ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 122
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
(उत्तरार्द्ध)
एक सौ बाईसवाँ अध्याय
स्यमन्तक मणि का उपाख्यान

नारद बोले — कृष्ण के साथ सभी रमणियों का विवाह तो आपने हर्षपूर्वक बता दिया, किन्तु स्यमन्तक मणि का उपाख्यान अभीष्ट है । हे महाभाग ! वह मैंने नहीं सुना है, उसे आप ( कृपया ) बता दे ।

नारायण बोले — पूर्वकाल में भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को चन्द्रमा ने तारा का हरण किया और आश्विन  कृष्ण चतुर्थी को उसे छोड़ दिया। तब बृहस्पति ने उसको ग्रहण किया । सती तारा गर्भवती ( होने से ) लज्जित थी । बृहस्पति ने उसकी भर्त्सना की और तारा ने कामातुर चन्द्रमा को लज्जा और क्रोध से शाप दे दिया ।

तारा बोलीं — तुम (मेरे) शाप से कलंकी होगे । जो प्राणी ( भाद्र शुक्ल चतुर्थी को ) तुझ पापी को देखेगा, वह पापी और कलंकी होगा ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

यह सुनकर वह चन्द्रमा नारायण सरोवर में नारायण की तपस्या करके किये हुए पाप से मुक्त हो गया । तप से क्षीण उस ( चन्द्रमा) को अत्यन्त भीत देखकर दयानिधि भगवान् नारायण ने कृपा करके उससे कहा ।

श्रीभगवान् बोले — हे चन्द्रमा ! तुम कलंक से सब समय मुक्त हो जाओ । तारा का शाप-स्थान वह बनेगा, जो भाद्रपद के शुक्ल तथा कृष्ण पक्ष की चतुर्थी में उदित चन्द्रमा को स्वेच्छा से देखेगा । उसके पास चन्द्रमा का कलंक चला जायगा और वह कलंकी होगा ।

भाद्रपद के दोनों पक्षों में हरि ताली बजाकर कहते हैं कि चतुर्थी तिथि में उदित चन्द्रमा को कभी भी नहीं देखना चाहिए । स्वयं ( ऐसे चन्द्र को ) देखकर अपने वाक्य का पालन करते हैं । भाद्र मास की चतुर्थी तिथि को वे कलंकी हुए थे । जिस रूप से वे कलंकी हुए, वह बताऊँगा, सुनिये । वे प्रभु लोगों को शिक्षा देने के लिए कलंक से मुक्त हुए । सूर्य के भक्त सत्राजित ने पुष्कर तीर्थ में तपस्या करके सूर्य से ही स्यमन्तक नामक उत्तम मणि प्राप्त की । स्यमन्तक नित्य आठ भर ( दो हजार पल का एक वजन ) सुवर्ण उत्पन्न करता था । उस महान् पवित्र एवं पुण्यदायक मणि में विष्णु का अधिष्ठान है । सत्राजित ने कृष्ण को भक्तिपूर्वक सत्यभामा देकर महापुरुष (कृष्ण) को दहेज में मणि देने के लिए उद्यत हुए। काल के अधीन दुर्मत प्रसेन ने उसको मना करके मणि लेकर पवित्र वाराणसी पुरी को चला गया । किन्तु मार्ग में एक बलवान् सिंह ने उसे मारकर सूत्र में बंधे हुए मनोज्ञ मणि को ले लिया और गले में धारण कर लिया ।

वह (सिंह) कलिगराज का पुत्र था, जिसे भयंकर ब्रह्मशाप पड़ गया था। फिर ब्राह्मण के अनुग्रह से वह पशुयोनि में चला गया था । उस सिंह को वन में बलवान् भालू जाम्बवान् ने मार डाला और मणि लेकर वह अपने रत्ननिर्मित नगर में चला आया । (इधर ) द्वारका में सभी लोग कहने लगे कि कृष्ण ने मणि ले ली। उनकी बुद्धि का पता पाना कठिन है कि किस उपाय से उन्होंने मणि ले ली । यह सुनकर भगवान् (कृष्ण) कलंक को मिटाने के लिए चोर के चिह्नवाले मार्ग से घोर जंगल में पहुँच गये । प्रसेन को मरा हुआ देखकर दुःखी हुए उन्होंने सिंह को देखा, किन्तु उसे मणि से शून्य देखकर माधव को विषाद हुआ । फिर सर्वज्ञ (कृष्ण) सब कुछ जानकर भालू के घर गये । वहाँ धाय की गोद में रोते हुए बालक को देखा । वह करुणायुक्त धाय बालक को समझा रही थी कि

सिंहः प्रसेनमवधीत्सिंहो जाम्बवता हतः ।
सुकुमारक मा रोदीस्तव ह्येष स्यमन्तकः ॥ २५ ॥

हे बच्चे ! मणि लो, यह स्यमन्तक मणि तुम्हारी है । सिंह ने प्रसेन को मारा और सिंह को जाम्बवान् ने मार दिया । हे कुमार ! मत रोओ. यह स्यमन्तक तुम्हारा है ।

यह धाय का पढ़ा हुआ सुन्दर श्लोक स्मरण करके जो जल पीता है, वह दैववशात् देखे गये नष्ट चन्द्रमा (भाद्र- शुक्ल चतुर्थी) के दोष से मुक्त हो जाता है । जो दंभी तथा वेदनिन्दक पुरुष यदि स्वेच्छा से ( नष्ट चन्द्र को) देखते हैं, तो कलंकी अवश्य होते हैं, ऐसा ब्रह्मा ने कहा है । कृष्ण ने धात्री की बात सुनकर बालक से मणि ले ली । धाय ने क्रोध से भालू के पास जाकर कह दिया । जाम्बवान् आकर प्रणाम करके स्तुति करने लगा । ( पश्चात् उसने) कन्या जाम्बवती देकर दहेज में मणि दे दी । प्रभु कृष्ण ने द्वारका में मणि लाकर यादवों को दिखलायी और वे सर्वथा शुद्ध एवं निष्कलंक हो गये ।

वत्स ! यह मणि का उत्तम उपाख्यान तुम्हें बता दिया । इस अध्याय के श्रवण मात्र से मनुष्य निष्कलंक हो जायगा । जो धर्मराज के मुख से सुना था, वह अत्यन्त दुर्लभ उपाख्यान शास्त्रानुसार सुना दिया, अब पुनः क्या सुनना चाहते हो ?   (अध्याय १२२)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे उत्तरार्धे नारायणनारदसंवाद स्यमन्तकमणिः हरणं नाम द्वाविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १२२ ॥

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