ब्रह्मवैवर्तपुराण – ब्रह्मखण्ड – अध्याय 09
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः
नौवाँ अध्याय
मरीचि आदि ब्रह्मकुमारों तथा दक्षकन्याओं की संतति का वर्णन, दक्ष के शाप से पीड़ित चन्द्रमा का भगवान् शिव की शरण में जाना, अपनी कन्याओं के अनुरोध पर दक्ष का चन्द्रमा को लौटा लाने के लिये जाना, शिव की शरणागत वत्सलता तथा विष्णु की कृपा से दक्ष को चन्द्रमा की प्राप्ति

सौति कहते हैं विप्रवर शौनक! तदनन्तर ब्रह्मा जी ने अपने पुत्रों को सृष्टि करने की आज्ञा दी। नारद को छोड़कर शेष सभी पुत्र सृष्टि के कार्य में संलग्न हो गये। मरीचि के मन से प्रजापति कश्यप का प्रादुर्भाव हुआ। अत्रि के नेत्रमल से क्षीरसागर में चन्द्रमा प्रकट हुए। प्रचेता के मन से भी गौतम का प्राकट्य हुआ। मैत्रावरुण पुलस्त्य के मानस पुत्र हैं। मनु से शतरूपा के गर्भ से तीन कन्याओं का जन्म हुआ — आकूति, देवहूति और प्रसूति। वे तीनों ही पतिव्रता थीं। मनु-शतरूपा से दो मनोहर पुत्र भी हुए, जिनके नाम थे — प्रियव्रत और उत्तानपाद। उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव हुए, जो बड़े धर्मात्मा थे। मनु ने अपनी पुत्री आकूति का विवाह प्रजापति रुचि के साथ तथा प्रसूति का विवाह दक्ष के साथ कर दिया।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

इसी तरह देवहूति का विवाह-सम्बन्ध उन्होंने कर्दम मुनि के साथ किया, जिनके पुत्र साक्षात भगवान् कपिल हैं। दक्ष के वीर्य और प्रसूति के गर्भ से साठ कन्याओं का जन्म हुआ। उनमें से आठ कन्याओं का विवाह दक्ष ने धर्म के साथ किया, ग्यारह कन्याओं को ग्यारह रुद्रों के हाथ में दे दिया। एक कन्या सती भगवान् शिव को सौंप दी। तेरह कन्याएँ कश्यप को दे दीं तथा सत्ताईस कन्याएँ चन्द्रमा को अर्पित कर दीं।

विप्रवर! अब मुझसे धर्म की पत्नियों के नाम सुनिये – शान्ति, पुष्टि, धृति , तुष्टि, क्षमा, श्रद्धा, मति और स्मृति। शान्ति का पुत्र संतोष और पुष्टि का पुत्र महान् हुआ। धृति से धैर्य का जन्म हुआ। तुष्टि से दो पुत्र हुए – हर्ष और दर्प। क्षमा का पुत्र सहिष्णु था और श्रद्धा का पुत्र धार्मिक। मति से ज्ञान नामक पुत्र हुआ और स्मृति से महान् जातिस्मर पूर्वजन्म की स्मृति वाला का जन्म हुआ। धर्म की जो पहली पत्नी मूर्ति थी, उससे नर – नारायण नामक दो ऋषि उत्पन्न हुए। शौनक जी! धर्म के ये सभी पुत्र बड़े धर्मात्मा हुए।

अब आप सावधान होकर रुद्र पत्नियों के नाम सुनिये। कला, कलावती, काष्ठा, कालिका, कलहप्रिया, कन्दली, भीषणा, रास्रा, प्रमोचा, भूषणा और शुकी। इन सबके बहुत-से पुत्र हुए, जो भगवान् शिव के पार्षद हैं। दक्षपुत्री सती ने यज्ञ में अपने स्वामी की निन्दा होने पर शरीर को त्याग दिया और पुनः हिमवान् की पुत्री पार्वती के रूप में अवतीर्ण हो भगवान् शंकर को ही पतिरूप में प्राप्त किया।

धर्मात्मन् ! अब कश्यप की पत्नियों के नाम सुनिये। देवमाता, अदिति, दैत्यमाता दिति, सर्पमाता कद्रू, पक्षियों की जननी विनता, गौओं और भैंसों की माता सुरभि, सारमेय (कुत्ते) आदि जन्तुओं की माता सरमा, दानव-जननी दनु तथा अन्य पत्नियाँ भी इसी तरह अन्यान्य संतानों की जननी हैं। मुने! इन्द्र आदि बारह आदित्य तथा उपेन्द्र (वामन) आदि देवता अदिति के पुत्र कहे गये हैं, जो महान् बल-पराक्रम से सम्पन्न हैं। ब्रह्मन! इन्द्र का पुत्र जयन्त हुआ, जिसका जन्म शची के गर्भ से हुआ था। आदित्य (सूर्य) की पत्नी तथा विश्वकर्मा की पुत्री सर्वणा के गर्भ से शनैश्चर और यम नामक दो पुत्र तथा कालिन्दी नाम वाली एक कन्या हुई। उपेन्द्र के वीर्य और पृथ्वी के गर्भ से मंगल नामक पुत्र उत्पन्न हुआ।

तदनन्तर भगवान् उपेन्द्र अंश और धरणी के गर्भ से मंगल के जन्म का प्रसंग सुनाकर सौति बोले मंगल की पत्नी मेधा हुई, जिसके पुत्र महान् घंटेश्वर और विष्णु तुल्य तेजस्वी व्रणदाता हुए। दिति से महाबली हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष नामक पुत्र तथा सिंहिका नाम वाली कन्या का जन्म हुआ। सैंहिकेय (राहु) सिंहिका का ही पुत्र है। सिंहिका का दूसरा नाम निर्ऋति भी था। इसीलिये राहु को नैर्ऋत कहते हैं। हिरण्याक्ष को कोई संतान नहीं थी। वह युवावस्था में ही भगवान् वाराह के हाथों मारा गया। हिरण्यकशिपु के पुत्र प्रह्लाद हुए, जो वैष्णवों में अग्रगण्य माने गये हैं। उनके पुत्र विरोचन हुए और विरोचन के पुत्र साक्षात राजा बलि। बलि का पुत्र बाणासुर हुआ, जो महान् योगी, ज्ञानी तथा भगवान् शंकर का सेवक था। यहाँ तक दिति का वंश बताया गया।

अब कद्रू के वंश का परिचय सुनिये। अनन्त, वासुकि, कालिय, धनंजय, कर्कोटक, तक्षक, पद्म, ऐरावत, महापद्म, शंकु, शंक, संवरण, धृतराष्ट्र, दुर्धर्ष, दुर्जय, दुर्मुख, बल, गोक्ष, गोकामुख तथा विरूप आदि को कद्रू ने जन्म दिया था। शौनक जी! जितनी सर्प-जातियाँ हैं, उन सब में प्रधान ये ही हैं।

कन्यका मनसा देवी कमलांशसमुद्भवा ।
तपस्विनीनां प्रवरा महातेजस्विनी शुभा ॥ ४२ ॥
यत्पतिश्च जरत्कारुर्नारायणकुलोद्भवः ।
आस्तीकस्तनयो यस्या विष्णुतुल्यश्च तेजसा ॥ ४३ ॥
एतेषां नाममात्रेण नास्ति नागभयं नृणाम् ।

लक्ष्मी के अंश से प्रकट हुई मनसादेवी कद्रू की कन्या हैं। ये तपस्विनी स्त्रियों में श्रेष्ठ, कल्याणस्वरूपा और महातेजस्विनी हैं। इन्हीं का दूसरा नाम जरत्कारु है। इन्हीं के पति मुनिवर जरत्कारु थे, जो नारायण की कला से प्रकट हुए थे। विष्णु तुल्य तेजस्वी आस्तीक इन्हीं मनसा देवी के पुत्र हैं। इन सबके नाम मात्र से मनुष्यों का नागों से भय दूर हो जाता है। यहाँ तक कद्रू के वंश का परिचय दिया गया।

अब विनता के वंश का वर्णन सुनिये। विनता के दो पुत्र हुए — अरुण और गरुड़ । दोनों ही विष्णु-तुल्य पराक्रमी थे। उन्हीं दोनों से क्रमशः सारी पक्षी-जातियाँ प्रकट हुईं।

गाय, बैल और भैंसे – ये सुरभि की श्रेष्ठ संतानें हैं। समस्त सारमेय (कुत्ते) सरमा के वंशज हैं। दनु के वंश में दानव हुए तथा अन्य स्त्रियों के वंशज अन्यान्य जातियाँ। यहाँ तक कश्यप-वंश का वर्णन किया गया।

अब चन्द्रमा का आख्यान सुनिये। पहले चन्द्रमा की पत्नियों के नामों पर ध्यान दीजिये। फिर पुराणों में जो उनका अत्यन्त अपूर्व पुरातन चरित्र है, उसको श्रवण कीजिये। अश्विनी, भरणी, कृत्तिका, रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पूजनीया साध्वी पुनर्वसु, पुष्या, आश्लेषा, मघा, पूर्वफाल्गुनी, उत्तरफाल्गुनी, हस्ता, चित्रा, स्वाती, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूला, पूर्वाषाढा, उत्तरषाढा, श्रवणा, धनिष्ठा, शुभा शतभिषा, पूर्वभाद्रपदा, उत्तरभाद्रपदा तथा रेवती — ये सत्ताईस चन्द्रमा की पत्नियाँ हैं। इनमें रोहिणी के प्रति चन्द्रमा का विशेष आकर्षण होने के कारण चन्द्रमा ने अन्य सब पत्नियों की बड़ी अवहेलना की। तब उन सबने जाकर पिता दक्ष को अपना दुःख सुनाया। दक्ष ने चन्द्रमा को क्षय-रोग से ग्रस्त होने का शाप दे दिया। चन्द्रमा ने दुःखी होकर भगवान् शंकर की शरण ली और शंकर ने उन्हें आश्रय देकर अपने मस्तक में स्थान दिया। तब से उनका ‘चन्द्रशेखर’ हो गया। देवताओं तथा अन्य लोगों में शिव से बढ़कर शरणागत पालक दूसरा कोई नहीं है।

अपने पति के रोग मुक्त और शिव के मस्तक में स्थित होने की बात सुनकर दक्ष कन्याएँ बारंबार रोने लगीं और तेजस्वी पुरुषों में श्रेष्ठ पिता दक्ष की शरण में आयीं। वहाँ जाकर अपने अंगों को बारंबार पीटती हुई वे उच्चस्वर से रोने लगीं तथा दीनानाथ ब्रह्मपुत्र दक्ष से दीनतापूर्वक कातर वाणी में बोलीं।

दक्ष कन्याओं ने कहा- पिताजी! हमें स्वामी का सौभाग्य प्राप्त हो, इसी उद्देश्य को लेकर हमने आपसे अपना दुःख निवेदन किया था। परंतु सौभाग्य तो दूर रहे, हमारे सद्गुणशाली स्वामी ही हमें छोड़कर चल दिये। तात! नेत्रों के रहते हुए भी हमें सारा जगत् अन्धकारपूर्ण दिखायी देता है। आज यह बात समझ में आयी है कि स्त्रियों का नेत्र वास्तव में उनका पति ही है। पति ही स्त्रियों की गति है, पति ही प्राण तथा सम्पत्ति है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति का हेतु तथा भवसागर का सेतु भी पति ही है। पति ही स्त्रियों का नारायण है, पति ही उनका व्रत और सनातन धर्म है। जो पति से विमुख हैं उन स्त्रियों का सारा कर्म व्यर्थ है।

समस्त तीर्थों में स्नान, सम्पूर्ण यज्ञों में दक्षिणा-वितरण, सम्पूर्ण दान, पुण्यमय व्रत एवं नियम, देवार्चन, उपवास और समस्त तप – ये पति की चरण-सेवाजनित पुण्य की सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं है। स्त्रियों के लिये समस्त बन्धु-बान्धवों में अपना पुत्र ही प्रिय होता है; क्योंकि वही स्वामी का अंश है। पति सौ पुत्रों से भी बढ़कर है। जो नीच कुल में उत्पन्न हुई है, वही स्त्री सदा अपने स्वामी से द्वेष रखती है, जिसका चित्त चंचल और दुष्ट है, वही सदा परपुरुष में आसक्त होती है। पति रोगी, दुष्ट, पतित, निर्धन, गुणहीन, नवयुवक अथवा वृद्ध ही क्यों न हो, साध्वी स्त्री को सदा उसी की सेवा करनी चाहिये। कभी भी उसे त्यागना नहीं चाहिये।

जो नारी गुणवान् या गुणहीन पति से द्वेष रखती या उसे त्याग देती है, वह तब तक कालसूत्र नरक में पकायी जाती है, जब तक चन्द्रमा और सूर्य की सत्ता रहती है। वहाँ पक्षी के समान कीड़े रात-दिन उसे खाते रहते हैं। वह भूख लगने पर मुर्दे का मांस और मज्जा खाती है तथा प्यास लगने पर मूत्र का पान करती है। तदनन्तर कोटि-सहस्र जन्मों तक गीध, सौ जन्मों तक सूअर, फिर सौ जन्मों तक शिकारी जीव और उसके बाद बन्धु-हत्यारिन होती है। तत्पश्चात् पहले के सत्कर्म के प्रभाव से यदि कभी मनुष्य-जन्म पाती है तो निश्चय ही विधवा, धनहीन और रोगिणी होती है। ब्रह्मकुमार! आप हमें पतिदान दीजिये; क्योंकि वह सम्पूर्ण कामनाओं का पूरक होता है। आप ब्रह्मा जी के समान फिर से जगत् की सृष्टि करने में समर्थ हैं।

कन्याओं का यह वचन सुनकर प्रजापति दक्ष भगवान् शंकर के समीप गये। शंकर जी ने उन्हें देखते ही उठकर प्रणाम किया। शिव को प्रणाम करते देख दक्ष ने दुर्धुर्ष क्रोध को त्याग दिया और आशीर्वाद देकर कृपानिधान शंकर से कहा — आप चन्द्रमा को लौटा दें। शिव ने शरणागद चन्द्रमा को त्याग देना स्वीकार नहीं किया, तब दक्ष उन्हें शाप देने को तैयार हो गये। यह देख शिव ने भगवान् विष्णु का स्मरण किया। विष्णु वृद्ध ब्राह्मण के वेष में आये और शिव से बोले — ‘सुरेश्वर! आप चन्द्रमा को लौटा दें और दक्ष के शाप से अपनी रक्षा करें।’

शिव ने कहा — प्रभो! मैं अपने तप, तेज, सम्पूर्ण सिद्धि, सम्पदा तथा प्राणों को भी दे दूँगा, परंतु शरणागत का त्याग करने में असमर्थ हूँ। जो भय से ही शरणागत को त्याग देता है, उसे भी धर्म त्याग देता है और अत्यन्त कठोर शाप देकर चला जाता है। जगदीश्वर ! मैं सब कुछ त्याग देने में समर्थ हूँ, परंतु स्वधर्म का त्याग नहीं कर सकता। जो स्वधर्म से हीन है, वह सबसे बहिष्कृत है। जो सदा धर्म की रक्षा करता है, धर्म भी उसकी रक्षा करता है। भगवन! आप तो धर्म को जानते हैं; फिर क्यों अपनी माया से मोहित करते हुए मुझसे ऐसी बात कहते हैं। आप सबके स्रष्टा, पालक और अन्ततोगत्वा संहारक हैं। जिसकी आप में सुदृढ़ भक्ति है, उसे किससे भय हो सकता है।

शंकर जी यह बात सुनकर सबके भाव को जानने वाले भगवान् श्रीहरि ने चन्द्रमा से चन्द्रमा को खींचकर दक्ष को दे दिया। आधे चन्द्रमा भगवान् शिव के मस्तक पर चले गये और वहाँ रोगमुक्त होकर रहने लगे। दूसरे चन्द्रमा को प्रजापति दक्ष ने ग्रहण किया, जिसे भगवान् विष्णु ने दिया था। उस चन्द्रमा को राज-यक्ष्मा रोग से ग्रस्त देख दक्ष ने माधव का स्तवन किया। तब श्रीहरि ने स्वयं यह व्यवस्था की कि एक पक्ष में चन्द्रमा क्रमशः क्षीण होंगे और दूसरे पक्ष में क्रमशः पुष्ट होते हुए परिपूर्ण हो जायेंगे। ब्रह्मन! उन सब को वर देकर श्रीहरि अपने धाम को चले गये और दक्ष ने चन्द्रमा को लेकर उन्हें अपनी कन्याओं को सौंप दिया।

चन्द्रमा उन सबको पाकर दिन-रात उनके साथ विहार करने लगे और उसी दिन से उनको समभाव से देखने लगे। मुने! इस प्रकार मैंने यहाँ सम्पूर्ण सृष्टि-क्रम का कुछ वर्णन किया है। इस प्रसंग को पुष्कर-तीर्थ में मुनियों की मण्डली के बीच गुरुजी के मुख से मैंने सुना था।                  (अध्याय ९)

॥ इति श्रीबह्मवैवर्ते महापुराणे सौतिशौनकसंवादे ब्रह्मखण्डे नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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