन्तर सर्वेश्वर श्रीकृष्ण ने योगियों के गुरु शंकर जी को बुलाकर प्रिय वाणी में कहा– ‘आप देवी सिंहवाहिनी को ग्रहण करें।’ श्रीकृष्ण का यह वचन सुनकर नीललोहित शिव हँसे और डरते हुए विनीत भाव से उन प्राणेश्वर प्रभु अच्युत से बोले। महादेव जी ने पहले प्रकृति के दोष बताकर उसे ग्रहण न करने की इच्छा प्रकट की। फिर इस प्रकार कहा–

श्री महेश्वर बोले – “नाथ! मुझे गृहिणी नहीं चाहिये। मुझे तो मनचाहा वर दीजिये। जिस सेवक को जो अभीष्ट हो, श्रेष्ठ स्वामी उसे वही वस्तु देते हैं। मैं आपकी भक्ति में लगा रहूँ, आपके चरणों की दासता– सेवा करता रहूँ यह लालसा मेरे हृदय में निरन्तर बढ़ रही है। आपके नाम-जप से, आपके चरणकमलों की सेवा से मुझे कभी तृप्ति नहीं होती है। मैं सोते-जागते हर समय अपने पाँच मुखों से आपके नाम और गुणों का, जो मंगल के आश्रय हैं, निरन्तर गान करता हुआ सर्वत्र विचरा करता हूँ। मेरा मन कोटि-कोटि कल्पों तक आपके स्वरूप का ध्यान करने में ही तत्पर रहे। भोगेच्छा में नहीं, यह योग और तपस्या में ही संलग्न रहे। आपकी सेवा, पूजा, वन्दना और नाम-कीर्तन में ही इसे सदा उल्लास प्राप्त हो। इनसे विरत होने पर यह उद्विग्न हो उठे।

सम्पूर्ण वरों के ईश्वर! आपके नाम और गुणों का स्मरण, कीर्तन, श्रवण, जाप, आपके मनोहर रूप का ध्यान, आपके चरणकमलों की सेवा, आपकी वन्दना, आपके प्रति आत्मसमर्पण और नित्य आपके नैवेद्य (प्रसाद) का भोजन – यह जो नौ प्रकार की भक्ति है, उसी को मुझे श्रेष्ठ वरदान मानकर दीजिये। प्रभो! सार्ष्टि[1], सालोक्य[2], सारूप्य[3], सामीप्य[4], साम्य[5] और लीनता[6]– मुक्त पुरुष ये छः प्रकार की मुक्तियाँ बताते हैं। अणिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, महिमा, ईशित्व, वशित्व, सर्वकामावसायिता, सर्वज्ञता, दूरश्रवण, परकायप्रवेश, वाकसिद्धि, कल्पवृक्षत्व, सृष्टिशक्ति, संहारशक्ति, अमरत्व और सर्वाग्रगण्यता – ये अठारह सिद्धियाँ मानी गयी हैं।

सर्वेश्वर! योग, तप, सब प्रकार के दान, व्रत, यश, कीर्ति, वाणी, सत्य, धर्म, उपवास, सम्पूर्ण तीर्थों में भ्रमण, स्नान, आपके सिवा अन्य देवता का पूजन, देव प्रतिमाओं का दर्शन, सात द्वीपों की परिक्रमा, समस्त समुद्रों में स्नान, सभी स्वर्गों के दर्शन, ब्रह्मपद, रुद्रपद, विष्णुपद तथा परमपद– ये तथा और भी जो अनिर्वचनीय, वांछनीय पद हैं, वे सब-के-सब आपकी भक्ति के कलांश की सोलहवीं कला के भी बराबर नहीं हैं।

महादेव जी का यह वचन सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण हँसे और उन योगिगुरु महादेव जी से यह सर्वसुखदायक सत्य वचन बोले–

श्रीभगवान् ने कहा – सर्वज्ञों में श्रेष्ठ सर्वेश्वर शिव! तुम पूरे सौ करोड़ कल्पों तक निरन्तर दिन-रात मेरी सेवा करो। सुरेश्वर! तुम तपस्वीजनों, सिद्धों, योगियों, ज्ञानियों, वैष्णवों तथा देवताओं में सबसे श्रेष्ठ हो। शम्भो! तुम अमरत्व लाभ करो और महान मत्युंजय हो जाओ। मेरे वर से तुम्हें सब प्रकार की सिद्धियाँ, वेदों का ज्ञान और सर्वज्ञता प्राप्त होगी। वत्स! तुम लीलापूर्वक असंख्य ब्रह्माओं का पतन देखोगे। शिव! आज से तुम ज्ञान, तेज, अवस्था, पराक्रम, यश और तेज में मेरे समान हो जाओ। तुम मेरे लिये प्राणों से भी अधिक प्रिय हो। तुमसे बढ़कर मेरा कोई प्रिय भक्त नहीं है–

त्वत्परो नास्ति मे प्रेयांस्त्वं मदीयात्मनः परः ।
ये त्वां निन्दन्ति पापिष्ठा ज्ञानहीना विचेतनाः ॥ ३१ ॥
पच्यन्ते कालसूत्रेण यावच्चन्द्रदिवाकरौ ।

शिव! तुमसे बढ़कर अत्यन्त प्रिय मेरे लिये दूसरा नहीं है। तुम मेरी आत्मा से बढ़कर हो। जो पापिष्ठ, अज्ञानी और चेतनाहीन मनुष्य तुम्हारी निन्दा करते हैं, वे तब तक कालसूत्र नरक में पकाये जाते हैं, जब तक चन्द्रमा और सूर्य की सत्ता रहती है।

शिव! तुम सौ कोटि कल्पों के पश्चात् शिवा को ग्रहण करोगे। मेरा वचन कभी व्यर्थ नहीं होता। तुम्हें इसका पालन करना चाहिये। तुम मेरे और अपने वचन का भी पालन करो।  शम्भो! तुम प्रकृति (दुर्गा)– को ग्रहण करके दिव्य सहस्र वर्षों तक महान सुख एवं श्रृंगाररस का आस्वादन करोगे, इसमें संशय नहीं है। तुम केवल तपस्वी नहीं हो। मेरे समान ही महान ईश्वर हो। जो स्वेच्छामय ईश्वर है, वह समयानुसार गृही, तपस्वी और योगी हुआ करता है।

शिव! दार-संयोग (पत्नी-परिग्रह) में तुमने जो दुःख बताया है, उसके विषय में मैं यह कहना चाहता हूँ कि कुलटा स्त्री ही स्वामी को दुःख देती है, पतिव्रता नहीं। जो महान कुल में उत्पन्न हुई है, कुलीन एवं कुल-मर्यादा का पालन करने वाली है, वह स्नेहपूर्वक उसी तरह पति का पालन करती है, जैसे माता उत्तम पुत्र का। पति पतित हो या अपतित, दरिद्र हो या धनवान-कुलवती स्त्री के लिये वही बन्धु, आश्रय और देवता है। जो नीच कुल में उत्पन्न हुई है, जिनमें माता-पिता के बुरे शील, स्वभाव और आचरण का सम्मिश्रण हुआ है तथा जो परपुरुषों के उपभोग में आने वाली हैं, अवश्य वे ही स्त्रियाँ सदा पति की निन्दा करती हैं। जो पति को हम दोनों से भी बढ़कर देखती और समझती है, वह सती-साध्वी स्त्री गोलोक में अपने स्वामी के साथ कोटि कल्पों तक आनन्द भोगती है।  शिव! वह वैष्णवी प्रकृति शिव प्रिया होकर तुम्हारे लिये कल्याणमयी होगी। अतः मेरी आज्ञा से लोक-कल्याण के निमित्त उस साध्वी को भार्यारूप से ग्रहण करो।

तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्ण ने शिवलिंग के स्थापन और पूजन का महान फल बतलाते हुए कहा– जो ‘महादेव’, ‘महादेव’ और ‘महादेव’ का उच्चारण करता है, उसके पीछे मैं उस नाम-श्रवण के लोभ से अत्यन्त भयभीत की भाँति जाता हूँ। जो मनुष्य ‘शिव’ शब्द का उच्चारण करके प्राणों का परित्याग करता है, वह कोटि जन्मों के उपार्जित पाप से मुक्त हो मोक्ष प्राप्त कर लेता है। ‘शिव’ शब्द कल्याण का वाचक है और ‘कल्याण’ शब्द मुक्ति का। शिव के उच्चारण से मोक्ष या कल्याण की प्राप्ति होती है, इसीलिये महादेव जी को शिव कहा गया है।

महादेव महादेव महादेवेतिवादिनः ।
पश्चाद्यामि महात्रस्तो नामश्रवणलोभतः ॥ ४८ ॥
शिवेति शब्दमुच्चार्य्य प्राणांस्त्यजति यो नरः ।
कोटिजन्मार्जितात्पापान्मुक्तो मुक्तिं प्रयाति सः ॥ ४९ ॥
शिवकल्याणवचनं कल्याणं मुक्तिवाचकम् ।
यतस्तत्प्रभवेत्तेन स शिवः परिकीर्तितः ॥ ५० ॥
विच्छेदे धनबन्धूनां निमग्नः शोकसागरे ।
शिवेति शब्दमुच्चार्य्य लभेत्सर्वशिवं नरः ॥ ५१ ॥
पापघ्ने वर्तते शिश्च वश्च मुक्तिप्रदे तथा ।

(ब्रह्मखण्ड 6 । 48-51 1/2)

धन और भाई-बन्धुओं का वियोग होने पर जो शोक-सागर में डूब गया हो, वह मनुष्य शिव शब्द का उच्चारण करके सर्वथा कल्याण का भागी होता है। ‘शि’ पापनाशक अर्थ में है और ‘व’ मोक्षदायक अर्थ में। महादेव जी मनुष्यों के पापहन्ता और मोक्षदाता हैं। इसलिये उन्हें शिव कहा गया है। जिसकी वाणी में शिव- यह मंगलमय नाम विद्यमान है, उसके करोड़ों जन्मों का पाप निश्चय ही नष्ट हो जाता है।

शूलधारी महादेव जी से ऐसा कहकर भगवान् श्रीकृष्ण ने उन्हें कल्पवृक्ष-मन्त्र और मृत्युंजय-तत्त्वज्ञान दिया। तत्पश्चात् वे सिंहवाहिनी दुर्गा से बोले–

श्री भगवान् ने कहा – वत्से! इस समय तुम गोलोक में मेरे पास रहो। फिर समय आने पर कल्याण के आश्रय भूत मंगलदाता शिव को पति रूप में प्राप्त करोगी। सुमुखि! सम्पूर्ण देवताओं के तेजःपुंज से प्रकट हो समस्त दैत्यों का संहार करके तुम सबके द्वारा पूजित होओगी। तदनन्तर कल्प-विशेष में सत्य युग आने पर तुम दक्षकन्या सती होओगी और शिव की सुशीला गृहिणी बनोगी। फिर यज्ञ में अपने स्वामी की निन्दा सुनकर शरीर का त्याग कर दोगी और हिमवान की पत्नी मेना के गर्भ से जन्म लेकर पार्वती नाम से विख्यात होओगी। उस समय सहस्र दिव्य वर्षों तक तुम शिव के साथ विहार करोगी। तत्पश्चात् तुम सर्वदा के लिये पति के साथ पूर्णतः अभिन्नता प्राप्त कर लोगी।

सुरेश्वरि! प्रतिवर्ष प्रशस्त समय में समस्त लोकों में तुम्हारी शरत्-कालिक पूजा होगी। गाँवों और नगरों में तुम ग्रामदेवता के रूप में पूजित होओगी तथा विभिन्न स्थानों में तुम्हारे पृथक-पृथक मनोहर नाम होंगे। मेरी आज्ञा से शिव रचित नाना प्रकार के तन्त्रों द्वारा तुम्हारी पूजा की जायगी। मैं तुम्हारे लिये स्तोत्र और कवच का विधान करूँगा। तुम्हारे सेवक ही महान और सिद्ध होंगे तथा धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष रूप फल के भागी होंगे। मातः! पुण्यक्षेत्र भारतवर्ष में जो तुम्हारी सेवा-पूजा करेंगे, उनके यश, कीर्ति, धर्म और ऐश्वर्य की वृद्धि होगी।

प्रकृति से ऐसा कहकर भगवान् ने उसे कामबीज (क्लीं) सहित एकादशाक्षर-मन्त्र का उपदेश दिया, जो परम उत्तम मन्त्रराज कहा गया है। फिर विधिपूर्वक ध्यान का उपदेश दिया तथा भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये श्री (श्रीं), माया (ह्लीं) तथा काम (क्लीं) बीजसहित दशाक्षर-मन्त्र का उपदेश दिया। साथ ही सृष्टि के लिये उपयोगी शक्ति और मनोवांछित वस्तु प्रदान करने वाली सम्पूर्ण सिद्धि देकर भगवान् ने प्रकृति को उत्कृष्ट तत्त्वज्ञान भी प्रदान किया। इस तरह उसे त्रयोदशाक्षर-मन्त्र देकर जगदीश्वर श्रीकृष्ण ने शिव को भी स्तोत्र और कवच दिया।

ब्रह्मन! फिर धर्म को भी वही मन्त्र और वही सिद्धि एवं ज्ञान देकर कामदेव, अग्नि और वायु को भी मन्त्र आदि का उपदेश दिया। इसी प्रकार कुबेर आदि को मन्त्र आदि का उत्तम उपदेश देकर विधाता के भी विधाता भगवान् श्रीकृष्ण सृष्टि के लिये ब्रह्माजी से इस प्रकार बोले–

श्री भगवान् ने कहा – महाभाग विधे! तुम सहस्र दिव्य वर्षों तक मेरी प्रसन्नता के लिये तप करके नाना प्रकार की उत्तम सृष्टि करो। ऐसा कहकर श्रीकृष्ण ने ब्रह्मा जी को एक मनोरम माला दी। फिर गोप-गोपियों के साथ वे नित्य-नूतन दिव्य वृन्दावन में चले गये।    (अध्याय ६)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे सौतिशौनकसंवादे ब्रह्मखण्डे सृष्टिनिरूपणं नाम षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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श्री भगवान् बोले – महाभाग ! विधे ! सहस्र दिव्य वर्षों तक मेरा तप करके तुम अनेक भाँति की सृष्ट करो ॥ ७१ ॥

इतना कहकर भगवान् कृष्ण ने उन्हें एक मनोरम माला प्रदान की। पश्चात् गोप-गोपियों को साथ लेकर वे (दिव्य) वृन्दावन में चले गये ॥ ७२ ॥

॥ श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के ब्रह्मखण्ड में सृष्टिनिरूपण नामक छठा अध्याय समाप्त ॥ ६ ॥

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