ब्रह्मवैवर्तपुराण – ब्रह्मखण्ड – अध्याय 08
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः
आठवाँ अध्याय
सावित्री से वेद आदि की सृष्टि, ब्रह्मा जी से सनकादि की, सस्त्रीक स्वायम्भुव मनु की, रुद्रों की, पुलस्त्यादि मुनियों की तथा नारद की उत्पत्ति, नारद को ब्रह्मा का और ब्रह्मा जी को नारद का शाप

सौति कहते हैं — तदनन्तर सावित्री ने चार मनोहर वेदों को प्रकट किया। साथ ही न्याय और व्याकरण आदि नाना प्रकार के शास्त्र-समूह तथा परम मनोहर एवं दिव्य छत्तीस रागिनियाँ उत्पन्न कीं। नाना प्रकार के तालों से युक्त छः सुन्दर राग प्रकट किये। सत्ययुग, त्रेता, द्वापर, कलहप्रिय कलियुग; वर्ष, मास, ऋतु, तिथि, दण्ड, क्षण आदि; दिन, रात्रि, वार, संध्या, उषा, पुष्टि, मेधा, विजया, जया, छः कृत्तिका, योग, करण, कार्तिकेय प्रिया सती महाषष्ठी देवसेना – जो मातृकाओं में प्रधान और बालकों की इष्ट देवी हैं, इन सबको भी सावित्री ने ही उत्पन्न किया। ब्रह्मा, पाद्म और वाराह — ये तीन कल्प माने गये हैं। नित्य, नैमित्तिक, द्विपरार्ध और प्राकृत — ये चार प्रकार के प्रलय हैं। इन कल्पों और प्रलयों को तथा काल, मृत्युकन्या एवं समस्त व्याधिगणों को उत्पन्न करके सावित्री ने उन्हें अपना स्तन-पान कराया ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

तदनन्तर ब्रह्मा जी के पृष्ठ देश से अधर्म उत्पन्न हुआ। अधर्म से वामपार्श्व से अलक्ष्मी उत्पन्न हुई, जो उसकी पत्नी थी। ब्रह्मा जी के नाभि देश से शिल्पियों के गुरु विश्वकर्मा हुए। साथ ही आठ महावसुओं की उत्पत्ति हुई, जो महान् बल-पराक्रम से सम्पन्न थे। तत्पश्चात् विधाता के मन से चार कुमार आविर्भूत हुए, जो पाँच वर्ष की अवस्था के जैसे जान पड़ते थे और ब्रह्मतेज से प्रज्वलित हो रहे थे। उनमें से प्रथम तो सनक थे, दूसरे का नाम सनन्दन था, तीसरे सनातन और चौथे ज्ञानियों में श्रेष्ठ भगवान सनत्कुमार थे। इसके बाद ब्रह्मा जी के मुख से सुवर्ण के समान कान्तिमान् कुमार उत्पन्न हुआ, जो दिव्य रूपधारी था। उसके साथ उसकी पत्नी भी थी। वह श्रीमान् एवं सुन्दर युवक था। क्षत्रियों का बीजस्वरूप था। उसका नाम था स्वायम्भुव मनु। जो स्त्री थी, उसका नाम शतरूपा था। वह बड़ी रूपवती थी और लक्ष्मी की कलास्वरूपा थी। पत्नी सहित मनु विधाता की आज्ञा का पालन करने के लिये उद्यत रहते थे। स्वयं विधाता ने हर्ष भरे पुत्रों से, जो बड़े भगवद्भक्त थे, सृष्टि करने के लिये कहा। परंतु वे श्रीकृष्ण परायण होने के कारण ‘नहीं’ करके तपस्या करने के लिये चले गये। इससे जगत्पति विधाता को बड़ा क्रोध हुआ ।

कोपासक्त ब्रह्मा ब्रह्मतेज से जलने लगे। प्रभो! इसी समय उनके ललाट से ग्यारह रुद्र प्रकट हुए। उन्हीं में से एक को संहारकारी ‘कालाग्नि रुद्र’ कहा गया है। समस्त लोगों में केवल वे ही तामस या तमोगुणी माने गये हैं। स्वयं ब्रह्मा राजस हैं और शिव तथा विष्णु सात्त्विक कहे गये हैं। गोलोकनाथ श्रीकृष्ण निर्गुण हैं; क्योंकि वे प्रकृति से परे हैं। जो परम अज्ञानी और मूर्ख हैं, वे ही शिव को तामस (तमोगुणी) कहते हैं। वे शुद्ध, सत्त्वस्वरूप, निर्मल तथा वैष्णवों में अग्रगण्य हैं। अब रुद्रों के वेदोक्त नाम सुनो — महान, महात्मा, मतिमान, भीषण, भयंकर, ऋतुध्वज, ऊर्ध्वकेश, पिङ्गलाक्ष, रुचि, शुचि तथा कालाग्नि रुद्र

ब्रह्मा जी के दायें कान से पुलस्त्य, बायें कान से पुलह, दाहिने नेत्र से अत्रि, वाम नेत्र से क्रतु, नासिका छिद्र से अरणि, मुख से अंगिरा एवं रुचि, वामपार्श्व से भृगु, दक्षिणपार्श्व से दक्ष, छाया से कर्दम, नाभि से पंचशिख, वक्षःस्थल से वोढु, कण्ठ देश से नारद, स्कन्ध देश से मरीचि, गले से अपान्तरतमा, रसना से वसिष्ठ, अधरोष्ठ से प्रचेता, वामकुक्षि से हंस और दक्षिणकुक्षि से यति प्रकट हुए। विधाता ने अपने इन पुत्रों की सृष्टि करने की आज्ञा दी। पिता की बात सुनकर नारद ने उनसे कहा।

नारद बोले — जगत्पते ! पितामह ! पहले सनक, सनन्दन आदि ज्येष्ठ पुत्रों को बुलाइये और उनका विवाह कीजिये। तत्पश्चात् हम लोगों से ऐसा करने के लिये कहिये। जब पिता जी! आपने उन्हें तपस्या में लगाया है, तब हमें ही क्यों संसार-बन्धन में डाल रहे हैं? अहो! कितने खेद की बात है कि प्रभु की बुद्धि विपरीत भाव को प्राप्त हो रही है। भगवन ! आपने किसी पुत्र को तो अमृत से भी बढ़कर तपस्या का कार्य दिया है और किसी को आप विष से भी अधिक विषम विषय-भोग दे रहे हैं। पिताजी ! जो अत्यन्त निम्न कोटि के भयानक भवसागर में गिरता है, उसका करोड़ों कल्प बीतने पर भी उद्धार नहीं होता। भगवान पुरुषोत्तम ही सबके आदि कारण तथा निस्तार के बीज हैं। वे ही सब कुछ देने वाले, भक्ति प्रदान करने वाले, दास्यसुख देने वाले, सत्य तथा कृपामय हैं। वे ही भक्तों को एकमात्र शरण देने वाले, भक्तवत्सल और स्वच्छ हैं। भक्तों के प्रिय, रक्षक और उन पर अनुग्रह करने वाले भी वे ही हैं। भक्तों के आराध्य तथा प्राप्य उन परमेश्वर श्रीकृष्ण को छोड़कर कौन मूढ़ विनाशकारी विषय में मन लगायेगा? अमृत से भी अधिक प्रिय श्रीकृष्ण सेवा छोड़कर कौन मूर्ख विषय नामक विषम विष का भक्षण (आस्वादन) करेगा? विषय तो स्वप्न के समान नश्वर, तुच्छ, मिथ्या तथा विनाशकारी है।

निस्तारबीजं सर्वेषां बीजं च पुरुषोत्तमम् ।
सर्वदं भक्तिदं दास्यप्रदं सत्यं कृपामयम् ॥
भक्तैकशरणं भक्तवत्सलं स्वच्छमेव च ।
भक्तप्रियं भक्तनाथं भक्तानुग्रहकारकम् ॥
भक्ताराध्यं भक्तसाध्यं विहाय परमेश्वरम् ।
मनो दधाति को मूढो विषये नाशकारणे ॥
विहाय कृष्णसेवां च पीयूषादधिकां प्रियाम् ।
को मूढो विषमश्र्नाति विषमं विषयाभिधम् ॥
स्वप्नवन्नश्वरं तुच्छमसत्यं नाशकारणम् ।

(ब्रह्मखण्ड ८ । ३३-३६ १/२ )

तात! जैसे दीपशिखा का अग्रभाग पतंगों को बड़ा मनोहर प्रतीत होता है, जैसे बंसी में गुँथा हुआ मांस मछलियों को आपाततः सुखद जान पड़ता है, उसी प्रकार विषयी पुरुषों को विषय में सुख की प्रतीत होती है; परंतु वास्तव में वह मत्यु का कारण है।

यथा दीपशिखाग्रं च कीटानां सुमनोहरम् ॥
यथा वडिशमांसं च मत्स्यापातसुखप्रदम् ।
तथा विषयिणां तात विषयं मृत्युकारणम् ॥

(ब्रह्मखण्ड ८ । ३७-३८)

ब्रह्मा जी के सामने वहाँ ऐसी बात कहकर नारद जी चुप हो गये। वे अग्निशिखा के समान तेज से प्रकाशित हो रहे थे। पिता को प्रणाम करके चुपचाप खड़े रहे। उनकी बात सुनकर ब्रह्मा जी रोष से आग बबूला हो उठे। उनका मुँह लाल हो गया। ओठ फड़कने लगे और सारा अंग थर-थर काँपने लगा। ब्रह्मन! वे पुत्र को शाप देते हुए बोले।

ब्रह्माजी ने कहा — नारद! मेरे शाप से तुम्हारे ज्ञान का लोप हो जायगा। तुम कामिनियों के क्रीडामृग हो जाओगे। उनके वशीभूत होओगे, तुम पचास कामिनियों के पति बनो। श्रृंगार-शास्त्र के ज्ञाता, श्रृंगार-रसास्वादन के लिये अत्यन्त लोलुप तथा नाना प्रकार के श्रृंगार में निपुण लोगों के गुरु के भी गुरु हो जाओगे। गन्धर्वों में श्रेष्ठ पुरुष होओगे। सुमधुर स्वर से युक्त उत्तम गायक बनोगे। वीणा-वादन-संदर्भ में पारंगत तथा सुस्थिर यौवन से युक्त होओगे। विद्वान, मधुरभाषी, शान्त, सुशील, सुन्दर और सुबुद्धि होओगे, इसमें संशय नहीं है। उस समय ‘उपबर्हण’ नाम से तुम्हारी प्रसिद्धि होगी। उन कामिनियों के साथ युगों तक निर्जन वन में विहार करके फिर मेरे शाप से दासी पुत्र होओगे। बेटा! तदनन्तर वैष्णवों के संसर्ग से और उनकी जूठन खाने से तुम पुनः श्रीकृष्ण की कृपा प्राप्त करके मेरे पुत्र रूप में प्रतिष्ठित हो जाओगे। उस समय मैं पुनः तुम्हें दिव्य एंव पुरातन ज्ञान प्रदान करूँगा। इस समय मेरी आँख से ओझल हो जाओ और अवश्य ही नीचे गिरो।

ब्रह्मन! पुत्र से ऐसा कहकर जगत्पति ब्रह्मा चुप हो गये और नारद जी रोने लगे। उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर पिता से कहा।

नारद बोले — तात! तात ! जगद्गुरो ! आप अपने क्रोध को रोकिये। आप स्रष्टा हैं। तपस्वियों के स्वामी हैं। अहो ! मुझ पर आपका यह क्रोध अकारण ही हुआ है। विद्वान पुरुष को चाहिये कि वह कुमार्गगामी पुत्र को शाप दे अथवा उसका त्याग कर दे। आप पण्डित होकर अपने तपस्वी पुत्र को शाप देना कैसे उचित मानते हैं? ब्रह्मन ! जिन-जिन योनियों में मेरा जन्म हो भगवान की भक्ति मुझे कदापि न छोड़े, ऐसा वर प्रदान कीजिये ।

जगत्स्रष्टा का ही पुत्र क्यों न हो, यदि भगवान श्रीहरि के चरणों में उसकी भक्ति नहीं है तो वह भारत भूमि में सूअर से भी बढ़कर अधम है। जो अपने पूर्वजन्म का स्मरण रखते हुए श्रीहरि की भक्ति से युक्त होता है, वह सूअर की योनियों में जन्म ले तो भी श्रेष्ठ है: क्योंकि उस भजनरूपी कर्म से वह गोलोक में चला जाता है। जो गोविन्द के चरणारविन्दों की भक्ति रूप मनोवांछित मकरन्द का पान करते रहते हैं, उन वैष्णव आदि के स्पर्श से सारी पृथ्वी पवित्र हो जाती है।

पितामह! पापी लोग स्नान करके तीर्थों को जो पाप दे देते हैं, अपने उन पापों का भी प्रक्षालन करने के लिये सब तीर्थ वैष्णव महात्माओं का स्पर्श प्राप्त करना चाहते हैं।

जातिस्मरो हरेर्भक्तियुक्तः शूकरयोनिषु ।
जनिर्लभेत् स प्रसवी गोलोकं याति कर्मणा ॥
गोविन्दचरणाम्भोजभक्तिमाध्वीकमीप्सितम् ।
पिबतां वैष्णवादीनां स्पर्शपूता वसुन्धरा ॥
तीर्थानि स्पर्शमिच्छन्ति वैष्णवानां पितामह ।
पापानां पापिदत्तानां क्षालनायात्मनामपि ॥

(ब्रह्मखण्ड ८ । ५४-५६)

अहो! भारतवर्ष में श्रीहरि के मन्त्र का उपदेश देने और लेने मात्र से कितने ही मनुष्य अपने करोड़ों पूर्वजों के साथ मुक्त हो गये हैं। मन्त्र ग्रहण करने मात्र से मनुष्य करोड़ों जन्मों के पाप से मुक्त एवं शुद्ध हो जाते हैं और पहले के कर्म को समूल नष्ट कर देते हैं। जो गुरुपुत्रों, पत्नियों, शिष्यों, सेवकों और भाई-बन्धुओं को उपदेश दे उन्हें सन्मार्ग का दर्शन कराता है, उसे निश्चय ही उत्तम गति प्राप्त होती है। परंतु जो गुरु शिष्यों का विश्वासपात्र होकर उन्हें असन्मार्ग का दर्शन कराता है – कुमार्ग पर चलने के लिये प्रेरित करता है, वह तब तक कुम्भीपाक नरक में निवास करता है, जब तक सूर्य और चन्द्रमा का अस्तित्व रहता है। वह कैसा गुरु, कैसा पिता, कैसा स्वामी और कैसा पुत्र है, जो भगवान श्रीकृष्ण के चरणारविन्दों की भक्ति देने में समर्थ न हो।

किं गुरुः स किं तातः स किं स्वामी स किं सुतः ।
यः श्रीकृष्णपदाम्भोजे भक्तिं दातुमनीश्वरः ॥

(ब्रह्मखण्ड ८ । ६१)

चतुरानन! आपके बिना किसी अपराध के ही मुझे शाप दे दिया है। अतः बदले में मैं भी शाप दूँ तो अनुचित न होगा; मेरे शाप से सम्पूर्ण लोकों में कवच, स्तोत्र और पूजा सहित आपके मन्त्र का निश्चय ही लोप हो जाये। पिता जी ! जब तक तीन कल्प न बीत जाएँ, तब तक तीनों लोकों में आप अपूज्य बने रहें। तीन कल्प बीत जाने पर आप पूजनीयों के भी पूजनीय होंगे। सुव्रत ! इस समय आपका यज्ञ भाग बंद हो जाय। व्रत आदि में भी आपका पूजन न हो। केवल एक ही बात रहे – आप देवता आदि के वन्दनीय बने रहें।

पिता के सामने ऐसा कहकर नारद जी चुप हो गये और ब्रह्मा जी संतप्त-हृदय से सभा में सुस्थिर भाव से बैठे रहे। शौनकजी ! पिता के दिये हुए उस शाप के ही कारण नारद जी उपबर्हण नामक गन्धर्व तथा दासीपुत्र हुए। तदनन्तर पिता से ज्ञान प्राप्त करके वे फिर महर्षि नारद हो गये। इस प्रसंग का अभी मैं आगे चलकर वर्णन करूँगा।   (अध्याय 8)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे सौतिशौनकसंवादे ब्रह्मखण्डे ब्रह्मनारदशापोपलम्भनं नामाष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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ऐसा कह कर नारद जी अपने पिता के सामने चुप हो गए और ब्रह्मा भी सन्तप्त हृदय से उस सभा में सुस्थिर भाव से बैठे रहे ॥ ६६ ॥ शौनक ! पिता के शाप से ही नारद उपबर्हण नामक गन्धर्व हुए और पुनः दासी पुत्र हुए। इसके पश्चात् पिता (ब्रह्मा) से ज्ञान प्राप्त करके वे महर्षि नारद हुए। इसका वर्णन मैं अभी करूँगा ॥ ६७-६८ ॥

॥ श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराण के ब्रह्मखण्ड में ब्रह्म-नारद-शाप-प्राप्ति नामक आठवाँ अध्याय समाप्त ॥ ८ ॥

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