February 21, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 12 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ बारहवाँ अध्याय यशोदा के घर गोपियों का आगमन और उनके द्वारा उन सबका सत्कार, शिशु श्रीकृष्ण के पैरों के आघात से शकट का चूर-चूर होना तथा श्रीकृष्ण-कवच का प्रयोग एवं माहात्म्य भगवान् नारायण कहते हैं — नारद! एक दिन नन्दपत्नी यशोदा अपने घ रमें भूखे बालक गोविन्द को गोद में लेकर उन्हें प्रसन्नतापूर्वक स्तन पिला रही थीं। इसी समय नन्द-मन्दिर में बहुत- सी गोपियाँ आयीं, जिनमें कुछ बड़ी-बूढ़ी थीं और कुछ यशोदाजी की सखियाँ थीं। इनके साथ और भी बालक-बालिकाएँ थीं । उस दिन नन्दजी के यहाँ आभ्युदयिक कर्म का सम्पादन हुआ था। उस अवसर पर गोपियों को आती देख सती यशोदा ने अतृप्त बालक श्रीकृष्ण को शीघ्र ही शय्या पर सुला दिया और स्वयं उठकर प्रसन्नतापूर्वक उनको प्रणाम किया। इतना ही नहीं, आनन्दित हुई गोपी यशोदा ने उन सबको तेल, सिन्दूर, पान, मिष्टान्न, वस्त्र और आभूषण भी दिये। इस बीच में माया के स्वामी भगवान् श्रीकृष्ण माया से भूखे बनकर दोनों चरण ऊपर फेंक-फेंककर रोने लगे । मुने ! उनके पास ही गोरस के मटकों से भरा हुआ छकड़ा खड़ा था। श्रीकृष्ण का एक पैर उससे जा लगा । विश्वम्भर के पैर का आघात लगने से वह छकड़ा चूर-चूर हो गया । उस छकड़े के टुकड़े-टुकड़े हो गये । उसके टूटे काठ वहीं बिखर गये । उस पर लदा हुआ दही, दूध, माखन, घी और मधु धरती पर गिरकर बह चला । ॐ नमो भगवते वासुदेवाय यह आश्चर्य देख भय से व्याकुल हुई गोपियाँ बालक के पास दौड़ी हुई आयीं। उन्होंने देखा छकड़ा टूट चुका है और बालक उसकी बिखरी हुई लकड़ियों के भीतर दबा है। टूटे-फूटे मटकों का समूह तथा बहुत-सा गोरस भी वहाँ गिरा दिखायी दिया। लकड़ियों को दूर फेंककर भय से व्याकुल हुई यशोदा ने बालक को गोद में उठा लिया। योगमाया की कृपा से उसके सारे अङ्ग सुरक्षित थे । वह भूख से व्याकुल हो रो रहा था। यशोदाजी ने उसके मुख में स्तन दे दिया और स्वयं शोक से व्याकुल हो फूट- फूटकर रोती रहीं । गोपों ने वहाँ खेलते हुए बालकों से पूछा — ‘छकड़ा कैसे टूटा है ? इसके टूटने का कोई कारण तो नहीं दिखायी देता है । सहसा यह अद्भुत काण्ड कैसे घटित हुआ ?’ उनकी बात सुनकर सब बालक बोले — ‘गोपगण ! सुनो। अवश्य ही श्रीकृष्ण के चरणों का धक्का लगने से यह छकड़ा टूटा है।’ बालकों की यह बात सुनकर गोप और गोपियाँ हँसने लगीं । उन्हें उनकी बात पर विश्वास नहीं हुआ। वे बोलीं — ‘बच्चों की बातें सत्य नहीं हैं।’ शिशोः स्वस्त्ययनं कार्यं चक्रुर्ब्राह्मणपुंगवाः । हस्तं दत्त्वा शिशोर्गात्रे पपाठ कवचं द्विजः ॥ १४ ॥ वदामि तत्ते विप्रेन्द्र कवचं सर्वरक्षणम् । यद्दत्तं मायया पूर्वं ब्रह्मणे नाभिपंकजे ॥ १५ ॥ निद्रिते जगतीनाथे जले च जलशायिनि । भीताय स्तुतिकर्त्रे च मधुकैटभयोर्भयात् ॥ १६ ॥ ॥ योगनिद्रोवाच ॥ दूरीभूतं कुरु भयं भयं किं ते हरौ स्थिते । स्थितायां मयि च ब्रह्मन्सुखी तिष्ठ जगत्पते ॥ १७ ॥ श्रीहरिः पातु ते वक्त्रं मस्तकं मधुसूदनः । श्रीकृष्णश्चक्षुषी पातु नासिकां राधिकापतिः ॥ १८ ॥ कर्णयुग्मं च कण्ठं च कपालं पातु माधवः । कपोलं पातु गोविन्दः केशांश्च केशवः स्वयम् ॥ १९ ॥ अधरोष्ठं हृषीकेशो दंतपंक्तिं गदाग्रजः । रासेश्वरश्च रसनां तालुकं वामनो विभुः ॥ २० ॥ वक्षः पातु मुकुन्दश्च जठरं पातु दैत्यहा । जनार्दनः पातु नाभिं पातु विष्णुश्च मेहनम् ॥ २१ ॥ नितंबयुग्मं गुह्यं च पातु ते पुरुषोत्तमः । जानुयुग्मे जानकीशः पातु ते सर्वदा विभुः ॥ २२ ॥ हस्तयुग्मं नृसिंहश्च पातु सर्वत्र संकटे । पादयुग्मं वराहश्च पातु ते कमलोद्भवः ॥ २३ ॥ ऊर्ध्वं नारायणः पातु ह्यधस्तात्कमलापतिः । पूर्वस्यां पातु गोपालः पातु वह्नौ दशास्यहा ॥ २४ ॥ वनमाली पातु याम्यां वैकुंठः पातु नैर्ऋतौ । वारुण्यां वासुदेवश्च सतो रक्षाकरः स्वयम् ॥ २५ ॥ पातु ते संततमजो वायव्यां विष्टरश्रवाः । उत्तरे च सदा पातु तेजसा जलजासनः ॥ २६ ॥ ऐशान्यामीश्वरः पातु पातु सर्वत्र शत्रुजित् । जले स्थले चांतरिक्षे निद्रायां पातु राघवः ॥ २७ ॥ इत्येवं कथितं ब्रह्मन्कवचं परमाद्भुतम् । कृष्णेन कृपया दत्तं स्मृतेनैव पुरा मया ॥ २८ ॥ शुंभेन सह संग्रामे निर्लक्ष्ये घोरदारुणे । गगने स्थितया सद्यः प्राप्तिमात्रेण सो जितः ॥ २९ ॥ कवचस्य प्रभावेण धरण्यां पतितो मृतः । पूर्वं वर्षशतं खे च कृत्वा युद्धं भयावहम् ॥ ३० ॥ मृते शुंभे च गोविन्दः कृपालुर्गगनस्थितः । मालां च कवचं दत्त्वा गोलोकं स जगाम ह ॥ ३१ ॥ कल्पांतरस्य वृत्तांतं कृपया कथितं मुने । अभ्यंतरभयं नास्ति कवचस्य प्रभावतः ॥ ३२ ॥ कोटिशः कोटिशो नष्टा मया दृष्टाश्च वेधसः । अहं च हरिणा सार्द्धं कल्पेकल्पे स्थिरा सदा ॥ ३३ ॥ इत्युक्त्वा कवचं दत्त्वा साऽन्तर्धानं चकार ह । निःशङ्को नाभिकमले तस्थौ स कमलोद्भवः ॥ ३४ ॥ सुवर्णगुटिकायां च कृत्वेदं कवचं परम् । कण्ठे वा दक्षिणे बाहौ बध्नीयाद्यः सुधीः सदा ॥ ३५ ॥ विषाग्निजलशत्रुभ्यो भयं तस्य न जायते । जले स्थले चांतरिक्षे निद्रायां रक्षतीश्वरः ॥ ३६ ॥ संग्रामे वज्रपाते च विपत्तौ प्राणसंकटे । कवचस्मरणादेव सद्यो निःशङ्कतां व्रजेत् ॥ ३७ ॥ तुरंत ही श्रेष्ठ ब्राह्मण आये और उन्होंने शिशु की रक्षा के लिये स्वस्तिवाचन किया। एक ब्राह्मण ने शिशु के शरीर पर हाथ रखकर कवच पढ़ा। विप्रवर ! वह समस्त शुभ लक्षणों से युक्त कवच मैं तुम्हें बता रहा हूँ। यह वही कवच है, जिसे पूर्वकाल में श्रीविष्णु के नाभिकमल पर विराजमान ब्रह्माजी को भगवती योगमाया ने दिया था। उस समय जल में शयन करनेवाले त्रिलोकीनाथ विष्णु जल के भीतर नींद ले रहे थे और ब्रह्माजी मधु-कैटभ के भय से डरकर योगनिद्रा की स्तुति कर रहे थे। उसी अवसर पर योगनिद्रा ने उन्हें कवच का उपदेश दिया था । योगनिद्रा बोली — ब्रह्मन् ! तुम अपना भय दूर करो। जगत्पते ! जहाँ श्रीहरि विराजमान हैं और मैं मौजूद हूँ, वहाँ तुम्हें भय किस बात का है ? तुम यहाँ सुखपूर्वक रहो । श्रीहरि तुम्हारे मुख की रक्षा करें। मधुसूदन मस्तक की, श्रीकृष्ण दोनों नेत्रों की तथा राधिकापति नासिका की रक्षा करें। माधव दोनों कानों की, कण्ठ की और कपाल की रक्षा करें। कपोल की गोविन्द और केशों की स्वयं केशव रक्षा करें । हृषीकेश अधरोष्ठ की, गदाग्रज दन्तपंक्ति की, रासेश्वर रसना की और भगवान् वामन तालु की रक्षा करें। मुकुन्द तुम्हारे वक्षःस्थल की रक्षा करें। दैत्यसूदन उदर का पालन करें। जनार्दन नाभि की और विष्णु तुम्हारी ठोढ़ी की रक्षा करें। पुरुषोत्तम तुम्हारे दोनों नितम्बों और गुह्य भाग की रक्षा करें। भगवान् जानकीश्वर तुम्हारे युगल जानुओं (घुटनों ) – की सर्वदा रक्षा करें। नृसिंह सर्वत्र संकट में दोनों हाथों की और कमलोद्भव वराह तुम्हारे दोनों चरणों की रक्षा करें। ऊपर नारायण और नीचे कमलापति तुम्हारी रक्षा करें। पूर्व दिशा में गोपाल तुम्हारा पालन करें। अग्निकोण में दशमुखहन्ता श्रीराम तुम्हारी रक्षा करें। दक्षिण दिशा में वनमाली, नैर्ऋत्यकोण में वैकुण्ठ तथा पश्चिम दिशा में सत्पुरुषों की रक्षा करनेवाले स्वयं वासुदेव तुम्हारा पालन करें। वायव्यकोण में अजन्मा विष्टरश्रवा श्रीहरि सदा तुम्हारी रक्षा करें। उत्तर दिशा में कमलासन ब्रह्मा अपने तेज से सदा तुम्हारी रक्षा करें। ईशानकोण में ईश्वर रक्षा करें। शत्रुजित् सर्वत्र पालन करें। जल, थल और आकाश में तथा निद्रावस्था में श्रीरघुनाथजी रक्षा करें । ब्रह्मन् ! इस प्रकार परम अद्भुत कवच का वर्णन किया गया। पूर्वकाल में मेरे स्मरण करने पर भगवान् श्रीकृष्ण ने कृपापूर्वक मुझे इसका उपदेश दिया था। शुम्भ के साथ जब निर्लक्ष्य, घोर एवं दारुण संग्राम चल रहा था, उस समय आकाश में खड़ी हो मैंने इस कवच की प्राप्ति मात्र से तत्काल उसे पराजित कर दिया था। इस कवच के प्रभाव से शुम्भ धरती पर गिरा और मर गया। पहले सैकड़ों वर्षों तक भयंकर युद्ध करके जब शुम्भ मर गया, तब कृपालु गोविन्द आकाश में स्थित हो कवच और माल्य देकर गोलोक को चले गये । मुने! इस प्रकार कल्पान्तर का वृत्तान्त कहा गया है। इस कवच के प्रभाव से कभी मन में भय नहीं होता है। मैंने प्रत्येक कल्प में श्रीहरि के साथ रहकर करोड़ों ब्रह्माओं को नष्ट होते देखा है। ऐसा कह कवच देकर देवी योगनिद्रा अन्तर्धान हो गयी और कमलोद्भव ब्रह्मा भगवान् विष्णु के नाभिकमल में निःशंकभाव से बैठे रहे। जो इस उत्तम कवच को सोने के यन्त्र में मढ़ाकर कण्ठ या दाहिनी बाँह में बाँधता है, उसकी बुद्धि सदा शुद्ध रहती है तथा उसे विष, अग्नि, सर्प और शत्रुओंसे कभी भय नहीं होता। जल, थल और अन्तरिक्ष में तथा निद्रावस्था में भगवान् सदा उसकी रक्षा करते हैं । ब्राह्मणने नन्दशिशु के कण्ठ में वह कवच बाँध दिया। इस प्रकार साक्षात् श्रीहरि ने अपना ही कवच अपने कण्ठ में धारण किया। मुने ! श्रीहरि के इस कवच का सम्पूर्ण प्रभाव बताया गया। भगवान् अनन्त हैं । वे अपनी महिमा से कभी च्युत नहीं होते। उनके प्रभाव की कहीं तुलना नहीं है । (अध्याय १२) श्रीमद्भागवतमहापुराण – दशम स्कन्ध पूर्वार्ध – अध्याय ७ ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे नारायणनारदसंवादे शकटभंजनयोगनिद्रोक्तकवचन्यासो नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. 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