ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 110
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
(उत्तरार्द्ध)
एक सौ दसवाँ अध्याय
श्रीकृष्ण के कहने से नन्द-यशोदा का ज्ञान प्राप्ति के लिये कदलीवन में राधिका के पास जाना, वहाँ अचेतनावस्था में पड़ी हुई राधा को श्रीकृष्ण के संदेश द्वारा चैतन्य करना और राधा का उपदेश देने के लिये उद्यत होना

श्रीनारायण कहते हैं — नारद! इस प्रकार उस साङ्गोपाङ्ग मङ्गल-कार्य के अवसर पर पधारे हुए लोगों के चले जाने पर नन्दजी यशोदा के साथ अपने प्रिय पुत्र (श्रीकृष्ण ) – के निकट गये ।

वहाँ जाकर यशोदा ने कहा — माधव ! तुमने अपने पिता नन्दजी को तो ज्ञान प्रदान कर ही दिया, परंतु बेटा! मैं तुम्हारी माता हूँ; अतः कृपानिधे! मुझपर भी कृपा करो । महाभाग ! तुम पृथ्वी का उद्धार करने वाले और भक्तों को उबारने वाले हो। मैं भयभीत हो इस भयंकर भवसागर में पड़ी हुई हूँ । मायामयी प्रकृति ही इस भवसागर से तरने के लिये नौका है और तुम्हीं उसके कर्णधार हो; अतः कृपामय ! मेरा उद्धार करो।

यशोदा की बात सुनकर पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण जो ज्ञानियों के गुरु के भी गुरु हैं, हँस पड़े और भक्तिपूर्वक माता से बोले ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

श्रीभगवान् ने कहा — माँ! जो भक्त्यात्मक ज्ञान है, वह तुम्हें राधा बतलायेगी । यदि तुम राधा के प्रति मानवभाव का त्याग करके उसकी आज्ञा का पालन करोगी तो जो ज्ञान मैंने नन्दजी को दिया है; वही ज्ञान वह तुम्हें प्रदान करेगी। अतः अब नन्दजी के साथ आदरपूर्वक नन्द-व्रज को लौट जाओ ।

इतना कहकर और विनय प्रदर्शित करके श्रीहरि महल के भीतर चले गये । तब नन्दजी यशोदा के साथ कदलीवन को गये। वहाँ उन्होंने राधा को देखा, जो पङ्कस्थ चन्दन-चर्चित जलयुक्त कमल-दल की शय्या परअचेत हो शयन कर रही थीं। राधा ने अपने अङ्गों से भूषणों को उतार फेंका था, उनके शरी रपर श्वेत वस्त्र शोभा पा रहा था, आहार का त्याग कर देने से उनका उदर कृश हो गया था, मूर्च्छितावस्था में उनके ओष्ठ सूख गये थे और नेत्रों आँसू भरे हुए थे । वे परमात्मा श्रीकृष्ण के चरणकमल का ध्यान कर रही थीं, उनका चित्त एकमात्र उन्हीं में निविष्ट था और बाह्यज्ञान लुप्त हो गया था। वे बीच-बीच में मुखकमल को ऊपर उठाकर मन्द मुस्कानयुक्त प्रियतम श्रीकृष्ण का मार्ग जोहती रहती थीं। स्वप्न में प्रियतम के समीप पहुँचकर कभी हँसती और कभी रोती थीं। सखियाँ चारों ओर से श्वेत चँवर द्वारा निरन्तर उनकी सेवा कर रही थीं। राधा की यह दशा देखकर भार्यासहित नन्द को महान् विस्मय हुआ । उन्होंने दण्ड की भाँति भूमि पर लेटकर परम भक्ति के साथ राधा को नमस्कार किया। उसी समय ईश्वरेच्छा से सहसा राधा की नींद उचट गयी । वे जाग पड़ीं और क्षणभर में ही उन्हें विषयज्ञानरहित चेतना प्राप्त हो गयी। तब वे उस सखी-समाज में सामने पति-पत्नी नन्द-यशोदा को देखकर उनसे आदरपूर्वक पूछते हुए मधुर वचन बोलीं ।

राधिका ने पूछा — बतलाओ, तुम कौन हो और यहाँ किस प्रयोजन से आये हो ? सुनो; मुझे विषयज्ञान नहीं है । मैं यह भी नहीं जान पाती कि कौन मनुष्य है कौन पशु; कौन जल है कौन स्थल; और कौन रात है कौन दिन ? यहाँ तक कि मुझे स्त्री, पुरुष अथवा नपुंसक का भी भेद नहीं ज्ञात होता ।

राधिका की बात सुनकर नन्द को महान् विस्मय हुआ । तब गोपी यशोदा सम्भाषण करने के लिये डरते-डरते राधा के निकट गयीं और उनके पास ही बैठकर प्रिय वचन बोलीं । नन्द भी वहीं यशोदा द्वारा दिये गये आसन पर बैठ गये ।

तब यशोदा ने कहा —राधे ! चेत करो; तुम यत्नपूर्वक अपनी रक्षा करो; क्योंकि मङ्गल दिन आने पर तुम अपने प्राणनाथ के दर्शन करोगी । सुरेश्वरि ! तुमने अपने कुल तथा विश्व को पवित्र कर दिया है । तुम्हारे चरणकमल की सेवासे ये गोपियाँ पुण्यवती हो गयी हैं। जनसमूह, संतगण, चारों वेद और पुरातन पुराण तुम्हारी तीर्थों को पावन बनाने वाली सुमङ्गल कीर्ति का गान करेंगे। बुद्धिरूपे ! मैं यशोदा हूँ, ये नन्द हैं और तुम वृषभानुनन्दिनी राधा हो । सुव्रते ! मेरी बात सुनो। भद्रे ! मैं द्वारका नगर से श्रीकृष्ण के पास से तुम्हारे निकट आयी हूँ । सति ! श्रीहरि ने ही मुझे तुम्हारे पास भेजा है। अब तुम उन गदाधर का मङ्गल-समाचार एवं मङ्गल-संदेश सुनो। तुम्हें शीघ्र ही उन श्रीकृष्ण के दर्शन होंगे। हे देवि ! होश में आ जाओ और इस समय मुझे भक्त्यात्मक ज्ञान का उपदेश दो। हम दोनों तुम्हारे पति के उपदेश से तुम्हारे पास आये हैं । वरानने ! इसके बाद श्रीहरि तुम्हारे पास आयेंगे और तुम शीघ्र ही श्रीदामा के शाप से मुक्त हो जाओगी।

इस प्रकार यशोदा के वचन सुनकर और गदाधर का समाचार पाकर श्रीकृष्ण के नामस्मरण से राधा का अमङ्गल दूर हो गया। वे भीतर-ही-भीतर श्रीकृष्ण की सम्भावना करके चेतना में आ गयीं और शान्त होकर मधुर वाणी से परमोत्तम लौकिकी भक्ति का वर्णन करने लगीं।  (अध्याय ११० )

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे उत्तरार्धे नारायणनारदसंवाद राधायशोदासंवाद दशाधिकशततमोऽध्यायः ॥ ११० ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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