February 21, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 13 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ तेरहवाँ अध्याय मुनि गर्गजी का आगमन, यशोदा द्वारा उनका सत्कार और परिचय-प्रश्न, गर्गजी का उत्तर, नन्द का आगमन, नन्द-यशोदा को एकान्त में ले जाकर गर्गजी का श्रीराधा-कृष्ण के नाम – माहात्म्य का परिचय देना और उनकी भावी लीलाओं का क्रमशः वर्णन करना, श्रीकृष्ण के नामकरण एवं अन्नप्राशन-संस्कार का बृहद् आयोजन, ब्राह्मणों को दान-मान, गर्ग द्वारा श्रीकृष्ण की स्तुति तथा गर्ग आदि की विदाई भगवान् नारायण कहते हैं — महामुने ! अब श्रीकृष्ण का कुछ और माहात्म्य सुनो, जो विघ्नविनाशक, पापहारी, महान् पुण्य प्रदान करने वाला तथा परम उत्तम है । एक दिन की बात है। सोने के सिंहासन पर बैठी हुई नन्दपत्नी यशोदा भूखे हुए श्रीकृष्ण को गोद में लेकर उन्हें स्तन पिला रही थीं। उसी समय एक श्रेष्ठ ब्राह्मण शिष्यसमूह से घिरे हुए वहाँ आये । वे ब्रह्मतेज से प्रकाशित हो रहे थे और शुद्ध स्फटिक की माला पर परब्रह्म का जप कर रहे थे । दण्ड और छत्र धारण किये श्वेत वस्त्र पहने वे महर्षि अपनी धवल दन्तपंक्ति योंके कारण बड़ी शोभा पा रहे थे । वेद और वेदाङ्गों के पारंगत तो वे थे ही, ज्योतिर्विद्या के मूर्तिमान् स्वरूप थे। उन्होंने अपने मस्तक पर तपाये हुए सुवर्णके समान पिङ्गल जटाभार धारण कर रखा था। उनका मुख शरत्पूर्णिमा के चन्द्रदेव की कान्ति को लज्जित कर रहा था । गोरे-गोरे अङ्ग और कमल – जैसे नेत्र वाले वे योगिराज भगवान् शंकर के शिष्य थे तथा गदाधारी श्रीविष्णु के प्रति विशुद्ध भक्ति रखते थे । ॐ नमो भगवते वासुदेवाय वे श्रीमान् महर्षि प्रसन्नतापूर्वक शिष्यों को पढ़ाते थे। उनके एक हाथ में व्याख्या की मुद्रा सुस्पष्ट दिखायी देती थी। वे वेदों की अनेक प्रकार की व्याख्या लीलापूर्वक करते थे। उन्हें देखकर ऐसा जान पड़ता था मानो चारों वेदों का तेज मूर्तिमान् हो गया हो । उनके कण्ठ में साक्षात् सरस्वती का वास था । वे शास्त्रीय सिद्धान्त के एकमात्र विशेषज्ञ थे और दिन-रात श्रीकृष्णचरणारविन्दों के ध्यानमें तत्पर रहते थे। उन्हें जीवन्मुक्त अवस्था प्राप्त थी । वे सिद्धों के स्वामी, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी थे । उन्हें देखकर यशोदाजी खड़ी हो गयीं । उन्होंने मस्तक झुकाकर मुनि के चरणों में प्रणाम किया और उन्हें बैठने के लिये सोने का सिंहासन देकर आतिथ्य के लिये पाद्य, अर्घ्य, गौ तथा मधुपर्क निवेदन किया। मुस्कराती हुई नन्दरानी ने अपने बालक से मुनीन्द्र की वन्दना करवायी । मुनि ने भी मन-ही-मन श्रीहरि को सौ-सौ प्रणाम किये और प्रसन्नतापूर्वक वेदमन्त्रों के अनुकूल आशीर्वाद दिया । यशोदाजी ने मुनि के शिष्यों को भी प्रणाम किया तथा भक्तिभाव से उन सबके लिये पृथक्-पृथक् पाद्य आदि अर्पित किये। उन शिष्यों ने यशोदाजी को आशीर्वाद दिया । मुनि अपने शिष्यों के साथ पैर धोकर जब सिंहासन पर बैठे, तब सती-साध्वी यशोदा बालक को गोद में ले भक्ति-भाव से मस्तक झुकाकर दोनों हाथ जोड़ मुनि के आगमन का कारण पूछने को उद्यत हुईं। वे बोलीं — ‘मुने ! आप स्वात्माराम महर्षि हैं, आपसे कुशल-मङ्गल पूछना यद्यपि उचित नहीं है, तथापि इस समय मैं आपका कुशल-समाचार पूछ रही हूँ। अबला बुद्धिहीना होती है। अतः आप मेरे इस दोष को क्षमा कर देंगे । साधु-पुरुष सदा ही मूढ़ मनुष्यों के दोषों को क्षमा करते रहते हैं । ‘ तदनन्तर अङ्गिरा, अत्रि, मरीचि और गौतम आदि बहुत-से ऋषि-मुनियों के नाम लेकर यशोदा ने पूछा — ‘प्रभो! इन पुण्यश्लोक महात्माओं में से आप कौन हैं। कृपया मुझे बताइये । यद्यपि आपसे उत्तर पाने के योग्य मैं नहीं हूँ, तथापि आप मुझे मेरी पूछी हुई बात बताइये । आप जैसे महात्मा पुरुष प्रसन्नमन से शिशु को आशीर्वाद देने योग्य हैं । निश्चय ही ब्राह्मणों का आशीर्वाद तत्काल पूर्ण मङ्गलकारी होता है ।’ ऐसा कहकर नन्दरानी भक्तिभाव से मुनि के सामने खड़ी हो गयीं । उस सती ने नन्दरायजी को बुलाने के लिये चर भेजा। यशोदाजी की पूर्वोक्त बातें सुनकर मुनिवर गर्ग हँसने लगे। उनके शिष्य-समूह भी हास्य की छटा से दसों दिशाओं को प्रकाशित करते हुए जोर-जोर से हँस पड़े। तब उन शुद्धबुद्धि महामुनि गर्ग ने यथार्थ हितकर, नीतियुक्त एवं अत्यन्त आनन्ददायक बात कही । श्रीगर्गजी बोले — देवि! तुम्हारा यह समयोचित वचन अमृत के समान मधुर है। जिसका जिस कुल में जन्म होता है, उसका स्वभाव भी वैसा ही होता है । समस्त गोपरूपी कमलवनों के विकास के लिये गोपराज गिरिभानु सूर्य के समान हैं। उनकी पत्नी का नाम सती पद्मावती है, जो साक्षात् पद्मा (लक्ष्मी) – के समान हैं। उन्हीं की कन्या तुम यशोदा हो, जो अपने यश की वृद्धि करने वाली हो । भद्रे ! नन्द और तुम जो कुछ भी हो, वह मुझे ज्ञात है । यह बालक जिस प्रयोजन से भूतल पर अवतीर्ण हुआ है, वह सब मैं जानता हूँ । निर्जन स्थान में नन्द के समीप मैं सब बातें बताऊँगा । मेरा नाम गर्ग है। मैं चिरकाल से यदुकुल का पुरोहित हूँ। वसुदेवजी ने मुझे यहाँ ऐसे कार्य के लिये भेजा है, जिसे दूसरा कोई नहीं कर सकता । इसी बीच में गर्गजी का आगमन सुनते ही नन्दजी वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने दण्ड की भाँति पृथ्वी पर माथा टेक उन मुनीश्वर को प्रणाम किया । साथ ही उनके शिष्यों को भी मस्तक झुकाया । उन सबने उन्हें आशीर्वाद दिये। इसके बाद गर्गजी आसन से उठे और नन्द-यशोदा को साथ ले सुरम्य अन्तः पुर में गये । उस निर्जन स्थान में गर्ग, नन्द और पुत्रसहित यशोदा इतने ही लोग रह गये थे। उस समय गर्गजी ने यह गूढ़ बात कही। श्रीगर्गजी बोले — नन्द ! मैं तुम्हें मङ्गलकारी वचन सुनाता हूँ। वसुदेवजी ने जिस प्रयोजन से मुझे यहाँ भेजा है, उसे सुनो। वसुदेव ने सूतिकागार में आकर अपना पुत्र तुम्हारे यहाँ रख दिया है और तुम्हारी कन्या वे मथुरा ले गये हैं। ऐसा उन्होंने कंस के भय से किया है। यह पुत्र वसुदेव का है और जो इससे ज्येष्ठ है, वह भी उन्हीं का है। यह निश्चित बात है । इस बालक का अन्नप्राशन और नामकरण – संस्कार करने के लिये वसुदेव ने गुप्तरूप से मुझे यहाँ भेजा है । अतः तुम व्रज में इन बालकों के संस्कार की तैयारी करो। तुम्हारा यह शिशु पूर्ण ब्रह्मस्वरूप है और माया से इस भूतल पर अवतीर्ण हो पृथ्वी का भार उतारने के लिये उद्यमशील है । ब्रह्माजी ने इसकी आराधना की थी । अतः उनकी प्रार्थना से यह भूतल का भार हरण करेगा। इस शिशु के रूप में साक्षात् राधिकावल्लभ गोलोकनाथ भगवान् श्रीकृष्ण पधारे हैं । वैकुण्ठ में जो कमलाकान्त नारायण हैं तथा श्वेतद्वीप में जो जगत्पालक विष्णु निवास करते हैं, वे भी इन्हीं में अन्तर्भूत हैं। महर्षि कपिल तथा इनके अन्यान्य अंश ऋषि नर-नारायण भी इनसे भिन्न नहीं हैं। ये सबके तेजों की राशि हैं । वह तेजोराशि ही मूर्तिमान् होकर उनके यहाँ अवतीर्ण हुई है। भगवान् श्रीकृष्ण वसुदेव को अपना रूप दिखाकर शिशुरूप हो गये और सूतिकागार से इस समय तुम्हारे घर में आ गये हैं। ये किसी योनि से प्रकट नहीं हुए हैं; अयोनिज रूप में ही भूतल पर प्रकट हुए हैं। इन श्रीहरि ने माया से अपनी माता के गर्भ को वायु से पूर्ण कर रखा था । फिर स्वयं प्रकट हो अपने उस दिव्य रूप का वसुदेवजी को दर्शन कराया और फिर शिशुरूप हो वे यहाँ आ गये । गोपराज ! युग-युग में इनका भिन्न-भिन्न वर्ण और नाम है; ये पहले श्वेत, रक्त और पीतवर्ण के थे। इस समय कृष्णवर्ण होकर प्रकट हुए हैं। सत्ययुग में इनका वर्ण श्वेत था । ये तेजःपुञ्ज से आवृत होने के कारण अत्यन्त प्रसन्न जान पड़ते थे । त्रेता में इनका वर्ण लाल हुआ और द्वापर में ये भगवान् पीतवर्ण के हो गये । कलियुग के आरम्भ में इनका वर्ण कृष्ण हो गया। ये श्रीमान् तेज की राशि हैं, परिपूर्णतम ब्रह्म हैं; इसलिये ‘कृष्ण’ कहे गये हैं । ‘कृष्णः ‘ पद में जो ‘ककार’ है, वह ब्रह्मा का वाचक है। ‘ऋकार’ अनन्त (शेषनाग ) – का वाचक है। मूर्धन्य ‘षकार’ शिव का और ‘णकार’ धर्म का बोधक है । अन्त में जो ‘अकार’ है, वह श्वेतद्वीपनिवासी विष्णु का वाचक है तथा विसर्ग नर-नारायण- अर्थ का बोधक माना गया है। ये श्रीहरि उपर्युक्त सब देवताओं के तेज की राशि हैं। सर्वस्वरूप, सर्वाधार तथा सर्वबीज हैं; इसलिये ‘कृष्ण’ कहे गये हैं । ‘कृष्’ शब्द निर्वाण का वाचक है, ‘णकार’ मोक्ष का बोधक है और ‘अकार’ का अर्थ दाता है । ये श्रीहरिनिर्वाण मोक्ष प्रदान करनेवाले हैं; इसलिये ‘कृष्ण’ कहे गये हैं । ‘कृष्’ का अर्थ है निश्चेष्ट, ‘ण’ का अर्थ है भक्ति और ‘अकार’ का अर्थ है दाता । भगवान् निष्कर्म भक्ति के दाता हैं; इसलिये उनका नाम ‘कृष्ण’ है। ‘कृष्’ का अर्थ है कर्मों का निर्मूलन, ‘ण’ का अर्थ है दास्यभाव और ‘अकार’ प्राप्ति का बोधक है । वे कर्मों का समूल नाश करके भक्ति की प्राप्ति कराते हैं; इसलिये ‘कृष्ण’ कहे गये हैं । नाम्नां भगवतो नंद कोटीनां स्मरणेन यत् । तत्फलं लभते नूनं कृष्णेति स्मरणे नरः ॥ ६३ ॥ यद्विधं स्मरणात्पुण्यं वचनाच्छ्रवणात्तथा । कोटिजन्मांहसो नाशो भवेद्यत्स्मरणादिकात् ॥ ६४ ॥ विष्णोर्नाम्नां च सर्वेषां सारात्सारं परात्परम् । कृष्णेति सुंदरं नाम मंगलं भक्तिदायकम् ॥ ६५ ॥ नन्द ! भगवान् के अन्य करोड़ों नामों का स्मरण करने पर जिस फल की प्राप्ति होती है, वह सब केवल ‘कृष्ण’ नाम का स्मरण करने से मनुष्य अवश्य प्राप्त कर लेता है। ‘कृष्ण’ नाम के स्मरण का जैसा पुण्य है, उसके कीर्तन और श्रवण से भी वैसा ही पुण्य होता है । श्रीकृष्ण के कीर्तन, श्रवण और स्मरण आदि से मनुष्य के करोड़ों जन्मों के पाप का नाश हो जाता है। भगवान् विष्णु के सब नामों में ‘कृष्ण’ नाम ही सबकी अपेक्षा सारतम वस्तु और सुन्दर तथा भक्तिदायक है । परात्पर तत्त्व है । ‘कृष्ण’ नाम अत्यन्त मङ्गलमय, ‘ककार’ के उच्चारण से भक्त पुरुष जन्म-मृत्यु का नाश करने वाले कैवल्य मोक्ष को प्राप्त कर लेता है । ‘ऋकार’ के उच्चारण से भगवान् का अनुपम दास्यभाव प्राप्त होता है। ‘ षकार’ के उच्चारण से उनकी मनोवाञ्छित भक्ति सुलभ होती है । ‘णकार’ के उच्चारण से तत्काल ही उनके साथ निवास का सौभाग्य प्राप्त होता है और विसर्ग के उच्चारण से उनके सारूप्य की उपलब्धि होती है, इसमें संशय नहीं है। ‘ककार’ का उच्चारण होते ही यमदूत काँपने लगते हैं । ‘ऋकार’ का उच्चारण होने पर वे ठहर जाते हैं, आगे नहीं बढ़ते । ‘षकार’ के उच्चारण से पातक, ‘णकार’ के उच्चारण से रोग तथा ‘अकार’ के उच्चारण से मृत्यु— ये सब निश्चय ही भाग खड़े होते हैं; क्योंकि वे नामोच्चारण से डरते हैं। व्रजेश्वर ! श्रीकृष्ण-नाम के स्मरण, कीर्तन और श्रवण के लिये उद्योग करते ही श्रीकृष्ण के किंकर गोलोक से विमान लेकर दौड़ पड़ते हैं । विद्वान् लोग शायद भूतल के धूलिकणों की गणना कर सकें; परंतु नाम के प्रभाव की गणना करने में संतपुरुष भी समर्थ नहीं हैं । पूर्वकाल में भगवान् शंकर के मुख से मैंने इस ‘कृष्ण’ नाम की महिमा सुनी थी। मेरे गुरु भगवान् शंकर ही श्रीकृष्ण के गुणों और नामों का प्रभाव कुछ-कुछ जानते हैं । ब्रह्मा, अनन्त, धर्म, देवता, ऋषि, मनु, मानव, वेद और संतपुरुष श्रीकृष्ण-नाम-महिमा की सोलहवीं कला को भी नहीं जानते हैं। नन्द ! इस प्रकार मैंने तुम्हारे पुत्र की महिमा का अपनी बुद्धि और ज्ञान के अनुसार वर्णन किया है । इसे मैंने गुरुजी के मुख से सुना था । कृष्णः पीतांबरः कंसध्वंसी च विष्टरश्रवाः । देवकीनंदनः श्रीशो यशोदानंदनो हरिः ॥ ७५ ॥ सनातनोऽच्युतोऽनंतः सर्वेशः सर्वरूपधृक् । सर्वाधारः सर्वगतिः सर्वकारणकारणम् ॥ ७६ ॥ राधाबंधू राधिकात्मा राधिकाजीवनं स्वयम् । राधाप्राणो राधिकेशो राधिकारमणः स्वयम् ॥ ७७ ॥ राधिकासहचारी च राधामानसपूरणः । राधाधनो राधिकांगो राधिकासक्तमानसः ॥ ७८ ॥ राधिकाचित्तचोरश्च राधाप्राणाधिकः प्रभुः । परिपूर्णतमं ब्रह्म गोविंदो गरुडध्वजः ॥ ७९ ॥ नामान्येतानि कृष्णस्य श्रुतानि मन्मुखाद्धृदि । जन्ममृत्युहराण्येव रक्ष नंद शुभेक्षण ॥ ८० ॥ कृष्ण, पीताम्बर, कंसध्वंसी, विष्टरश्रवा, देवकीनन्दन, श्रीश, यशोदानन्दन, हरि, सनातन, अच्युत, विष्णु, सर्वेश, सर्वरूपधृक्, सर्वाधार, सर्वगति, सर्वकारणकारण, राधाबन्धु, राधिकात्मा, राधिकाजीवन, राधिकासहचारी, राधामानसपूरक, राधाधन, राधिकाङ्ग, राधिकासक्त- राधाप्राण, राधिकेश, राधिकारमण, राधिकाचित्तचोर, राधाप्राणाधिक, प्रभु, परिपूर्णतम, मानस, ब्रह्म, गोविन्द और गरुडध्वज — नन्द ! ये श्रीकृष्ण के नाम जो तुमने मेरे मुख से सुने हैं, हृदय में धारण करो । शुभेक्षण ! ये नाम जन्म तथा मृत्यु के कष्ट को हर लेने वाले हैं । तुम्हारे कनिष्ठ पुत्र के नामों का महत्त्व जैसा मैंने सुना था, वैसा यहाँ बताया है। अब ज्येष्ठ पुत्र हलधर के नाम का संकेत मेरे मुँह से सुनो। ये जब गर्भ में थे, उस समय उस गर्भ का संकर्षण किया गया था; इसलिये इनका नाम ‘संकर्षण’ हुआ । वेदों में यह कहा गया है कि इनका कभी अन्त नहीं होता; इसलिये ये ‘अनन्त’ कहे गये हैं । इनमें बल की अधिकता है; इसलिये इनको ‘बलदेव’ कहते हैं । हल धारण करने से इनका नाम ‘हली’ हुआ है। नील रंग का वस्त्र धारण करने से इन्हें ‘शितिवासा’ (नीलाम्बर) कहा गया है। ये मूसल को आयुध बनाकर रखते हैं; इसलिये ‘मुसली’ कहे गये हैं। रेवती के साथ इनका विवाह होगा; इसलिये ये साक्षात् ‘रेवतीरमण’ हैं। रोहिणी के गर्भ में वास करने से इन महाबुद्धिमान् संकर्षण को ‘रौहिणेय’ कहा गया है। इस प्रकार ज्येष्ठ पुत्र का नाम जैसा मैंने सुना था, वैसा बताया है। नन्द ! अब मैं अपने घर को जाऊँगा। तुम अपने भवन में सुखपूर्वक रहो । ब्राह्मण की यह बात सुनकर नन्दजी स्तब्ध रह गये । नन्द-पत्नी भी निश्चेष्ट हो गयीं और वह बालक स्वयं हँसने लगा । तब नन्द ने गर्गजी को प्रणाम करके दोनों हाथ जोड़ लिये और भक्तिभाव से मस्तक झुकाकर विनयपूर्वक कहा । नन्द बोले — ब्रह्मन् ! यदि आप चले गये तो कौन महात्मा इस कर्म को करायेंगे; अतः आप स्वयं ही शुभ दृष्टि करके इन बालकों का नामकरण एवं अन्नप्राशन संस्कार कराइये। राधा-बन्धु से लेकर राधाप्राणाधिक तक जो नाम-समूह बताये गये हैं, उनमें जो राधा नाम आया है, वह राधा कौन है और किसकी पुत्री है ? नन्द की यह बात सुनकर मुनिवर गर्ग हँसने लगे और बोले — ‘ यह परम निगूढ़ तत्त्व एवं रहस्य की बात है, जिसे तुम्हें बताऊँगा ।’ श्रीगर्गजी बोले – नन्द ! सुनो। मैं पुरातन इतिहास बता रहा हूँ। यह वृत्तान्त पहले गोलोक में घटित हुआ था। उसे मैंने भगवान् शंकर के मुख से सुना है। किसी समय गोलोक में श्रीदामा का राधा के साथ लीलाप्रेरित कलह हो गया। उस कलह के कारण श्रीदामा के शाप से लीलावश गोपी राधा को गोकुल में आना पड़ा है। इस समय वे वृषभानु गोप की बेटी हैं और कलावती उनकी माता हैं। राधा श्रीकृष्ण के अर्धाङ्ग से प्रकट हुई हैं और वे अपने स्वामी के अनुरूप ही परम सुन्दरी सती हैं। ये राधा गोलोकवासिनी हैं; परंतु इस समय श्रीकृष्ण की आज्ञा से यहाँ अयोनिसम्भवा होकर प्रकट हुई हैं। ये ही देवी मूल प्रकृति ईश्वरी हैं। इन सती-साध्वी राधा ने माया से माता के गर्भ को वायुपूर्ण करके वायु के निकलने के समय स्वयं शिशु-विग्रह धारण कर लिया। ये साक्षात् कृष्ण-माया हैं और श्रीकृष्ण के आदेश से पृथ्वी पर प्रकट हुई हैं। जैसे शुक्लपक्ष में चन्द्रमा की कला बढ़ती है, उसी प्रकार व्रज में राधा बढ़ रही हैं। श्रीकृष्ण के तेज के आधे भाग से वे मूर्तिमती हुई हैं। एक ही मूर्ति दो रूपों में विभक्त हो गयी है । इस भेद का निरूपण वेद में किया गया है। ये स्त्री हैं, वे पुरुष हैं, किंवा वे ही स्त्री हैं और ये पुरुष हैं। इसका स्पष्टीकरण नहीं हो पाता। दो रूप हैं और दोनों ही स्वरूप, गुण एवं तेज की दृष्टि से समान हैं। पराक्रम, बुद्धि, ज्ञान और सम्पत्ति की दृष्टि से भी उनमें न्यूनता अथवा अधिकता नहीं है। किंतु वे गोलोक से यहाँ पहले आयी हैं; इसलिये अवस्था में श्रीकृष्ण से कुछ अधिक हैं । श्रीकृष्ण सदा राधा का ध्यान करते हैं और राधा भी अपने प्रियतम का निरन्तर स्मरण करती हैं। राधा श्रीकृष्ण के प्राणों से निर्मित हुई हैं और ये श्रीकृष्ण राधा के प्राणों से मूर्तिमान् हुए हैं । श्रीराधा का अनुसरण करने के लिये ही इनका गोकुल में आगमन हुआ है । पूर्वकाल में गोलोक में श्रीहरि ने जो प्रतिज्ञा की थी, उसे सार्थक बनाने के लिये कंस के भय का बहाना लेकर इनका गोकुल में आगमन हुआ है। केवल प्रतिज्ञा का पालन करने के लिये ही ये व्रज में आये हैं । भय तो छलना-मात्र है । जो भय के भी स्वामी हैं, उन्हें किससे भय हो सकता है ? सामवेद में ‘राधा’ शब्द की व्युत्पत्ति बतायी गयी है । पहले नारायणदेव ने अपने नाभि-कमल पर बैठे हुए ब्रह्माजी को वह व्युत्पत्ति बतायी थी । फिर ब्रह्माजी ने ब्रह्मलोक में भगवान् शंकर को उसका उपदेश दिया। नन्द! तत्पश्चात् पूर्वकाल में कैलास-शिखर पर विराजमान महेश्वर ने मुझको वह व्युत्पत्ति बतायी, जो देवताओं के लिये भी दुर्लभ है । मैं उसका वर्णन करता हूँ । रेफो हि कोटिजन्माघं कर्मभोगं शुभाशुभम् ॥ १०६ ॥ आकारो गर्भवासं च मृत्युं च रोगमुत्सृजेत् । धकार आयुषो हानिमाकारो भवबंधनम् ॥ १०७ ॥ श्रवणस्मरणोक्तिभ्यः प्रणश्यति न संशयः । रेफो हि निश्चलां भक्तिं दास्यं कृष्णपदांबुजे ॥ १०८ ॥ सर्वेप्सितं सदानंदं सर्वसिद्धौघमीश्वरम् । धकारः सहवासं च तत्तुल्यकालमेव च ॥ १०९ ॥ ददाति सार्ष्टिसारूप्यं तत्त्वज्ञानं हरेः समम् । आकारस्तेजसां राशिं दानशक्तिं हरौ यथा ॥ ११० ॥ योगशक्तिं योगमतिं सर्वकालं हरिस्मृतिम् । श्रुत्युक्तिस्मरणाद्योगान्मोहजालं च किल्बिषम् । रोगशोकमृत्युयमा वेपंते नात्र संशयः ॥ १११ ॥ ‘राधा’ शब्द की व्युत्पत्ति देवताओं, असुरों और मुनीन्द्रों को भी अभीष्ट है तथा वह सबसे उत्कृष्ट एवं मोक्षदायिनी है। राधा का ‘रेफ’ करोड़ों जन्मों के पाप तथा शुभाशुभ कर्मभोग से छुटकारा दिलाता है।‘आकार’ गर्भवास, मृत्यु तथा रोग को दूर करता है । ‘धकार’ आयु की हानि का और ‘आकार’ भवबन्धन का निवारण करता है । राधा नाम के श्रवण, स्मरण और कीर्तन से उक्त सारे दोषों का नाश हो जाता है; इसमें संशय नहीं है। राधा नाम का ‘रेफ’ श्रीकृष्ण के चरणारविन्दों में निश्चल भक्ति तथा दास्य प्रदान करता है। ‘आकार’ सर्ववाञ्छित, सदानन्दस्वरूप, सम्पूर्ण सिद्धसमुदायरूप एवं ईश्वर की प्राप्ति कराता है ‘धकार’ श्रीहरि के साथ उन्हीं की भाँति अनन्त काल तक सहवास का सुख, समान ऐश्वर्य, सारूप्य तथा तत्त्वज्ञान प्रदान करता है। ‘आकार’ श्रीहरि की भाँति तेजोराशि, दानशक्ति, योगशक्ति, योगमति तथा सर्वदा श्रीहरि की स्मृति का अवसर देता है । श्रीराधा नाम के श्रवण, स्मरण और कीर्तन का सुयोग मिलने से मोहजाल, पाप, रोग, शोक, मृत्यु और यमराज सभी काँप उठते हैं; इसमें संशय नहीं है । श्रीराधा-माधव के नाम की यत्किञ्चित् व्याख्या जो गुरु-मुख से सुनी थी, वह मैंने यथाज्ञान यहाँ बतायी है। इन नामों की सम्पूर्णरूप से व्याख्या करने में मैं असमर्थ हूँ। नन्द ! यहाँ पास ही वृन्दावन में श्रीराधा और माधव का विवाह होगा । साक्षात् जगत्स्रष्टा ब्रह्मा पुरोहित हो अग्निदेव को साक्षी बनाकर प्रसन्नतापूर्वक यह वैवाहिक कार्य सम्पन्न करेंगे। श्रीकृष्ण के द्वारा जो बाललीलाएँ होने वाली हैं, उसमें से मुख्यतः ये हैं- कुबेरपुत्र का उद्धार, गोपियों के घरों से माखन चुराकर उसका भक्षण, तालवन में तालफल का भोजन और धेनुकासुर का वध, बकासुर, केशी और प्रलम्बासुर का खेल-खेल में ही विनाश, द्विजपत्नियों का उद्धार, उनके दिये हुए मिष्टान्न और पान का भोजन, इन्द्रयाग की परम्परा का भंजन, इन्द्र के कोप से गोकुल की रक्षा, गोपियों के वस्त्रों का अपहरण, उनके व्रत का सम्पादन, पुनः उन्हें वस्त्र अर्पण तथा मनोवाञ्छित वरदान देने का कार्य करके ये श्यामसुन्दर अपनी लीलाओं से उनके चित्त को चुरा लेंगे और उन्हें सर्वथा अपने अधीन कर लेंगे। तदनन्तर इनके द्वारा अत्यन्त रमणीय रासोत्सव का आयोजन होगा, जो सबका आनन्दवर्धन करेगा । शरद् और वसन्त ऋतु में रात के समय पूर्ण चन्द्रमा का उदय होने पर रासमण्डल में गोपियों को नूतन प्रेम-मिलन का सुख प्रदान करके ये श्यामसुन्दर उनका मनोरथ पूर्ण करेंगे। फिर कौतूहलवश उनके साथ जल-विहार भी करेंगे। तत्पश्चात् श्रीदामा के शाप के कारण इनका गोप-गोपियों तथा श्रीराधा के साथ (पार्थिव) सौ वर्षों के लिये वियोग हो जायगा । उस समय ये मथुरा चले जायँगे और वहाँ इनका जाना गोपियों के लिये शोकवर्द्धक होगा । उस समय पुनः ये उनके पास आकर उन्हें समझा-बुझाकर धैर्य बँधायेंगे और आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान करेंगे। उस प्रबोधन और आध्यात्मिक ज्ञान के द्वारा ये रथ तथा सारथि अक्रूर की रक्षा करेंगे। फिर रथ पर आरूढ़ हो पिता, भाई एवं व्रजवासियों के साथ यमुनाजी को लाँघकर व्रज से मथुरा को पधारेंगे। मार्ग में यमुनाजी के जल के भीतर अक्रूर को अपने स्वरूप का दर्शन कराकर उन्हें ज्ञान देंगे। फिर सायंकाल मथुरा में पहुँचकर कौतूहलवश नगर में घूम-घूमकर सबको दर्शन देंगे। माली, दर्जी और कुब्जा को भवबन्धन से मुक्त करेंगे। शंकरजी धनुष को तोड़कर यज्ञभूमि का दर्शन करेंगे। फिर कुवलयापीड़ हाथी और मल्लों का वध करने के पश्चात् अपने सामने राजा कंस को देखेंगे और तत्काल उसका विध्वंस करके माता-पिता को बन्धन से छुड़ायेंगे। तदनन्तर तुम सब गोपों को समझा-बुझाकर लौटायेंगे । कंस के राज्य पर उग्रसेन का अभिषेक करेंगे। कंस के बन्धु-बान्धवों को ज्ञानोपदेश देकर उनका शोक दूर करेंगे। इसके बाद अपने भाई का और अपना उपनयन-संस्कार कराकर गुरु के मुख से विद्या ग्रहण करेंगे। गुरुजी को उनका मरा हुआ पुत्र लाकर देंगे और फिर घर लौट आयेंगे। इसके बाद राजा जरासंध के सैनिकों को चकमा देकर दुरात्मा कालयवन का वध, द्वारकापुरी का निर्माण, मुचुकुन्द का उद्धार तथा यादवों सहित द्वारकापुरी को प्रस्थान करेंगे। वहाँ कौतूहलवश स्त्रीसमूहों के साथ विवाह करके उनके साथ क्रीडा-विहार करेंगे। उनका तथा उनके पुत्र-पौत्रादि का सौभाग्यवर्धन करेंगे। मणिसम्बन्धी मिथ्या कलङ्क का मार्जन, पाण्डवों की सहायता, भूभार- हरण, धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर के राजसूययज्ञ का लीलापूर्वक सम्पादन, पारिजात का अपहरण, इन्द्र के गर्व का गंजन, सत्यभामा के व्रत की पूर्ति, बाणासुर की भुजाओं का खण्डन, शिव के सैनिकों का मर्दन, महादेवजी को जृम्भणास्त्र से बाँधना, बाणपुत्री उषा का अपहरण, अनिरुद्ध को बाणासुर के बन्धन से छुटकारा दिलाना, वाराणसीपुरी का दहन, ब्राह्मण की दरिद्रता का दूरीकरण, एक ब्राह्मण के मरे हुए पुत्रों को लाकर उसे देना, दुष्टों का दमन आदि करना तथा तीर्थयात्रा के प्रसङ्ग से तुम व्रजवासियों के साथ पुनः मिलना इत्यादि कार्य करके ये श्रीकृष्ण श्रीराधा के साथ फिर व्रज में आयेंगे । तदनन्तर अपने नारायण-अंश को द्वारकापुरी में भेजकर ये जगदीश्वर गोलोकनाथ यहाँ राधा के साथ समस्त आवश्यक कार्य पूर्ण करेंगे तथा व्रजवासियों एवं राधा को साथ लेकर शीघ्र ही गोलोकधाम में पधारेंगे। नारायणदेव तुम्हें साथ लेकर वैकुण्ठ पधारेंगे। नर-नारायण नामक जो दोनों ऋषि हैं, वे धर्म के घर को चले जायँगे तथा श्वेतद्वीपनिवासी विष्णु क्षीरसागर को पधारेंगे। नन्द ! इस प्रकार भविष्य में होनेवाली लीलाओं का वर्णन मैंने किया है। यह वेद का निश्चित मत है। अब इस समय जिस उद्देश्य से मेरा आना हुआ है, उसे बताता हूँ; सुनो। माघ शुक्ल चतुर्दशी की शुभ बेला में इन बालकों का संस्कार करो। उस दिन गुरुवार है । रेवती नक्षत्र है । चन्द्र और तारा शुद्ध हैं। मीन के चन्द्रमा हैं। उस पर लग्नेश की पूर्ण दृष्टि है । उत्तम वणिज नामक करण है और मनोहर शुभ योग है। वह दिन परम दुर्लभ है। उसमें सभी उत्कृष्ट एवं उपयोगी योगों का उदय हुआ है । अतः पण्डितों के साथ विचार करके उसी दिन प्रसन्नतापूर्वक संस्कार- कर्म का सम्पादन करो। ऐसा कह मुनीश्वर गर्ग बाहर आकर बैठ गये । नन्द और यशोदा को बड़ा हर्ष हुआ और वे संस्कार-कर्म के लिये तैयारी करने लगे। इसी समय गर्गजी को देखने के लिये गोप-गोपियाँ और बालक-बालिकाएँ नन्दभवन में आयीं। उन्होंने देखा — मुनिश्रेष्ठ गर्ग मध्याह्नकाल के सूर्यकी भाँति प्रकाशित हो रहे हैं । शिष्यसमूहों से घिरकर ब्रह्मतेज से उद्भासित हो रहे हैं और प्रश्न पूछनेवाले किसी सिद्धपुरुषको वे प्रसन्नतापूर्वक गूढ़योग का रहस्य समझा रहे हैं । नन्दभवन की एक-एक सामग्री को मुस्कराते हुए देख रहे हैं और योगमुद्रा धारण किये स्वर्णसिंहासन पर बैठे हैं। ज्ञानमयी दृष्टि से भूत, वर्तमान और भविष्य को भी देख रहे हैं। वे मन्त्र के प्रभाव से अपने हृदय में परमात्मा के जिस सिद्ध स्वरूप को देखते हैं, उसी को मुस्कराते हुए शिशु के रूप में बाहर यशोदा की गोद में देख रहे हैं। महेश्वर के बताये हुए ध्यान के अनुसार जिस रूप का उन्हें साक्षात्कार हुआ था, उसी पूर्णकाम परमात्म-स्वरूप का अत्यन्त प्रीतिपूर्वक दर्शन करके नेत्रों से आँसू बहाते हुए वे पुलकित शरीर से भक्ति के सागर में निमग्न दिखायी देते थे। योगचर्या के अनुसार मन-ही-मन भगवान की पूजा और प्रणाम करते थे। गोप-गोपियों ने मस्तक झुकाकर उन्हें प्रणाम किया और गर्गजी ने भी उन सबको आशीर्वाद दिया । तदनन्तर मुनि अपने आसन पर विराजमान हुए और वे समागत स्त्री-पुरुष अपने-अपने घर को गये। नन्द ने आनन्दित होकर निकटवर्ती तथा दूरवर्ती बन्धुजनों के पास शीघ्र ही मङ्गलपत्रिका पठायी। इसके बाद उन्होंने दूध, दही, घी, गुड़, तेल, मधु, माखन, तक्र और चीनी के शर्बत से भरी हुई बहुत-सी नहरें लीलापूर्वक तैयार करायीं । इसके बाद उन्होंने अगहनी के चावलों के सौ ऊँचे-ऊँचे पर्वताकार ढेर लगवाये । चिउरों के सौ पर्वत, नमक के सात, शर्करा के भी सात, लड्डुओं के सात तथा पके फलों के सोलह पर्वत खड़े कराये। जौ, गेहूँ के आटे के पके हुए लड्डुक, पिण्ड, मोदक तथा स्वस्तिक (मिष्टान्न- विशेष ) – के अनेक पर्वत खड़े किये गये थे । कपर्दकों के बहुत ही ऊँचे-ऊँचे सात पर्वत खड़े दिखायी देते थे । कर्पूर आदि से युक्त ताम्बूल के बीड़ों से घर भरा हुआ था । सुवासित जल के चौड़े-चौड़े कुण्ड भरे गये थे, जिनमें चन्दन, अगुरु और केसर मिलाये गये थे । नन्दजी ने कौतूहलवश नाना प्रकार के रत्न, भाँति-भाँति के सुवर्ण, रमणीय मोती-मूँगे, अनेक प्रकार के मनोहर वस्त्र और आभूषण भी पुत्र के अन्न-प्राशन-संस्कार के लिये संचित किये थे । आँगन को झाड़-बुहारकर सुन्दर बनाया गया। उसमें चन्दनमिश्रित जल का छिड़काव किया गया। केले के खंभों, आम के नये पल्लवों की बन्दनवारों और महीन वस्त्रों से उस आँगन को कौतुकपूर्वक सब ओर से घेर दिया गया । यथास्थान मङ्गल कलश स्थापित किये गये। उन्हें फलों और पल्लवों से सजाया गया तथा चन्दन, अगुरु, कस्तूरी एवं फूलों के गजरों से सुशोभित किया गया। सुन्दर पुष्पहारों और मनोहर वस्त्रों की राशियों से नन्द-भवन के आँगन को सजाया गया था। उसमें गौओं, मधुपर्कों, आसनों, फलों और सजल कलशों के समूह यथास्थान रखे गये थे । वहाँ नाना प्रकार के अत्यन्त दुर्लभ और मनोहर वाद्य बज रहे थे । ढक्का, दुन्दुभि, पटह, मृदङ्ग, मुरज, आनकसमूह, वंशी, ढोल और झाँझ आदि के शब्द हो रहे थे। विद्याधरियों के नृत्य, भाव-भंगी तथा भ्रमण से नन्द-प्राङ्गण की अपूर्व शोभा हो रही थी। उसके साथ ही गन्धर्वराजों के मूर्छनायुक्त संगीत तथा स्वर्ण-सिंहासनों एवं रथों के सम्मिलित शब्द वहाँ गूँज रहे थे। इसी समय संदेशवाहक ने प्रसन्नतापूर्वक आकर नन्दरायजी से कहा – ‘प्रभो! आपके भाई- बन्धु गोपराज एवं गोपगण पधारे हैं । उनमें से कुछ लोग घोड़ों पर चढ़कर आये हैं, कुछ हाथियों पर सवार हैं और कितने ही रथों पर आरूढ़ हो शीघ्रतापूर्वक पधारे हैं। रत्नमय अलंकारों से विभूषित कितने ही राजपुत्रों का भी यहाँ शुभागमन हुआ है । पत्नी और सेवकोंसहित गिरिभानुजी पधारे हैं। उनके साथ चार-चार लाख रथ और हाथी हैं। घोड़े और शिविकाओं की संख्या एक-एक करोड़ है । ऋषीन्द्र, मुनीन्द्र, विद्वान्, ब्राह्मण, बन्दीजन और भिक्षुकों के समूह भी निकट आ गये हैं । गोप और गोपियों की गणना करने में कौन समर्थ हो सकता है ? आप स्वयं बाहर चलकर देखें ।’ आँगन में खड़े हुए दूतने जब ऐसी बात कही, तब उसे सुनकर व्रजराज नन्दजी स्वयं उन समागत अतिथियों के पास आये। उन सबको साथ ले आकर उन्होंने आँगन में बिठाया और तत्काल ही उनका पूजन किया। ऋषि आदि के समुदाय को उन्होंने धरती पर माथा टेककर प्रणाम किया और एकाग्रचित्त हो उन सबके लिये पाद्य आदि समर्पित किये। उस समय नन्दगोकुल विभिन्न प्रकार की वस्तुओं तथा गोप-बन्धुओं से परिपूर्ण हो रहा था। वहाँ कोई किसी के शब्द को नहीं सुन सकता था। साक्षात् कुबेर ने श्रीकृष्ण की प्रसन्नता के लिये वहाँ तीन मुहूर्त तक सुवर्ण की वर्षा करके गोकुल को सोने से भर दिया । नन्द की यह सम्पत्ति देखकर उनके सभी भाई-बन्धु लज्जा से नतमस्तक हो गये । उन्होंने अपने कौतूहल को छिपा लिया । नन्दजी ने नित्यकर्म करके पवित्र हो दो धुले वस्त्र धारण किये। चन्दन, अगुरु, कस्तूरी और केसर से अपने ललाट आदि अङ्गों में तिलक किया। इसके बाद गर्गजी तथा मुनीश्वरों की आज्ञा ले व्रजेश्वर नन्द दोनों पैर धोकर सोने के मनोहर पीढ़े पर बैठे । उन्होंने श्रीविष्णु का स्मरण करके आचमन किया । फिर ब्राह्मणों से स्वस्तिवाचन कराकर वेदोक्त कर्म का सम्पादन करने के अनन्तर बालक को भोजन कराया। आनन्दमग्न हुए नन्दजी ने मुनिवर गर्ग के कथनानुसार शुभ बेला में बालक का मङ्गलमय नाम रखा – ‘कृष्ण’ । इस प्रकार जगदीश्वर को सघृत भोजन कराकर उनका नामकरण करने के अनन्तर नन्दराय ने बाजे बजवाये और मङ्गल-कृत्य करवाये। उन्होंने ब्राह्मणों को प्रसन्नतापूर्वक नाना प्रकार के सुवर्ण, भाँति-भाँति के धन, भक्ष्य पदार्थ और वस्त्र दिये। बन्दीजनों और भिक्षुकों को इतनी अधिक मात्रा में उन्होंने सुवर्ण बाँटा कि सुवर्ण के भारी भार से आक्रान्त होने के कारण वे सब-के-सब चल नहीं पाते थे । ब्राह्मणों, बन्धुजनों और विशेषतः भिक्षुकों को भी उन्होंने पूर्णतया मनोहर मिष्ठान्न का भोजन कराया। उस समय नन्दगोकुल में बड़े जोर-जोर से निरन्तर यही शब्द सुनायी देता था कि ‘दो और दो।’ ‘खाओ- खाओ’। परिपूर्ण रत्न, वस्त्र, आभूषण, मूँगे, सुवर्ण, मणिसार तथा विश्वकर्मा के बनाये हुए मनोहर सुवर्णपात्र वहाँ ब्राह्मणों को बाँटे गये । व्रजराज नन्द ने गर्गजी के पास जाकर विनयपूर्वक अपनी इच्छा प्रकट की और नम्रतापूर्वक उनके शिष्यों को तथा शेष द्विजों को सुवर्ण के अनेक भार पूर्ण मात्रा में प्रदान किये। श्रीनारायण कहते हैं — नारद! श्रीहरि को गोद में लेकर गर्गजी एकान्त स्थान में गये और बड़ी भक्ति एवं प्रसन्नता से उन परमेश्वर को प्रणाम करके उनका स्तवन करने लगे। उस समय उनके नेत्रों से आँसू बह रहे थे । शरीर में रोमाञ्च हो आया था। मस्तक भक्तिभाव से झुक गया था और श्रीकृष्ण-चरणारविन्दों में दोनों हाथ जोड़कर वे इस प्रकार बोल रहे थे । ॥ गर्गाचार्यकृत श्रीकृष्ण स्तोत्र ॥ ॥ गर्ग उवाच ॥ हे कृष्ण जगतां नाथ भक्तानां भयभञ्जन । प्रसन्नो भव मामीश देहि दास्यं पदाम्बुजे ॥ १९४ ॥ त्वत्पित्रा मे धनं दत्तं तेन मे किं प्रयोजनम् । देहि मे निश्चलां भक्तिं भक्तानामभयप्रद ॥ १९५ ॥ अणिमादिकसिद्धिषु योगेषु मुक्तिषु प्रभो । ज्ञानतत्त्वेऽमरत्वे वा किञ्चिन्नास्ति स्पृहा मम ॥ १९६ ॥ इन्द्रत्वे वा मनुत्वे वा स्वर्गलोकफले चिरम् । नास्ति मे मनसो वाञ्छा त्वत्पादसेवनं विना ॥ १९७ ॥ सालोक्यं सार्ष्टिसारूप्ये सामीप्यैकत्वमीप्सितम् । नाहं गृह्णामि ते ब्रह्मंस्त्वत्पादसेवनं विना ॥ १९८ ॥ गोलोके वापि पाताले वासे नास्ति मनोरथः । किन्तु ते चरणाम्भोजे सन्ततं स्मृतिरस्तु मे ॥ १९९ ॥ त्वन्मन्त्रं शङ्करात्प्राप्य कतिजन्मफलोदयात् । सर्वज्ञोऽहं सर्वदर्शी सर्वत्र गतिरस्तु मे ॥ २०० ॥ कृपां कुरु कृपासिन्धो दीनबन्धो पदाम्बुजे । रक्ष मामभयं दत्त्वा मृत्युर्मे किं करिष्यति ॥ २०१ ॥ सर्वेषामीश्वरः सर्वस्त्वत्पादाम्भोजसेवया । मृत्युञ्जयोऽन्तकालश्च बभूव योगिनां गुरुः ॥ २०२ ॥ ब्रह्मा विधाता जगतां त्वत्पादाम्भोजसेवया । यस्यैकदिवसे ब्रह्मन्पतन्तीन्द्राश्चतुर्दश ॥ २०३ ॥ त्वत्पादसेवया धर्मः साक्षी च सर्वकर्मणाम् । पाता च फलदाता च जित्वा कालं सुदुर्जयम् ॥ २०४ ॥ सहस्रवदनः शेषो यत्पादाम्बुजसेवया । धत्ते सिद्धार्थवद्विश्वं शिवः कण्ठे विषं यथा ॥ २०५ ॥ सर्वसंपद्विधात्री या देवीनां च परात्परा । करोति सततं लक्ष्मीः केशैस्त्वत्पादमार्जनम् ॥ २०६ ॥ प्रकृतिर्बीजरूपा सा सर्वेषां शक्तिरूपिणी । स्मारंस्मारं त्वत्पदाब्जं बभूव तत्परावरा ॥ २०७ ॥ पार्वती सर्वरूपा सा सर्वेषां बुद्धिरूपिणी । त्वत्पादसेवया कान्तं ललाभ शिवमीश्वरम् ॥ २०८ ॥ विद्याधिष्ठात्री देवी या ज्ञानमाता सरस्वती । पूज्या बभूव सर्वेषां संपूज्य त्वत्पदाम्बुजम् ॥ २०९ ॥ सावित्री वेदजननी पुनाति भुवनत्रयम् । ब्रह्मणो ब्राह्मणानां च गतिस्त्वत्पादसेवया ॥ २१० ॥ क्षमा जगद्विभर्तुं च रत्नगर्भा वसुन्धरा । प्रसूतिः सर्वसस्यानां त्वत्पादपद्मसेवया ॥ २११ ॥ राधा ममांशसंभूता तव तुल्या च तेजसा । स्थित्वा वक्षसि ते पादं सेवतेऽन्यस्य का कथा ॥ २१२ ॥ यथा शर्वादयो देवा देव्यः पद्मादयो यथा । सनाथं कुरु मामीश ईश्वरस्य समा कृपा ॥ २१३ ॥ न यास्यामि गृहं नाथ न गृह्णामि धनं तव । कृत्वा मां रक्ष पादाब्जसेवायां सेवकं रतम् ॥ २१४ ॥ गर्गजी ने कहा — हे श्रीकृष्ण ! हे जगन्नाथ ! हे भक्तभयभञ्जन! आप मुझपर प्रसन्न होइये । परमेश्वर ! मुझे अपने चरणकमलों की दास्य-भक्ति दीजिये | भक्तों को अभय देने वाले गोविन्द ! आपके पिताजी ने मुझे बहुत धन दिया है; किंतु उस धन से मेरा क्या प्रयोजन है ? आप मुझे अपनी अविचल भक्ति प्रदान कीजिये । प्रभो ! अणिमादि सिद्धियों में, योगसाधनों में, अनेक प्रकार की मुक्तियों में, ज्ञानतत्त्व में अथवा अमरत्व में मेरी तनिक भी रुचि नहीं है। इन्द्रपद, मनुपद तथा चिरकाल तक स्वर्गलोकरूपी फल के लिये भी मेरे मन में कोई इच्छा नहीं है। मैं आपके चरणों की सेवा छोड़कर कुछ नहीं चाहता। सालोक्य, सार्ष्टि, सारूप्य, सामीप्य और एकत्व – ये पाँच प्रकार की मुक्तियाँ सभी को अभीष्ट हैं। परंतु परमात्मन्! मैं आपके चरणों की सेवा छोड़कर इनमें से किसी को भी ग्रहण करना नहीं चाहता। मैं गोलोक में अथवा पाताल में निवास करूँ, ऐसा भी मेरा मनोरथ नहीं है; परंतु मुझे आपके चरणारविन्दों का निरन्तर चिन्तन होता रहे, यही मेरी अभिलाषा है। कितने ही जन्मों के पुण्य के फल का उदय हुआ, जिससे भगवान् शंकर के मुख से मुझे आपके मन्त्र का उपदेश प्राप्त हुआ। उस मन्त्र को पाकर मैं सर्वज्ञ और समदर्शी हो गया हूँ । सर्वत्र मेरी अबाध गति है । कृपासिन्धो ! दीनबन्धो ! मुझ पर कृपा कीजिये । मुझे अभय देकर अपने चरणकमलों में रख लीजिये। फिर मृत्यु मेरा क्या करेगी ? आपके चरणारविन्दों की सेवा से ही भगवान् शंकर सबके ईश्वर, मृत्युञ्जय, जगत् का अन्त करने वाले तथा योगियों के गुरु हुए हैं। ब्रह्मन् ! जिनके एक दिन में चौदह इन्द्रों का पतन होता है, वे जगत्-विधाता ब्रह्मा आपके चरणकमलों की सेवासे ही उस पद पर प्रतिष्ठित हुए हैं। आपके चरणों की सेवा करके ही धर्मदेव समस्त कर्मों के साक्षी हुए हैं; सुदुर्जय काल को जीतकर सबके पालक और फलदाता हुए हैं। आपके चरणारविन्दों की प्रभाव से ही सहस्र मुखों वाले शेषनाग सम्पूर्ण विश्व को सरसों के एक दाने की भाँति सिर पर धारण करते हैं। ठीक उसी तरह, जैसे भगवान् शिव कण्ठ में विष धारण करते हैं। जो सम्पूर्ण सम्पदाओं की सृष्टि करने वाली तथा देवियों में परात्परा हैं, वे लक्ष्मीदेवी अपने केश-कलापों से आपके चरणों का मार्जन करती हैं। जो सबकी बीजरूपा हैं, वे शक्तिरूपिणी प्रकृति आपके चरणकमलों का चिन्तन करते-करते उन्हीं में तत्पर हो जाती हैं। सबकी बुद्धिरूपिणी एवं सर्वरूपा पार्वती ने आपके चरणों की सेवासे ही महेश्वर शिव को प्राणवल्लभ के रूप में प्राप्त किया है। विद्याकी अधिष्ठात्री देवी जो ज्ञानमाता सरस्वती हैं, वे आपके चरणारविन्दों की आराधना करके ही सबकी पूजनीया हुई हैं। जो ब्रह्माजी तथा ब्राह्मणों की गति हैं, वे वेदजननी सावित्री आपकी चरणसेवा से ही तीनों लोकों को पवित्र करती हैं। पृथ्वी आपके चरणकमलों की सेवा के प्रभाव से ही जगत् को धारण करने में समर्थ, रत्नगर्भा तथा सम्पूर्ण शस्यों को उत्पन्न करने वाली हुई है। आपकी अंशभूता तथा आपके ही तुल्य तेजस्विनी राधा आपके वक्षःस्थल में स्थान पाकर भी आपके चरणों की सेवा करती हैं; फिर दूसरे की क्या बात है ? ईश ! जैसे शिव आदि देवता और लक्ष्मी आदि देवियाँ आपसे सनाथ हैं, उसी तरह मुझे भी सनाथ कीजिये; क्योंकि ईश्वर की सब पर समान कृपा होती है। नाथ! मैं घर को नहीं जाऊँगा । आपका दिया हुआ यह धन भी नहीं लूँगा । मुझ अनुरागी सेवक को अपने चरणकमलों की सेवामें रख लीजिये । इस प्रकार स्तुति करके गर्गजी नेत्रों से आँसू बहाते हुए श्रीहरि के चरणों में गिर पड़े और जोर-जोर से रोने लगे। उस समय भक्ति के उद्रेक से उनके शरीर में रोमाञ्च हो आया था। गर्गजी की बात सुनकर भक्तवत्सल श्रीकृष्ण हँस पड़े और बोले — ‘मुझमें तुम्हारी अविचल भक्ति हो ।’ इदं गर्गकृतं स्तोत्रं त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नरः । दृढां भक्तिं हरेर्दास्यं स्मृतिं च लभते ध्रुवम् ॥ २१७ ॥ जन्ममृत्युजरारोगशोकमोहादिसंकटात् । तीर्णो भवति श्रीकृष्णदाससेवनतत्परः ॥ २१८ ॥ कृष्णस्य सहकालं च कृष्णसार्द्धं च मोदते । कदाचिन्न भवेत्तस्य विच्छेदो हरिणा सह ॥ २१९ ॥ जो मनुष्य गर्गजी द्वारा किये गये इस स्तोत्र का तीनों संध्याओं के समय पाठ करता है, वह श्रीहरि की सृदृढ़ भक्ति, दास्यभाव और उनकी स्मृति का सौभाग्य अवश्य प्राप्त कर लेता है। इतना ही नहीं, वह श्रीकृष्णभक्तों की सेवामें तत्पर हो जन्म, मृत्यु, जरा, रोग, शोक और मोह आदि के संकट से पार हो जाता है । श्रीकृष्ण के साथ रहकर सदा आनन्द भोगता है और श्रीहरि से कभी उसका वियोग नहीं होता । भगवान् नारायण कहते हैं — नारद! श्रीहरि की इस प्रकार स्तुति करके गर्गमुनि ने उन्हें नन्दजी को दे दिया और प्रशंसापूर्वक कहा – ‘गोपराज ! अब मैं घर जाता हूँ, आज्ञा दो । अहो ! कैसी विचित्र बात है कि संसार मोहजाल से जकड़ा हुआ है । जैसे समुद्र में फेन उठता और मिटता रहता है, उसी प्रकार इस भवसागर में मनुष्यों को संयोग और वियोग का अनुभव होता रहता है । ‘ गर्ग की यह बात सुनकर नन्दजी उदास हो गये; क्योंकि साधु पुरुषों के लिये सत्पुरुषों का वियोग मरण से भी अधिक कष्टदायक होता है । सम्पूर्ण शिष्यों से घिरे हुए मुनिवर गर्ग जब जाने को उद्यत हुए, तब रोते हुए नन्द आदि सब गोप-गोपियों ने अत्यन्त प्रीतिपूर्वक विनीतभाव से उन्हें प्रणाम किया। उन सबको आशीर्वाद देकर मुनिश्रेष्ठ गर्ग सानन्द मथुरा को पधारे। ऋषि-मुनि तथा प्रिय बन्धुवर्ग सभी धन से सम्पन्न हो प्रसन्न-मन से अपने-अपने घरों को गये। समस्त बन्दीजन भी पूर्णमनोरथ होकर अपने घर को लौट गये । उन सबको मीठे पदार्थ, वस्त्र, उत्तम श्रेणी के अश्व तथा सोने के आभूषण प्राप्त हुए थे। आकण्ठ भोजन करके तृप्त हुए भिक्षुकगण बड़ी प्रसन्नता साथ अपने घर को लौटे। वे सुवर्ण और वस्त्रों के भारी भार से थककर चलने में असमर्थ हो गये थे । कोई धीरे-धीरे चलते कोई विश्राम के लिये धरती पर सो जाते और कुछ लोग मार्ग में उठते-बैठ जाते थे। कोई वहाँ सानन्द हँसते हुए टिक जाते थे। कपर्दकों तथा अन्य वस्तुओं के जो बहुत-से शेष भाग बच गये थे, उन्हें कुछ लोग ले लेते थे। कुछ लोग खड़े हो दूसरों को वे वस्तुएँ दिखाते थे । कुछ लोग नृत्य करते थे और कितने ही लोग वहाँ गीत गाते थे। कोई नाना प्रकार की प्राचीन गाथाएँ कहते थे। राजा मरुत्त, श्वेत, सगर, मान्धाता, उत्तानपाद, नहुष और नल आदि की जो कथाएँ हैं, उन्हें सुनाते थे । श्रीराम के अश्वमेधयज्ञ की तथा राजा रन्तिदेव के दान-कर्म की भी गाथाएँ गाते थे। कोई ठहर-ठहरकर और कोई सो-सोकर यात्रा करते थे। इस प्रकार सब लोग प्रसन्नतापूर्वक अपने-अपने घरों को गये । हर्ष से भरे हुए नन्द और यशोदा दोनों दम्पति बालकृष्ण को गोद में लेकर कुबेरभवन के समान रमणीय अपने भव्य भवन में रहने लगे। इस प्रकार वे दोनों बालक शुक्लपक्ष के चन्द्रमा की कला की भाँति बढ़ने लगे । अब वे गौओं की पूँछ और दीवाल पकड़कर खड़े होने लगे। प्रतिदिन आधा शब्द या चौथाई शब्द बोल पाते थे। मुने! आँगन में चलते हुए वे दोनों भाई माता-पिता का हर्ष बढ़ाने लगे। अब बालक श्रीहरि दो-एक पग चलने में समर्थ हो गये । घर में और आँगन में वे घुटनों के बल से चलने-फिरने लगे। संकर्षण की अवस्था बालक श्रीकृष्ण से एक साल अधिक थी। वे दोनों भाई माता-पिता का आनन्द-वर्धन करते हुए दिन-दिन बड़े होने लगे । माया से शिशुरूपधारी वे दोनों बालक गोकुल में विचरते हुए अच्छी तरह चलने में समर्थ हो गये । अब वे स्फुट वाक्य बोल लेते थे । मुने! गर्गजी मथुरा वसुदेवजी के घर गये। उन्होंने पुरोहितजी को प्रणाम किया और अपने दोनों पुत्रों का कुशल- समाचार पूछा। गर्गजी ने उनका कुशल- मङ्गल सुनाया और नामकरण- संस्कार के महान् उत्सव की चर्चा की। वह सब सुनने मात्र से वसुदेवजी आनन्द के आँसुओं में निमग्न हो गये। देवकीजी बड़े प्रेम से बारंबार बच्चों का समाचार पूछने लगीं। वे आनन्द के आँसू बहाती हुई बार-बार रोने लगती थीं । गर्गजी उन दोनों दम्पति को आशीर्वाद दे सानन्द अपने घर को गये तथा वे दोनों पति-पत्नी अपने कुबेरभवनोपम गृह में निवास करने लगे। नारद! जिस कल्प में यह कथा घटित हुई थी, उस समय तुम पचास कामिनियों के पति गन्धर्वराज उपबर्हण के नाम से प्रसिद्ध थे। वे सब सुन्दरियाँ तुम्हें प्राणों से बढ़कर प्रिय मानती थीं और तुम शृङ्गार में निपुण नवयुवक थे। तदनन्तर ब्रह्माजी के शाप से एक द्विज की दासी के पुत्र हुए। उसके बाद वैष्णवों की जूठन खाने से अब तुम ब्रह्माजी के पुत्र हुए हो । श्रीहरि की सेवासे सर्वदर्शी और सर्वज्ञ हो गये हो तथा पूर्वजन्म की बातों को स्मरण करने में समर्थ हो । श्रीकृष्ण का यह चरित्र – उनके नामकरण और अन्नप्राशन आदि का वृत्तान्त कहा गया । यह जन्म, मृत्यु और जरा का नाश करने वाला है। अब उनकी अन्य लीलाएँ बता रहा हूँ, सुनो। (अध्याय १३) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे नारायणनारदसंवादे कृष्णान्नप्राशन वर्णननामकरणप्रस्तावो नाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. 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