ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 128
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
(उत्तरार्द्ध)
एक सौ अठ्ठाईसवाँ अध्याय
श्रीकृष्ण द्वारा नन्द को ज्ञानोपदेश और राधा-कलावती आदि गोपियों का गोलोक-गमन

श्रीनारायण कहते हैं — नारद! जहाँ पहले ब्राह्मणपत्नियों ने श्रीकृष्ण को अन्न दिया था; उस भाण्डीर-वट की छाया में श्रीकृष्ण स्वयं विराजमान हुए और वहीं समस्त गोपों को बुलवा भेजा । श्रीहरि के वामभाग में राधिकादेवी, दक्षिणभाग में यशोदासहित नन्द, नन्द के दाहिने वृषभानु और वृषभानु के बायें कलावती तथा अन्यान्य गोप, गोपी, भाई-बन्धु तथा मित्रों ने आसन ग्रहण किया। तब गोविन्द ने उन सबसे समयोचित यथार्थ वचन कहा ।

श्रीभगवान् बोले — नन्द ! इस समय जो समयोचित, सत्य, परमार्थ और परलोक में सुखदायक है; उसका वर्णन करता हूँ, सुनो। ब्रह्मा से लेकर स्तम्बपर्यन्त सभी पदार्थ बिजली की चमक, जल के ऊपर की हुई रेखा और पानी के बुलबुले के समान भ्रमरूप ही हैं – ऐसा जानो । मैंने मथुरा में तुम्हें सब कुछ बतला दिया था, कुछ भी उठा नहीं रखा था । उसी प्रकार कदलीवन में राधिका ने यशोदा को समझाया था । वही परम सत्य भ्रमरूपी अन्धकार का विनाश करने के लिये दीपक है; इसलिये तुम मिथ्या माया को छोड़कर उसी परम व्याधि का विनाशक, महान् हर्षदायक, शोक-पद का स्मरण करो। वह पद जन्म-मृत्यु-जरा-संताप का निवारक और कर्ममूल का उच्छेदक है। मुझ परम ब्रह्म सनातन भगवान्‌ का बारंबार ध्यान करके तुम उस परम पद को प्राप्त करो। अब कर्म की जड़ काट देने वाले कलियुग का आगमन संनिकट है; अतः तुम शीघ्र ही गोकुलवासियों के साथ गोलोक को चले जाओ ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

तदनन्तर भगवान् ने कलियुग धर्म तथा लक्षणों का वर्णन किया । विप्रवर! इसी बीच वहाँ व्रज में लोगों ने सहसा गोलोक से आये हुए एक मनोहर रथ को देखा । वह रथ चार योजन विस्तृत और पाँच योजन ऊँचा था; बहुमूल्य रत्नों के सारभाग से उसका निर्माण हुआ था। वह शुद्ध स्फटिक के समान उद्भासित हो रहा था; विकसित पारिजात-पुष्पों की मालाओं से उसकी विशेष शोभा हो रही था; उसके ऊपर अमूल्य रत्नकलश चमक रहा था; वह कौस्तुभमणियों के आभूषणों से विभूषित था; उसमें हीरे के हार लटक रहे थे; वह सहस्रों करोड़ मनोहर मन्दिरों से व्याप्त था; उसमें दो हजार पहिये लगे थे और दो हजार घोड़े उसका भार वहन कर रहे थे तथा उस पर सूक्ष्म वस्त्र का आवरण पड़ा हुआ था एवं वह करोड़ों गोपियों से समावृत था । नारद! राधा और धन्यवाद की पात्र कलावती देवी का जन्म किसी के गर्भ से नहीं हुआ था । यहाँ तक कि गोलोक से जितनी गोपियाँ आयी थीं; वे सभी अयोनिजा थीं। उसके रूप में श्रुतिपत्नियाँ ही अपने शरीर से प्रकट हुई थीं। वे सभी श्रीकृष्ण की आज्ञा से अपने नश्वर शरीर का त्याग करके उस रथ पर सवार हो उत्तम गोलोक को चली गयीं। साथ ही राधा भी गोकुलवासियों के साथ गोलोक को प्रस्थित हुईं।

ब्रह्मन् ! मार्ग में उन्हें विरजा नदी का मनोहर तट दीख पड़ा, जो नाना प्रकार के रत्नों से विभूषित था। उसे पार करके वे शतशृङ्ग पर्वत पर गयीं । वहाँ उन्होंने अनेक प्रकार के मणिसमूहों से व्याप्त सुसज्जित रासमण्डल को देखा। उससे कुछ दूर आगे जाने पर पुण्यमय वृन्दावन मिला। आगे बढ़ने पर अक्षयवट दिखायी दिया, उसकी करोड़ों शाखाएँ चारों ओर फैली हुई थीं। वह सौ योजन विस्तार वाला और तीन सौ योजन ऊँचा था और लाल रंग के बड़े-बड़े फल समूह उसकी शोभा बढ़ा रहे थे । उसके नीचे मनोहर वृन्दा हजारों-करोड़ों गोपियों के साथ विराजमान थीं । उसे देखकर राधा तुरंत ही रथ से उतरकर आदरसहित मुस्कराती हुई उसके निकट गयीं । वृन्दा ने राधा को नमस्कार किया । तत्पश्चात् रासेश्वरी राधा से वार्तालाप करके वह उन्हें अपने महल के भीतर लिवा ले गयी । वहाँ वृन्दा ने राधा को हीरे के हारों से समन्वित एक रमणीय रत्नसिंहासन पर बैठाया और स्वयं उनकी चरणसेवामें जुट गयी। । सात सखियाँ श्वेत चँवर डुलाकर उनकी सेवा करने लगीं। इतने में परमेश्वरी राधा को देखने के लिये सभी गोपियाँ वहाँ आ पहुँचीं। तब राधा ने नन्द आदि के लिये पृथक्-पृथक् आवासस्थान की व्यवस्था की । तदनन्तर परमानन्दरूपा गोपिका राधा परमानन्द पूर्वक सबके साथ अपने परम रुचिर भवन को प्रस्थित हुईं।   (अध्याय १२८)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराण श्रीकृष्णजन्मखण्ड उत्तरार्द्ध नारदनारायणो संवाद भांडीरवने व्रजजनसमक्षं नन्दं बोधयता कृष्णेन कलिदोषाणां निरूपणम्, अकस्मात्प्राप्तेनाद्भुतरथेन राधादिसर्वगोपीनां गोलोके गमनं च अष्टाविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १२८ ॥

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