ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 113
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
(उत्तरार्द्ध)
एक सौ तेरहवाँ अध्याय
पार्वती द्वारा दुर्वासा के प्रति अकारण पत्नी-त्याग के दोष का वर्णन, दुर्वासा का पुनः लौटकर द्वारका जाना, श्रीकृष्ण का युधिष्ठिर के राजसूययज्ञ में पधारना, शिशुपाल का वध, उसके आत्मा द्वारा श्रीकृष्ण का स्तवन, श्रीकृष्ण चरित का निरूपण

श्रीनारायण कहते हैं — नारद! महर्षि दुर्वासा शिष्यों सहित द्वारकापुरी से निकलकर भक्तिपूर्वक भगवान् शंकर का दर्शन करने के लिये कैलास को चले। कैलास पर पहुँचकर मुनि ने शिव और शिवा को नमस्कार किया तथा शिष्योंसहित पवित्र भाव से प्रणत होकर परम भक्ति के साथ उनकी स्तुति की। फिर श्रीहरि का वह सारा वृत्तान्त, अपनी तपस्या का तत्त्व तथा अपने मन के वैराग्य का वर्णन किया। मुनि की बात सुनकर सती पार्वती हँस पड़ीं और साक्षात् शंकरजी के संनिकट मुनि से हितकारक एवं सत्य वचन बोलीं ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

पार्वती ने कहा — मुने! तुम्हें धर्म का तत्त्व तो ज्ञात है नहीं, किंतु अपने को धर्मिष्ठ मानते हो। भला, तुम अपनी संतानहीना पत्नी का परित्याग करके कहाँ तपस्या के लिये जा रहे हो ? जो अपनी कुलीना पतिव्रता युवती पत्नी को संतानहीन अवस्था में त्यागकर संन्यासी, ब्रह्मचारी अथवा यति हो जाता है; व्यापार अथवा नौकर आदि के निमित्त चिरकाल के लिये दूर चला जाता है, मोक्ष के हेतु अथवा आवागमन का विनाश करने के लिये तीर्थवासी अथवा तपस्वी हो जाता है, उसे पत्नी के शाप से मोक्ष तो मिलता नहीं; उलटे धर्म का नाश हो जाता है-परलोक में उसे निश्चय ही नरक की प्राप्ति होती है और इस लोक में उसकी कीर्ति नष्ट हो जाती है। ऐसा कमलजन्मा ब्रह्मा ने कहा है । इसलिये हे विप्र ! इस समय तुम द्वारका को लौट जाओ, अपने धर्म की रक्षा करो और मेरी अंशभूता एकानंशा का धर्मपूर्वक पालन करो। वत्स ! कल्पवृक्षस्वरूप परमात्मा श्रीकृष्ण के चरणकमल का – जो पद्मा द्वारा अर्चित और सबके लिये परम दुर्लभ है तथा शम्भु और सनकादि मुनीश्वर जिसका निरन्तर गुणगान करते रहते हैं – परित्याग करके कहाँ तपस्या के लिये जा रहे हो ? तुम्हारा यह कार्य तो मनोहर सुधा के त्याग के समान है ।

मुने! जो स्वप्न में भी श्रीकृष्ण के चरणकमल का जप करता है, वह सौ जन्मों में किये हुए पापों से मुक्त हो जाता है – इसमें तनिक भी संशय नहीं है। उसके द्वारा बचपन, कौमार, जवानी और वृद्धावस्था में जान में अथवा अनजान में जो कुछ पाप किया होता है; वह सारा-का-सारा भस्म हो जाता है। इस भारतवर्ष में जो श्रीकृष्ण के चरणकमल का साक्षात् दर्शन करता है; वह तुरंत ही पूजनीय और जीवन्मुक्त हो जाता है – यह ध्रुव है । वह करोड़ों जन्मों के किये हुए संचित पाप से छूट जाता है और उससे सभी तीर्थ सदा पावन होते रहते हैं। जो श्रीकृष्ण से सम्बन्ध रखने वाला है- वही व्रत, तप, सत्य, पुण्य और पूजन सफल है; क्योंकि उससे अपने जन्मचक्र का विनाश हो जाता है। वेदों का पारगामी ब्राह्मण भी यदि श्रीकृष्ण की भक्ति से विहीन है तो उसके सङ्ग से तथा उसके साथ वार्तालाप करने से भक्तों की भक्ति नष्ट हो जाती है । ब्राह्मण स्वयं श्रीकृष्ण का स्वरूप होता है । जो श्रीकृष्ण का प्रसाद खाने वाला है; उसके स्पर्श से अग्नि से लेकर पवन तक पवित्र हो जाते हैं और वह सारे जगत्‌ को पावन बनाने में समर्थ हो जाता है । द्विजवर ! श्रीकृष्ण को छोड़कर कहाँ तपस्या करने जा रहे हो ? अरे ! सारी तपस्याओं का फल तो श्रीकृष्ण के स्मरण से ही प्राप्त हो जाता है। जिसके उपदेश से परमात्मा श्रीकृष्ण भक्ति न उत्पन्न हो, वह गुरु परम वैरी तथा जन्म को निष्फल करने वाला है ।

पार्वती के वचन सुनकर शंकर प्रेमविह्वल हो गये । उसके सर्वाङ्ग में रोमाञ्च हो आया और वे परमेश्वरी पार्वती की प्रशंसा करने लगे। उधर दुर्वासा शिव और दुर्गा के चरणकमलों में प्रणाम करके बारंबार श्रीकृष्ण के चरण का ध्यान स्मरण करते हुए पुनः द्वारका को लौट गये। वहाँ जाकर उन्होंने श्रीहरि के दर्शन किये और उन परमेश्वर की स्तुति की। फिर एकानंशा के महल में जाकर उसके साथ निवास करने लगे। इधर युधिष्ठिर के कहने से श्रीकृष्ण हस्तिनापुर को प्रस्थित हुए। वहाँ पहुँचकर उन्होंने परमानन्दपूर्वक कुन्ती, राजा युधिष्ठिर तथा भाइयों से बातचीत की। फिर युक्तिपूर्वक जरासंध आदि का वध करके मुनिवरों तथा श्रेष्ठ नरेशों के साथ मनोवाञ्छित राजसूययज्ञ कराया, जिसमें विधिपूर्वक दक्षिणा नियत थी । उस यज्ञ के अवसर पर उन्होंने शिशुपाल और दन्तवक्र को भी यमलोक का पथिक बना दिया। जिस समय शिशुपाल उस देवताओं और भूपालों की सभा में श्रीकृष्ण की अतिशय निन्दा कर रहा था, उसी समय उसका शरीर धराशायी हो गया और जीव श्रीहरि के परम पद की ओर चला गया; परंतु वहाँ उन सर्वेश्वर को न देखकर वह लौट आया और माधव की स्तुति करने लगा ।

शिशुपाल बोला — माधव ! तुम वेदों, वेदाङ्गों, देवताओं, असुरों और प्राकृत देहधारियों के जनक हो। तुम सूक्ष्म सृष्टि का विधान करके उसमें कल्पभेद करते हो। तुम्हीं माया से स्वयं ब्रह्मा, शंकर और शेष बने हुए हो । मनु, मुनि, वेद और सृष्टिपालकों के समुदाय तुम्हारे कलांश से तथा दिक्पाल और ग्रह आदि कला से उत्पन्न हुए हैं। तुम स्वयं ही पुरुष, स्वयं स्त्री, स्वयं नपुंसक, स्वयं कार्य और कारण तथा स्वयं जन्म लेने वाले और जनक हो । यन्त्र के गुण-दोष यन्त्री पर ही आरोपित होते हैं – ऐसा श्रुति में सुना गया है; अतः ये सभी प्राणी यन्त्र हैं और तुम यन्त्री हो । सब कुछ तुममें ही प्रतिष्ठित है । जगद्गुरो ! मैं तुम्हारा दुर्बुद्धि एवं मूढ़ द्वारपाल हूँ; अतः मेरा अपराध क्षमा करो और ब्रह्मशापसे मेरी रक्षा करो, रक्षा करो।

यों कहकर जय और विजय (शिशुपाल और दन्तवक्र) चल पड़े और शीघ्र ही आनन्दपूर्वक वे दोनों वैकुण्ठ के अभीष्ट द्वार पर जा पहुँचे। शिशुपाल के इस स्तवन से वहाँ उपस्थित सभी लोग आश्चर्यचकित हो गये। उन लोगों ने श्रीकृष्ण को परिपूर्णतम परमेश्वर माना। तत्पश्चात् राजसूययज्ञ पूर्ण कराकर ब्राह्मणों को भोजन से तृप्त किया। कौरवों और पाण्डवों में भेद उत्पन्न करके युद्ध कराया। इस प्रकार कृपालु भगवान् ने पृथ्वी का भार हल्का किया । पुनः द्वारका में जाकर चिरकाल तक निवास किया और राजा उग्रसेन की आज्ञा से मृतवत्सा ब्राह्मणी के पुत्रों को जीवन-दान दिया। उन्होंने उन पुत्रों को मृतक-स्थान से लाकर उनकी माता को समर्पित कर दिया। यह देखकर देवकी को परम संतोष हुआ; उन्होंने भी अपने मरे हुए पुत्रों को लाने की याचना की । तब श्रीकृष्ण ने अपने सहोदर भाइयों को मृतक-स्थान से लाकर माता को सौंप दिया।

तदनन्तर जो अपने घर से शरणार्थी होकर द्वारका में आये थे; उन सुदामा ब्राह्मण की दरिद्रता को तत्काल ही दूर कर दिया। भक्तवत्सल भगवान् ने भक्त के चिउड़ों की कनीका स्वयं भोग लगाकर उन्हें सात पीढ़ी तक स्थिर रहने वाली राजलक्ष्मी प्रदान की। जैसे इन्द्र अमरावती में राज्य करते हैं, उसी प्रकार उनका भूतल पर राज्य हो गया । वे ऐसे धनाढ्य हो गये, मानो धन के स्वामी कुबेर ही हों । तत्पश्चात् उन्होंने सुदामा को निश्चल हरिभक्ति, अपनी परम दुर्लभ दासता और अविनाशी गोलोक में यथेष्ट उत्तम पद प्रदान किया ।

मुने! फिर पारिजात-हरण के साथ-साथ उन्होंने इन्द्र के गर्व को दूर किया, सत्यभामा से मनोवाञ्छित पुण्यक-व्रत का अनुष्ठान कराया और सर्वत्र नित्य – नैमित्तिक कर्मों की उन्नति की । उस व्रत में अपने-आपको महर्षि सनत्कुमार के प्रति दक्षिणारूप में समर्पित कर दिया । ब्राह्मणों को भोजन से तृप्त करके उन्हें हर्षपूर्वक रत्नों की दक्षिणा दी। इस प्रकार सत्यभामा के उत्कृष्ट मान का सब ओर विस्तार किया। मुने ! रुक्मिणी तथा अन्यान्य रानियों के नये-नये सौभाग्य को, वैष्णवों, देवताओं और ब्राह्मणों के पूजन को तथा नित्य – नैमित्तिक कर्मों को सर्वत्र बढ़ाया। उन प्रभु ने उद्धव को परम आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान किया। रण के अवसर पर अर्जुन को गीता सुनायी ।

कृपालु प्रभु ने कृपापरवश हो पृथ्वी को निष्कण्टक करके युधिष्ठिर को राजलक्ष्मी प्रदान की। दुर्गा को वैष्णवी ग्रामदेवता के स्थान पर नियुक्त किया। रमणीय रैवतक पर्वत पर अमूल्य रत्ननिर्मित मन्दिर में पार्वती की प्रसन्नता के लिये नाना प्रकार के नैवेद्यों और मनोहर धूप-दीपों द्वारा करोड़ों हवनों से संयुक्त शुभ यज्ञ कराया। उसमें बहुत-से ब्राह्मणों को भोजन कराया गया। परमेश्वर गणेश का पूजन किया; उस समय उन्हें नैवेद्य रूप में अत्यन्त स्वादिष्ट, परम तुष्टिकारक तिलों के पाँच लाख लड्डू, स्वस्तिकाकार अमृतोपम सात लाख मोदक, शक्कर की सैकड़ों राशियाँ, पके हुए केले के फल, दस लाख पूये, मिष्टान्न, मनोहर स्वादिष्ट खीर, पूरी-कचौड़ी, घी, माखन, दही और अमृत तुल्य दूध निवेदित किया । फिर धूप, दीप, पारिजात-पुष्पों की माला, सुगन्धित चन्दन, गन्ध और अग्निशुद्ध वस्त्र प्रदान किया । करोड़ों हवनों से युक्त शुभ यज्ञ कराया, ब्राह्मणों को जिमाया और गणेश्वर का स्तवन किया । उस समय दस प्रकार के बाजे बजवाये ।

साम्ब ने कुष्ठ रोग के विनाश के लिये पूरे वर्षभर तक अनुपम उपहारों द्वारा सूर्य का पूजन किया, उस समय मातासहित साम्ब को हविष्यान्न का भोजन कराया गया। तब स्वयं सूर्यदेव ने प्रकट होकर साम्ब को वरदान दिया और अपना स्तोत्र प्रदान किया । (अध्याय ११३ )

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे उत्तरार्धे नारायणनारदसंवाद गणेशपूजा नाम त्रयोदशाधिकशततमोऽध्यायः ॥ ११३ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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