March 13, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 111 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ (उत्तरार्द्ध) एक सौ ग्यारहवाँ अध्याय राधिका द्वारा ‘राम’ आदि भगवन्नामों की व्युत्पत्ति और उनकी प्रशंसा तथा यशोदा के पूछने पर अपने ‘राधा’ नाम की व्याख्या करना राधिका ने कहा — यशोदे ! स्त्री जाति तो वस्तुतः यों ही अबला, मूढ़ और अज्ञान में तत्पर रहने वाली होती है; तिसपर भी श्रीकृष्ण के विरह से मेरी चेतना निरन्तर नष्ट हुई रहती है। ऐसी दशा में पाँच प्रकार के ज्ञानों में, जो सर्वोत्तम भक्त्यात्मक ज्ञान है, उसके विषय में मैं क्या कह सकती हूँ? तथापि जो कुछ तुमसे कहती हूँ, उसे सुनो। यशोदे ! तुम इन सारे नश्वर पदार्थों का परित्याग करके पुण्यक्षेत्र भारत में स्थित रमणीय वृन्दावन में जाओ । वहाँ निर्मल यमुनाजल में त्रिकाल स्नान करके सुकोमल चन्दन से अष्टदल कमल बनाकर शुद्ध मन से गर्ग-प्रदत्त ध्यान द्वारा परमानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण का भली-भाँति पूजन करो और आनन्दपूर्वक उनके परमपद में लीन हो जाओ । सति ! सौ पूर्व पुरुषों के साथ अपने कर्म का उच्छेद करके सदा वैष्णवों के ही साथ वार्तालाप करो । ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भक्त अग्नि की ज्वाला, पिंजरे में बंद होना, काँटों में रहना और विष खाना स्वीकार करता है, परंतु हरिभक्तिरहित लोगों का सङ्ग ठीक नहीं समझता; क्योंकि वह नाश का कारण होता है। भक्तिहीन पुरुष स्वयं तो नष्ट होता ही है, साथ ही दूसरे की बुद्धि में भेद उत्पन्न कर देता है । भक्त के सङ्ग से तथा हरिकथालापरूपी अमृत के सिञ्चन से भक्तिरूपी वृक्ष का अङ्कुर बढ़ता है; किंतु भक्तिहीनों के साथ वार्तालापरूपी प्रदीप्ताग्नि की ज्वाला की एक कला के स्पर्श से भी वह अङ्कुर सूख जाता है; फिर सींचने से ही उसकी वृद्धि होती है । इसलिये सावधान होकर भक्तिहीनों के सङ्ग का उसी प्रकार परित्याग कर देना चाहिये, जैसे मनुष्य कालसर्प को देखकर डर के मारे दूर भाग जाते हैं। यशोदे! अपने ऐश्वर्यशाली पुत्र का, जो साक्षात् परमात्मा और ईश्वर हैं, उत्तम भक्ति के साथ भजन करो। उनके राम, नारायण, अनन्त, मुकुन्द, मधुसूदन, कृष्ण, केशव, कंसारे, हरे, वैकुण्ठ, वामन — इन ग्यारह नामों को जो पढ़ता अथवा कहलाता है, वह सहस्त्रों कोटि जन्मों के पापों से मुक्त हो जाता है * । वरं हुतवहज्वालां भक्तो वाञ्छति पञ्जरम् । वरं च कण्टके वासं वरं च विष्भक्षणम् ॥ ११ ॥ हरिभक्तिविहीनानां न सङ्गं नाशकारणम् । स्वयं नष्टो भक्तिहीनो बृद्धिणेदं करोति च ॥ १२ ॥ अङ्कुरो भक्तिवृक्षस्य भक्तसङ्गेन वर्धते । परं हरिकथालापपीयूषासेचनेन च ॥ १३ ॥ अभक्तालापदीपाग्निज्वालायाः कलयापि च । अङ्कुरः शुष्कतां याति पुनः सेकेन वर्धते ॥ १४ ॥ तस्मादभक्तसङ्गं च सावधानः परित्यज । यथा दृष्ट्वा कालसर्पं नरो भीत्वा पलायते ॥ १५ ॥ यशोदे च प्रयत्नेन स्वात्मनः पुत्रमीश्वरम् । राम नारायणनन्त मुकुन्द मधुसूदन ॥ १६ ॥ कृष्ण केशव कंसारे हरे वैकुण्ठ वामन । इत्येकादश नामानि पठेद्वा पाठयेदिति ॥ १७ ॥ जन्मकोटिसहस्राणां पातकादेव मुच्यते । ‘रा’ शब्द विश्ववाची और ‘म’ ईश्वरवाचक है, इसलिये जो लोकों का ईश्वर है उसी कारण वह ‘राम’ कहा जाता है। वह रमा के साथ रमण करता है इसी कारण विद्वान् लोग उसे ‘राम’ कहते हैं । रमा का रमणस्थान होने के कारण राम- तत्त्ववेत्ता ‘राम’ बतलाते हैं । ‘रा’ लक्ष्मीवाची और ‘म’ ईश्वरवाचक है; इसलिये मनीषीगण लक्ष्मीपति को ‘राम’ कहते हैं । सहस्रों दिव्य नामों के स्मरण से जो फल प्राप्त होता है, वह फल निश्चय ही ‘राम’ शब्द के उच्चारणमात्र से मिल जाता है । राशब्दो विश्ववचनो मश्चापीश्वरवाचकः ॥ १८ ॥ विश्वानामीश्वरो यो हि तेन रामः प्रकीर्तितः । रमते रमया सार्वं तेन रामं विदुर्बुधा ॥ १९ ॥ रमाया रमणस्थानं रामं रामविदो विदुः । राश्चेति लक्ष्मीवचनो मश्चापीश्वरवाचकः ॥ २० ॥ लक्ष्मीपतिं गतिं रामं प्रवदन्ति मनीषिणः । नाम्नां सहस्रं दिव्यानां स्मरणे यत्फलं लभेत् ॥ २१ ॥ तत्फलं लभते नूनं रामोच्चारणमात्रतः । विद्वानों का कथन है कि ‘नार’ शब्द का अर्थ सारूप्य मुक्ति है; उसका जो देवता ‘अयन’ है, उसे ‘नारायण’ कहते हैं । किये हुए पाप को ‘नार’ और गमन को ‘अयन’ कहते हैं। उन पापों का जिससे गमन होता है, वही ये ‘नारायण’ कहे जाते हैं। एक बार भी ‘नारायण’ शब्द के उच्चारण से मनुष्य तीन सौ कल्पों तक गङ्गा आदि समस्त तीर्थों में स्नान के फल का भागी होता है । ‘नार’ को पुण्य मोक्ष और ‘अयन’ को अभीष्ट ज्ञान कहते हैं। उन दोनों का ज्ञान जिससे हो, वे ही ये प्रभु ‘नारायण’ हैं ।’ सारूप्यमुक्तिवचनो सारेति च विदुर्बुधाः ॥ २२ ॥ यो देवोऽप्ययनं तस्य स च नारायणः स्मृतः । नाराश्च कृतपापाश्चाप्ययनं गमनं स्मृतम् ॥ २३ ॥ यतो हि गमनं तेषां सोऽयं नारायणः स्मृतः । सकृन्नारायणेत्युक्त्वा पुमान्कल्मशतत्रयम् ॥ २४ ॥ गङ्गादिसर्वतीर्थेषु स्नातो भवति निश्चितम् । नारं च मोक्षणं पुण्यमयनं ज्ञानमीप्सितम् ॥ २५ ॥ तयोर्ज्ञानं भवेद्यस्मात्सोऽयं नारायणः प्रभुः । जिसका चारों वेदों, पुराणों, शास्त्रों तथा अन्यान्य योगग्रन्थों में अन्त नहीं मिलता; इसी कारण विद्वान् लोग उसका नाम ‘अनन्त’ बतलाते हैं । ‘मुकु’ अध्ययमान, निर्माण और मोक्षवाचक है; उसे जो देवता देता है, उसी कारण वह ‘मुकुन्द’ कहा जाता है। ‘मुकु’ वेदसम्मत भक्तिरसपूर्ण प्रेमयुक्त वचन को कहते हैं; उसे जो भक्तों को देता है वह ‘मुकुन्द’ कहलाता है। चूँकि वे मधु दैत्य का हनन करने वाले हैं, इसलिये उनका एक नाम ‘मधुसूदन’ है। यों संतलोग वेद में विभिन्न अर्थ का प्रतिपादन करते हैं। ‘मधु’ नपुंसकलिङ्ग तथा किये हुए शुभाशुभ कर्म और माध्वीक (महुएकी शराब ) – का वाचक है; अतः उसके तथा भक्तों के कर्मों के सूदन करने वाले को ‘मधुसूदन’ कहते हैं। जो कर्म परिणाम में अशुभ और भ्रान्तों के लिये मधुर है उसे ‘मधु’ कहते हैं, उसका जो ‘सूदन’ करता है; वही ‘मधुसूदन’ है। ‘कृषि’ उत्कृष्टवाची, ‘ण’ सद्भक्तिवाचक ‘और ‘अ’ दातृवाचक है; इसीसे विद्वान् लोग उन्हें कृष्ण’ कहते हैं। परमानन्द के अर्थ में ‘कृषि’ और उनके दास्य कर्म में ‘ण’ का प्रयोग होता है । उन दोनों के दाता जो देवता हैं, उन्हें ‘कृष्ण’ कहा जाता है। भक्तों के कोटिजन्मार्जित पापों और क्लेशों में ‘कृषि’ का तथा उनके नाश में ‘ण’ का व्यवहार होता है; इसी कारण वे ‘कृष्ण’ कहे जाते हैं। सहस्र दिव्य नामों की तीन आवृत्ति करने से जो फल प्राप्त होता है; वह फल ‘कृष्ण’ नाम की एक आवृत्ति से ही मनुष्य को सुलभ हो जाता है। वैदिकों का कथन है कि ‘कृष्ण’ नाम से बढ़कर दूसरा नाम न हुआ है, न होगा । ‘कृष्ण’ नाम सभी नामों से परे है। हे गोपी! जो मनुष्य ‘कृष्ण-कृष्ण’ यों कहते हुए नित्य उनका स्मरण करता है; उसका उसी प्रकार नरक से उद्धार हो जाता है, जैसे कमल जल का भेदन करके ऊपर निकल आता है। ‘कृष्ण’ ऐसा मङ्गल नाम जिसकी वाणी में वर्तमान रहता है, उसके करोड़ों महापातक तुरंत ही भस्म हो जाते हैं । ‘कृष्ण’ नाम-जप का फल सहस्त्रों अश्वमेध यज्ञों के फल से भी श्रेष्ठ है; क्योंकि उनसे पुनर्जन्म की प्राप्ति होती है; परंतु नाम-जप से भक्त आवागमन से मुक्त हो जाता है। समस्त यज्ञ, लाखों व्रत, तीर्थस्नान, सभी प्रकार के तप, उपवास, सहस्रों वेदपाठ, सैकड़ों बार पृथ्वी की प्रदक्षिणा- ये सभी इस ‘कृष्णनाम’ – जप की सोलहवीं कला की समानता नहीं कर सकते । कृषिरुत्कृष्टवचनो णश्च सद्भक्तिवाचकः ॥ ३२ ॥ अश्चापि दातृवचनः कृष्णं तेन विदुर्बुधाः । कृषिश्च परमानन्दे णश्च तद्दास्यकर्मणि ॥ ३३ ॥ तयोर्दाता च यो देवस्तेन कृष्णः प्रकीर्तितः । कोटिजन्मार्जिते पापे कृषिःक्लेशे च वर्तते ॥ ३४ ॥ भक्तानां णश्च निर्वाणे तेन कृष्णः प्रकीर्तितः । नाम्नां सहस्रं दिव्यानां त्रिरावृत्त्या चयत्फलम् ॥ ३५ ॥ एकावृत्त्या तु कृष्णस्य तत्फलं लभते नरः । कृष्णनाम्नः परं नाम न भूतं न भविष्यति ॥ ३६ ॥ सर्वेभ्यश्च परं नाम कृष्णेति वैदिका विदुः । कृष्ण कृष्णोति हे गोपि यस्तं स्मरति नित्यशः ॥ ३७ ॥ जलं भित्त्वा यथा पद्मं नरकादुद्धरेच्च सः । कृष्णेति मङ्गलं नाम यस्य वाचि प्रवर्तते ॥ ३८ ॥ भस्मीभवन्ति सद्यस्तु महापातककोटयः । अश्वमेधसहस्रेभ्यः फलं कृष्णजपस्य च ॥ ३९ ॥ वरं तेभ्यः पुनर्जन्म नातो भक्तपुनर्भवः । सर्वेषामपि यज्ञानां लक्षाणि च व्रतानि च ॥ ४० ॥ तीर्थस्नानानि सर्वाणि तपांस्यनशनानि च । वेदपाठसहस्राणि प्रादक्षिण्यं भुवः शतम् ॥ ४१ ॥ कृष्णनामजपस्यास्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् । उन उपर्युक्त कर्मों के लोभ से मनुष्यों को चिरकाल के लिये स्वर्गरूप फल की प्राप्ति होती है और उस स्वर्ग से पतन होना निश्चित है; परंतु जपकर्ता पुरुष श्रीहरि के परम पद को प्राप्त कर लेता है । ‘क’ जल को कहते हैं; उस जल में तथा समस्त शरीरों में भी जो आत्मा शयन करता है; उस देव को सभी वैदिक लोग ‘केशव’ कहते हैं । ‘कंस’ शब्द का प्रयोग पातक, विघ्न, रोग, शोक और दानव के अर्थ में होता है, उनका जो ‘अरि’ अर्थात् हनन करने वाला है; वह ‘कंसारि’ कहा जाता है। जो रुद्ररूप से नित्य विश्वों का तथा भक्तों के पातकों का संहार करते रहते हैं, इसी कारण वे ‘हरि’ कहलाते हैं । जो ब्रह्मस्वरूपा ‘मा’ मूलप्रकृति, ईश्वरी, नारायणी, सनातनी विष्णुमाया, महालक्ष्मीस्वरूपा, वेदमाता सरस्वती, राधा, वसुन्धरा और गङ्गा नाम से विख्यात हैं, उनके स्वामी (धव) को ‘माधव’ कहते हैं । यशोदे ! ब्रह्मा, विष्णु, महेश और शेष आदि जिनकी वन्दना करते हैं; सनकादि मुनि ध्यान द्वारा जिनका कुछ भी रहस्य नहीं जान पाते और वेद-पुराण जिनका निरूपण करने में असमर्थ हैं; उन माखनचोर का भक्तिपूर्वक भजन करो। दूध, दही, घी, नया मथकर तैयार किया हुआ मट्ठा – ये सब कहाँ हैं, उनका चुराने वाला कहाँ है, तुम कहाँ हो और तुम्हारा भवबन्धन कहाँ है ? योगी, सिद्धगण, मुनीन्द्र, भक्तसमुदाय, ब्रह्मा, शिव और शेष योग द्वारा जिन्हें बाँध नहीं सके; वह तुम्हारे ओखली-मूलसे कैसे बँध गया ? अतः सति । भारतवर्ष में शीघ्र ही हृत्कमल के मध्य में स्थित परमेश्वररूप अपने पुत्र का प्रेम, भक्ति, स्तवन, पूजन और यत्नपूर्वक ध्यान करते हुए भजन करो। गोपी ! तुम्हारा कल्याण हो । अब तुम्हारे मन में जो इच्छा हो, वह वरदान माँग लो। इस समय जगत् में जो देवताओं के लिये भी दुर्लभ होगा, वह सब कुछ मैं तुम्हें प्रदान करूँगी । यशोदा ने कहा — राधे ! श्रीहरि के चरणों में निश्चल भक्ति तथा उनकी दासता — यही मेरा अभीष्ट वर है। साथ ही तुम्हारे नाम की क्या व्युत्पत्ति है – यह भी मुझे बतलाने की कृपा करो । श्रीराधिका बोलीं — यशोदे ! मेरे वरदान से तुम्हारी श्रीहरि के चरणों में निश्चल भक्ति हो और तुम्हें श्रीहरि की दुर्लभ दासता प्राप्त हो । अब उत्तम निर्णय का वर्णन करती हूँ, सुनो। पूर्वकाल में नन्द ने मुझे भाण्डीर-वट के नीचे देखा था, उस समय मैंने व्रजेश्वर नन्द को वह रहस्य बतलाया था और उसे प्रकट करने को मना कर दिया था । मैं ही स्वयं राधा हूँ और रायाण गोप की भार्या मेरी छायामात्र है। रायाण श्रीहरि के अंश, श्रेष्ठ पार्षद और महान् हैं। जिनके रोमकूपों में अनेकों विश्व वर्तमान हैं, वे महाविष्णु ही ‘रा’ शब्द हैं और ‘धा’ विश्व के प्राणियों तथा लोकों में मातृवाचक धाय है; अतः मैं इनकी दूध पिलाने वाली माता, मूलप्रकृति और ईश्वरी हूँ । इसी कारण पूर्वकाल में श्रीहरि तथा विद्वानों ने मेरा नाम ‘राधा’ रखा है । राशब्दश्च महाविष्णुर्विश्वानि यस्य लोमसु । विश्वप्राणिषु विश्वेषु धा धात्री मातृवाचकः ॥ ५७ ॥ धात्री माताऽहमेतेषां मूलप्रकृतिरीश्वरी । तेन राधा समाख्याता हरिणा च पुरा बुधैः ॥ ५८ ॥ इस समय मैं सुदामा के शाप से वृषभानु की कन्या होकर प्रकट हुई हूँ। अब सौ वर्ष पूरे होने तक मेरा श्रीहरि के साथ वियोग बना रहेगा। मेरे पिता वृषभानु श्रीकृष्ण के श्रेष्ठ पार्षद और महान् हैं तथा मेरी माता कलावती पितरों की मानसी कन्या हैं। इस भारतवर्ष में मेरी माता तथा मैं – दोनों अयोनिजा हैं । पुनः तुम लोगों के साथ श्रीहरि के परमपद को प्राप्त होंगी। व्रजेश्वरि ! इस प्रकार मैंने तुम्हें सारा भक्त्यात्मक ज्ञान बतला दिया । सति ! तब तुम अपने ज्ञानी स्वामी व्रजेश्वर के साथ व्रज को लौट जाओ; क्योंकि इस समय तुम्हीं मेरे ध्यान में रुकावट डालने वाली हो । सुन्दरि ! ध्यानभङ्ग हो जाने पर मनुष्यों को महान् दोष का भागी होना पड़ता है। (अध्याय १११) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे उत्तरार्धे नारायणनारदसंवाद राधायशोदासंवाद एकादशाधिकशततमोऽध्यायः ॥ १११ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. 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