March 13, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 112 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ (उत्तरार्द्ध) एक सौ बारहवाँ अध्याय प्रद्युम्नाख्यान-वर्णन, श्रीकृष्ण का सोलह हजार आठ रानियों के साथ विवाह और उनसे संतानोत्पत्ति का कथन, दुर्वासा का द्वारका में आगमन और वसुदेव-कन्या एकानंशा के साथ विवाह, श्रीकृष्ण के अद्भुत चरित्र को देखकर दुर्वासा का भयभीत होना, श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना और दुर्वासा का पत्नी को छोड़कर तप के लिये जाना श्रीनारायण कहते हैं — मुने! द्वारका में पहुँचकर वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण वसुदेवजी की आज्ञा से रुक्मिणी के रत्ननिर्मित श्रेष्ठ भवन में गये । वह भवन शुद्ध स्फटिक के समान उज्ज्वल, बहुमूल्य रत्नोंद्वारा रचित, सामने तथा चारों ओर से रमणीय और नाना प्रकार के चित्रों से चित्रित था । उस पर अमूल्य रत्नों के कलश चमक रहे थे और वह श्वेत चँवरों, दर्पणों तथा अग्निशुद्ध पवित्र वस्त्रों द्वारा सब ओर से सुशोभित था । तदनन्तर रुक्मिणीदेवी से पूर्वकाल में शिव के द्वारा भस्मीभूत कामदेव प्रकट हुए। उन्होंने शम्बरासुर का वध करके अपनी पतिव्रता पत्नी रति को प्राप्त किया। उस समय रति देवता के संकेत से ‘मायावती’ नाम धारण करके शम्बरासुर के महल में उसकी गृहिणी बनकर रहती थी; परंतु उसकी शय्या पर स्वयं न जाकर अपनी छाया को भेजती थी । ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नारद ने पूछा — महाभाग ! कामदेव (प्रद्युम्न ) – ने किस प्रकार दैत्यराज शम्बर का वध किया था? वह शुभ कथा विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये । श्रीनारायण ने कहा — नारद! एक सप्ताह के व्यतीत होने पर दैत्यराज शम्बर रुक्मिणी के सूतिकागृह से बालक को लेकर वेगपूर्वक अपने वासस्थान को चला गया। वह दैत्यराज पुत्रहीन था; अतः उस पुत्र को पाकर उसे महान् हर्ष हुआ। फिर उसने प्रसन्नता से वह बालक मायावती को दे दिया । उसे पाकर सती मायावती को भी बड़ी प्रसन्नता हुई । तदनन्तर सरस्वतीदेवी ने आकर मायावती (रति) – को और श्रीकृष्ण – पुत्र (कामदेव ) – को समझाया कि तुम दोनों पत्नी पति हो। शिव के कोप से भस्म हुए कामदेव ने ही श्रीकृष्ण के पुत्ररूप से जन्म लिया है; अतएव तुम दोनों पति-पत्नी की भाँति रहो । तब वे पति-पत्नी की भाँति रहने लगे। इस बात का शम्बरासुर को पता लग गया। तब वह दोनों की भर्त्सना करके उन्हें मारने दौड़ा। उसने शिवजी का दिया हुआ शूल चलाया। इसी बीच पवनदेव ने चुपके- से दुर्गा का स्मरण करने को कहा । दुर्गा का स्मरण करते ही शिव-शूल रमणीय और मनोहर माला के रूप में परिणत हो गया । तदनन्तर कामदेव ने हर्षपूर्वक ब्रह्मास्त्र द्वारा उस दैत्य को मार डाला और रति को लेकर वे विमान द्वारा द्वारकापुरी को चले गये । उनके पीछे समस्त देवगण स्वयं पार्वती की स्तुति करके चले । रुक्मिणी ने मङ्गल-कार्य सम्पन्न करके रति को और अपने पुत्र को ग्रहण किया । श्रीहरि ने स्वस्त्ययनपूर्वक परम उत्सव कराया, ब्राह्मणों को जिमाया और पार्वती की पूजा की। तदनन्तर श्रीकृष्ण ने वेदोक्त शुभ दिन आने पर क्रमशः सात रमणियों का पाणिग्रहण किया । उनके नाम हैं— कालिन्दी, सत्यभामा, सत्या, सती, नाग्नजिती, जाम्बवती और लक्ष्मणा । उन्होंने क्रमशः इनके साथ विवाह किये और पुत्र उत्पन्न किये। उनमें एक-एक से क्रमशः दस-दस पुत्र और एक-एक कन्या उत्पन्न हुई। तत्पश्चात् श्रीकृष्ण ने राजाधिराज नरकासुर को पुत्रसहित मारकर रण के मुहाने पर महाबली मुर दैत्य को भी यमलोक का पथिक बना दिया। वहाँ उसके महल में श्रीकृष्ण को सोलह हजार कन्याएँ दीख पड़ीं, जिनकी अवस्था सौ वर्ष से ऊपर हो चुकी थी; परंतु उनका यौवन सदा स्थिर रहने वाला था। वे सब-की-सब रत्नाभूषणों से विभूषित थीं तथा उनके मुख प्रफुल्लित थे । माधव ने शुभ मुहूर्त में उन सबका पाणिग्रहण किया और शुभकाल में क्रमशः उन सबके साथ रमण किया । उनमें भी प्रत्येक से क्रमशः दस-दस पुत्र और एक-एक कन्या का जन्म हुआ। इस प्रकार श्रीहरि के पृथक्-पृथक् इतनी संतानें उत्पन्न हुईं। नारद! एक समय की बात है । मुनिवर दुर्वासा अनायास घूमते-घूमते रमणीय द्वारकापुरी में आये । उस समय उनके साथ तीन करोड़ शिष्य भी थे । उन्हें आया देखकर पुत्र और पुरोहित के साथ महाराज उग्रसेन, वसुदेव, श्रीकृष्ण, अक्रूर तथा उद्भव ने षोडशोपचार द्वारा मुनिवर की पूजा करके उन्हें प्रणाम किया। ब्रह्मन् ! तब मुनिवर ने उन्हें पृथक्-पृथक् शुभाशीर्वाद दिये। तदनन्तर वसुदेवजी ने अपनी कन्या एकानंशा को शुभ मुहूर्त में महर्षि दुर्वासा को दान कर दिया और बहुत-से मोती, माणिक्य, हीरे तथा रत्न दहेज में दिये। उन्होंने दुर्वासा को बहुमूल्य रत्नों द्वारा निर्मित एक सुन्दर आश्रम भी दिया। एक बार मुनिश्रेष्ठ दुर्वासा ने अपने मन में विचारकर देखा कि कहीं तो श्रीकृष्ण रत्ननिर्मित मनोहर पलंग पर शयन कर रहे हैं, कहीं वे सर्वव्यापी प्रभु श्रद्धापूर्वक पुराण की कथा सुन रहे हैं, कहीं सुन्दर आँगन में महोत्सव मनाने में संलग्न हैं, कहीं सत्या द्वारा भक्तिपूर्वक दिया गया ताम्बूल चबा रहे हैं, कहीं शय्या पर पौढ़े हैं और रुक्मिणी श्वेत चँवरों द्वारा उनकी सेवा कर रही हैं, कहीं आनन्दपूर्वक शयन कर रहे हैं और कालिन्दी उनके चरण दबा रही हैं; फिर सुधर्मा सभा में सुन्दर रूप धारण करके सत्समाज के मध्य विराज रहे हैं। ऐश्वर्यशाली मुनि ने सर्वत्र उनके साथ समान रूप से सम्भाषण किया। इस पर अद्भुत दृश्य को देखकर विप्रवर दुर्वासा को महान् विस्मय हुआ । तब वे पुनः रुक्मिणी महल में उन जगदीश्वर की स्तुति करने लगे । दुर्वासा बोले — जगदीश्वर ! आप सब पर विजय पाने वाले, जनार्दन, सबके आत्मस्वरूप, सर्वेश्वर, सबके कारण, पुरातन, गुणरहित, इच्छा से परे, निर्लिप्त, निष्कलङ्क, निराकार, भक्तानुग्रह- मूर्ति, सत्यस्वरूप, सनातन, रूपरहित, नित्य नूतन और ब्रह्मा, शिव, शेष तथा कुबेर द्वारा वन्दित हैं । लक्ष्मी आपके चरणकमलों की सेवा करती रहती हैं। आप ब्रह्मज्योति और अनिर्वचनीय हैं, वेद भी आपके रूप और गुण का थाह नहीं लगा पाते और आप महाकाश के समान सम्माननीय हैं; आपकी जय हो, जय हो । परमात्मन्! आपको मेरा नमस्कार प्राप्त हो । श्रीहरि की अनुमति से मन-ही-मन यों कहकर प्रियवर दुर्वासा श्रीकृष्ण को प्रणाम करके वहीं उनके सामने खड़े हो गये। तब जगन्नाथ श्रीकृष्णने उन्हें वह ज्ञान बतलाना आरम्भ किया; जो हितकारक, सत्य, पुरातन, वेदविहित और सभी सत्पुरुषोंद्वारा मान्य था । श्रीभगवान् ने कहा — विप्र ! तुम तो शिव के अंश हो; अतः डरो मत। क्या ज्ञान द्वारा तुम्हें यह नहीं ज्ञात है कि मैं सबका उत्पत्तिस्थान हूँ और सभी मुझसे उत्पन्न होते हैं ? मुने! मैं ही सबका आत्मा हूँ। मेरे बिना सभी शवतुल्य हो जाते हैं । प्राणियों के शरीर से मेरे निकल जाने पर सभी शक्तियाँ नष्ट हो जाती हैं। अकेला मैं ही उत्पन्न होकर पृथक् पृथक् रूप से व्यक्त होता हूँ। जो भोजन करता है, उसी की तृप्ति होती है; दूसरे कभी भी तृप्त नहीं होते । जीवादि समस्त प्राणियों की प्रतिमाएँ भिन्न-भिन्न होती हैं । गोलोक- स्थित रासमण्डल में परिपूर्णतम मैं ही हूँ । राधा श्रीदामा के शाप से इस समय मेरा दर्शन नहीं कर सकती। सभी राधा के अंश- कलांशरूप से उत्पन्न हुए हैं । रुक्मिणी भवन में राधा का अंश है और अन्य सभी रानियों के महलों में कलाएँ हैं । मेरा भी शरीरधारियों की प्रतिमाओं में कहीं अंश, कहीं कला की कला और कहीं कला का कलांश वर्तमान है। इतना कहकर जगदीश्वर महल के भीतर चले गये और दुर्वासाजी अपनी प्रिया एकानंशा को त्यागकर श्रीहरि के लिये तप करने चले गये। (अध्याय ११२) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे उत्तरार्धे नारायणनारदसंवाद मुनिकृष्णसंवाद द्वादशाधिकाशततमोऽध्यायः ॥ ११२ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. 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