March 11, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 105 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ (उत्तरार्द्ध) एक सौ पाँचवाँ अध्याय भीष्मक द्वारा रुक्मिणी के विवाह का प्रस्ताव, शतानन्द का उन्हें श्रीकृष्ण के साथ विवाह करने की सम्मति देना, रुक्मी द्वारा उसका विरोध और शिशुपाल के साथ विवाह करने का अनुरोध, भीष्मक का श्रीकृष्ण तथा अन्यान्य राजाओं को निमन्त्रित करना श्रीनारायणजी कहते हैं — नारद! विदर्भ देश में भीष्मक नाम के एक राजा राज्य करते थे, जो नारायण अंश से उत्पन्न हुए थे । वे विदर्भदेशीय नरेशों के सम्राट्, महान् बल-पराक्रम से सम्पन्न, पुण्यात्मा, सत्यवादी, समस्त सम्पत्तियों के दाता, धर्मिष्ठ, अत्यन्त महिमाशाली, सर्वश्रेष्ठ और समादृत थे। उनके एक कन्या थी, जिसका नाम रुक्मिणी था । वह महालक्ष्मी के अंश से उत्पन्न थी तथा नारियों में श्रेष्ठ, अत्यन्त सौन्दर्यशालिनी, मनोहारिणी और सुन्दरी स्त्रियों में पूजनीया थी । उसमें नयी जवानी का उमंग था। वह रत्ननिर्मित आभूषणों से विभूषित थी । उसके शरीर की कान्ति तपाये हुए सुवर्ण की भाँति उद्दीप्त थी। वह अपने तेज से प्रकाशित हो रही थी तथा शुद्धसत्त्वस्वरूपा, सत्यशीला, पतिव्रता, शान्त, दमपरायणा और अनन्त गुणों की भण्डार थी। वह शरत्पूर्णिमा के चन्द्रमा के सदृश शोभाशालिनी थी। उसके नेत्र शरत्कालीन कमल के से थे और उसका मुख लज्जा से अवनत रहता था। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय अपनी उस सुन्दरी युवती कन्या को सहसा विवाह के योग्य देखकर उत्तम व्रत का पालन करने वाले, धर्मस्वरूप एवं धर्मात्मा राजा भीष्मक चिन्तित हो उठे। तब वे अपने पुत्रों, ब्राह्मणों तथा पुरोहितों से विचार-विमर्श करने लगे । भीष्मक बोले — सभासदो ! मेरी यह सुन्दरी कन्या बढ़कर विवाह के योग्य हो गयी है; अतः मैं इसके लिये मुनिपुत्र, देवपुत्र अथवा राजपुत्र — इनमें से किसी अभीष्ट उत्तम वर का वरण करना चाहता हूँ। अतः आप लोग किसी ऐसे योग्य वर की तलाश करो, जो नवयुवक, धर्मात्मा, सत्यसंध, नारायणपरायण, वेद-वेदाङ्ग का विशेषज्ञ, पण्डित, सुन्दर, शुभाचारी, शान्त, जितेन्द्रिय, क्षमाशील, गुणी, दीर्घायु, महान् कुल में उत्पन्न और सर्वत्र प्रतिष्ठित हो । राजाधिराज भीष्मक की बात सुनकर महर्षि गौतम के पुत्र शतानन्द, जो वेद-वेदाङ्ग के पारगामी विद्वान्, यथार्थज्ञानी, प्रवचनकुशल, विद्वान्, धर्मात्मा, कुलपुरोहित, भूतल पर सम्पूर्ण तत्त्वों के ज्ञाता और समस्त कर्मों में निष्णात थे, राजा से बोले । शतानन्द ने कहा — राजेन्द्र ! तुम तो स्वयं ही धर्म के ज्ञाता तथा धर्मशास्त्र में निपुण हो; तथापि मैं वेदोक्त प्राचीन इतिहास का वर्णन करता हूँ, सुनो। जो परिपूर्णतम परमेश्वर ब्रह्मा के भी विधाता हैं; ब्रह्मा, शिव और शेष द्वारा वन्दित, परमज्योतिःस्वरूप, भक्तानुग्रहमूर्ति, समस्त प्राणियों के परमात्मा, प्रकृति से परे, निर्लिप्त, इच्छारहित और सबके कर्मों के साक्षी हैं; वे स्वयं श्रीमान् नारायण पृथ्वी का भार उतारने के लिये भूतल पर वसुदेवनन्दन के रूप में अवतीर्ण हुए हैं। राजेन्द्र ! उन परिपूर्णतम को कन्या-दान करके तुम अपनी सौ पीढ़ियों के साथ गोलोक में जाओगे। अतः उन्हें कन्या देकर परलोक में सारूप्य – मुक्ति प्राप्त कर लो और इस लोक में सर्वपूज्य तथा विश्व के गुरु के गुरु हो जाओ। विभो ! सर्वस्व दक्षिणा में देकर महालक्ष्मी- स्वरूपा रुक्मिणी को उन्हें समर्पित कर दो और अपने जन्म-मरण के चक्कर को नष्ट कर डालो । राजन् ! ब्रह्मा ने यही सम्बन्ध लिख रखा है और यह सर्वसम्मत भी है; अतः शीघ्र ही द्वारकापुरी में श्रीकृष्ण के पास ब्राह्मण भेजो और जल्दी-से-जल्दी जो सभी को सम्मत हो, ऐसा शुभ मुहूर्त निश्चित करके परमात्मा श्रीकृष्ण को – जो भक्तानुग्रह- मूर्ति, ध्यानानुरोध के कारण, नित्यविग्रहधारी सर्वोत्तम हैं – यहाँ बुलाओ। नरेश! इस प्रकार और उनके दर्शन करके अपना आवागमन मिटा डालो | महाराज ! जिन्हें चारों वेद, संत, देवगण, सिद्धेन्द्र, मुनीन्द्र तथा ब्रह्मा आदि देवता नहीं जान पाते; ध्यानपूत योगीलोग जिनका ध्यान करते हैं; परंतु साक्षात्कार नहीं कर पाते; चारों वेद, छहों शास्त्र और सरस्वती जिनका गुणगान करने में जड हो जाती है; हजार मुख वाले शेषनाग, पाँच मुखधारी महेश्वर, चार मुखवाले जगत्स्रष्टा ब्रह्मा, कुमार कार्तिकेय, ऋषि, मुनि तथा परम वैष्णव भक्तगण जिनका स्तवन करके पार नहीं पाते; जो योगियों के लिये ध्यान द्वारा साध्य हैं; उन श्रीकृष्ण का गुण मैं बालक होकर किस प्रकार वर्णन कर सकता हूँ? शतानन्दजी का वचन सुनकर राजा का मुख प्रफुल्लित हो उठा। उन्होंने वेगपूर्वक उठकर शतानन्दजी का आलिङ्गन किया। उस समय राजा के मुख पर प्रसन्नता खेल रही थी; उन्होंने शतानन्दजी को नाना प्रकार के रत्न, सुवर्ण, वस्त्र, रत्ननिर्मित आभूषण, गजराज, श्रेष्ठ अश्व, मणिनिर्मित रथ, रमणीय रत्नसिंहासन, बहुत-सा धन, सम्पूर्ण अन्नों से भरी हुई ऐसी उत्तम भूमि, जो बिना जोते अन्न उपजाने वाली तथा सदा वृष्टि करने वाली थी और सबके द्वारा प्रशंसित गाँव दिये। इसी बीच राजकुमार रुक्मि — जो चञ्चल स्वभाववाला तथा अधर्मी था – कुपित हो उठा। क्रोधावेश में उसके मुख और नेत्र लाल हो गये तथा उसका शरीर काँपने लगा । वह सभा में उठकर सभी सभासदों के समक्ष खड़ा हो गया और पिता भीष्मक तथा विप्रवर शतानन्दजी से बोला । रुक्मि ने कहा — राजेन्द्र ! इन भिक्षुकों, लोभियों और क्रोधियों की बात छोड़िये तथा मेरा हितकारक, तथ्य एवं प्रशंसनीय वचन सुनिये। महाबाहो ! कृष्ण ने भयवश युक्ति का आश्रय लेकर राजेन्द्र मुचुकुन्द के सामने कालयवन का वध करके उसका सारा धन हड़प लिया है। उसी कालयवन का धन पाकर ही कृष्ण द्वारका में धनी हो गये हैं । उन्होंने एक जरासंध के भय से डरकर समुद्र के भीतर घर बनाया है। परंतु ऐसे सैकड़ों जरासंधों को मैं अकेले ही क्षणभर में खेल-ही-खेल में मार सकता हूँ; फिर किसी अन्य राजा की तो बात ही क्या है ? भीष्मक ! मैं दुर्वासा का शिष्य हूँ और रणशास्त्र निपुण हूँ। अपने उसी ज्ञान के बल से मैं निश्चय ही विश्व का संहार करने में समर्थ हूँ। मेरे समान बलवान् या तो परशुरामजी हैं या शिशुपाल ही मेरी समता कर सकता है । वह शिशुपाल मेरा सखा, बलवान्, शूरवीर और स्वर्ग को भी जीत लेने की शक्ति रखता है। मैं भी क्षणभर में गणसहित महेन्द्र को जीतने में समर्थ हूँ। नरेश्वर ! दुर्बल एवं योगी जरासंध को युद्ध मेंजीतकर श्रीकृष्ण को अहंकार हो गया है। वे अपने मन अपने को वीर मानने लगे हैं; परंतु यदि वे विवाह करने की इच्छा से मेरे नगर में आयेंगे तो क्षणभर में निश्चय ही उन्हें यमलोक पहुँचा दूँगा। जो वैश्यजातीय नन्द का पुत्र, गौओं का चरवाहा, गोपाङ्गनाओं का लम्पट और ग्वालों की जूँठन खाने वाला है, उसे आप कन्या देना स्वीकार करते हैं । यह महान् आश्चर्य की बात है ! राजेन्द्र ! इस बकवादी के वचन से आपकी बुद्धि मारी गयी है; इसी कारण इस भिक्षुक ब्राह्मण के कहने सेआप देवयोग्या रुक्मिणी को श्रीकृष्ण के हाथों सौंपना चाहते हैं । अरे! वह तो न राजपुत्र है, न शूरवीर है, न कुलीन है, न पवित्र आचरणवाला है, न दाता है, न धनी है, न योग्य है और न जितेन्द्रिय ही है । इसलिये भूपाल ! आप शिशुपाल को कन्या दीजिये; क्योंकि वह सुपूत एवं राजाधिराज का पुत्र है तथा अपने बल से रुद्र को भी संतुष्ट कर चुका है। राजन् ! अब शीघ्र ही पत्र भेजकर विभिन्न देशों में उत्पन्न हुए नरेशों, भाई-बन्धुओं तथा मुनिवरों को निमन्त्रित कीजिये । तदनन्तर रुक्मि की बात सुनकर पुरोहित सहित राजेन्द्र भीष्मक ने एकान्त स्थान में मन्त्री के साथ पूर्णरूप से सलाह की। तत्पश्चात् जो सबको अभीष्ट था, ऐसा शुभ लग्न निश्चित करके एक योग्य एवं अन्तरङ्ग ब्राह्मण को द्वारका भेजने की व्यवस्था की । इधर राजा तुरंत ही हर्षपूर्वक सामग्री जुटाने में लग गये और पुत्र के कहने से उन्होंने चारों ओर निमन्त्रण- पत्र भेज दिये। उधर उस ब्राह्मण ने सुधर्मा-सभा में, जो राजाओं तथा देवताओं से परिवेष्टित थी; पहुँचकर राजा उग्रसेन को वह मङ्गल-पत्रिका दी। उस परम माङ्गलिक पत्र को सुनकर राजा उग्रसेन का मुख प्रफुल्लित हो उठा। उन्होंने हर्ष में भरकर ब्राह्मणों को हजारों स्वर्णमुद्राएँ दान कीं और द्वारका में चारों ओर दुन्दुभि का शब्द कराकर घोषणा करा दी। श्रीकृष्ण की उस बारात में बड़े-बड़े देवता, मुनि, राजागण, यादवगण, कौरव, पाण्डव, विद्वान् ब्राह्मण, माली, शिल्पी, गायक, गन्धर्व आदि सम्मिलित हुए । उस समय उपबर्हण नामक गन्धर्व के रूप में तुम नारद भी बारात के साथ थे। (अध्याय १०५ ) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे उत्तरार्धे नारायणनारदसंवाद रुक्मिण्युद्वाहे पञ्चाधिकशततमोऽध्यायः ॥ १०५ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. 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